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१३४ ( इग समए ) के० एक समयने विषे (हुंति ) के० उपजे छ, (य) के. अने ( चवंति ) के० चवे छे. तात्पर्य एछ के-भुवनपतिथी आरंभीने सहस्रार देवलोक :सुधी जघन्यथी एक समयमां जो उपजे तो एक बे अथवा त्रण उपजे तथा चरे. अने उत्कृष्टयी संख्याता अथवा असंख्याता उपजे तथा चवे. कारण के-सहस्रार देवलोक सुधी तो तिर्यच पण जाय छे माटे असंख्याता उपजे अने चवे. ए आठमा सहस्रार देवलोकथी उपरना देवता एक समये संख्याता उपजे अने संख्याता चरे. कारण के-त्यां मनुष्यज जाय छे, अने त्यांथी चवेलो देवता पण मनुष्यज थाय छे. माटे मनुष्य संख्याताज छे, तेथी आनतादि देवता संख्याता उपजे अने संख्याता चवे ॥२२२॥
ए उपपात तथा चवन संख्या द्वार कह्यु. ॥ - हवे देवगतिमां कइ कइ गतिना जीवो आवे छे ? ते आगति द्वार कहे छे. नर पंचिंदिय तिरिया, णुप्पत्ती सुरभवे पजत्ताणं ॥ अज्झवसाय विसेसा, तेसिं गइ तारतम्मं तु ॥२२३॥ १८
अर्थ-(पजत्ताणं ) के० पर्याप्ता एवा ( नर) के० मनुष्य तथा पर्याप्ता (पंचिंदियतिरियाण) के० पंचेंद्रिय तिर्यंच ए बे गतिना जीव (सुरभवे ) के० देवगतिमांहे ( उष्पत्ती ) के० उपजे छे. तेमां पण विशेष कारण कहे छे के-कोइ जीव भुवनपति, कोइ व्यंतर, कोइ ज्योतषी, कोइ वैमानिक थाय, तेमां पण कोइ ऋद्धिवंत, कोइ महर्द्धिक, कोइ अला ऋद्धिवंत, कोइ बहु आयुष्यवालो, कोइ थोडा आयुष्यवालो इत्यादिक विशेषपणानुं कारण पोताना ( अज्झवसायविसेसा ) के० अध्यवसायना विशेषपणाये करीने (तेसिं) के० ते देवतानी ( गइतारतम्म ) के० गतिर्नु