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________________ ૭૨ ससिरविणो लवणंत्रिय, जोय गतिनि तीस अहियाई || असियं, तु जोयणसयं, जंबुद्दीमि पविसंति ||११४|| अर्थ - ( लवणंमि) के० लवणसमुद्रमाँ (ससिरविणो ) के० चंद्र अने सूर्यनुं चारक्षेत्र एटले फरवानुं क्षेत्र ( जोयणसयतिन्नि) के० त्रण सो योजन अने (तोस अहियाई ) के ० त्रीश अधिक अर्थात् त्रण सो त्रीश योजन अने एकसठीया asarata भाग अधिक छे. अने त्यांथी पाछो फरतां (असियं तु जोयणसयं ) के० एक सो एंशी योजन जंबुद्दी मि ) के० जंबुद्वीपमा ( पविसंति) के० प्रवेश करे छे ।। ११४ ॥ ग्रह, नक्षत्र अने ताराओने एक एकज मांडलं होय छे, तेथी ओ पोत पोताने मांडलेज फरे छे, पण दक्षिण उत्तर तरफ जता नथी. चंद्रने तथा वे सूर्यने सर्वथी अंदरना मांडले अने बहारना मांडले अंतर केटलं होय ? ते कहे छे. ससिससि रविरवि अतर, मज्झे इग लक्ख तिसयसहिमाउणो ॥ साहिय दुसयरिचय, बहि लक्खो छसय सट्रिहिओ ॥११५॥ अर्थ - ( मज्झे ) के० सवथी अंदरना मांडलाने विषे एटले एक चंद्र निषध पर्वत उपरना अभ्यंतर मांडले आवे अने बीजो चंद्र नीलवंत पर्वत उपरनाअभ्यंतर मांडले आवे त्यारे (ससि - ससि) ० चंद्र चंद्रने तथा रवि रवि) के सूर्य सूर्यने (अंतर) के० आंतरं ते
SR No.023435
Book TitleBruhat Sangrahani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrasuri
PublisherUmedchand Raichand Master
Publication Year1924
Total Pages272
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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