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________________ १३३ ( स ) के० सा दिवस, ( तत्तो ) के० त्यार पछी ( दुसु ) के ० आनत अने प्राणा ए वे देवलोके प्रत्यके ( संखिज्जमासा) के ० संख्याता मास, ( दुनु ) के० आरण अने अच्युत ए वे देवलाके (वासा) के संख्याता वर्ष, हवे नव ग्रैवेयकना ( तिसु तिगेसु ) के० त्रण त्रिकने विषे (कमा) के० अनुक्रमे करीने उपजवानो विरहकाल कहे छे. ॥ २२० ॥ पहेला त्रीके ( वासाणसया ) के ० संख्यातवर्षशत, बीजा त्रीके ( सहस्सा ) के० संख्याता हजार वर्ष, अनेत्रीजा त्रीके (लक्ख ) के० संख्याता लाख वर्ष उपज - वानो काल जाणो. (तह ) के० तेमज (चतु विजयमाईसु के० पहेला चार विजय ते विजय विजयंत जयंत अने अपराजित ए चार विमानने वे (पलिया असंख भागो ) के० अद्धा पल्योपमनो असंख्यातमो भाग, अने ( सट्टे ) के० सर्वार्थ सिद्धने विषे ( संभागीय) के० अद्धा पल्यो मनो संख्यातमो भाग उपपात विरहकाल होय छे. ॥ २२१ ॥ د हरे देवताआनो जयन्य विरहकाल अने पछी चवन विरहकाल संक्षेपथी कहे छे. सव्वेसिंपि जहन्नो, समओ एमेव चवणविरहोऽवि ॥ १ इग दुति संखमसंखा, इग समए हुंति य चति ॥ २२२॥ Y अर्थ - ( सव्वेसिंपि ) के० भुवनपतिथी आरंभी सर्वार्थ सिद्ध सुधीना सर्व स्थानके ( जहन्नो ) के० जघन्यथी ( समओ) के ० एक समय उपजवानो विरहकाल होय. ( एमेव ) के० ए उपपात विरहनी पेठे (चवणविरहोऽवि ) के० चवनविरह पण उत्कृष्ट तथा जन्यथी जाणवो. ( इग) के० एक, (दु) के० बे, (ति) के त्रण एम यावत् (संवं) के० संख्याता अने (असंख्य ) के० असंख्याता देवता
SR No.023435
Book TitleBruhat Sangrahani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrasuri
PublisherUmedchand Raichand Master
Publication Year1924
Total Pages272
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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