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१७४ (अणेगविहो ) के० अनेक प्रकारचें एटले कोइने उंचुं वधारे कोइने नीचुं धारे अने कोइने तिर्छ वधारे एम विचित्र प्रकारेहोयछे।।३०७॥ ___हवे देवतार्नु द्वार पूर्ण करी नारकीनुं द्वार कहे छ. . इय देवाणं भणियं, ठिइपमुहं नारयाण वुच्छामि ॥ २ इंग तिनि सत्तदस सतर,अयर बावीस तित्तासा ॥३०८॥ मत्तय पुढवीसु ठिई, जिट्ठोवरिमाइ हिट्ठपुढवीए । होइ कमेण कणिट्ठा, दस वास सहस्स पढमाए ॥३०९॥ ____ अर्थ-(इय) के० ए प्रकारे ( देवाणं) के० देवतानां (ठिइपमुहं) के० स्थितिप्रमुख एटले स्थिति, भुवन, शरीरप्रमाणरूप अवगाहना, उपपात विरहकाल, चवनविरहकाल, एक समय उपपात संख्या, एक समय चवनसंख्या, गति अने आगतिरूप नव द्वार (भणियं ) के० कह्यां. हवे ( नारयाणं) के० नारकीना एज नब द्वार ए पूर्वोक्त अनुक्रमे (वुच्छामि) के० कहीश. पहेली रत्नप्रभा पृथ्वीने विषे उत्कृष्टि स्थिति (इग) के० एक सागरोपमनी, बीजी शर्कराप्रभाने विषे ( तिनि) के० त्रण सागरोपमनी,त्रीजी वालुकाप्रभाने विषे (सत्त) के० सात सागरोपमनी, चोथी पंकप्रभाने विषे (दस) क० दश सागरोपमनी, पांचमी धूमप्रभाने विषे (सत्तर) के० सत्तर सागरोपमनी, छठी तमप्रभाने विषे (बावीस) के० बावीश सागरोपमनी, अने सातमी तमतमप्रभाने विषे (तित्तीसा) के० ते त्रीश सागरोपमनी,ए सर्व (अयर) के० सागरोपमनी उत्कृष्टी स्थिति जाणवी ॥३०८॥ र पूर्वे कहेली ( सत्तय पुढवीसु) के० साते नरक पृथ्वीने विवे (ठिइ) के० स्थिति कही. तेमां ( उवरिभाइ) के उपस्थी आरंभी जे (निट्टा) के० उत्कृष्ट स्थिति होय अर्थात् उपरनी नारकीनी जे उत्कृष्ट स्थिति होय ते ( हिट्ट पुढवीए) के० नीचेनी (पृथ्वीनी कणिट्ठा ) के० जघन्य स्थिति ( करण) के० अनुक्रमे