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अने स्वयंभूरमग समुद्र ए पांच दीपसमुद्रो ( इक्किका ) के० एक एक छे. ते त्रिप्रत्ययावतार नयी ॥९४ ॥
हवे सर्वे समुद्रोनां पाणी विगेरेनुं विशेष स्वरूप कहेछे. वारुणिवर खीर वरो, घयवर लवणो य हुंति भिन्नरसा॥ कालो य पुक्खरोदहि, सयंभूरमगो य उदगरसाः।।९५॥ इकखुरस सेसजलही, लवणे कालोय चरिम बहुमच्छा। पण सग दस जोयण सय,तणु कमा थोव सेसेसु।।९।। - अर्थः-(वारुणिवर) के० वारुणिवर समुद्रनु पाणी मदिरासरखं, (खीरवरो) के० क्षीर समुद्रनुं पाणी दुध सरखं, (घयवर) के० घृतवर समुद्रनुं पाणी गायना घी सरखं, (य) के० अने (लवणो) के० लवण समुद्रनुं पाणी खालं. एम ए चारे समुद्रो (भिन्नरसा) के० जूदा जूदा रसवाला ( हुंति ) के. छे. अर्थात् नाम सरखा पाणीना स्वादवाला छे. तेमज (कालो) य के० कालोदधि, (पुक्खर) के० (पुष्करवर य) के० अने (संयंभूरमणो) के० स्वयंभूरमण. ए त्रण (उदहि ) के० समुद्रो (उदगरसा) के० वर्षादना पाणी जेवा स्वादवाला छे. ॥ ९५ ॥ (सेस जलहि) के० बाकीना नंदीश्वर समुद्रथी आरंभी भूतसमुह पर्यंतना सर्व समुद्रना पाणी(इखुरस) के० शेरडीना रस समान मोष्ट पाणीवाला छे. वली ( लवण) के० लवगसमुद्र, (कालो) के० कालोदधि समुद्र, (य) के० अने (चरिम) के० स्वयंभूरमण समुह ए त्रण समुद्रमा (बहुमच्छा) के० घणा माछलांनी जाती छे. अने ते माछलां (पण सग दश योजणसयतणु के० पांच सो, सात सो अने हजार योजनना शरीरवाला (कमा) के० अनुक्रमे करीने जाणवा. अर्थात् लवण समुद्रमा उत्कृष्टा पांचसो योजना, कालोदधिमां सात सो योज