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________________ १६८ पिता अथवा रीषथी संगम देवता आव्यो हतो तेम ) एवा कारणथी ( सुरा) के० देवता ( इहयं ) के० अहियां ( आगच्छंति ) के० आवे छे. ॥ २९५ ॥ - देवता कारण विना मनुष्यलोकमां केम न आवे ? ते कहे छे. संकंतदिवपेमो, विसयपसत्ता समत्तकत्तव्वा ॥ अणहाणमणुयकज्जा,नरभवमसुहं न इंति सुरा ।।२९६।।२ अर्थ-उत्पन्न थया पछी तुरत देवांगनानो जेमना हृदयमां ( संकेत दिव्य पेमा ) के० दिव्यप्रेम प्रसरी रहेलो छे एवा, तथा ( विसयपसत्ता ) के० देवांगनानी साथे स्पर्श गीतादिक विषयमां आसक्त थयेला, वली ( समत्तकत्तव्वा ) के० जेमना स्नान वनविहार नाटक विलोकन विगेरे देवकार्य पूरा थया नथी एवा, अने (अणहीणमणुयकज्जा ) के० देवताने मनुष्याधिन कांइ कार्य नथी एवा कारणने लीधे ( सुरा) के देवता ( असुहं ) के० दुर्गधमय एवा ( नरभवं ) के० मनुष्यलोकने विषे ( न इंति ) के० आवता नथी ॥ २९६॥ चत्तारि पंच जोयण, सयाइ गंधो य मणुयलोगस्स ॥ उ8 वच्चइ जेणं, न हु देवा तेण आवंति ॥ २९७ ॥२32. ___ अर्थ-जेणं के० कारणमाटे मणुयलोगस्स के० मनुष्यलोक संबंधी मृतकशरीर तथा मूत्र पुरिस विगेरेनो (गंधो य) के० दुर्गध ( चत्तारि पंच जोयण सयाइ ) के० चारसो पांचसो योजन (उ8 वच्चइ ) के० उंचे जाय छे (तेण ) के० तेकारणमाटे (देवा) के० देवता (हु ) के० निचे आ मनुष्य लोकमां न आवंति) के० आवता नथी. २९७
SR No.023435
Book TitleBruhat Sangrahani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrasuri
PublisherUmedchand Raichand Master
Publication Year1924
Total Pages272
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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