________________
दुविहो खलु अभिओगो, दवे भावे य होइ नायबो॥ दव्वंमि होइ जोगा, विज्जा मंतो य भामि ॥२३८॥ _____ अर्थ-[ अभिओगो] के० अभियोग (दुविहो) के० वे प्रकारनो छे. ( खल्लु) के निश्चे, ते ( दव्वे भावे ) के० द्रव्य अभियोग अने भाव अभियोग ( नायबो) के० जाणवा योग्य [ होइ ] के० होय छे. तेमां (दव्बंमि ) के० द्रव्य अभियोगने विषे (जोगा होइ) के० मनादि निमित्त जोग होय छे (य) के० अने (भावंमि) के० भाव अभियोगने विषे ( विज्जा मंता ) के० आगमादि विद्या अने मंत्रो होय छे. ॥ २३८ ॥
इवे संघयणना विशेषपणाथी देवतानी गति विशेष होय छे, माटे संघयणर्नु स्वरूप कहे छे.
वज्जरिसहनारायं, पढमं बीयं च रिसहनारायं ॥ नारायमद्धनाराय-कीलिया तहय छेवढे ॥ २३९ ॥१७ एए छ संघषणा, रिसहो पट्टो य कीलिया वज्जं ॥ उभआ मक्कडबंधो, नाराओ होइ विनेओ ॥२४०॥
अर्थ-जे शरीरनां हाडकानो अति मजबुत बंध ते संघयण . कहेवाय. तेना छ भेद छे, (पढमं ) के० पहेलो (वज्जरिसहनारायं) के० वऋषभ नाराच १, (बीयं ) के बीजो (रिसहनारायं) के० ऋषभ नाराच २, त्रीजो (नारायं ) के० नाराच ३, चोथो ( अद्धनाराय) के० अर्द्ध नाराचः ४, पांचमो (कीलिया) के० कीलिका ५, ( तहय ) के० तेमन छठा (छेवढ़) के० सेवात ॥६॥ २३९ ॥ (एए) के० ए पूर्व कहेला (छ संघयणा) के.