SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 65
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अर्थः-( लवण ) के० लवण समुद्रमा (पायाला ) के० पाताल कलशाना नाना अने मोटा एवा ( विभागे ) के० बे भाग छे. ते ( सव्वाणावि ) के० सर्व कलशाना एक एकना ( तिनि भाग ) के त्रग भाग ( विन्नेया) के० जाणवा. तेमा (हेठीभागे ) के० नीचेना भागमां ( वाऊ ) के० वायु छे. (मज्ञ ) के० मध्यना भागमां ( वाऊं ) के० वायु (य) के० अने ( उदगं) के० पाणी भेगुं छे. तथा उपरना भागमां पाणीज छे. ॥९॥ हवे बीजा दीप समुद्रोनां केां केवां नाम छे ? ते कहें छे:आभरण वत्थ गंधे, उप्पल तिलए य पउम निहि रयगे वासहर दह नईओ, विजय। वक्खार कपिंदा ॥ ९१ ॥ कुरु मंदर आाप्ता, कुडा नक्खत चन्द सुरा य अन्नेवि एपनाई, पसत्थवत्थूग जे नामा ॥९२ ।। ___ अर्थः- (आभरण ) के० हार विगेरे आभूषग, (वथ ) के० वस्त्र, (गंध ) के कस्तुरो कोरे सुगंधिप्रस्तु, ( उप्पल ) के० चन्द्रविकाशी कमल, (तिलए य) के० वृत्त तिला अथवा तिलकवृक्ष, (पउम ) के० शापत्र पुंडरिकादिक सूविकाशी कमल, (निहि ) के० महासमाहि नर निधि, ( रयगे ) के० कानादि रत्न. ( वासहर ) के हिमवंतादिक वर्षधर पर्वत, (दह ) के पनादिक द्रह, ( नइओ ) के० गंगा विगेरे नदोओ, (विजया ) के० कच्छादिक विजय, ( वक्वार ) के० मालयवंत विगेरे वक्षस्कार पर्वत, (कप ) के सौधर्मादिक देश्लोक, (इंदा) के० शद विगेरे इंद्रो ॥ ९१ ॥ (कुरु ) के० देवकुरु उत्तरकुरु ( मंदर ) के० मेरु पर्वत, ( आवाप्ता ) के० इन्द्रादिकना निवासभुवन, (कूडा) के० कूटपर्वत, ( नक्खत्त ) के कृतिकादि नक्षत्र, (चन्द ) के०
SR No.023435
Book TitleBruhat Sangrahani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrasuri
PublisherUmedchand Raichand Master
Publication Year1924
Total Pages272
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy