SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 243
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २३८ अर्थ-(वणंमि ) के० वनस्पतिकायने विषे ( ताउ ) के० ते पूर्व कहेली उत्सर्पिणी तथा अवसर्पिणी ( अणंता) के० अनंता कायस्थिति काले करी जाणवी. अने क्षेत्रथको अनंता लोकांकाश प्रदेश प्रमाण असंख्याता पुद्गल परावर्त होय.. ___ आ कायस्थिति व्यवहाररासी जीवने संभवे छे. कारण व्यवहाररासी जीव मरण पामी निगोदमां जाय तो अनंती उत्सार्पणी अवसर्पिणी काल रही पछी व्यवहार रासीमां आवे छे माटे. वलो ( विगलेलु ) के विकलेंद्रियने ( संखिज्जा वाससहस्स) के संख्याता वर्ष सहस्रनो कायस्थिति जाणवी. तथा (पचिंदितिरिनरेसु ) के० पंचेंद्रियतियेच अने मनुष्यने विषे (उक्कोसा) के० उत्कृष्टथी ( सत्तभवा ) के० सात अथवा आठ भव सुधी होय छे. एटले संख्याते आयुष्ये सात भव करे अने आठमे भवे युगलिक थाय तो आठ भवे त्रण पल्योपम तथा ,सात पूर्व कोटी उत्कृष्टी जाणवी. ॥ ४२५ ॥ ___ हवे अर्कीगाथा वडे जयन्यथी भवस्थिति अने कायस्थिति कहेछे. सव्वेसिपि जहन्ना, अंतमुहुत्तं भवेय काएय ॥ .. अर्थ-( सव्वेसि ) के० पूर्वे कहेला पृथ्वीकायादि सर्वे जी. वोनी ( जहन्ना) के० जघन्यथी ( भोय काएय ) के० भवस्थिति अने कायस्थिति ( अंतमुहुत्तं ) के० एक अंतमुहर्त प्रमाण होय. ।। - हवे तिर्यचनुं अवगाहना द्वार कहे छे... (जोयणसहस्समहियं, एगिदियदेहमुक्कोसं)॥ ४२६ ।।३०१ बितिचउरिंदिसरीरं, बारस जोयण तिकोस चउकोसं ॥3 जोयणसहस्स पणिदिय,ओहे वुच्छं विसेसं तु।।४२७।।
SR No.023435
Book TitleBruhat Sangrahani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrasuri
PublisherUmedchand Raichand Master
Publication Year1924
Total Pages272
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy