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________________ १९८ हवे एक एक पृथ्वीने विषे आवलिकागत नरकावासा जाणवामाटे पाछली गाथाना पाछला त्रण पदेकरी करणांतर कहे छे, (पढमो) के० पहेला सीमंतक प्रतरना त्रणसो नेव्यासो आवलिकागत नरकावासाने (मुह) के० मुख कहीये अने (अंतिमी) के० छेल्ला ओगणपचासमा अपइठाण प्रतरना पांच नरकावासा ते (भूमि हवइ ) के भूमी कहेवाय. पछी ( मुहभूमि ) के मुखना त्रण सो अने नेव्यासी तथा भूमिना पांच तेने (समास ) के० एकठाकरीये त्यारे त्रण सो अने चोरोj थाय. तेनुं ( अद्धं ) के० अर्द्ध करतां एक सो अने सत्ताणुं थाय. तेने (पयरगुणं) के० ओगणपचास प्रतरे गुणतां (सबधणं होइ) के० सर्वे ओगणपचासे प्रतरना आवलिकामा रहेला नरकावासानी संख्या नव हजार छ सो अने त्रेपन थाय, एटला साते पृथ्वीना आवलिकागत नरकावासा जाणवा. बाकी व्यासी लाख नेQ हजार त्रण सो ने सडतालीश पुष्पावकीर्ण जाणवो. ॥ ३४९॥
SR No.023435
Book TitleBruhat Sangrahani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrasuri
PublisherUmedchand Raichand Master
Publication Year1924
Total Pages272
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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