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________________ णुत्तरेसु) के० नव ग्रैटेयक तथा पांच अनुत्तर निवासी देवाने ( उत्तरवेउन्चिया नस्थि ) के० उत्तर वैक्रिय शरीर नथी, परंतु भवधारणीय शरीर छे. ते देवताओने उत्तरवैक्रिय शरीर धारणकरवानी शक्ति छे, परंतु ते शरीर करवानुं कांइ काम पडतुं नथी, तेथी ते उत्तर वैक्रिय शीर करता नथी. ॥ २१६ ॥ हवे भवधारणीय तथा उत्तर वैक्रिय शरीरनी जघन्य अवगाहना कहे छे, साहाविय वेउविय, तगू जहन्ना कमेण पारंभे ॥ अंगुल असंखभागो, अंगुलमंखिज्जभागो य ॥२१७॥१ ___अर्थ-(साहाविय ) के० स्वाभाविक ते भवधारणीय अने ( वेउबिय ) के० वैक्रिय ए वने ( तणू) के० शरीर ( जहन्ना) के० जघन्यथी ( कोण ) के० अनुक्रमे (पारंभे ) के० आरंभती वखते ( अंगुल असंख्वभागो) के० अंगुलना असंख्यातमा भागे ( य ) ० अने ( अंगुलसंखिजभागो ) के० अंगुलना संख्यातमा भागे एटले भवधारणीय शरीर अंगुलना असंख्यातमा भागे तथा वैक्रिय शरीर अंगुलना संख्यातमे भागे होय छे. ॥ २१७॥ ए देवताने विषे अवगाहना सबंधी त्रीजु द्वार संपूर्ण थयु.॥ हवे देवताने उत्पातविरहकालनु तथा चवन विरहकालनु ए बे द्वार साथे कहे छे. सामनेणं चउविह, सुरेसु बारस मुहुत्त उक्कोमा ॥ उपवायविरहकालो, अह भवणाईसु पत्तेयं ॥१८॥ ___अर्थ-( सामनेणं) के० सामान्यथी ( चउविह सुरेसु ) के० चार निकायना देवताने विषे ( उववायविरेहकालो ) के० उपज
SR No.023435
Book TitleBruhat Sangrahani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrasuri
PublisherUmedchand Raichand Master
Publication Year1924
Total Pages272
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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