Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
Catalog link: https://jainqq.org/explore/003455/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्व. पूज्य गुरुदेव श्री जोरावरमल जी महाराज की स्मृति में आयोजित युवाचार्य श्री मधुकर मुनि जीवाजीवाभिगमसूत्र [मूल-अनुवाद-विवेचन-टिप्पण-परिशिष्ट युक्त] Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनागम-ग्रन्थमाला : ग्रन्थाङ्क -- ३१ ॐ अर्ह [ परमश्रद्धेय गुरुदेव पूज्य श्री जोरावरमलजी महाराज की पुण्य स्मृति में आयोजित ] श्रुतस्थविरप्रणीत- उपाङ्गसूत्र जीवाजीवाभिगमसूत्र [ मूलपाठ, प्रस्तावना, अर्थ, विवेचन तथा परिशिष्ट आदि युक्त ] [fachter zaus] प्रेरणा (स्व.) उपप्रवर्त्तक शासनसेवी स्वामी श्री ब्रजलालजी महाराज आद्यसंयोजक तथा प्रधान सम्पादक 0 (स्व.) युवाचार्य श्री मिश्रीमलजी महाराज 'मधुकर' सम्पादन श्री राजेन्द्रमुनिजी एम. ए., साहित्यमहोपाध्याय प्रकाशक श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर (राजस्थान ) Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनागम-ग्रन्थमाला : ग्रन्थाङ्क ३१ निर्देशन आध्यात्मयोगिनी विदुषी महासती श्री उमरावकुंवरजी म.सा. 'अर्चना' सम्पादकमण्डल (स्व.) आचार्य श्री देवेन्द्रमुनि जी म. सा. 'शास्त्री' (स्व.) अनुयोगप्रवर्तक मुनि श्री कन्हैयालालंजी म. सा. 'कमल' वाणीभूषण श्री रतनमुनि जी म. सा. संप्रेरक उ. प्र. मुनि श्री विनयकुमार जी म. सा. 'भीम' श्री महेन्द्रमुनिजी म. सा. 'दिनकर' द्वितीय संस्करण अक्टूबर, २००६ ई. विक्रम संवत् २०६३ प्रकाशक श्री आगम प्रकाशन समिति श्री ब्रज-मधुकर स्मृति भवन पीपलिया बाजार, ब्यावर (राजस्थान) ब्यावर - ३०५९०१ फोन : २५००८७ मुद्रक मेहता ऑफसेट 29, सोमनाथ कॉलोनी, कॉलेज रोड, ब्यावर-३०५९०१. फोन : ०१४६२-२५३९९० ० मूल्य : ६०/- रुपये Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Published on the Holy Remembrance occasion of Rev. Guru Shri Joravarmalji Maharaja JĪVAJIVABHIGAMA SUTRA (Original Text, Hindi Version, Introduction and Appendices etc.) [ PART - II Inspiring Soul Up-pravartaka Shasansevi (Late) Swami Shri Brijlalji Maharaj Convener & Founder Editor (Late) Yuvacharya Shri Mishrimalji Maharaj "Madhukar" Editor Shri Rajendra Muni M.A., Sahityamahopadhyay Publishers Shri Agam Prakashan Samiti Beawar (Raj.) Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jinagam Granthmala Publication No. 31 Direction Mahasati Shri Umravkunwarji M. Sa. "Archana" Board of Editors (Late) Achrya Shri Devendra Muni Ji M: Sa. 'Shastri' Anuyogapravartaka Muni shri Kanhaiyalal Ji M. Sa. 'Kamal' Vaani Bhushan Shri Ratan Muni Ji Promotor Muni Shri Vinay Kumar Ji "Bhim" Sri Mahendra Muni “Dinakar" Second Edition Vikram Samvat 2063 October 2006 Publishers Shri Agam Prakashan Samiti, Shri Brij-Madhukar Smriti Bhawan Pipaliya Bazar, Beawar (Raj.) [India] Pin - 305 901 Phone : 250087 Printer Mehta Offset 29, Somnath Colony College Road, BEAWAR 305901 Phone : 01462 -253990 o Price : Rs. 60/ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का महामंत्र क णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आयरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोएसव्व साहूणं, एसो पंच णमोक्कारो, सव्वपावपणासणो ॥ मंगलाणं च सव्वेसिं, पढमं हवइ मंगलं ॥ युवाचार्य श्री मधुकर मुनिजी म. सा. Page #7 --------------------------------------------------------------------------  Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 समर्पण जैन आगम - दर्शनशास्त्र के प्रकाण्ड पण्डित, बहुश्रुत, श्रमणसंघ के उपाचार्यप्रवर, सद्गुरुवर्य श्रद्धेय श्री देवेन्द्रमुनिजी म. सा. को सादर विनय भक्ति - राजेन्द्र मुनि - Page #9 --------------------------------------------------------------------------  Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय आगमप्रेमी जैनदर्शन के अध्येताओं के समक्ष जिनागम ग्रन्थमाला के ३१वें अंक के रूप में जीवाजीवाभिगमसूत्र का द्वितीय भाग प्रस्तुत किया जा रहा है । जीवाजीवाभिगमसूत्र में मुख्य रूप से जीव का विभिन्न स्थितियों की अपेक्षा विशद वर्णन किया गया है। जो संक्षेप में जीव की अनेकानेक अवस्थाओं का दिग्दर्शन कराने के साथ तत्सम्बन्धी सभी जिज्ञासाओं का समाधान करता है । साधारण पाठकों के लिए तो विस्तृत बोध कराने का साधन है। प्रस्तुत संस्करण में निर्धारित रूपरेखा के अनुसार मूल पाठ के साथ हिन्दी में उसका अर्थ तथा स्पष्टीकरण के लिए आवश्यक विवेचन है। इसी कारण ग्रन्थ का अधिक विस्तार हो जाने से दो भागों में प्रकाशित किया गया है। प्रथम भाग पूर्व में प्रकाशित हो गया और यह द्वितीय भाग है। ग्रन्थ का अनुवाद, विवेचन, संपादन उप-प्रवर्तक श्री राजेन्द्रमुनि जी म. एम. ए., पी-एच.डी. ने किया है। उत्तराध्ययनसूत्र का संपादन आदि आपने ही किया था। एतदर्थ समिति आपको अपना वरिष्ठ सहयोगी मानती हुई हार्दिक अभिनन्दन करती है। समग्र आगमसाहित्य को जनभोग्य बनाने के लिए जिन महामना युवाचार्य श्री मिश्रीमलजी "मधुकर" मुनिजी म. सा. ने पवित्र अनुष्ठान प्रारम्भ किया था, अब उनका प्रत्यक्ष सान्निध्य तो नहीं रहा, यह परिताप का विषय है, किन्तु आपश्री के परोक्ष आशीर्वाद सदैव समिति को प्राप्त होते हैं। यही कारण है कि समिति अपने कार्य में प्रगति करती रही और अब हम विश्वास के साथ यह स्पष्ट करने में समक्ष हैं कि आगम बत्तीसी का प्रकाशन कार्य प्रायः पूर्ण हो चुका है। अन्त में हम अपने सभी सहयोगियों के कृतज्ञ हैं कि उनकी लगन, प्रेरणा से प्रकाशन का कार्य सम्पन्न होने जा रहा है। रतनचन्द मोदी कार्यवाहक अध्यक्ष ज्ञानचन्द विनायकिया मंत्री श्री आगमप्रकाशन समिति, ब्यावर (राज.) Page #11 --------------------------------------------------------------------------  Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय वक्तव्य सर्वज्ञ - सर्वदर्शी वीतराग परमात्मा जिनेश्वर देवों की सुधास्यन्दिनी-आगम-वाणी न केवल विश्व के धार्मिक साहित्य की अनमोल निधि है, अपितु वह जगज्जीवों के जीवन का संरक्षण करने वाली संजीवनी है। अरिहन्तों द्वारा उपदिष्ट यह प्रवचन वह अमृतकलश है जो समस्त विषविकारों को दूर कर विश्व के समस्त प्राणियों को नवजीवन प्रदान करता है। जैनागमों का उद्भव ही जगत के जीवों के रक्षण रूप दया के लिए हुआ है। अहिंसा, दया, करुणा, स्नेह, मैत्री ही इसका सार है। अतएव विश्व के जीवों के लिए यह सर्वाधिक हितकर, संरक्षक एवं उपकारक है। यह जैन प्रवचन जगज्जीवों के लिए त्राणरूप है, शरणरूप है, गतिरूप है और आधाररूप है । 44 पूर्वाचार्यों ने इस आगमवाणी को सागर की उपमा से उपमित किया है। उन्होंने कहा 'यह जैनागम महान् सागर के समान है, यह ज्ञान के अगाध है, श्रेष्ठ पद- समुदाय रूपी जल से लबालब भरा हुआ है, अहिंसा की अनन्त उर्मियों - लहरों से तरंगित होने से यह अपार विस्तार वाला है, चूला रूपी ज्वार इसमें उठ रहा है। गुरु की कृपा से प्राप्त होने वाली मणियों से यह भरा हुआ है। इसका पार पाना कठिन है । यह परम साररूप और मंगलरूप है। ऐसे महावीर परमात्मा के आगमरूपी समुद्र की भक्तिपूर्वक आराधना करनी चाहिए । २ - सचमुच जैनागम महासागर की तरह विस्तृत और गम्भीर है। तथापि गुरुकृपा और प्रयत्न से इसमें अवगाहन करके सारभूत रत्नों को प्राप्त किया जा सकता है। जिन प्रवचन का सार अहिंसा और समता है। जैसा कि सूत्रकृतांग सूत्र में कहा है सब प्राणियों को आत्मवत् समझकर उनकी हिंसा न करना, यही धर्म का सार है, आत्मकल्याण का मार्ग है । जैन सिद्धांत अहिंसा से ओतप्रोत है और आज के दावानल में सुलगते विश्व के लिए अहिंसा की अजस्र जलधारा ही हितावह है। अत: जैन सिद्धान्तों का पठन-पाठन - अनुशीलन एवं उनका व्यापक प्रचारप्रसार आज के युग की प्राथमिकता है। अहिंसा के अनुशीलन से ही विश्व शान्ति की सम्भावना है, अतएव अहिंसा से ओतप्रोत जैनागमों का अध्ययन एवं अनुशीलन परम आवश्यक है । जैनागम द्वादशांगी गणिपिटक रूप है। अरिहंत तीर्थंकर परमात्मा केवल ज्ञान की प्राप्ति होने के पश्चात् १. सव्वजगजीवरक्खणदयट्टयाए, भगवया पावयणं कहियं । - प्रश्नव्याकरण २. बोधागाधं सुपदपदवी नीरपुराभिरामं, जीवाहिंसाऽविरहलहरी संगमागाहदेहं । चूलावेलं गुरुगममणिसंकुलं दूरचारं, सारं वीरागमजलनिधि सादरं साधु सेवे ॥ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ रूप से प्रवचन का प्ररूपण करते हैं और उनके चतुर्दशपूर्वधर, विपुलबुद्धिनिधान गणधर उन्हें सूत्ररूप में निबद्ध करते हैं। इस तरह प्रवचन की परम्परा चलती रहती है। अतएव अर्थरूप आगम के प्रणेता श्री तीर्थंकर परमात्मा हैं और शब्द रूप आगम के प्रणेता गणधर हैं । अनन्त काल से अरिहन्त और उनके गणधरों की परम्परा चलती आ रही है। अतएव उनके उपदेश रूप आगम की परम्परा भी अनादि काल से चली आ रही है। इसीलिए ऐसा कहा जाता है कि यह द्वादशांगी ध्रुव है, नित्य है, शाश्वत है, सदाकाल से है, यह कभी नहीं है, ऐसा नहीं है । यह सदा थी, है और रहेगी। भावों की अपेक्षा यह ध्रुव, नित्य, शाश्वत है।' द्वादशांगी में बारह अंगों का समावेश है। आचारांग, सूयगडांग, ठाणांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति, ज्ञाताधर्मकथा, उपासकदशा, अन्तकृद्दशा, अनुत्तरोपपातिक, प्रश्नव्याकरण, विपाकसूत्र और दृष्टिवाद, ये बारह अंग हैं। यही द्वादशांगी गणिपिटक हैं, जो साक्षात् तीर्थंकरों द्वारा उपदिष्ट है। यह अंगप्रविष्ट आगम कहे जाते हैं, इनके अतिरिक्त अनंगप्रविष्ट-अंगबाह्य आगम वे हैं जो तीर्थंकरों के वचनों से अविरुद्ध रूप में प्रज्ञातिशय-सम्पन्न स्थविर भगवंतों द्वारा रचे गये हैं । इस प्रकार जैनागम दो भागों में विभक्त हैं-अंगप्रविष्ट और अनंगप्रविष्ट (अंगबाह्य)। प्रस्तुत जीवाजीवाभिगम शास्त्र अनंग प्रविष्ट आगम है। दूसरी विवक्षा से बारह अंगों के बारह उपांग भी कहे गए हैं । तद्नुसार औपपातिक आदि को उपांग संज्ञा दी जाती है। आचार्य मलयगिरि ने जिन्होंने जीवाजीवाभिगम पर विस्तृत वृत्ति लिखी है, इसे तृतीय अंग-स्थानांग का उपांग कहा है। __ प्रस्तुत जीवाजीवाभिगमसूत्र की आदि में स्थविर भगवंतों को इस अध्ययन के प्ररूपक के रूप में प्रतिपादित किया गया है - इह खल जिणमयं जिणाणमयं, जिणाणुलोमं, जिणप्पणीयं,जिणपरूवियं, जिणक्खायं, जिणाणचिण्णं, जिणपण्णत्तं, जिणदेसियं, जिणपसत्थं, अणुव्वीइय, तं सद्दहमाणा, तं पत्तियमाणा, तं रोयमाणा थेरा भगवंतो जीवाजीवाभिगमणाममज्झयणं पण्णवइंस। समस्त जिनेश्वरों द्वारा अनुमत, जिनानुलोम जिनप्रणीत, जिनप्ररूपित, जिनाख्यात, जिनानुचीर्ण, जिनप्रज्ञप्त और जिनदेशित इस प्रशस्त जिनमत का चिन्तन करके, इस पर श्रद्धा, विश्वास एवं रुचि करके स्थविर भगवन्तों ने जीवाजीवाभिगम नामक अध्ययन की प्ररूपणा की। उक्त कथन द्वारा यह स्पष्ट किया गया है कि प्रस्तुत सूत्र की रचना स्थविर भगवन्तों ने की है। वे स्थविर भगवन्त तीर्थंकरों के प्रवचन के सम्यग्ज्ञाता थे। उनके वचनों पर श्रद्धा, विश्वास व रुचि रखने वाले थे। इससे यह ध्वनित किया गया है कि ऐसे स्थविरों द्वारा प्ररूपित आगम भी उसी प्रकार प्रमाणरूप है, जिस प्रकार सर्वज्ञ सर्वदर्शी तीर्थंकर परमात्मा द्वारा प्ररूपित आगम प्रमाणरूप हैं । क्योंकि स्थविरों की यह रचना तीर्थंकरों के वचनों से अविरुद्ध है। प्रस्तुत पाठ में आए हुए जिनमत के विशेषणों का स्पष्टीकरण उक्त मूलपाठ के विवेचन में किया गया है। प्रस्तुत सूत्र का नाम जीवाजीवाभिगम है, परन्तु मुख्य रूप से जीव का प्रतिपादन होने से अथवा संक्षेप दृष्टि से यह सूत्र जीवाभिगम के नाम से जाना जाता है। जैन तत्त्वज्ञान प्रधानतया आत्मवादी है । जीव या आत्मा इसका केन्द्रबिन्दु है । वैसे तो जैनसिंद्धात ने नौ १. एयं दुवालसंगं गणिपिटगं ण क यावि णासि, ण कयावि ण भवइ, ण कयावि ण भविस्सइ, धुवं णिच्चं. सासयं। - नन्दीसूत्र १०] Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्व माने हैं अथवा पुण्य, पाप को आश्रव, बन्ध