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उत्तरवैक्रिय. ए बन्ने शरीर जयन्यथी साते नरकमां अनुक्रमे ( अंगुल असंख संखंसी ) के० अंगुलनो असंख्यातमो भाग तथा संख्यातमो भाग होय. अहिं भधारणीय शरीर उत्पत्ति वेलाये अंगुलने असंख्यातमे भागे अने उत्तरवैक्रिय शरीर प्रारंभती वखते अंगुलना संख्यातमे भागे होय एम जाणवु: नारकीर्नु अवगाहना द्वार पूर्ण थयुं ॥
हये नारकीना जीवोनु उत्पतिविरह तथा चवनविरहनुं द्वार दोढ गाथाथी कहे छे. सत्तसु चउवीस मुहू.सग पनर दिणेग दु चउ छमासा॥र उववाय चवणविरहो, ओहे वारस मुहुत्त गुरू ॥३७४॥ लहुओदुहावि समओ,संखा पुण सुरसमा मुणेयव्वा ।। ___ अर्थ-- ( सत्तसु ) के० साते नरकमां अनुक्रमे एटले पहेलीए (चवीस मुहु ) के चोवी मुहूर्त, बीजीए ( सग ) के० सात दिवस, त्रीजीए (पनर दिण) के० पन्नर दिवस, चोथीए (एग) के० एक मास, पांचमीए (दु) के० वे मास, छट्टीए ( चउ ) के० चार मास, अने सातमीए (छ मासा) के० छमास सुधी (उबवायचवणविरहो) के० उत्पात तथा चवननो विरहकाल जाणवो. जो के साते नरकमां मारकी जीवो घणुं करीने निरंतर उपजे छे अने चवे छे, परंतु (ओहे ) के सामान्यपणे सातेमां न उपजे अने न चवे तो (लहुओ ) के० जघन्यथी साते नरके (दुहाविसमओ) के साथे पण एक समय अने जूदो पण एक समय विरह पडे अने (गुरू) के० उत्कृष्टथी (बारस मुहुत्त) के० बार मुहूर्तनो विरहकाल जाणवो. (पुण) के० वली नारकीना जीवोनी उपजवानी तथा चववानी (संखा) के संख्या तो ( सुरसमा) के०