तत्त्व में सम्मिलित करने से सात तत्त्व माने हैं, परन्तु वे सब जीव और अजीव कर्म-द्रव्य के सम्बन्ध या वियोग की विभिन्न अवस्था रूप ही हैं । अजीवतत्त्व का प्ररूपण जीवतत्त्व के स्वरूप को विशेष स्पष्ट करने तथा उससे उसके भिन्न स्वरूप को बताने के लिए है। पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष तत्त्व जीव और कर्म के संयोग-वियोग से होने वाली अवस्थाएं हैं। अतएव यह कहा जा सकता है कि जैन तत्त्वज्ञान का मूल आत्मद्रव्य (जीव ) है । उसका आरम्भ ही आत्मविचार से होता है तथा मोक्ष उसकी अन्तिम परिणति है । प्रस्तुत सूत्र में उसी आत्मद्रव्य की अर्थात् जीव की विस्तार के साथ चर्चा की गयी है। अतएव यह जीवाभिगम कहा जाता है। अभिगम का अर्थ है ज्ञान । जिसके द्वारा जीव, , अजीव का ज्ञान-विज्ञान हो, वह जीवाजीवाभिगम है। अजीव तत्त्व के भेदों का सामान्य रूप से उल्लेख करने के उपरान्त प्रस्तुत सूत्र का सारा अभिधेय जीवतत्त्व को लेकर ही है। जीव के दो भेदसिद्ध और संसारसमापन्नक के रूप में बताये गये हैं । तदुपरान्त संसारसमापन्नक जीवों के विभिन्न विवक्षाओं को लेकर किए गए भेदों के विषय में नौ प्रतिपत्तियों - मन्तव्यों का विस्तार से वर्णन किया गया है। ये नौ ही प्रतिपत्तियां भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं को लेकर प्रतिपादित है, अतएव भिन्न-भिन्न होने के बावजूद ये परस्पर अविरोधी और तथ्यपरक हैं । रागद्वेषादि विभावपरिणतियों से परिणत यह जीव संसार में कैसी-कैसी अवस्थाओं का, , किन-किन रूपों का, किन-किन योनियों में जन्म-मरण आदि का अनुभव करता है, आदि विषयों का उल्लेख इन नौ प्रतिपत्तियों में किया गया है । त्रस स्थावर के रूप में स्त्री- पुरुष - नपुंसक के रूप में, नारक तिर्यंच देव और मनुष्य के रूप में, एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय के रूप में, पृथ्वीकाय यावत् त्रसकाय के रूप में तथा अन्य अपेक्षाओं से अन्य-अन्य रूपों में जन्म-मरण करता हुआ यह जीवात्मा जिन-जिन स्थितियों का अनुभव करता है, उनका सूक्ष्म वर्णन किया गया है । द्विविध प्रतिपत्ति में त्रस स्थावर के रूप में जीवों के भेद बताकर - १. शरीर, २. अवगाहना, ३. संहनन, ४. संस्थान, ५. कषाय, ६. संज्ञा, ७. लेश्या, ८. इन्द्रिय, ९. समुद्घात, १०. संज्ञी - असंज्ञी, ११. वेद, १२. पर्याप्तअपर्याप्त, १३. दृष्टि, १४. दर्शन, १५. ज्ञान, १६. योग, १७. उपयोग, १८. आहार, १९. उपपात, २०. स्थिति, २१. समवहत-असमवहत, २२. च्यवन और २३. गति - आगति, इन २३ द्वारों से उनका निरूपण किया है, इसी प्रकार आगे की प्रतिपत्तियों में भी जीव के विभिन्न भेदों में विभिन्न द्वारों को घटित किया गया है। स्थिति, चिट्ठा (कार्यस्थिति), अन्तर और अल्पबहुत्व द्वारों का यथासंभव सर्वत्र उल्लेख किया गया है। अंतिम प्रतिपत्ति में सिद्ध, संसारी भेदों की विविक्षा न करते हुए सर्वजीवों के भेदों की प्ररूपणा की गई है। प्रस्तुत सूत्र में नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देवों के प्रसंग में अधोलोक, तिर्यग्लोक और ऊर्ध्वलोक का निरूपण किया गया है । तिर्यग्लोक के निरूपण में द्वीप समुद्रों की वक्तव्यता, कर्मभूमि- अकर्मभूमि की वक्तव्यता, , वहां की भौगोलिक और सांस्कृतिक स्थितियों का विशद विवेचन भी किया गया है, जो विविध दृष्टियों से महत्वपूर्ण है । इस प्रकार यह सूत्र और इसकी विषय-वस्तु जीव के सम्बन्ध में विस्तृत जानकारी देती है। अतएव इसका जीवाभिगम नाम सार्थक है । यह आगम जैन तत्त्वज्ञान का महत्त्वपूर्ण अंग है । प्रस्तुत सूत्र का मूल प्रमाण ४७५० (चार हजार सात सौ पचास) श्लोक ग्रन्थाग्र है । इस पर आचार्य मलयगिरि ने १४,००० ( चौदह हजार ) ग्रन्थाग्र प्रमाणवृत्ति लिखकर इस गम्भीर आगम के मर्म को प्रकट किया है । वृत्तिकार ने अपने बुद्धिवैभव से आगम के मर्म को हम साधारण लोगों के लिए उजागर कर हमें बहुत उपकृत किया है । [११ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादन के विषय में - प्रस्तुत संस्करण के मूल पाठ का मुख्यतः आधार सेठ श्री देवचन्द लालभाई पुस्तकोद्वार फण्ड सूरत से प्रकाशित वृत्तिसहित जीवाभिगमसूत्र का मूल पाठ है। परन्तु अनेक स्थलों पर उस संस्करण में प्रकाशित मूल पाठ में वृत्तिकार द्वारा मान्य पाठ में अन्तर भी है। कई स्थलों में पाये जाने वाले इस भेद से ऐसा लगता है कि वृत्तिकार के सामने कोई अन्य प्रति (आदर्श) रही हो। अतएव अनेक स्थलों पर हमने वृत्तिकार-सम्मत पाठ अधिक संगत लगने से उसे मूलपाठ में स्थान दिया है। ऐसे पाठान्तरों का उल्लेख स्थान-स्थान पर फुटनोट (टिप्पण) में किया गया है। स्वयं वृत्तिकार ने इस बात का उल्लेख किया है कि इस आगम के सूत्रपाठों में कई स्थानों पर भिन्नता दृष्टिगोचर होती है। यह स्मरण रखने योग्य है कि यह भिन्नता शब्दों को लेकर है, तात्पर्य में कोई अंतर नहीं है । तात्त्विक अंतर न होकर वर्णनात्मक स्थलों में शब्दों का और उनके क्रम का अन्तर दृष्टिगोचर होता है । ऐसे स्थलों पर हमने टीकाकारसम्मत पाठ को मूल में स्थान दिया है। प्रस्तुत आगम के अनुवाद और विवेचन में भी मुख्य आधार आचार्य श्री मलयगिरि की वृत्ति ही रही है। हमने अधिक से अधिक यह प्रयास किया है कि इस तात्त्विक आगम की सैद्धान्तिक विषय-वस्तु को अधिक से अधिक स्पष्ट रूप से जिज्ञासुओं के समक्ष प्रस्तुत किया जाये। अतएव वृत्ति में स्पष्ट की गई प्रायः सभी मुख्य-मुख्य बातें हमने विवेचन में दी हैं, ताकि संस्कृत भाषा को न समझने वाले जिज्ञासुजन भी उनसे लाभान्वित हो सकें। मैं समझता हूँ कि मेरे इस प्रयास से हिन्दी भाषी जिज्ञासुओं को वे सब तात्त्विक बातें समझने को मिल सकेगी जो वृत्ति में संस्कृत भाषा में समझायी गई हैं। इस दृष्टि से इस संस्करण की उपयोगिता बहुत बढ़ जाती है। जिज्ञासुजन यदि इससे लाभान्वित होंगे तो मैं अपने प्रयास को सार्थक समझूगा। अन्त में मैं स्वयं को धन्य मानता हूँ कि मुझे प्रस्तुत आगम को तैयार करने का सुअवसर मिला। आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर की ओर से मुझे प्रस्तुत जीवाभिगमसूत्र का सम्पादन करने का दायित्व सौंपा गया। सूत्र की गम्भीरता को देखते हुए मुझे अपनी योग्यता के विषय में संकोच अवश्य पैदा हुए। परन्तु श्रुतभक्ति से प्रेरित होकर मैंने यह दायित्व स्वीकार कर लिया और उसके निष्पादन में निष्ठा के साथ जुड़ गया। जैसा भी मुझ से बन पड़ा, वह इस रूप में पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत है। कृतज्ञता ज्ञापन श्रुतसेवा के मेरे इस प्रयास में श्रद्धेय गुरुवर्य उपाध्याय-श्री पुष्कर मुनिजी म., श्रमणसंघ के उपाचार्य श्री सुप्रसिद्ध साहित्यकार गुरुवर्य श्री देवेन्द्रमुनि जी म. का मार्गदर्शन एवं पण्डित श्री रमेशमुनि जी म., श्री सुरेन्द्रमुनि जी, विदुषी महासती डॉ. श्री दिव्यप्रभाजी, श्री अनुपमाजी बी. ए. आदि का सहयोग प्राप्त हुआ है, जिसके फलस्वरूप मैं यह भगीरथ कार्य सम्पन्न करने में सफल हो सका हूँ। आगम सम्पादन करते समय पं. श्री वसन्तीलालजी नलवाया, रतलाम का सहयोग मिला, उसे भी विस्मृत नहीं कर सकता। यदि मेरे इस प्रयास से जिज्ञासु आगमरसिकों को तात्त्विक लाभ पहुंचेगा तो मैं अपने प्रयास को सार्थक समझूगा। अन्त में मैं यह शुभ कामना करता हूँ कि जिनेश्वर देवों द्वारा प्ररूपित तत्त्वों के प्रति जन-जन के मन में श्रद्धा, विश्वास और रुचि उत्पन्न हो, ताकि वे ज्ञान-दर्शन-चारित्र रूप रत्नत्रय की आराधना करके मुक्तिपथ के पथिक ब श्री अमर जैन आगम भण्डार -राजेन्द्रमुनि पीपाड़ सिटी, ११ सितम्बर ९१ एम. ए., पी.-एच. डी. १२] Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका तृतीय प्रतिपत्ति १-१२२ » » 9. लवणसमुद्र की वक्तव्यता जलवृद्धि का कारण लवणशिखा की वक्तव्यता गौतमद्वीप का वर्णन जम्बूद्वीपगत चन्द्रद्वीपों का वर्णन धातकीखंडद्वीपगत चन्द्रद्वीपों का वर्णन कालोदधिसमुद्रगत चन्द्रद्वीपों का वर्णन देवद्वीपादि में विशेषता स्वयंभूरमणद्वीपगत चन्द्र-सूर्यद्वीप गोतीर्थ-प्रतिपादन धातकीखंड की वक्तव्यता कालोदसमुद्र की वक्तव्यता पुष्करवरद्वीप की वक्तव्यता मानुषोत्तरपर्वत की वक्तव्यता समयक्षेत्र (मनुष्यक्षेत्र) का वर्णन पुष्करोदसमुद्र की वक्तव्यता क्षीरवरद्वीप और क्षीरोदसमुद्र घृतवर, घृतोद, क्षोदवर, क्षोदोद की वक्तव्यता नन्दीश्वरद्वीप की वक्तव्यता अरुणद्वीप का कथन जम्बूद्वीप आदि नाम वाले द्वीपों की संख्या समुद्रों के उदकों का आस्वाद इन्द्रिय पुद्गल परिणाम देवशक्ति संबंधी प्रश्नोत्तर ज्योतिष्क चन्द्र-सूर्याधिकार वैमानिक-वक्तव्यता परिषदों और स्थिति आदि का वर्णन बाहल्य आदि प्रतिपादन अवधिक्षेत्रादि प्ररूपण सामान्यतया भवस्थिति आदि का वर्णन 4MMMMMM 83,358242324 [१३ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२३-१२८ १२३ १२६ १२९-१५१ १२९ १३१ १३६ १३६ १३८ १३८ १४२ १४५ चतुर्थ प्रतिपत्ति संसारसमापन्नक जीवों के पंच प्रकार अल्पबहुत्वद्वार पंचम प्रतिपत्ति संसारसमापन्नक जीवों के छह भेद अल्पबहुत्वद्वार बादर जीव निरूपण बादर की कायस्थिति अन्तरद्वार अल्पबहुत्वद्वार सूक्ष्म बादरों के समुदित अल्पबहुत्व निगोद की वक्तव्यता निगोदों का अल्पबहुत्व षष्ठ प्रतिपत्ति संसारसमापन्नक जीवों के सात भेद, अल्पबहुत्व सप्तम प्रतिपत्ति संसारसमापन्नक जीवों के आठ प्रकार अष्टम प्रतिपत्ति संसारसमापन्नक जीवों के नौ प्रकार नवम प्रतिपत्ति संसार समापन्नक जीवों के दस प्रकार सर्व जीवाभिगम सर्वजीव-द्विविध वक्तव्यता सर्वजीव-त्रिविध वक्तव्यता सर्वजीव-चतुर्विध वक्तव्यता सर्वजीव-पञ्चविध वक्तव्यता सर्वजीव-षड्विध वक्तव्यता सर्वजीव-सप्तविध वक्तव्यता सर्वजीव-अष्टविध वक्तव्यता सर्वजीव-नवविध वक्तव्यता सर्वजीव-दसविध वक्तव्यता १४] १४८ १५२-१५४ १५२ १५५-१६० १५५ १६१-१६२ १६१ १६३-१६७ १६३ १६८-२२९ १६८ १८४ १९३ २०२ २०४ २०९ २१२ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाजीवाभिगमसूत्तं [ बिइयं खंड ] जीवाजीवाभिगमसूत्तं [ द्वितीय खण्ड ] Page #19 --------------------------------------------------------------------------  Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति लवणसमुद्र की वक्तव्यता १५४. जंबुद्दीवं णामं दीवं लवणे णामं समुद्दे वट्टे वलयागारसंठाणसंठिए सव्वओ समंता संपरिक्खित्ता णं चिट्ठइ। लवणे णं भंते! समुद्दे किं समचक्कवालसंठिए विसमचक्कवालसंठिए? गोयमा! समचक्कवालसंठिए नो विसमचक्कवालसंठिए। लवणे णं भंते! समुद्दे केवइयं चक्कवालविक्खंभेणं केवइयं परिक्खेवेणं पण्णत्ते? गोयमा! लवणे णं समुद्दे दो जोयणसयसहस्साई चक्क वालविक्खंभेणं पण्णरस जोयणसयसहस्साइं. एगासीइसहस्साई संयमे गोणचत्तालीसे किंचिविसे साहिए लवणोदहिणो चक्कवालपरिक्खेवेणं। से णं एक्काए पउमवरवेइयाए एगेण य वणसंडेण सव्वओ समंता संपरिक्खत्ते चिट्ठइ, दोण्हवि वण्णओ। सा णं पउमवरवेदिया अद्धजोयणं उर्दू उच्चत्तेणं पंचधणुसयं विक्खंभेणं लवणसमुद्द-समियापरिक्खेवेणं, सेसे तहेव। से णं वनसंडे देसूणाई दो जोयणाइं जाव वि हरइ। लवणस्स णं भंते! समुद्दस्स कति दारा पण्णत्ता? गोयमा! चत्तारि दारा पण्णत्ता, तं जहाविजए, वेजयंते, जयंते, अपराजिए। कहि णं भंते। लवणसमुद्दस्स विजए णामं दारे पण्णत्ते? गोयमा! लवणसमुद्दस्स पुरथिमपेरंते धायइखंडस्स दीवस्स पुरथिमद्धस्स पच्चत्थिमेणं सीओदाए महाणईए उप्पि एत्थ णं लवणस्स समुद्दस्स विजए णामं दारे पण्णत्ते, अट्ठजोयणाई उर्दू उच्चत्तेणं चत्तारि जोयणाई विक्खंभेणं एवं तं चेव सव्वं जहा जम्बुद्दीवस्स विजए दारे रायहाणी पुरथिमेणं अण्णंमि लवणसमुद्दे। कहि णं भंते! लवणसमुद्दे वेजयंते णामं दारे पण्णत्ते? गोयमा! लवणसमद्दे दाहिणपेरंते धातइखंडस्स दाहिणद्धस्स उत्तरेणं सेसं तं चेव। एवं जयंते वि, णवरि सीयाए महाणईए उप्पि भाणियव्वं । एवं अपराजिए वि, णवरं दिसिभागो भाणियव्वो। लवणस्स णं भंते। समुद्दस्स दारस्स य दारस्स य एस णं केवइयं अबाहाए अंतरे पण्णत्ते? गोयमा! १.विजयदारसरिसमेयंपि। २. किन्हीं प्रतियों में यहां चारों द्वारों का पूरा वर्णन मूलपाठ में दिया हुआ है, परन्तु वह पहले कहा जा चुका है और टीकानुसारी भी नहीं है, अतएव उसका उल्लेख नहीं किया गया है। Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जीवाजीवाभिगमसूत्र तिण्णेव सयसहस्सा पंचाणउई भवे सहस्साइं। दो जोयणसय असीआ कोसं दारंतरे लवणे ॥१॥ जाव अबाहाए अंतरे पण्णत्ते। लवणस्स णं भंते! पएसा धातइखंडं दीवं पुट्ठा? तहेव जहा जम्बूदीवे धायइखंडे वि सो चेव गमो। लवणे णं भंते। समुद्दे जीवा उद्दाइत्ता सो चेव विही, एवं धायइखंडे वि। से केणढेणं भंते! एवं वुच्चइ-लवणसमुद्दे लवणसमुद्दे? गोयमा! लवणे णं समुद्दे उदगे आविले रइले लोणे लिंदे खारए कडुए अप्पेज्जे बहूणं दुपय-चउप्पय-मिय-पसु-पक्खि-सिरीसवाणं णण्णत्थ तजोणियाणं सत्ताणं। सोत्थिए एत्थ लवणाहिवई देवे महिड्डिए पलिओवमट्ठिईए। से णं तत्थ सामाणिय जाव लवणसमुद्दस्स सुत्थियाए रायहाणिए अण्णेसिं जाव विहरइ। से एएढेणं गोयमा! एवं वुच्चइ लवणे णं समुद्दे लवणे णं समुद्दे । अदुत्तरं च णं गोयमा! लवणसमुद्दे सासए जाव णिच्चे। १५४. गोल और वलय की तरह गोलाकार में संस्थित लवणसमुद्र जम्बूद्वीप नामक द्वीप को चारों ओर से घेरे हुए अवस्थित है। हे भगवन् ! लवणसमुद्र समचक्र वाल-संस्थान से संस्थित है या विषमचक्र वाल-संस्थान से संस्थित है? गौतम! लवणसमुद्र समचवाल-संस्थान से संस्थित है, विषमचक्रवाल-संस्थान से संस्थित नहीं है भगवान् ! लवणसमुद्र का चक्रवाल-विष्कंभ कितना है और उसकी परिधि कितनी है? गौतम! लवणसमुद्र का चक्रवाल-विष्कंभ दो लाख योजन का है और उसकी परिधि पन्द्रह लाख इक्यासी हजार एक सौ उनतालीस योजन से कुछ अधिक है। वह लवणसमुद्र एक पद्मवरवेदिका और एक वनखण्ड से सब ओर से परिवेष्टित है। दोनों का वर्णनक कहना चाहिए। वह पद्मवरवेदिका आधा योजन ऊंची और पांच सौ धनुष प्रमाण चौड़ी है। लवणसमुद्र के समान ही उसकी परिधि है। शेष वर्णन जम्बूद्वीप की पद्मवरवेदिका के समान जानना चाहिए। वह वनखण्ड कुछ कम दो योजन का है, इत्यादि वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिये, यावत् वहां बहुत से वाणव्यन्तर देव-देवियां अपने पुण्यकर्म के फल को भोगते हुए विचरते हैं। हे भगवन् ! लवणसमुद्र के कितने द्वार हैं? गौतम! लवणसमुद्र के चार द्वार हैं-विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित । हे भगवन् ! लवणसमुद्र का विजयद्वार कहां है? गौतम! लवणसमुद्र के पूर्वीय पर्यन्त में और पूर्वार्ध धातकीखण्ड के पश्चिम में शीतोदा महानदी १. वृत्ति में 'पंचदश योजनशतसहस्राणि एकाशीति सहस्राणि शतमेकोनचत्वारिंशं च किंचिद्विशेपोनं परिक्षेपेण' ऐसा उल्लेख है। (कुछ कम है)। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : लवणशिखा की वक्तव्यता] [३ के ऊपर लवणसमुद्र का विजय नामक द्वार है । वह आठ योजन ऊंचा और चार योजन चौड़ा है, आदि वह सब कथन करना चाहिए जो जम्बूद्वीप के विजयद्वार के लिए कहा गया है। इस विजय देव की राजधानी पूर्व में असंख्य द्वीप, समुद्र लांघने के बाद अन्य लवणसमुद्र में है। . हे भगवन् ! लवणसमुद्र में वैजयन्त नामकद्वार कहां है? गौतम! लवणसमुद्र के दाक्षिणात्य पर्यन्त में धातकीखण्ड द्वीप के दक्षिणार्ध भाग के उत्तर में वैजयन्त नामक द्वार है। शेष वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए। इसी प्रकार जयन्तद्वार के विषय में जानना चाहिए। विशेषता यह है कि यह शीता महानदी के ऊपर है। इसी प्रकार अपराजित द्वार के विषय में जानना चाहिए। विशेषता यह है कि यह लवणसमुद्र के उतरी पर्यन्त में और उत्तरार्ध धातकीखण्ड के दक्षिण में स्थित है। इसकी राजधानी अपराजितद्वार के उत्तर में असंख्य द्वीप समुद्र जाने के बाद अन्य लवणसमुद्र में है। हे भगवन् ! लवणसमुद्र के इन द्वारों का एक द्वार से दूसरे के अपान्तराल का अन्तर कितना कहा गया है? गौतम! तीन लाख पंचानवै हजार दो सौ अस्सी (३९५२८०) योजन और एक कोस का एक द्वार से दूसरे द्वार का अन्तर है। ___ हे भगवन् ! लवणसमुद्र के प्रदेश धातकीखण्डद्वीप से छुए हुए हैं क्या? हां गौतम! छुए हुए हैं, आदि सब वर्णन वैसा ही कहना चाहिए जैसा जम्बूद्वीप के विषय में कहा गया है। धातकीखण्ड के प्रदेश लवणसमुद्र से स्पृष्ट हैं, आदि कथन भी पूर्ववत् जानना चाहिए। लवणसमुद्र से मर कर जीव धातकीखण्ड में पैदा होते हैं क्या? आदि कथन भी पूर्ववत् जानना चाहिए। धातकीखण्ड से मरकर लवणसमुद्र में पैदा होने के विषय में भी पूर्ववत् कहना चाहिए। हे भगवन् ! लवणसमुद्र, लवणसमुद्र क्यों कहलाता है? गौतम! लवणसमुद्र का पानी अस्वच्छ है, रजवाला है, नमकीन है, लिन्द्र (गोबर जैसे स्वाद वाला) है, खारा है, कडुआ है, द्विपद-चतुष्पद-मृग-पशु-पक्षी-सरीसृपों के लिए वह अपेय है, केवल लवणसमुद्रयोनिक जीवों के लिए ही वह पेय है, (तद्योनिक होने से वे जीव ही उसका आहार करते हैं।) लवणसमुद्र का अधिपति सुस्थित नामक देव है जो महर्द्धिक है, पल्योपम की स्थिति वाला है । वह अपने सामानिक देवों आदि अपने परिवार का और लवणसमुद्र की सस्थिता राजधानी और अन्य बहत से वहां के निवासी देव-देवियों का आधिपत्य करता हुआ विचरता है । इस कारण हे गौतम! लवणसमुद्र, लवणसमुद्र कहलाता है। दूसरी बात गौतम! यह है कि "लवणसमुद्र'' यह नाम शाश्वत है यावत् नित्य है। (इसलिए यह नाम अनिमित्तिक है।) १.एक-एक द्वार ही पृथुता चार-चार योजना की है। एक-एक द्वार में एक-एक कोस मोटी दो शाखाएं है। एक द्वार की पूरी पृथुता साढ़े चार योजन की है। चारों द्वारों की पृथुता १८ योजन की है। लवणसमुद्र की परिधि में १८ योजन कम करके चार का भाग देने से उक्त प्रमाण आता है। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४] [जीवाजीवाभिगमसूत्र __ १५५. लवणे णं भंते! समुद्दे कति चंदा पभासिंसु वा पभासिंति वा पभासिस्संति वा? एवं पंचण्ह वि पुच्छा। गोयमा! लवणसमुद्दे चत्तारि चंदा पभासिंसु वा ३, चत्तारि सूरिया तविंसु वा ३, बारसुत्तरं नक्खत्तसयं जोगं जोएंसु वा ३, तिण्णि वावण्णा महग्गहसया चारं चरिंसु वा ३, दुण्णिसयसहस्सा सत्तद्धिं च सहस्सा नव य सया तारागणकोडाकोडीणं सोभं सोभिंसु वा ३। १५५. हे भगवन् ! लवणसमुद्र में कितने चन्द्र उद्योत करते थे, उद्योत करते हैं और उद्योत करेंगे? इस प्रकार चन्द्र को मिलाकर पांचों ज्योतिष्कों के विषय में प्रश्न समझने चाहिए। गौतम! लवणसमुद्र में चार चन्द्रमा उद्योत करते थे, करते हैं और करेंगे। चार सूर्य तपते थे, तपते हैं और तपेंगे, एक सौ बारह नक्षत्र चन्द्र से योग करते थे, योग करते हैं और योग करेंगे। तीन सौ बावन महाग्रह चार चरते थे, चार चरते हैं और चार चरेंगे। दो लाख सड़सठ हजार नौ सौ कोडाकोडी तारागण क्षोभित होते थे, शोभित होते हैं और शोभित होंगे। जलवृद्धि का कारण १५६. कम्हा णं भंते! लवणसमुद्दे चाउद्दसठ्ठमुद्दिट्ठपुण्णमासिणीसु अतिरेगं अतिरेगं वडति वा हायति वा? ___ गोयमा! जंबुद्दीवस्स णं दीवस्स चउद्दिसिं बाहिरिल्लाओ वेइयंताओ लवणसमुदं पंचाणउइं पंचाणउई जोयणसहस्साई ओगाहित्ता एत्थ णं चत्तारि महालिंजरसंठाणसंठिया महइमहालया महा-पायाला पण्णत्ता, तं जहा-वलयामुहे , के तुए, जूवे, ईसरे। ते णं महापाताला एगमेगं जोयणसयसहस्सं उव्वेहेणं, मूले दसजोयणसहस्साई विक्खंभेणं मझे एगपएसियाए सेढीए एगमेगं जोयणसयसहस्सं विक्खंभेणं,उवरिं मुहमूले दसजोयणसहस्साई विक्खंभेणं। तेसिं णं महापायालाणं कुड्डा सव्वत्थ समा दसजोयणसयबाहल्ला पण्णत्ता सव्ववइरामया अच्छा जाव पडिरूवा। तत्थ णं बहवे जीवा पोग्गला य अवक्कमति विउक्कमति चयंति उवचयंति सासया णं ते कुड्डा दव्वट्ठयाए वण्णपज्जवेहिं असासया। तत्थ णं चत्तारि देवा महिड्डिया जाव पलिओवमट्टिईया परिवसंति, तं जहा-काले, महाकाले, वेलंबे, पभंजणे। तेसिं णं महापायालाणं तओ तिभागा पण्णत्ता, तं जहा हेट्ठिल्ले तिभागे, मज्झिल्ले तिभागे, उवरिल्ले तिभागे। ते णं तिभागा तेत्तीसं जोयणसहस्सा तिण्णि य तेत्तीसं जोयणसयं जोयणतिभागं च बाहल्लेणं । तत्थ णं जे से हेट्ठिल्ले तिभागे एत्थ णं वाउकाओ संचिट्ठइ। तत्थ णं जे से मज्झिल्ले चत्तारि चेव चन्दा चत्तारि य सूरिया लवणतोए। बारं नक्खत्तसयं गहाण तिनेव बावन्ना ॥१॥ दो चेव सयसहस्सा सत्तट्ठी खलु भवे सहस्सा य। नव य सया लवणजले तारागणकोडिकोडीणं ॥२॥ लवणसमुद्र में तारागणों की संख्या अंकों में २६७९०००००००००००००००० इतनी है। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : जलवृद्धि का कारण] तिभागे एत्थ णं वाउकाए य आउकाए य संचिट्ठइ। तत्थ णं जे से उवरिल्ले तिभागे एत्थ णं आउकाए संचिट्ठइ। अदुत्तरं च गोयमा! लवणसमुद्दे तत्थ तत्थ देसे बहवे खुड्डालिंजरसंठाणसंठिया खुड्डपायालकलसा पण्णत्ता। ते णं खुड्डापायाला एगमेगं जोयणसहस्सं उव्वेहेणं, मूले एगमेगं जोयणसयं विक्खंभेणं, मज्झे एगपएसियाए सेढीए एगमेगं जोयणसहस्सं विक्खंभेणं उप्पिं मुहमूले एगमेगं जोयणसयं विक्खंभेणं। तेसिंणं खुड्डागपायालाणं कुड्डा सव्वत्थ समा दस जोयणाई बाहल्लेणं पण्णत्ता, सव्ववइरामया अच्छा जाव पडिरूवा। तत्थ णं बहवे जीवा पोग्गला य जाव असासया वि। पत्तेयं पत्तेयं अद्धपलिओ-वमट्ठिइयाहिं देवयाहिं परिग्गहिया। तेसिं णं खुड्डगपायालाणं तओ तिभागा पण्णत्ता, तं जहा हेछिल्ले तिभागे, मज्झिल्ले तिभागे, उवरिल्ले तिभागे। ते णं तिभागा तिणि तेत्तीसे जोयणसए जोयणतिभागं च वाहल्लेणं पण्णते। तत्थ णं जे से हेट्ठिल्ले तिभागे एत्थ णं वाउकाए, मज्झिल्ले तिभागे वाउकाए आउकाए य, उवरिल्ले आउकाए। एवामेव सपुव्वावरेणं लवणसमुद्दे सत्त पायालसहस्सा अट्ठ य चुलसीया पायालसया भवंतीति मक्खाया। - तेसिं णं महापायालाणं खुड्डगपायालाण य हेट्ठिममज्झिमिल्लेसु तिभागेसु बहवे ओराला वाया संसेयंति संमुच्छिमंति एयंति चलंति कंपंति खुब्भंति घटेंति फंदंति, तं तं भावं परिणमंति, तया णं से उदए उण्णामिज्जइ, जया णं तेसिं महापायालाणं खुड्डुगपायालाण य हेट्ठिल्लमज्जिमिल्लेसु तिभागेसु नो बहवे ओराला जाव तं तं भावं न परिणमंति, तया णं से उदए न उन्नामिज्जइ। अंतरा वि य णं तेवायं उदीरेंति, अंतरा वि य णं से उदगे उन्नामिजइ, अंतरा वि य ते वायं नो उदीरेंति, अंतरा वि यणं से उदए नो उन्नामिजइ, एवं खलु गोयमा ! लवणसमुद्दे चाउद्दसट्ठमुदिट्ठपुण्णमासिणीसु अरेगं वड्डइ वा हायइ वा। १५६. हे भगवन् ! लवणसमुद्र का पानी चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णिमा तिथियों में अतिशय बढ़ता है और फिर कम हो जाता है, इसका क्या कारण है? हे गौतम! जम्बूद्वीप नामक द्वीप की चारों दिशाओं में बाहरी वेदिकान्त से लवणसमुद्र में पिच्यानवै हजार(९५०००) योजन आगे जाने पर महाकुम्भ के आकार के बहुत विशाल चार महापातालकलश हैं, जिनके नाम हैं - वलयामुख, केयूप; यूप और ईश्वर । ये पातालकलश एक लाख योजन जल में गहरे प्रविष्ट हैं, मूल में इनका विष्कम्भ दस हजार योजन है और वहां से एक-एक प्रदेश की एक-एक श्रेणी से वृद्धिगत होते हुए मध्य में एक-एक लाख योजन चौड़े हो गये हैं। फिर एक-एक प्रदेश श्रेणी से हीन होते-होते ऊपर मुखमूल में दस हजार योजन के चौड़े हो गये हैं।' इन पातालकलशों की भित्तियां सर्वत्र समान हैं । ये सब एक हजार योजन की मोटी हैं। ये सर्वथा १. उक्तं च-जोयणसहस्सदसगं मूले उवरिं च होंति वित्थिण्णा। मज्झे य सयसहस्सं तित्तियमेत्तं च ओगाढ़ा। -संग्रहणीगाथा Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६] [ जीवाजीवाभिगमसूत्र वज्ररत्न की हैं, आकाश और स्फटिक के समान स्वच्छ हैं, यावत् प्रतिरूप हैं। इन कुड्यों (भित्तियों) में बहुत से जीव उत्पन्न होते है और निकलते हैं, बहुत से पुदगल एकत्रित होते रहते हैं। और बिखरते रहते हैं, वहां पुद्गलों का चय - अपचय होता रहता है । वे कुड्य (भित्तियां) द्रव्यार्थिक नय की अपक्षा से शाश्वत हैं और वर्ण-गंध-रस स्पर्शादि पर्यायों से अशाश्वत हैं। उन पातालकलशों में पल्योपम की स्थिति वाले चार महर्द्धिक देव रहते हैं, उनके नाम हैं- काल, महाकाल, वेलंब और प्रभंजन । न महापातालकलशों के तीन त्रिभाग कहे गये हैं - १. निचला त्रिभाग २. मध्य का त्रिभाग और ३. ऊपर का त्रिभाग। ये प्रत्येक त्रिभाग तेतीस हजार तीन सौ तेतीस योजन और एक योजन का त्रिभाग (३३३३३ १/३) जितने मोटे हैं। इनके निचले त्रिभाग में वायुकाय है, मध्यम त्रिभाग में वायुकाय और अपकाय है और ऊपर के त्रिभाग में केवल अप्काय है। इसके अतिरिक्त हे गौतम! लवणसमुद्र में इन महापातालकलशों के बीच में छोटे कुम्भ की आकृति के छोटे-छोटे बहुत से छोटे पातालकलश हैं। वे छोटे पातालकलश एक-एक हजार योजन पानी में गहरे प्रविष्ट हैं, एक-एक सौ योजन की चौड़ाई वाले हैं और एक-एक प्रदेश की श्रेणी से वृद्धिगत होते हुए मध्य में एक हजार योजन के चौड़े हो गये हैं और फिर एक-एक प्रदेश की श्रेणी से हीन होते हुए मुखमूल में ऊपर एक-एक सौ योजन के चौड़े रह गये हैं । उन छोटे पातालकलशों की भित्तियां सर्वत्र समान हैं और दस योजन की मोटी हैं, सर्वात्मना वज्रमय है स्वच्छ हैं यावत् प्रतिरूप हैं । उनमें बहुत से जीव उत्पन्न होते हैं, निकलते हैं, बहुत से पुदगल एकत्रित होते हैं, बिखरते हैं, उन पुदगलों का चय- अपचय होता रहता है । वे भित्तियां द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा शाश्वत हैं और वर्णादि पर्यायों की अपेक्षा अशाश्वत हैं। उन छोटे पातालकलशों में प्रत्येक में अर्धपल्योपम की स्थिति वाले देव रहते हैं । उन छोटे पातालकलशों के तीन त्रिभाग कहे गये हैं - १. निचला त्रिभाग २. मध्य का त्रिभाग और ३. ऊपर का त्रिभाग। ये त्रिभाग तीन सौ तेतीस योजन और योजन का त्रिभाग ( ३३३ 1/3 ) प्रमाण मोटे हैं। इनमें से निचले त्रिभाग में वायुकाय है, मझले त्रिभाग में वायु काय और अपकाय है और ऊपर के त्रिभाग में अपकाय है । इस प्रकार पूर्वापर सब मिलाकर लवणसमुद्र में सात हजार आठ सौ चौरासी (७८८४) पातालकलश कहे गये हैं । बहुत उन महापाताल ओर क्षुद्रपाताल कलशों के निचले और बिचले त्रिभागों में से उर्ध्वगमन स्वभाव वाले अथवा प्रबल शक्ति वाले वायुकाय उत्पन्न होने के अभिमुख होते हैं, संमूर्च्छन जन्म से आत्मलाभ करते हैं, कंपित होते हैं, विशेषरूप से कंपित होते हैं, जोर से चलते हैं, परस्पर में घर्षित होते हैं, शक्तिशाली होकर इधर-उधर और ऊपर फैलते हैं, इस प्रकार वे भिन्न-भिन्न भाव में परिणत होते हैं तब वह समुद्र का पानी उनसे क्षुभित होकर ऊपर उछाला जाता । जब उन महापाताल और क्षुद्रपाताल कलशों के निचले और बिचले त्रिभागों में बहुत से प्रबल शक्तिवाले वायुकाय उत्पन्न नहीं १. उक्तं च- जोयणसयवित्थिण्णा मूले उवरिं दससयाणि मज्झमि । ओगाढा य सहस्सं दसजोयणिया य से कुड्डा ॥ - संग्रहणीगाथा Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति: लवणशिखा की वक्तव्यता ] [ ७ होते यावत् उस-उस भाव में परिणत नहीं होते तब वह पानी नहीं उछलता है। अहोरात्र में दो बार (प्रतिनियत काल में ) और पक्ष में चतुर्दशी आदि तिथियों में (तथाविध जगत् स्वभाव से) लवणसमुद्र का पानी उन वायुकाल से प्रेरित होकर विशेष रूप से उछलता है । प्रतिनियत काल को छोड़कर अन्य समय में नहीं उछलता है । इसलिए हे गौतम! लवणसमुद्र का जल चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णिमा तिथियों में विशेष रूप से बढ़ता है और घटता है ( अर्थात लवणसमुद्र में ज्वार और भाटा का क्रम चलता है । जब उन्नामक वायुकाय का सद्भाव होता है तब जलवृद्धि और जब उन्नामक वायु अभाव होता है तब जलवृद्धि का अभाव होता है ।) १५७. लवणे णं भंते! समुद्दे तीसाए मुहुत्ताणं कतिखुत्तो अतिरेगं अतिरेगं वड्डइ वा हायइ वा? गोयमा! लवणे णं समुद्दे तीसाए मुहुत्ताणं दुक्खुत्तो अतिरेगं अतिरेगं वड्ढइ वा हायइ वा । से केणट्ठे भंते! एवं बुच्चई, लवणे णं समुद्दे तीसाए मुहुत्ताणं दुक्खुत्तो अतिरेगं अतिरेगं वड्ढइ वा हायइ वा ? गोयमा! उड्ढमंतेसु पायालेसु वड्ढइ आपूरिएसु पायालेसु हायइ, से तेणट्ठेणं, गोयमा ! लवणे णं समुद्दे तीसाए मुहुत्ताणं दुक्खुत्तो अतिरेगं अतिरेगं वड्ढइ वा हायइ वा । १५७. . हे भगवन् ! लवणसमुद्र ( का जल ) तीस मुहूर्तो में ( एक अहोरात्र में ) कितनी बार विशेषरूप से बढ़ता है या घटता है ? हे गौतम! लवणसमुद्र का जल तीस मुहूर्तों में (एक अहोरात्र में ) दो बार विशेष रूप से उछलता है और घटता है। हे भगवन् ! ऐसा क्यों कहा जाता कि उछलता है और फिर घटता है ? लवणसमुद्र का जल तीस मुहूर्तों में दो बार विशेष रूप से हे गौतम! निचले और मध्य के त्रिभागों में जब वायु के संक्षोभ से पातालकलशों में से पानी ऊँचा उछलता है तब समुद्र में पानी बढ़ता है और जब वे पातालकलश वायु के स्थिर होने पर जल से आपूरित बने रहते है, तब पानी घटता है । इसलिए हे गौतम! ऐसा कहा जाता है कि लवणसमुद्र तीस मुहूर्तों में दो बार विशेष रूप से उछलता है और घटता है । ( तथाविध जगत्-स्वभाव होने से ऐसी स्थिति एक अहोरात्र में दो बार होती है ।) लवणशिखा की वक्तव्यता १५८. लवणसिहा णं भंते ! केवइयं चक्कवालविक्खंभेणं केवइयं अइरेगं वड्ढइ वा हायइ २. उक्तं च-अन्ने वि य पायाला खुड्डालंजरगसंठिया लवणे । अट्ठसया चुलसीया सत्त सहस्सा य सव्वे वि ॥ १ ॥ पायालाण विभागा सव्वाण वि तिन्नि तिन्नि विन्नेया । मिभागे वाऊ, मज्झे वाऊ य उदगं य ॥२॥ उवरिं उदगं भणियं पढमगबीएसु वाउ संखुभिओ । उड्ढं वामेइ उदगं परिवड्ढइ जलनिही खुभिओ ॥ ३ ॥ - संग्रहणीगाथाएं Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८] [ जीवाजीवाभिगमसूत्र वा? गोयमा! लवणसिहा णं दस जोयणसहस्साइं चक्कवालविक्खंभेणं देसूणं अद्धजोयणं अइरेगं वड्ढइ वा हायइ वा । लवणस्स णं भंते । समुद्दस्स कति णागसाहस्सीओ अब्भितरियं वेलं धारेंति ? कइ नागसाहस्सीओ वाहिरियं वेलं धारेंति ? कइ नागसाहस्सीओं अग्गोदयं धारेंति ? गोयमा ! लवणसमुद्दस्स बायालीसं णागसाहस्सीओ अब्भितरियं वेलं धारेंति, बावत्तरिं नागसाहस्सीओ बाहिरियं वेलं धारेंति, सठि णागसाहस्सीओ अग्गोदयं धारेंति, एवमेव सपुव्वावरेण एगा णागसयसाहस्सी चोवतरिं च णागसहस्सा भंवतीति मक्खाया। १५८. हे भगवन्! लवणसमुद्र की शिखा चक्रवालविष्कम्भ से कितनी चौड़ी है और वह कितनी बढ़ती है और कितनी घटती है ? हे गौतम! लवणसमुद्र की शिखा चक्रवालविष्कंभ की अपेक्षा दस हजार योजन चौड़ी है और कुछ कम आधे योजन तक वह बढती है और घटती है । हे भगवन्! लवणसमुद्र की आभ्यन्तर वेला को कितने हजार नागकुमार देव धारण करते हैं ? बाह्य वेला को कितने हजार नागकुमार देव धारण करते हैं? कितने हजार नागकुमार देव अग्रोदक को धारण करते हैं ? गौतम ! लवणसमुद्र की आभ्यन्तर वेला को बयालीस हजार नागकुमार देव धारण करते हैं । बाह्यवेला को बहत्तर हजार नागकुमार देव धारण करते हैं। साठ हजार नागकुमार देव अग्रोदक को धारण करते हैं । इस प्रकार सब मिलाकर इन नागकुमारों की संख्या एक लाख चौहत्तर हजार कही गई है । विवेचन- लवणसमुद्र की शिखा सब ओर से चक्रवालविष्कंभ से समप्रमाण वाली और दस हजार योजन चक्रवाल विस्तार वाली है । वह शिक्षा कुछ कम अर्धयोजन (दो कोस) प्रमाण अतिशय से बढ़ती है और उतनी ही घटती है। इसकी स्पष्टता इस प्रकार है लवणसमुद्र में जम्बूद्वीप से और धातकीखण्ड द्वीप से पंचानवै-पंचानवै हजार योजन तक गोतीर्थ है । गोतीर्थ का अर्थ है तडागादि में प्रवेश करने का क्रमशः नीचे-नीचे का भूप्रदेश । मध्यभाग का अवगाह दस हजार योजन का है। जम्बूद्वीप की वेदिकान्त के पास और धातकीखण्ड की वेदिका के पास अंगुल का असंख्यातवां भाग प्रमाण गोतीर्थ है। इसके आगे समतल भूभाग से लेकर क्रमश: प्रदेशहानि से तब तक उत्तरोत्तर नीचा-नीचा भूभाग समझना चाहिए, जहां तक पंचानवै हजार योजन की दूरी आ जाय । पंचानवै हजार योजन की दूरी तक समतल भूभाग की अपेक्षा एक हजार योजन की गहराई है। इसलिए जम्बूद्वीपवेदिका और धातकीखण्डवेदिका के पास उस समतल भूभाग में जलवृद्धि अंगुलासंख्येय भाग प्रमाण होती है। इससे आगे समतल भूभाग में प्रदेशवृद्धि से जलवृद्धि क्रमश: बढ़ती हुई जाननी चाहिए, जब तक दोनों ओर ९५ हजार योजन की दूरी आ जाय। यहां समतल भूभाग की अपेक्षा सात सौ योजन की जलवृद्धि होती है । अर्थात वहां समतल भूभाग से एक हजार योजन की Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति: लवणशिखा की वक्तव्यता ] [९ गहराई है और उसके ऊपर सात सौ योजन की जलवृद्धि होती है। उससे आगे मध्यभाग में दस हजार योजन विस्तार में एक हजार योजन की गहराई है और जलवृद्धि सोलह हजार योजन प्रमाण है । पातालकलशगत वायु के क्षुभित होने से उनके ऊपर एक अहोरात्र दो बार कुछ कम दो कोस प्रमाण अतिशय रूप में उदक की वह वृद्धि होती है और जब पातालकलशगत वायु उपशान्त होता है, तब वह जलवृद्धि नहीं होती है । यही बात इन गाथाओं में कही है पंचाणउयसहस्से गोतित्थं उभयओ वि लवणस्स । जोयणसयाणि सत्त उदग परिवुड्ढीवि उभयो वि ॥१ ॥ दसजोयणसाहस्सा लवणसिहा चक्कवालओ रूंदा । सोलससहस्स उच्चा सहस्समेगं च ओगाढा ॥ २ ॥ देसूणमद्धजोयण लवणसिहोवरि दुगं दुवे कालो । अइरे गं अइरे गं परिवुड्ढइ हायए वा वि ॥३॥ लवणसमुद्र की आभ्यन्तर वेला को अर्थात जम्बूद्वीप की और बढ़ती हुई शिखा को और उस पर बढ़ते हुए जल को सीमा से आगे बढ़ने से रोकने वाले भवनपतिनिकाय के अन्तर्गत आने वाले बयालीस हजार नागकुमार देव हैं। इसी तरह लवणसमुद्र की बाह्य वेला अर्थात धातकीखण्ड की ओर अभिमुख होकर बढ़ने वाली शिखा और उसके ऊपर की अतिरेक वृद्धि को आगे बढ़ने से रोकने वाले बहत्तर हजार नागकुमार देव हैं । लवणसमुद्र के अग्रोदक को ( देशोन अर्धयोजन से ऊपर बढ़ने वाले जल को ) रोकने वाले साठ हजार नागकुमार देव हैं। ये नागकुमार देव लवणसमुद्र की वेला को मर्यादा में रखते हैं। इन सब वेलंधर नागकुमारों की संख्या एक लाख चौहत्तर हजार है। १५९. ( अ ) - कति णं भंते ! वेलंधरा णागराया पण्णत्ता ? गोग्रमा ! चत्तारि वेलंधरा णागराया पण्णत्ता, तं जहा- गोथूभे, सिवए, संखे, मणोसिलए । एतेसि णं भंते! चउण्हं वेलंधरणागरायाणं कति आवासपव्वया पण्णत्ता ? गोयमा ! चत्तारि आवासपव्वया पण्णत्ता, तं जहा- गोथूभे, उदगभासे, संखे, दगसीमाए । कहि णं भंते! गोथूभस्स वेलंधरणागरायस्स गोथूभे णामं आवासपव्वए पण्णत्ते ? गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पुरत्थिमेणं लवणं समुदं बायालीसं जोयणसहस्साइं ओगाहित्ता एत्थ णं गोथूभस्स वेलंधरणागरायस्स गोथूभे णामं आवासपव्वए पण्णत्ते सत्तरस एकवीसाइं जोयणसयाई उड्ढं उच्चतेणं चत्तारि तीसे जोयणसए कोसं च उव्वेणं मूले दसवावीसे जोयणसए आयामविक्खंभेणं, मज्झे सत्ततेवीसे जोयणसए उवरिं चत्तारि चउवीसे जोयणसए आयामविक्खंभेणं मूले तिणि जोयणसहस्साइं दोण्णि य बत्तीसुत्तरे जोयणसए किंचिविंसेसूणे परिक्खेवेणं, मज्झे दो जोयणसहस्साइं दोण्णि य छलसीए जोयणसए किंचिविसेसूणे परिक्खेवेणं, मूले वित्थिण्णे मझे संखित्ते उपिं तणुएं गोपुच्छसंठाणसंठिए सव्वकणगामए अच्छे जाव पडिरूवे । से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेणं य वणसंडेणं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते । दोण्ह वि वणओ । Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ जीवाजीवाभिगमसूत्र गोथूभस्स णं आवासपव्वयस्स उवरिं बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते जाव आसयंति। तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं एगे महं पासायवडेंसए बावट्ठ जोयणद्धं च उड्ढं उच्चत्तेणं तं चेव पमाणं अद्धं आयामविक्खंभेणं वण्णओ जाव सीहासणं सपरिवारं । १०] सेकेणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ गोथूभे आवासपव्वए गोथूभे आवासपव्वए ? गोयमा ! गोथूभे णं आवासपव्वए तत्थ तत्थ देसे तहिं तहिं बहुओ खुड्डाखुड्डियाओ जाव गोभवणाई बहुई उप्पलाई तहेव जाव गोथूभे तत्थ देवे महिड्डिए जाव पलिओवमट्ठईए परिवसति । से णं तत्थ चउण्हं सामाणियसाहस्सीणं जाव गोथूभयस्स आवासपव्वयस्स गोथूभाए रायहाणीए वह । सेट्ठेणं जाव णिच्चा । रायहाणी पुच्छा ? गोयमा ! गोथूभस्स आवासपव्वयस्स पुरत्थिमेणं तिरियमसंखेज्जे दीवसमुद्दे वीईवइत्ता अण्णम्मि लवणसमुद्दे तं चेव पमाणं तहेव सव्वं । १५९. (अ) हे भगवन् ! वेलंधर नागराज कितने कहे गये हैं ? गौतम ! वेलंधर नागराज चार कहे गये हैं, उनके नाम हैं गोस्तूप, शिवक, शंख और मनःशिलाक । हे भगवन् ! इन चार वेलंधर नागराजों के कितने आवासपर्वत कहे गये हैं ? गौतम! चार आवासपर्वत कहे गये हैं । उनके नाम हैं - गोस्तूप, उदकभास, शंख और दकसीम। हे भगवन् ! गोस्तूप वेलंधर नागराज का गोस्तूप नामक आवासपर्वत कहां है ? गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप के मेरूपर्वत के पूर्व में लवणसमुद्र में बयालीस हजार योजन आगे जाने पर गोस्तूप वेलंधर नागराज का गोस्तूप नाम का आवासपर्वत है। वह सत्रह सौ इक्कीस ( १७२१) योजन ऊँचा, चार सौ तीस योजन एक कोस पानी में गहरा, मूल में दस सौ बाईस (१०२२) योजन लम्बा-चौड़ा, बीच में सात सौ तेईस (७२३) योजन लम्बा-चौड़ा और ऊपर चार सौ चौबीस (४२४) योजन लम्बा-चौड़ा है। उसकी परिधि मूल में तीन हजार दो सौ बत्तीस (३२३२) योजन से कुछ कम, मध्य में दो हजार दो सौ चौरासी (२२८४) योजन से कुछ अधिक और ऊपर एक हजार तीन सौ इकतालीस (१३४१) योजन से कुछ कम है। यह मूल में विस्तीर्ण मध्य में संक्षिप्त और ऊपर पतला है, गोपुच्छ के आकार से संस्थित है, सर्वात्मना कनकमय है, स्वच्छ है यावत् प्रतिरूप है । वह एक पद्मवरवेदिका और एक वनखंड से चारों ओर से परिवेष्टित है। दोनों का वर्णन कहना चाहिए । गोस्तूप आवासपर्वत के ऊपर बहुसमरमणीय भूमिभाग कहा गया है, आदि सब वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए यावत् वहां बहुत से नागकुमार देव और देवियां स्थित होती हैं । उस बहुसमरमणीय भूमिभाग के बहुमध्य देशभाग में एक बड़ा प्रासादावतंसक है जो साढ़े बासठ योजन ऊँचा है, सवा इकतीस योजन का लम्बा-चौड़ा है, आदि वर्णन विजयदेव के प्रासादावतंसक के समान जानना चाहिए यावत् सपरिवार सिंहासन का कथन करना चाहिए । Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : लवणशिखा की वक्तव्यता] [११ हे भगवन् ! गोस्तूप आवासपर्वत, गोस्तूप आवासपर्वत क्यों कहा जाता है? __ हे गौतम! गोस्तूप आवासपर्वत पर बहुत-सी छोटी-छोटी बावड़ियां आदि हैं, जिनमें गोस्तूप वर्ण के बहुत सारे उत्पल कमल आदि हैं यावत् वहां गोस्तूप नामक महर्द्धिक और एक पल्योपम की स्थितिवाला देव रहता है । वह गोस्तूप देव चार हजार सामानिक देवों यावत् गोस्तूप आवास पर्वत और गोस्तूपा राजधानी का आधिपत्य करता हुआ विचरता है। इस कारण वह गोस्तूप आवास पर्वत कहा जाता है । यावत् वह गोस्तूपा आवासपर्वत (द्रव्य से) नित्य है । अतएव उसका यह नाम अनादिकाल से चला आ रहा है। हे भगवन् ! गोस्तूप देव की गोस्तूपा राजधानी कहां है? हे गौतम! गोस्तूप आवासपर्वत के पूर्व में तिर्यदिशा में असंख्यात द्वीप-समुद्र पार करने के बाद अन्य लवणसमुद्र में गोस्तूपा राजधानी है। उसका प्रमाण आदि वर्णन विजया राजधानी की तरह कहना चाहिए। १५९. (आ) कहि णं भंते ! सिवगस्स वेलंधरणागरायस्स दओभासणामे आवासपव्वए पण्णत्ते? गोयमा ! जंबुद्दीवे णं दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दक्खिणेणं लवणसमुदं बायालीसं 'जोयणसहस्साई ओगाहित्ता एत्थ णं सिवगस्स वेलंधरणागरायस्स दोभासे णामं आवासपव्वए पण्णत्ते, तं चेव पमाणं जं गोथूभस्स, णवरि सव्वअंकामए अच्छे जाव पडिरूवे जाव अट्ठो भाणियव्वो। गोयमा ! दोभासे णं आवासपव्वए लवणसमुद्दे अट्ठजोयणियखेत्ते दगं सव्वओ समंता ओभासेइ, उज्जोवेइ, तवेइ, पभासेइ, सिवए एत्थ देवे महिड्डिए जाव रायहाणी से दक्खिणेणं सिविगा दओभासस्स सेसं तं चेव। कहि णं भंते ! संखस्स वेलंधरणागरायस्स संखे णामं आवासपव्वए पण्णत्ते ? · गोयमा ! जंबुद्दीवे णं दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पच्चत्थिमेणं बायालीसं जोयणसहस्साई एत्थ णं संखस्स वेलंधरणागरायस्स संखे णामं आवासपव्वए, तं चेव पमाणं, णवरं सव्वरयणामए अच्छे। से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेण य वणसंडेण जाव अट्ठो बहूओ खुड्डा खुड्डियाओ जाव बहूई उप्पलाई संखाभाई संखवण्णाई। संखे एत्थ देवे महिड्ढिए जाव रायहाणीए, पच्चत्थिमेणं संखस्स आवास-पव्वयस्स संखा नाम रायहाणी, तं चेव पमाणं। कहि णं भंते ! मणोसिलगस्स वेलंधरणागरायस्स उदगसीमाए णामं आवासपव्वए पण्णत्ते? गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स उत्तरेणं लवणसमुदं बायालीसं जोयणसहस्साइं ओगाहित्ता एत्थ णं मणोसिलगस्स वेलंधरणागरायस्स उदगसीमाए णामं आवासपव्वए पण्णत्ते, तं चेव पमाणं। णवरि सव्वफलिहामए अच्छे जाव अट्ठोः गोयमा ! दगसीमंते णं आवासपव्वए सीतासीतोदगाणं महाणदीणं तत्थ गए सोए पडिहम्मइ, से तेणद्वेणं जाव णिच्चे, मणोसिलए एत्थ देवे महिड्डिए जाव से णं तत्थ चउण्हं सामाणियसाहस्सीणं जाव विहरइ। कहि णं भंते ! मणोसिलगस्स वेलंधरणागरायस्स मणोसिलाणामं रायहाणी ? गोयमा ! Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२] [जीवाजीवाभिगमसूत्र दगसीमस्स आवासपव्वयस्स उत्तरेणं तिरियमसंखेज्जे दीवसमुद्दे वीईवइत्ता अण्णम्मि लवणसमुद्दे एत्थ णं मणोसिलिया णामं रायहाणी पण्णत्ता, तं चेव पमाणं जाव मणोसिलए देवे। कणगंकर यय-फालिहमया य वेलंधराणमावासा। अणुवेलंधर राईण पव्वया होति र यणमया॥ १५९. (आ) हे भगवन् ! शिवक वेलंधर नागराज का दकाभास नामक आवास पर्वत कहां है? गौतम! जम्बूद्वीप के मेरूपर्वत के दक्षिण में लवणसमुद्र में बयालीस हजार योजन आगे जाने पर शिवक वेलंधर नागराज का दकाभास नाम का आवासपर्वत है। जो गोस्तूप आवासपर्वत का प्रमाण है, वही इसका प्रमाण है । विशेषता यह है कि यह सर्वात्मना अंकरत्नमय है , स्वच्छ है यावत् प्रतिरूप है । यावत् यह दकाभास क्यों कहा जाता है? गौतम ! लवणसमुद्र में दकाभास नामक आवासपर्वत आठ योजन के क्षेत्र में पानी को सब ओर अति विशुद्ध अंकरत्नमय होने से अपनी प्रभा से अवभासित करता है, (चन्द्र की तरह) उद्योतित करता है, (सूर्य की तरह) तापित करता है, (ग्रहों की तरह) चमकाता है तथा शिवक नाम का महर्द्धिक देव यहां रहता है, इसलिए यह दकाभास कहा जाता है। यावत् शिवका राजधानी का आधिपत्य करता हुआ विचरता है । वह शिवका राजधानी दकाभास पर्वत के दक्षिण में अन्य लवणसमुद्र में है, आदि कथन विजया राजधानी की तरह कहना चाहिए। हे भगवन् ! शंख नामक वेलंधर नागराज का शंख नामक आवासपर्वत कहां है? गौतम ! जम्बूद्वीप के मेरूपर्वत के पश्चिम में बयालीस हजार योजन आगे जाने पर शंख वेलंधर नागराज का शंख नामक आवासपर्वत है। उसका प्रमाण गोस्तप की तरह है। विशेषता यह है कि यह सर्वात्मना रत्नमय है, स्वच्छ है । वह एक पद्मवरवेदिका और एक वनखंड से घिरा हुआ है यावत् यह । शंख नामक आवासपर्वत क्यों कहा जाता है ? गौतम! उस शंख आवासपर्वत पर छोटी छोटी बावड़िया आदि हैं, जिनमें बहुत से कमलादि हैं । जो शंख की आभावाले, शंख के रंगवाले हैं और शंख की आकृति वाले हैं तथा वहां शंख नामक महर्द्धिक देव रहता है । वह शंख नामक राजधानी का आधिपत्य करता हुआ विचरता है। शंख नामक राजधानी शंख आवासपर्वत के पश्चिम में है, आदि विजया राजधानीवत् प्रमाण आदि कहना चाहिए। हे भगवन् ! मन:शिलक वेलंधर नागराज का दकसीम नामक आवासपर्वत किस स्थान पर है? हे गौतम! जम्बूद्वी के मेरूपर्वत की उत्तर दिशा में लवणसमुद्र में बयालीस हजार योजन आगे जाने पर मन:शिलक वेलंधर नागराज का दकसीम नाम का आवासपर्वत है। उसका प्रमाण आदि पर्ववत कहना चाहिए। विशेषता यह है कि यह सर्वात्मना स्फटीक रत्नमय है, स्वच्छ है यावत् यह दकसीम क्यों कहा जाता है ? गौतम ! इस दकसीम आवासपर्वत से शीता-शीतोदा महानदियों का प्रवाह यहां आकर प्रतिहत हो जाता है-लौट जाता है। इसलिए यह उदक की सीमा करने वाला होने से “दकसीम" कहलाता है। यह शाश्वत (नित्य) है इसलिए यह नाम अनिमित्तक भी है। यहां मन:शिलक नाम का महर्द्धिक देव रहता है यावत् वह चार हजार सामानिक देवों आदि का आधिपत्य करता हुआ विचरता है। हे भगवन् ! मन:शिलक वेलंधर नागराज की मन:शिला राजधानी कहां है? गौतम ! दकसीम Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति :लवणशिखा की वक्तव्यता] [१३ आवासपर्वत के उत्तर में तिरछी दिशा में असंख्यात द्वीप-समुद्रपार करने पर अन्य लवणसमुद्र में मन:शिला नाम की राजधानी है। उसका प्रमाण आदि सब वक्तव्यता विजया राजधानी के तुल्य कहना चाहिए यावत् वहां मन:शिलक नामक देव महर्द्धिक और एक पल्योपम की स्थिति वाला रहता है। वेलंधर नागराजों के आवासपर्वत क्रमशः कनकमय, अंकरत्नमय, रजतमय और स्फटिकमय हैं। अनुवेलंधर नागराजों के पर्वत रत्नमय ही हैं। १६०. कहि णं भंते ! अणुवेलंधरणागरायाओ पण्णत्ता ? गोयमा ! चतारि अणुवेलंधरणागरायाओ पण्णत्ता, तं जहा-कक्कोडए, कद्दमए, केलासे, अरूणप्पभे। ___एतेसिं भंते ! चउण्हं अणुवेलंधरणागरायाणं कति आवासपव्वया पण्णत्ता? गोयमा ! चत्तारि आवासपव्वया पण्णत्ता, तं जहा-कक्कोडए, कद्दमए, केलासे अरूणप्पभे। कहिणं भंते ! कक्कोडगस्स अणुवेलंधरणागरायस्स कक्कोडए णामं आवासपव्वए पण्णत्ते? गोयमा ! जबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरपुरच्छिमेणं लवणसमुदं बायालीसं जोयणसहस्साइं ओगाहित्ता एत्थ णं कक्कोडगस्स नागरायस्स कक्कोडए णामं आवासपव्वए पण्णत्ते, सत्तरसइक्कवीसाइं जोयणसयाइं तं चेव पमाणं जं गोथूभस्स णवरि सव्वरयणामए अच्छे जाव निरवसेसं जाव सपरिवारंः अट्ठो से बहूइं उप्पलाइं कक्कोडगप्पभाई सेसं तं चेव णवरि कक्कोडगपव्वयस्स उत्तरपुरच्छिमेणं, एवं तं चेव सव्वं । कद्दमस्स वि सो चेव गमो अपरिसेसिओ, णवरि दाहिणपुरथिमेणं आवासो विजुप्पभा रायहाणी दाहिणपुरत्थिमेणं। कइलासे वि एवं चेव णवरि दाहिणपच्चत्थिमेणं केलासा वि रायहाणी तए चेव दिसाए। अरूणप्पभे वि उत्तरपच्चत्थिमेणं रायहाणी वि ताए चेव दिसाए। चत्तारि वि एगप्पमाणा सव्वरयंणामया य।। १६०. हे भगवन ! अनुवेलंधर नागराज (वेलंधरों की आज्ञा में चलने वाले) कितने हैं ? गौतम ! अनुवेलंधर नागराज चार हैं, उनके नाम हैं-कर्कोटक, कर्दम, कैलाश और अरूणप्रभ। हे भगवन् ! इन चार अनुवेलंधर नागराजों के कितने आवासपर्वत है ? गौतम ! चार आवासपर्वत हैं , यथा -कर्कोटक, कर्दम, कैलाश और अरूणप्रभ। . हे भगवन् ! कर्कोटक अनुवेलंधर नागराज का कर्कोटक नाम का आवासपर्वत कहां है? गौतम ! जंबूद्वीप के मेरूपर्वत के उत्तर पूर्व में (ईशानकोण में) लवणसमुद्र में बयालीस हजार योजन आगे जाने पर कर्कोटक नागराज का कर्कोटक नामक आवासपर्वत है जो सत्रह सौ इकवीस (१७२१) योजन ऊंचा है आदि वही प्रमाण कहना चाहिए जो गोस्तूप पर्वत का है । विशेषता यह है कि यह सर्वात्मना रत्नमय है, स्वच्छ है यावत् सपरिवार सिंहासन तक सब वक्तव्यता पूर्ववत् जानना चाहिए। कर्कोटक नाम देने का कारण यह है कि यहां की बावड़ियों आदि में जो उत्पल कमल आदि हैं, वे कर्कोटक के आकार-प्रकार और वर्ण के हैं। शेष पूर्ववत् कहना चाहिए। यावत उसकी राजधानी Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४] [ जीवाजीवाभिगमसूत्र कर्कोटक पर्वत के उत्तर-पूर्व में तिरछे असंख्यात द्वीप - समुद्र पार करने पर अन्य लवणसमुद्र में है । प्रमाण आदि सब पूर्ववत् है । १. कर्दम नामक' आवासपर्वत के विषय में भी पूरा वर्णन पूर्ववत् है । विशेषता यह है कि मेरूपर्वत के दक्षिण-पूर्व (आग्नेयकोण) में लवणसमुद्र में वयालीस हजार योजन जाने पर यह कर्दमपर्वत स्थित है । विद्युत्प्रभा इसकी राजधानी है जो इस आवासपर्वत से दक्षिण पूर्व (आग्नेयकोण) में असंख्यात द्वीप- समुद्र पार करने पर अन्य लवणसमुद्र में है, आदि वर्णन पूर्वोक्तविजया राजधानी की तरह जानना चाहिए । कैलाश नामक आवासपर्वत के विषय में पूरा वर्णन पूर्ववत् है । विशेषता यह है कि यह मेरू से दक्षिण-पश्चिम (नैर्ऋत्यकोण) में है । इसकी राजधानी कैलाशा है और वह कैलाशपर्वत के दक्षिणपश्चिम (नैर्ऋत्यकोण) में असंख्यात द्वीप - समुद्र पार करने पर अन्य लवणसमुद्र में हैं । अरूणप्रभ नामक आवासपर्वत मेरूपर्वत के उत्तर-पश्चिम (वायव्यकोण) में है । राजधानी भी अरूणप्रभ आवासपर्वत के वायव्यकोण में असंख्य द्वीप - समुद्रों के बाद अन्य लवणसमुद्र में है । शेष सब वर्णन विजया राजधानी की तरह है। ये चारों आवासपर्वत एक ही प्रमाण के हैं और सर्वात्मना रत्नमय हैं। गौतमद्वीप का वर्णन १६१. कहि णं भंते ! सुट्ठियस्स लवणाहिवइस्स गोयमदीवे णामं दीवे पण्णत्ते? गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पच्चत्थिमेणं लवणसमुद्दं बारसजोयणसहस्साइं ओगाहित्ता एत्थ णं सुट्ठियस्स लवणाहिवइस्स गोयमदीवे णामं दीवे पण्णत्ते, बारस जोयणसहस्साई आयामविक्खंभेणं सत्ततीसं जोयणसहस्साइं नव य अडयाले जोयणसए किंचिविसेसूणे परिक्खेवेणं जंबूदीवंतेणं अकोणणउए जोयणाई चत्तालीसं पंचणउट्टभागे जोयणस्स ऊसिए जलंताओ, लवणसमुद्दतेणं दो कोसे ऊ सिए जलंताओ । से णं एगाए य पउमवरवेइयाए एगेणं वणसंडेणं सव्वओ समंता तहेव वण्णओ दोह वि। गोयमदीवस्स णं अंतो जाव बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते । से जहाणामए आलिंगपुक्खरेइ वा जाव आसयंति। तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभागे एत्थ णं सुट्ठियस्स लवणाहिवइस्स एगे महं अइक्कीलावासे णामे भोमेज्जविहारे पण्णत्ते बावट्ठि जोयणाइं अद्धजोयणं य उड्डुं उच्चत्तेणं, एकत्तीसं, जोयणाई कोसं च विक्खंभेणं अणेगखं भसयसन्निविट्ठे भवणवण्णओ भाणियव्वो । अइक्कीलावासस्स णं भोमेज्जविहारस्स अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते जाव मणीणं फासो । तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ एगा मणिपेढिया पण्णत्ता। १. कर्दम आवासपर्वत का देव स्वभावतः यक्षकर्दमप्रिय है। यक्षकर्दम का अर्थ है - कुंकुम, अगुरू, कपूर, कस्तूरी, चन्दन आदि के मिश्रण से जो सुगन्धित द्रव्य निर्मित होता है, वह यक्षकर्दम है। पूर्वपद का लोप होने से कर्दम कहा गया है। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति: गौतमद्वीप का वर्णन [ १५ साणं मणिपेढिया दो जोयणाई आयामविक्खंभेणं जोयणं बाहल्लेणं सव्वमणिमई अच्छा जाव पडिरूवा। तीसे णं मणिपेढियाए उवरिं एत्थ णं देवसयणिज्जे पण्णत्ते, वण्णओ । सेकेणट्ठेणं भंते ! एवं वुच्चइ-गोयमदीवे गोयमदीवे ? तत्थ-तत्थ तहिं तहिं बहूइं उप्पलाई जाव गोयमप्पभाई से एएणट्ठेणं गोयमा ! जाव णिच्चे । कहि णं भंते ! सुट्ठियस्स लवणाहिवइस्स सुट्ठियाणामं रायहाणी पण्णत्ता ? गोयमा ! गोयमदीवस्स पच्चत्थिमेणं तिरियमसंखेजे जाव अण्णम्मि लवणसमुद्दे, बारसजोयणसहस्साइं ओगाहित्ता, एवं तहेव सव्वं णेयव्वं जाव सुट्ठिए देवे । १६१. . हे भगवन् ! लवणाधिपति सुस्थित देव का गौतमद्वीप कहां है ? गौतम ! जम्बूद्वीप के मेरूपर्वत के पश्चिम में लवणसमुद्र में बारह हजार योजन जाने पर लवणाधिपति सुस्थित देव का गौतमद्वीप नाम का द्वीप है । वह गौतमद्वीप बारह हजार योजन लम्बाचौड़ा और सैंतीस हजार नौ सौ अड़तालीस (३७९४८) योजन से कुछ कम परिधि वाला । यह जम्बूद्वीपान्त की दिशा में साढ़े अठयासी (८८९/२) योजन और ४० / ९५ योजन जलान्त से ऊपर उठा हुआ है तथा लवणसमुद्र की ओर जलान्त से दो कोस ऊपर उठा हुआ है। यह गौतमद्वीप एक पद्मवरवेदिका और एक वनखण्ड से सब ओर से घिरा हुआ है। यहां दोनों का वर्णनक कहना चाहिए । गौतमद्वीप के अन्दर यावत् बहुसमरमणीय भूमिभाग है। उसका भूमिभाग मुरज के मढ़े हुए चमड़े की तरह समतल है, आदि सब वर्णन कहना चाहिए यावत् वहां बहुत से वाणव्यन्तर देव-देवियां उठती-बैठती हैं, आदि उस बहुसमरमणीय भूमिभाग के ठीक मध्यभाग में लवणाधिपति सुस्थित देव का एक विशाल अतिक्रीडावास नाम का भौमेय विहार है जो साढ़े बासठ योजन ऊंचा और सवा इकतीस योजन चौड़ा है, अनेक सौ स्तम्भों पर सन्निविष्ट है, आदि भवन का वर्णनक कहना चाहिए | उस अतिक्रीडावास नामक भौमेय विहार में बहुसमरमणीय भूमिभाग है, आदि वर्णन करना चाहिए यावत मणियों का स्पर्श, उस बहुसमरमणीय भूमिभाग के ठीक मध्य में एक मणिपीठिका है। वह मणिपीठिका दो योजन लम्बी-चौड़ी, एक योजन मोटी और सर्वात्मना मणिमय है, स्वच्छ है यावत प्रतिरूप है । उस मणिपीठिका के ऊपर एक देवशयनीय है। उसका पूर्ववत् वर्णन जानना चाहिए । हे भगवन् ! गौतमद्वीप, गौतमद्वीप क्यों कहलाता हैं । गौतम ! गौतमद्वीप में यहां वहां बहुत उत्पल कमल आदि हैं जो गौतम ( गोमेदरत्न) की आकृति और आभा वाले है, इसलिए गौतमद्वीप कहलाता है । यह गौतमद्वीप द्रव्यापेक्षया शाश्वत है अत: इसका नाम भी शाश्वत होने से अनिमित्तक है । T १. वृत्तिकार के अनुसार गौतमद्वीप नाम का कारण शाश्वत होने से अनिमित्तक है। वृत्तिकार पुस्तकान्तर का उल्लेख करते हुए "गोयमदीवे णं दीवे तत्थ - तत्थ तहिं तहिं बहूइं उप्पलाई जाव सहस्सपत्ताइं गोयमपभाई गोयमवण्णाभाई" इस पाठ का होना मानते हैं। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६] [जीवाजीवाभिगमसूत्र हे भगवान ! लवणाधिपति सुस्थित देव की सुस्थिता नाम की राजधानी कहां है? गौतम ! गौतमद्वीप के पश्चिम में तिरछे असंख्य द्वीप-समुद्रों को पार करने के बाद अन्य लवणसमुद्र में सुस्थिता राजधानी है, जो अन्य लवणसमुद्र में बारह योजन आगे जाने पर आती है, इत्यादि सब वक्तव्यता गोस्तूप राजधानीवत् जाननी चाहिए यावत् वहां सुस्थित नाम का महर्द्धिक देव है। जम्बूद्वीपगत चन्द्रद्वीपों का वर्णन १६२. कहि णं भंते ! जंबूद्दीवगाणं चंदाणं चंददीवा णामं दीवा पण्णत्ता? गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरत्थिमेणं लवणसमुदं बारसजोयणसहस्साइं ओगाहित्ता एत्थ णं जंबुद्दीवगाणं चंदाणं चंददीवा णामं दीवा पण्णत्ता, जंबुद्दीवंतेणं अद्धकोणणउड़ जोयणाइं चत्तालीसं पंचाणउई भागे जो यणस्स ऊसिया जलंताओ, लवणसमुदंतेणं दो कोसे ऊसिया जलंताओ, बारसजोयणसहस्साई आयामविक्खंभेणं सेसं तं चेव जहा गोयमदीवस्स परिक्खे वो। पउम-वर वेइया पत्ते यं-पत्तेयं वणसंड परिक्खित्ता, दोण्ह वि वण्णओ, बहुसमरमणिजभूमिभागा जाव जोइसिया देवा आसयंति। तेसिं णं बहुसमरमणिजे भूमिभागे पासायवडेंसगा बासठिं जोयणाई बहुमज्झदेसभागे मणि-पेढियाओ दो जोयणाई जाव सीहासणा सपरिवारा भाणियव्वा तहेब अट्ठोः गोयमा ! बहुस खुड्डासु खुड्डियासु बहूई उप्पलाइं चंदवण्णाभाई चंदा एत्थ देवा महिड्डिया जाव पलिओवमट्ठितिया परिवसंति। ते णं तत्थ पत्तेयं पत्तेयं चउण्हं सामाणियसाहस्सीणं जाव चंददीवाणं चंदाण य रायहाणीणं . अन्नेसिं य बहूणं जोइसियाणं देवाणं देवीणं य आहेवच्चं जाव विहरंति। से तेणढेणं गोयमा ! चंदद्दीवा जाव णिच्चा। कहि णं भंते ! जंबुद्दीवगाणं चंदाणं चंदाओ नाम रायहाणीओ पण्णत्ताओ? गोयमा ! चंदद्दीवाणं पुरत्थिमेणं तिरियं जाव अण्णम्मि जंबुद्दीवे दीवे बारस जोयणसहस्साइं ओगाहित्ता तं चेव पमाणं जाव महड्डिया चंदा देवा। कहि णं भंते ! जंबुद्दीवगाणं सूराणं सूरदीवा णामं दीवा पण्णत्ता ? गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पच्चत्थिमेणं लवणसमुदं बारसजोयणसहस्साई ओगाहित्ता तं चेव उच्चत्तं आयामविक्खंभेणं परिक्खेवो वेदिया, वनसंडो, भूमिभागा जाव आसयंति, पासायवडेंसगाणं तं चेव पमाणं मणिपेढिया सीहासणा सपरिवारा अठ्ठो उप्पलाई सूरप्पभाई सूरा एत्थ देवा जाव रायहाणीओ सगाणं पच्चत्थिमेणं अण्णम्मि जंबुद्दीवे दीवे सेसं तं चेव जाव सूरा देवा। १६२. हे भगवन ! जम्बूद्वीपगत दो चन्द्रमाओं के दो चन्द्रद्वीप कहां पर हैं? गौतम! जम्बूद्वीप के मेरूपर्वत के पूर्व में लवणसमुद्र में बारह हजार योजन आगे जाने पर वहां Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति: जम्बूद्वीपगत चन्द्रद्वीपों का वर्णन ] [ १७ जम्बूद्वीपगत दो चन्द्रों के दो चन्द्रद्वीप कहे गये हैं। ये द्वीप जम्बूद्वीप की दिशा में साढ़े अठासी (८८१/२) योजन और ४०/९५ योजन पानी से ऊपर उठे हुए हैं और लवणसमुद्र की दिशा में दो कोस पानी से ऊपर उठे हुए हैं। ये बारह हजार योजन लम्बे-चौड़े हैं: शेष परिधि आदि सब वक्तव्यता गौतमद्वीप की तरह जाननी चाहिए। ये प्रत्येक पद्मवरवेदिका और वनखण्ड से परिवेष्ठित हैं। दोनों का वर्णनक कहना चाहिए। उन द्वीपों में बहुसमरमणीय भूमिभाग कहे गये हैं यावत् वहां बहुत से ज्योतिष्क देव उठतेबैठते हैं । उन बहुसमरमणीय भागों में प्रासादावतंसक हैं, जो साढ़े बासठ योजन ऊँचे हैं, आदि वर्णन गौतमद्वीप की तरह जानना चाहिए। मध्यभाग में दो योजन की लम्बी चौड़ी, एक योजन मोटी मणिपीठिकाएं हैं, इत्यादि सपरिवार सिंहासन पर्यन्त पूर्ववत् कहना चाहिए । - हे भगवन् ! ये चन्द्रद्वीप क्यों कहलाते हैं ? गौतम ! उन द्वीपों की बहुत-सी छोटी-छोटी बावड़ीया आदि में बहुत से उत्पलादि कमल हैं, जो चन्द्रमा के समान आकृति और आभा (वर्ण) वाले है और वहां चन्द्र नामक महर्द्धिक देव, जो पल्योपम की स्थिती वाले हैं, रहते हैं । वे वहां अलग-अलग चार हजार सामानिक देवों यावत् चन्द्रद्वीपों और चन्द्रा राजधानियों और अन्य बहुत से ज्योतिष्क देवों और देवियों का आधिपत्य करते हुए अपने पुण्य कर्मों का विपाकानुभव करते हुए विचरते हैं । इस कारण हे गौतम ! वे चन्द्रद्वीप कहलाते हैं । हे गौतम ! वे चन्द्रद्वीप द्रव्यापेक्षया नित्य हैं अतएव उनके नाम भी शाश्वत हैं । हे भगवन्। जम्बूद्वीप के चन्द्रों की चन्द्रा नामक राजधानियां कहां हैं? गौतम ! चन्द्रद्वीपों के पूर्व में तिर्यक् असंख्य द्वीप समुद्रों को पार करने पर अन्य जम्बूद्वीप में बारह हजार योजन आगे जाने पर वहां ये राजधानियां हैं। उनका प्रमाण आदि पूर्वोक्त गौतमादि राजधानियां की तरह जानना चाहिए यावत् वहां चन्द्र नामक महर्द्धिक देव हैं। हे भगवन् ! जम्बूद्वीप के दो सूर्यो के दो सूर्यद्वीप कहां है ? गौतम ! जम्बूद्वीप के मेरूपर्वत के पश्चिम में लवणसमुद्र में बारह हजार योजन आगे जाने पर जम्बूद्वीप के दो सूर्यो के दो सूर्यद्वीप हैं । उनका उच्चत्व, आयाम - विष्कंभ, परिधि, वेदिका, वनखण्ड, भूमिभाग, वहां देव-देवियों का बैठनाउठना, प्रासादावतंसक, उनका प्रमाण, मणिपीठिका, सपरिवार सिंहासन आदि चन्द्रद्वीप की तरह कहना चाहिए। हे भगवन् ! सूर्यद्वीप, सूर्यद्वीप क्यों कहलाते है ? हे गौतम! उन द्वीपों की बावड़ियों आदि में सूर्य के समान वर्ण और आकृति वाले बहुत सारे उत्पल आदि कमल हैं, इसलिए वे सूर्यद्वीप कहलाते हैं । सूर्यद्वीप द्रव्यपेक्षया नित्य हैं। अतएव इनका नाम भी शाश्वत है। इनमें सूर्य देव, सामानिक देव आदि का यावत् ज्योतिष्क देव - देवियों का आधिपत्य करते हुए विचरते हैं यावत् इनकी राजधानियां अपनेअपने द्वीपों से पश्चिम में असंख्यात द्वीप समुद्रों को पार करने के बाद अन्य जम्बूद्वीप में बारह हजार योजन आगे जाने पर स्थित हैं । उनका प्रमाण आदि पूर्वोक्त चन्द्रादि राजधानियों की तरह जानना चाहिए यावत् वहां सूर्य नामक महर्द्धिक देव हैं। १६३. कहि णं भंते ! अब्भितरलावणगाणं चंदाणं चंददीवा णामं दीवा पण्णत्ता ? Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८] [जीवाजीवाभिगमसूत्र गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरथिमेणं लवणसमुदं बारस जोयणसहस्साइं ओगाहित्ता एत्थ णं अन्भिंतरलावणगाणं चंदाणं चंददीवा णामं दीवा पण्णत्ता। जहा जम्बुद्दीवगा चंदा तहा भाणियव्वा, णवरि रायहाणीओ अण्णंमि लवणे सेसं तं चेव। एवं अभितरलावणगाणं सूराणवि लवणसमुदं बारस जोयणसहस्साइं तहेव सव्वं जाव रायहाणीओ। कहि णं भंते ! बाहिरलावणगाणं चंदाणं चंददीवा पण्णत्ता ? गोयमा ! लवणसमुद्दस्स पुरथिमिल्लाओ वेदियंताओ लवणसमुदं पच्चत्थिमेणं बारस जोयणसहस्साइं ओगाहित्ता एत्थ णं बाहिरलावणगाणं चंददीवा णामं दीवा पण्णत्ता, धायइसंडदीवंतेणं अद्धेकोणणवतिजोयणाइं चत्तालीसं च पंचणउतिभागे जोयणस्स ऊसिया जलंताओ, लवणसमुदंतेणं दो कोसे ऊसिया बारस जोयणसहस्साइं आयाम-विक्खभेणं पउमवरवेइया वनसंडा बहुसमरमणिजा भूमि-भागा मणिपेढिया सीहासणा सपरिवारा सो चेव अट्ठो रायहाणीओ सगाणं दीवाणं पुरथिमेणं तिरियमसंखेजे दीवसमुद्दे वीईवइत्ता अण्णमि लवणसमुद्दे तहेव सव्वं । कहि णं भंते ! बाहिरलावणगाणं सूराणं सूरदीवा णाम दीवा पण्णत्ता ? गोयमा ! लवणसमुद्दपच्चस्थिमिल्लाओ वेदियंताओ लवणसमुदं पुरथिमेणं बारस जोयणसहस्साइं धायइसंडदीवंतेणं अद्धकोणणउइं जोयणाई चत्तालीसं च पंचणउइभागे जोयणस्स दो कोसे ऊसिया सेसं तहेव जाव रायहाणीओ सगाणं दीवाणं पच्चत्थिमेणं तिस्यिमसंखेज्जे लवणे चेव बारस जोयणा तहेव सव्वं भाणियव्वं। १६३. हे भगवन् ! लवणसमुद्र में रहकर जम्बूद्वीप की दिशा मे शिखा से पहले विचरने वाले (आभ्यन्तर लावणिक) चन्द्रों के चन्द्रद्वीप नामक द्वीप कहां हैं? गौतम ! जम्बूद्वीप के मेरूपर्वत के पूर्व में लवणसमुद्र में बारह हजार योजन जाने पर आभ्यन्तर लावणिक चन्द्रों के चन्द्रद्वीप नामक द्वीप हैं । जैसे जम्बूद्वीप के चन्द्रद्वीपों का वर्णन किया, वैसा इनका भी कथन करना चाहिए। विशेषता यह है कि इनकी राजधानियां अन्य लवणसमुद्र में हैं, शेष पूर्ववत् कहना चाहिए। इसी तरह आभ्यन्तर लावणिक सूर्यों के सूर्यद्वीप लवणसमुद्र में बारह हजार योजन जाने पर वहां स्थित हैं , आदि सब वर्णन राजधानी पर्यन्त चन्द्रद्वीपों के समान जानना चाहिए। हे भगवन् ! लवणसमुद्र में रह कर शिखा से बाहर विचरण करने वाले बाह्य लावणिक चन्द्रों के चन्द्रद्वीप कहां हैं? गौतम ! लवणसमुद्र की पूर्वीय वेदिकान्त से लवणसमुद्र के पश्चिम में बारह हजार योजन जाने पर बाह्य लावणिक चन्द्रों के चन्द्रद्वीप नामक द्वीप हैं, जो धातकीखण्डद्वीपान्त की तरफ साढ़े अठ्यासी योजन और ४०/९५ योजन जलांत से ऊपर हैं और लवणसमुद्रान्त की तरफ जलांत से दो कोस ऊँचे हैं। ये बारह हजार योजन के लम्बे-चौड़े , पद्मवरवेदिका, वनखण्ड, बहुसमरमणीय भूमिभाग, मणिपीठिका, सपरिवार सिंहासन, नाम का प्रयोजन, राजधानियां जो अपने-अपने द्वीप के पूर्व में तिर्यक् असंख्यात Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति :धातकीखंडद्वीपगत चन्द्रद्वीपों का वर्णन] [१९ द्वीप-समुद्रों को पार करने पर अन्य लवणसमुद्र में है, आदि सब कथन पूर्ववत् जानना चाहिए। हे भगवन् ! बाह्य लावणिक सूर्यों के सूर्यद्वीप नाम के द्वीप कहां हैं? गौतम ! लवणसमुद्र की पश्चिमी वेदिकान्त से लवणसमुद्र के पूर्व में बारह हजार योजन जाने पर बाह्य लावणिक सूर्यों के सूर्यद्वीप नामक द्वीप हैं, जो धातकीखण्ड द्वीपांत की तरफ साढे अठ्यासी योजन और ४०/९५ योजन जलांत से ऊपर हैं और लवणसमुद्र की तरफ जलांत से दो कोस ऊँचे हैं। शेष सब वक्तव्यता राजधानी पर्यन्त पूर्ववत् कहनी चाहिए। ये राजधानियां अपने-अपने द्वीपों से पश्चिम में तिर्यक् असंख्यात द्वीप-समुद्र पार करने के बाद अन्य लवणसमुद्र में बारह हजार योजन के बाद स्थित हैं , आदि सब कथन करना चाहिए। धातकीखंडद्वीपगत चन्द्रद्वीपों का वर्णन १६४. कहि णं भंते ! धायइसंडदीवगाणं चंदाणं चंददीवा पण्णत्ता ? गोयमा ! धायइसंडस्स दीवस्स पुरथिमिल्लाओ वेदियंताओ कालोयं णं समुदं बारस जोयणसहस्साई ओगाहित्ता एत्थ णं धायइसंडदीवाणं चंदाणं णामं दीवा पण्णत्ता, सव्वओ समंता दो कोसा ऊसिया जलंताओ बारस जोयणसहस्साइं तहेव विक्खंभ-परिक्खेवो भूमिभागो पासायवडिंसगा मणिपेढिया सीहासणा सपरिवारा अट्ठो तहेव रायहाणीओ, सकाणं दीवाणं पुरत्थिमेणं अण्णंमि धायइसंडे दीवे सेसं तं चेव। एवं सूरदीवावि । नवरं धायइसंडस्स दीवस्स पच्चथिमिल्लाओ वेदियंताओ कालोयणं समुद्घ बारस जोयणसहस्साइं तहेव सव्वं जाव रायहाणीओ सूराणं दीवाणं पच्चत्थिमेणं अण्णंमि धायइसंडे दीवे सव्वं तहेव। १६४. हे भगवन् ! धातकीखण्डद्वीप के चन्द्रों के चन्द्रद्वीप कहां है। गौतम ! धातकीखण्डद्वीप की पूर्वी वेदिकान्त से कालोदधिसमुद्र में बारह हजार योजन आगे जाने पर धातकीखण्ड के चन्द्रों के चन्द्रद्वीप हैं । (धातकीखण्ड में १२ चन्द्र हैं।) वे सब ओर से जलांत से दो कोस ऊँचे हैं। ये बारह हजार योजन के लम्बे-चौड़े हैं। इनकी परिधि, भूमिभाग, प्रासादावतंसक, मणिपीठिका, सपरिवार सिंहासन, नाम-प्रयोजन, राजधानियां आदि पूर्ववत् जानना चाहिए। वे राजधानियां अपने-अपने द्वीपों से पूर्वदिशा में अन्य धातकीखण्डद्वीप में हैं। शेष सब पूर्ववत् । इसी प्रकार धातकीखण्ड के सूर्यद्वीपों के विषय में भी कहना चाहिए। विशेषता यह है कि धातकीखण्डद्वीप की पश्चिमी वेदिकान्त से कालोदधिसमुद्र में बारह हजार योजन जाने पर ये द्वीप आते हैं। इन सूर्यों की राजधानियां सूर्यद्वीपों के पश्चिम में असंख्य द्वीपसमुद्रों के बाद अन्य धातकी खण्डद्वीप में हैं , आदि सब वक्तव्यता पूर्ववत् जाननी याहिए। कालोदधिसमुद्रगत चन्द्रद्वीपों का वर्णन १६५. कहि णं भंते ! कालोयगाणं चंदाणं चंददीवा पण्णत्ता ? Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ जीवाजीवाभिगमसूत्र गोयमा ! कालोयसमुद्दस्स पुरत्थिमिल्लाओ वेदियंताओ कालोयसमुद्दं पच्चत्थिमेणं बारस जोयणसहस्साइं ओगाहित्ता, एत्थ णं कालोयगचंदाणं चंददीवा पण्णत्ता सव्वओ समंता दो कोसा ऊसिया जलंताओ, सेसं तहेव जाव रायहाणीओ सगाणं दीवाणं पुरच्छिमेणं अण्णंमि कालोयगसमुद्दे बारस जोयण - सहस्साइं तं चैव सव्वं जाव चंदा देवा देवा । २०] एवं सूराणवि । वरं कालोयगपच्चत्थिमिल्लाओ वेदियंताओ कालोयसमुद्दपुरत्थिमेणं बारस जोयणसहस्सा ओगाहित्ता तहेव रायहाणीओ सगाणं दीवाणं पच्चत्थिमेणं अण्णंमि कालोयगसमुद्दे तहेव सव्वं । एवं पुक्खरवरगाणं चंदाणं पुक्खरवरस्स दीवस्स पुरत्थिमिल्लाओ वेदियंताओ पुक्खरसमुद्द बारस जोयणसहस्साइं ओगाहित्ता चंददीवा अण्णम्मि पुक्खररे दीवे रायहाणीओ तहेव । एवं सूराणवि दीवा पुक्खरवरदीवस्स पच्चत्थिमिल्लाओ वेदियंताओ पुक्खरोदं समुदं बारस जोयणसहस्साइं ओगाहित्ता तहेव सव्वं जाव रायहाणीओ दीविल्लगाणं दीवे समुद्दगाणं समुद्दे. चेव एगाणं अब्भिंतरपासे एगाणं बाहिरपासे रायहाणीओ दीविल्लगाणं दीवेसु समुद्दगाणं समुद्देसु सरिणामएसु । १६५. हे भगवन् ! कालोदधिसमुद्रगत चन्द्रों के चन्द्रद्वीप कहां हैं? हे गौतम! कालोदधि - समुद्र के पूर्वीय वेदिकान्त से कालोदधिसमुद्र के पश्चिम में बारह हजार योजन आगे जाने पर कालोदधिसमुद्र के चन्द्रों के चन्द्रद्वीप हैं । ये सब ओर से जलांत से दो कोस ऊंचे हैं। शेष सब पूर्ववत् कहना चाहिए यावत् राजधानियां अपने-अपने द्वीप के पूर्व में असंख्य द्वीप- समुद्रों के बाद अन्य कालोदधिसमुद्र में बारह हजार योजन जाने पर आती हैं, आदि सब पूर्ववत् यावत् वहां चन्द्रदेव हैं । I इसी प्रकार कालोदधिसमुद्र के सूर्यद्वीपों के संबंध में भी जानना चाहिए। विशेषता यह है कि कालोदधिसमुद्र के पश्चिम वेदिकान्त से और कालोदधिसमुद्र के पूर्व में बारह हजार योजन आगे जाने पर ये आते हैं । इसी तरह पूर्ववत् जानना चाहिए यावत् इनकी राजधानियां अपने-अपने द्वीपों के पश्चिम में अन्य कालोदधि में हैं। आदि सब पूर्ववत् कहना चाहिए । इसी प्रकार पुष्करवरद्वीप के पूर्वी वेदिकांत से पुष्करवरसमुद्र में 'बारह हजार योजन आगे जाने पर चन्द्रद्वीप हैं, इत्यादि पूर्ववत् । अन्य पुष्करवरसमुद्र में बारह हजार योजन आगे जाने पर चन्द्रद्वीप हैं, इत्यादी पूर्ववत् । अन्य पुष्करवरद्वीप में उनकी राजधानियां हैं । राजधानियां के सम्बन्ध में सब पूर्ववत् जानना चाहिए। इसी तरह से पुष्करवरद्वीपगत सूर्यो के सूर्यद्वीप पुष्करवरद्वीप के पश्चिमी वेदिकान्त से पुष्करवरसमुद्र में बारह हजार योजन आगे जाने पर स्थित हैं, आदि पूर्ववत् जानना चाहिए यावत् राजधानियां अपने द्वीपों की पश्चिमी दिशा में तिर्यक् असंख्यात द्वीप - समुद्रों को लांधने के बाद अन्य पुष्करवरद्वीप में बारह हजार योजन की दूरी पर हैं। पुष्करवरसमुद्रगत सूर्यों के सूर्यद्वीप पुष्करवरसमुद्र के पूर्वी वेदिकान्त से पश्चिमदिशा में बारह हजार योजन आगे जाने पर स्थित हैं । राजधानियां अपने द्वीपों की पूर्वदिशा में तिर्यक् असंख्यात द्वीप समुद्रों का उल्लघन करने पर अन्य पुष्करवरसमुद्र में बारह हजार योजन से परे हैं। Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति: देवद्वीपादि में विशेषता] [२१ इसी प्रकार शेष द्वीपगत चन्द्रों की राजधानियां चन्द्रद्वीपगत पूर्वदिशा की वेदिकान्त से अनन्तर समुद्र में बारह हजार योजन जाने पर कहनी चाहिए। शेष द्वीपगत सूर्यों के सूर्यद्वीप अपने द्वीपगत पश्चिम वेदिकान्त से अनन्तर समुद्र में हैं, चन्द्रों की राजधानियां अपने-अपने चन्द्रद्वीपों से पूर्वदिशा में अन्य अपने-अपने नाम वाले द्वीप में हैं, सूर्यों की राजधानियां अपने-अपने सूर्यद्वीपों से पश्चिमदिशा में अन्य अपने सदृश नाम वाले द्वीप में बारह हजार योजन के बाद हैं। शेष समुद्रगत चन्द्रों के चन्द्रद्वीप अपने-अपने समुद्र के पूर्व वेदिकान्त से पश्चिमदिशा में बारह हजार योजन के बाद हैं। सूर्यों के सूर्यद्वीप अपने-अपने समुद्र के पश्चिमी वेदिकान्त से पूर्वदिशा में बारह हजार योजन के बाद हैं। चन्द्रों की राजधानियां अपने-अपने द्वीपों की पूर्वदिशा में अन्य अपने जैसे नाम वाले समुद्रों में हैं । सूर्यों की राजधानियां अपने-अपने द्वीपों की पश्चिमदिशा में हैं। १६६. इमे णामा अणुगंतव्वा' जंबुद्दीवे लवणे धायइ-कालोद-पुक्खरे वरूणे। खीर-घय-इक्खु (वरो य) णंदी अरूणवरे कुंडले रूयगे॥१॥ आभरण-वत्थ-गंधे उप्पल-तिलए य पुढवि-णिहि-रयणे। वासहर-दह-नईओ विजयावक्खार-कप्पिंदा ॥२॥ पुर-मंदरमावासा कूडा णक्खत्त-चंद-सूरा य। एवं भाणियव्वं । १६६. असंख्यात द्वीप और समुद्रों में से कितनेक द्वीपों और समुद्रों के नाम इस प्रकार हैं - जम्बूद्वीप, लवणसमुद्र, धातकीखण्डद्वीप, कालोदसमुद्र, पुष्कर वरद्वीप, पुष्करवरसमुद्र, वारूणिवरद्वीप, वारूणिवरसमुद्र, क्षीरवरद्वीप, क्षीरवरसमुद्र, घृतवरद्वीप, घृतवरसमुद्र, इक्षुवरद्वीप, इक्षुवरसमुद्र, नंदीश्वरद्वीप, नन्दीश्वरसमुद्र, अरूणवरद्वीप, अरूणवरसमुद्र, कुण्डलद्वीप, कुण्डलसमुद्र, रूचकद्वीप, रूचकसमुद्र, आभरणद्वीप आभरणसमुद्र, वस्त्रद्वीप, वस्त्रसमुद्र, गन्धद्वीप, गन्धसमुद्र; उत्पलद्वीप, उत्पलसमुद्र, तिलकद्वीप, तिलकसमुद्र, पृथ्वीद्वीप, पृथ्वीसमुद्र, निधिद्वीप, निधिसमुद्र, रत्नद्वीप, रत्नसमुद्र, वर्षधरद्वीप, वर्षधरसमुद्र, द्रहद्वीप, द्रहसमुद्र, नंदीद्वीप, नंदीसमुद्र, विजयद्वीप,विजयसमुद्र, वक्षस्कारद्वीप,वक्षस्कारसमुद्र, कपिद्वीप,कपिसमुद्र, इन्द्रद्वीप, इन्द्रसमुद्र, पुरद्वीप, पुरसमुद्र, मन्दरद्वीप, मन्दरसमुद्र, आवासद्वीप, आवाससमुद्र, कूटद्वीप, कूटसमुद्र, नक्षत्रद्वीप, नक्षत्रसमुद्र, चन्द्रद्वीप, चन्द्रसमुन्द्र, सूर्यद्वीप, सूर्यसमुद्र, इत्यादि अनेक नाम वाले द्वीप और समुद्र हैं। देवद्वीपादि में विशेषता १६७. (अ) कहि णं भंते ! देवद्दीवगाणं चंदाणं चंददीवा णामं दीवा पण्णत्ता? गोयमा ! देवदीवस्स पुरथिमिल्लाओ वेइयंताओ देवोदं समुदं बारस जोयणसहस्साइं ओगाहित्ता तेणेव कमेण जाव रायहाणीओ सगाणं दीवाणं पुरतिमेणं देवद्दीवं समुदं असंखेज्जाइं जोयणसहस्साई ओगाहित्ता एत्थ णं देवदीवयाणं चंदाणं चंदाओ णामं रायहाणीओ पण्णत्ताओ। सेसं वं चेव। १. वृत्ति में इस सूत्र की व्याख्या नहीं है, न इस सूत्र का उल्लेख ही है। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२] [जीवाजीवाभिगमसूत्र देवदीवा चंदादीवा एवं सूराणं वि।णवरं पच्चथिमिल्लाओ वेदियंताओ पच्चत्थिमेण च भाणियव्वा, तम्मि चेव समुद्दे। कहि णं भंते ! देवसमुद्दगाणं चंदाणं चंददीवा णामं दीवा पण्णत्ता ? गोयमा ! देवोदगस्स समुद्दगस्स पुरथिमिल्लाओ वेदियंताओ देवोदगं समुदं पच्चत्थिमेणं बारस जोयणसहस्साइं तेणेव कमेणं जाव रायहाणीओ सगाणं दीवाणं पच्चत्थिमेणं देवोदगं समुदं असंखेजाइं जोयणसहस्साइं ओगाहित्ता एत्थ णं देवोदगाणं चंदाणं चंदाओ णामं रायहाणीओ पण्णत्ताओ। तं चेव सव्वं । एवं सूराणवि। णवरि देवोदगस्स पच्चथिमिल्लाओ वेदियंताओ देवोदगसमुदं पुरथिमेणं बारस जोयणसहस्साइं ओगाहित्ता रायहाणीओ सगाणं सगाणं दीवाणं पुरथिमेणं देवोदगं समुद्दे असंखेज्जाई जोयणसहस्साइं ओगाहित्ता। एवं णागे जक्खे भूएवि चउण्हं दीव-समुद्दाणं। १६७. (अ) हे भगवन् ! देवद्वीपगत चन्द्रों के चन्द्रद्वीप नामक द्वीप कहां हैं? गौतम! देवद्वीप की पूर्वदिशा के वेदिकान्त से देवोदसमुद्र में बारह हजार योजन आगे जाने पर वहां देवद्वीप के चन्द्रों के चन्द्रद्वीप हैं , इत्यादी पूर्ववत् राजधानी पर्यन्त कहना चाहिए। अपने ही चन्द्रद्वीपों की पश्चिमदिशा में उसी देवद्वीप में असंख्यात हजार योजन जाने पर वहां देवद्वीप के चन्द्रों की चन्द्रा नामक राजधानियां हैं। शेष वर्णन विजया राजधानीवत् कहना चाहिए। __ हे भगवन् ! देवद्वीप के सूर्यों के सूर्यद्वीप नामक द्वीप कहां हैं? गौतम! देवद्वीप के पश्चिमी वेदिकान्त से देवोदसमुद्र में बारह हजार योजन जाने पर देवद्वीप के सूर्यों के सूर्यद्वीप हैं अपने-अपने ही सूर्यद्वीपों की पूर्वदिशा में उसी देवद्वीप में असंख्यात हजार योजन जाने पर उनकी राजधानियां हैं। ___ हे भगवन् ! देवसमुद्रगत चन्द्रों के चन्द्रद्वीप नामक द्वीप कहां हैं? गौतम! देवोदकसमुद्र के पूर्वी वेदिकान्त से देवोदकसमुद्र में पश्चिमदिशा में बारह हजार योजन जाने पर यहां देवसमुद्रगत चन्द्रों के चन्द्रद्वीप हैं , आदि क्रम से राजधानी पर्यन्त कहना चाहिए। उनकी राजधानियां अपने-अपने द्वीपों के पश्चिम में देवोदकसमुद्र में असंख्यात हजार योजन जाने पर स्थित हैं । शेष वर्णन विजया राजधानियां के समान कहना चाहिए। देवसमुद्रगत सूर्यों के विषय में भी ऐसा ही कहना चाहिए। विशेषता यह है कि देवोदकसमुद्र के पश्चिमी वेदिकान्त से देवोदक समुद्र में पूर्व दिशा में बारह हजार योजन जाने पर ये स्थित हैं। इनकी राजधनियां अपने-अपने द्वीपों के पूर्व में देवोदकसमुद्र में असंख्यात हजार योजन आगे जाने पर आती हैं। इसी प्रकार नाग, यक्ष, भूत और स्वयंभूरमण चारों द्वीपों और चारों समुद्रों के चन्द्र - सूर्यों के द्वीपों के विषय में कहना चाहिए। स्वयंभूरमणद्वीपगत चन्द्र-सूर्यद्वीप १६७. (आ) कहि णं भंते ! सयंभूरमणदीवगाणं चंदाणं चंददीवा णामं दीवा पण्णत्ता ? सयंभूरमणस्स दीवस्स पुरथिमिल्लाओ वेइयंताओ सयंभूरमणोदगं समुदं बारस जोयणसहस्साइं तहेव रायहाणीओ सगाणं सगाणं दीवाणं पुरथिमेणं संयभूरमणोदगं समुदं Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : स्वयंभूरमणद्वीपगत चन्द्र-सूर्यद्वीप] [२३ पुरस्थिमेणं असखेज्जाइं जोयणसहस्साइं ओगाहित्ता तं चेव। एवं सूराणवि। सयंभूरमणस्स पच्चत्थिमिल्लाओ वेदियंताओ रायहाणीओ सगाणं सगाणं दीवाणं पच्चत्थिमिल्लाणं सयंभूरमणोदं समुदं असंखेजाइं जोयणसहस्साइं ओगाहित्ता सेसं तं चेव। कहि णं भंते ! सयंभूरमणसमुद्दगाणं चंदाणं चंददीवा णामं दीवा पण्णत्ता ? सयंभूरमणस्स समुद्दस्स पुरथिमिल्लाओ वेइंयताओ सयंभूरमणसमुदं पच्चत्थिमेणं बारस जोयणसहस्साइं ओगाहित्ता, सेसं तं चेव। एवं सूराणवि। सयंभूरमणस्स पच्चत्थिमिल्लाओ वेइयंताओ सयंभूरमणोदं समुदं पुरस्थिमेणं बारस जोयणसहस्साइं ओगाहित्ता, रायहाणीओ सगाणं दीवाणं पुरत्थिमेणं सयंभूरमणं समुदं असंखेज्जाइं जोयणसहस्साइं ओगाहित्ता, एत्थ णं सयंभूरमणसमुद्दगाणं सूराणं जाव सूरा देवा। १६७. (आ) हे भगवन् ! स्वयंभूरमणद्वीपगत चन्द्रों के चन्दद्वीप नाम द्वीप कहां हैं? गौतम! स्वयंभूरमणद्वीप के पूर्वीय वेदिकान्त से स्वयंभूरमणसमुद्र में बारह हजार योजन आगे जाने पर वहां स्वयंभूरमणद्वीपगत चन्द्रों के चन्द्रद्वीप हैं। उनकी राजधानियां अपने-अपने द्वीपों के पूर्व में स्वयंभूरमणसमुद्र के पूर्व दिशा की असंख्यात हजार योजन जाने पर आती हैं, आदि पूर्ववत् कथन करना चाहिए। इसी तरह सूर्यद्वीपों के विषय में भी कहना चाहिए। विशेषता यह है कि स्वयंभूरमणद्वीप के पश्चिमी वेदिकान्त से स्वयंभरमणसमद्र में बारह हजार योजन आगे जाने पर ये द्वीप स्थित हैं। इनकी राजधानियां अपने-अपने द्वीपों के पश्चिमी में स्वयभूरमणसमुद्र में पश्चिम की ओर असंख्यात हजार योजन जाने पर आती हैं, आदि सब कथन पूर्ववत् जानना चाहिए। __ हे भगवन् ! स्वयंभूरमणसमुद्र के चन्द्रों के चन्द्रद्वीप कहां हैं ? गौतम ! स्वयंभूरमणसमुद्र के पूर्वी वेदिकान्त से स्वयंभूरमणसमुद्र में पश्चिमी की ओर बारह हजार योजन जाने पर ये द्वीप आते हैं, आदि पूर्ववत् कहना चाहिए। इसी तरह स्वयंभूरमणसमुद्र के सूर्यों के विषय में समझना चाहिए। विशेषता यह है कि स्वयंभूरणसमुद्र के पश्चिमी वेदिकान्त से स्वयंभूरमणसमुद्र में पूर्व की ओर बारह हजार योजन आगे जाने पर सूर्यों के सूर्योद्वीप आते हैं । इनकी राजधानियां अपने-अपने द्वीपों के पूर्व में स्वयंभूरमणसमुद्र में असंख्यात हजार योजन आगे जाने पर आती हैं यावत् वहां सूर्यदेव हैं । १६८. अत्थि णं भंते ! लवणसमुद्दे वेलंधराइ वा णागराया खन्नाइ वा अग्धाइ वा सीहाइ वा विजाई वा हासवुड्डीइ वा ? हंता अस्थि ! 1.आह च मूलटीकाकारो अपि-"एवं शेषद्वीपगत चन्द्रादित्यानामपि द्वीपा अनन्तरसमुद्रेष्वेवगन्तव्या, राजधान्यश्च तेषां पूर्वापरतो असंख्येयान् द्वीपसमुद्रान् गत्वा ततोऽस्मिन् सदृशनाम्नि द्वीपे भवन्ति; अन्त्यानिमान् पंचद्वीपान् मुक्त्वा देव-नाग-यक्षभूतस्वयंभूरमणाख्यान्। न तेषु चन्द्रादित्यानां राजधान्यो अन्यस्मिन् द्वीपे, अपितु स्वस्मिन्नेव पूर्वापरतो वेदिकान्तादसंख्येयानि योजनसहस्त्राण्यवगाह्य भवन्तीति।" इह सूत्रेषु बहुधा पाठभेदा, परमेतावानेव सर्वत्राप्यर्थोऽनर्थभेदान्तरमित्येतद्व्याख्यानुसारेण सर्वेऽपि अनुगंतव्या न मोग्धव्यमिति। २. आह य चूर्णिकृत्--"अग्धा खन्ना सीहा विजाइं इति मच्छकच्छभा।" Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४] [जीवाजीवाभिगमसूत्र ___ जहा णं भंते ! लवणसमुद्दे अत्थि वेलंधराइ वा णागराया अग्धा सीहा विजाई वा हासबुड्डीइ वा तहा णं बहिरेसु वि समुद्देसु अत्थि वेलंधराइ वा नागरायाइ वा अग्धाइ वा खन्नाइ वा सीहाइ वा विजाई वा हासवुड्डीइ वा ? णो तिणढे समढे। १६८. हे भगवन् ! लवणसमुद्र में वेलंधर नागराज हैं क्या? अग्धा, खन्ना, सीहा, विजाति मच्छकच्छप हैं क्या ? जल की वृद्धि और ह्रास है क्या? गौतम ! हां हैं। हे भगवन् ! जैसे लवणसुमद्र में वेलंधर नागराज हैं , अग्धा, खन्ना, सीहा, विजाति, ये मच्छकच्छप हैं ? वैसे अढ़ाई द्वीप से बाहर के समुद्रों में भी ये सब हैं क्या ? हे गौतम ! बाह्य समुद्रों में ये नहीं हैं। १६९. लवणे णं भंते ! किं समुद्दे ऊसिओदगे किं पत्थडोदगे किं खुभियजले किं अखुभियजले? गोयमा ! लवणे णं समुद्दे ऊसिओदगे नो पत्थडोदगे खुभियजले नो अक्खुभियजले। तहा णं बाहिरगा समुद्दा किं ऊसिओदगा पत्थडोदगा खुभियजला अखुभियजला? गोयमा ! बाहिरगा समुद्दा नो ऊसिओदगा पत्थडोदगा, न खुभियजला अक्खुभियजला पुण्णा पुण्णप्पमाणा वोलट्टमाणा वोसट्टमाणा समभरघडत्ताए चिट्ठति। अस्थि णं भंते ! लवणसमुद्दे बहवो ओराला वलाहका संसेयंति संमुच्छंति वा वासं वासंति वा ? हंता अत्थि। जहा णं भंते ! लवणसमुद्दे बहवे ओराला बलाहका संसेयंति संमुच्छंति वासं वासंति वा तहा णं बाहिरएसु वि समुद्देसु बहवे ओराला बलाहका संसेयंति संमुच्छांति वासं वासंति ? णो तिणठे समठे। से केणढेणं भंते ! एवं वुच्चइ-बाहिरगा णं समुद्दा पुण्णा पुण्णप्पमाणा वोलट्टमाणा वोसट्टमाणा समभरघडियाए चिट्ठति ? गोयमा ! बाहिरएसु णं समुद्देसु बहवे उदगजोणिया जीवा य पोग्गला य उदगत्ताए वक्कमंति विउक्कमति चयंति उवचयंति, से तेणढेणं एवं वुच्चइ बाहिरगा समुद्दा पुण्णा पुण्णप्पमाणा जाव समभरघडत्ताए चिट्ठति। १६९. हे भगवन् ! लवणसमुद्र का जल उछलने वाला हैं या प्रस्तट की तरह स्थिर अर्थात् सर्वत:सम रहने वाला है? उसका जल क्षुभित होने वाला है या अक्षुभित रहता है? गौतम ! लवणसमुद्र का जल उछलने वाला है, स्थिर नहीं हैं, क्षुभित होने वाला है, अक्षुभित रहने वाला नहीं। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : स्वयंभूरमणद्वीपगत चन्द्र-सूर्यद्वीप] [२५ हे भगवन् ! जैसे लवणसमुद्र का जल उछलने वाला है, स्थिर नहीं है, क्षुभित होने वाला हैं, अक्षुभित रहने वाला नहीं, वैसे क्या बाहर के समुद्र भी जल उछलते जल वाले हैं या स्थिर जल वाले, क्षुभित जल वाले हैं या अक्षुभित जल वाले ? गौतम ! बाहर के समुद्र उछलते जल वाले नहीं हैं, स्थिर जल वाले हैं, क्षुभित जल वाले नहीं, अक्षुभित जल वाले हैं । वे पूर्ण हैं , पूरे-पूरे भरे हुए हैं , पूर्ण भरे होने से मानों बाहर छलकना चाहते हैं, विशेष रूप से बाहर छलकना चाहते हैं , लबालब भरे हुए घट की तरह जल से परिपूर्ण हैं। हे भगवन् ! क्या लवणसमुद्र में बहुत से बड़े मेघ सम्मूर्छिम जन्म के अभिमुख होते हैं , पैदा होते हैं अथवा वर्षा बरसाते हैं? हां, गौतम ! वहां मेघ होते हैं और वर्षा बरसाते हैं। हे भगवन् ! जैसे लवणसमुद्र में बहुत से बड़े मेघ पैदा होते हैं और वर्षा बरसाते हैं, वैसे बाहर के . समुद्रों में भी क्या बहुत से मेघ पैदा होते हैं और वर्षा बरसाते हैं ? हे गौतम ! ऐसा नहीं है। हे भगवन् ! ऐसा क्यों कहा जाता है कि बाहर के समुद्र पूर्ण हैं , पूरे-पूरे भरे हुए हैं, मानो बाहर छलकना चाहते हैं , विशेष छलकना चाहते हैं और लबालब भरे हुए घट के सामन जल से परिपूर्ण हैं ? हे गौतम ! बाहर के समुद्रों में बहुत से उदकयोनि के जीव आते-जाते हैं और बहुत से पुद्गल उदक के रूप में एकत्रित होते हैं विशेष रूप से एकत्रित होते हैं, इसलिए ऐसा कहा जाता है कि बाहर के समुद्र पूर्ण हैं, पूरे-पूरे भरे हुए हैं यावत् लबालब भरे हुए घट के समान जल से परिपूर्ण हैं। १७०. लवणे णं भंते ! समुद्दे केवइयं उव्वेह-परिवुड्डीए पण्णत्ते ? . गोयमा ! लवणस्स णं समुदस्स उभओ पासिं पंचाणउई-पंचाणउई बालग्गाइं पदेसे गंता पदेसउव्वेहपरिवुड्डीए पण्णत्ते। पंचाणउइं-पंचाणउई बालग्गं गंता बालग्गं उव्वेहपरिवुड्डीए पण्णत्ते। पंचाणउइं-पंचाणउइं लिक्खाओ गंता लिक्खाउव्वेहपरिवुड्डीए पण्णत्ते। पंचाणउई जवाओ जवमझे अंगुलविहत्थि-रयणो-कुच्छी-धणु ( उव्वेहपरिवुड्डीए) गाउय-जोयण-जोयणसय-जोयणसहस्साई गंता जोयण-सहस्सं उव्वेहपरिवुड्डीए । लवणे णं भंते ! समुद्दे केवइयं उस्सेह-परिवुड्डीए पण्णत्ते ? गोयमा ! लवणस्स णं समुदस्स उभओ पासिं पंचाणउइ पदे से गंता सोलसपएसे उस्सेहपरिवुड्डीए पत्ते। ____ गोयमा! लवणस्स णं समुद्दस्स एएणेव कमेणं जाव पंचाणउई-पंचाणउइं जोयणसहस्साइं गंता सोलसजोयण उत्सेह-परिवुड्डीए पण्णत्ते।। ___१७०. हे भगवन् ! लवणसमुद्र की गहराई की वृद्धि किस क्रम से है अर्थात् कितनी दूर जाने पर कितनी गहराई की वृद्धि होती है? Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६] [जीवाजीवाभिगमसूत्र गौतम! लवणसमुद्र के दोनों तरफ (जम्बूद्वीपवेदिकान्त से और लवणसमुद्रवेदिकान्त से) पंचानवैपंचानवै प्रदेश (यहां प्रदेश से प्रयोजन त्रसरेणु है) जाने पर एक प्रदेश की उद्वेध-वृद्धि (गहराई में वृद्धि) होती है , ९५-९५ बालाग्र जाने पर एक बालाग्र उद्वेध-वृद्धि होती है , ९५-९५ लिक्खा जाने पर एक लिक्खा की उद्वेध-वृद्धि होती है, ९५-९५ यवमध्य जाने पर एक यवमध्य की उद्वेध-वृद्धि होती है, इसी तरह ९५-९५ अंगुल, वितस्ति (बेंत), रत्नि (हाथ), कुक्षि, धनुष, कोस, योजन, सौ योजन, हजार योजन जाने पर एक-एक अंगुल यावत् एक हजार योजन की उद्वेध-वृद्धि होती है। हे भगवन् ! लवणसमुद्र की उत्सेध-वृद्धि (ऊंचाई में वृद्धि) किस क्रम से होती है अर्थात् कितनी दूर जाने पर कितनी ऊंचाई में वृद्धि होती है? हे गौतम! लवणसमुद्र के दोनों तरफ ९५-९५ प्रदेश जाने पर सोलह प्रदेश प्रमाण उत्सेध-वृद्धि होती है । हे गौतम! इस क्रम से यावत् ९५-९५ हजार योजन जाने पर सोलह हजार योजन की उत्सेधवृद्धि होती है। विवेचन-लवण समुद्र के जम्बूद्वीप वेदिकान्त के किनारे से और लवणसमुद्र वेदिकान्त के किनारे से दोनों तरफ ९५-९५ प्रदेश की (त्रसरेणु) जाने पर एक प्रदेश की गहराई में वृद्धि होती है। ९५-९५ बालाग्र जाने पर एक-एक बालाग्र की गहराई में वृद्धि होती है। इसी प्रकार लिक्षा-यवमध्यअंगुल-वितस्ति-रत्नि-कुक्षि-धनुष गव्यूत (कोस), योजन, सौ योजन, हजार योजन आदि का भी कथन करना चाहिए । अर्थात् ९५-९५ लिक्षाप्रमाण आगे जाने पर एक लिक्षाप्रमाण गहराई में वृद्धि होती है यावत् ९५ हजार योजन जाने पर एक हजार योजन की गहराई में वृद्धि होती है। ९५ हजार योजन जाने पर जब एक हजार योजन की उत्सेधवृद्धि है तो त्रैराशिक सिद्धान्त से ९५ योजन पर कितनी वृद्धि होगी, यह जानने के लिए ९५०००/१०००/९५ इन तीन राशियों की स्थापना करनी चाहिए। आदि और मध्य की राशि के तीन-तीन शून्य ('शून्यं शून्येन पातयेत्' के अनुसार) हटा देने चाहिए तो ९५/१/९५ यह राशि रहती है। मध्य राशि एक का अन्त्यराशि ९५ से गुणा करने पर ९५ गुणनफल आता है, इसमें प्रथम राशि ९५ का भाग देने पर एक भागफल आता है। अर्था भाग देने पर एक भागफल आता है। अर्थात् एक योजन की वृद्धि होती है, यही बात इन गाथाओं में कही है पंचाणउए सहस्से गंतूणं जोयणाणि उभओ वि। जोयणसहस्समे गं लवणे ओगाह ओ होइ ॥१॥ पंचाणउईण लवणे गंतूण जोयणाणि उभओ वि। जोयणमे गं लवणे ओगाहे णं मुणेयव्वा ।।२॥ तात्पर्य यह हुआ कि ९५ योजन जाने पर यदि एक योजन गहराई में वृद्धि होती है, तो ९५ गव्यूत पर्यन्त जाने पर एक गव्यूत की वृद्धि, ९५धनुष पर्यन्त जाने पर एक धनुष की वृद्धि होती है, यह सहज ही ज्ञात हो जाता है । यह बात गहराई को लेकर कही गई है । इसके आगे लवणसमुद्र की ऊंचाई की वृद्धि को लेकर प्रश्न किया गया है और उत्तर दिया गया है। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति :गोतीर्थ-प्रतिपादन] [२७ प्रश्न किया गया है कि लवणसमुद्र के दोनों किनारों से आरम्भ करने पर कितनी-कितनी दूर जाने पर कितनी-कितनी जलवृद्धि होती है? उत्तर में कहा गया है कि-लवणसमुद्र के पूर्वोक्त दोनों किनारों पर समतल भूभाग में जलवृद्धि अंगुल का असंख्यातवें भाग प्रमाण होती है और आगे समतल से प्रदेशवृद्धि से जलवृद्धि क्रमशः वढ़ती हुई ९५ हजार योजन जाने पर सात सौ योजन की वृद्धि होती है। उससे आगे दस हजार योजन के विस्तारक्षेत्र में सोलह हजार योजन की वृद्धि होती है । तात्पर्य यह है कि लवणसमुद्र के दोनों किनारोंसे ९५ प्रदेश (त्रसरेणु) जाने पर १६ प्रदेश की उत्सेधवृद्धि कही गई है । ९५ बालाग्र जाने पर १६ बालाग्र की उत्सेधवृद्धि होती है । इसी तरह यावत् ९५ हजार योजन जाने पर १६ हजार योजन की उत्सेधवृद्धि होती है। ___यहां त्रैराशिक भावना यह है कि ९५ हजार योजन पर सोलह (१६) हजार योजन की उत्सेधवृद्धि होती है तो ९५ योजन जाने पर कितनी उत्सेधवृद्धि होगी? राशित्रय की स्थापना-९५०००/१६०००/९५ दोनों-प्रथम और मध्य राशि के तीन-तीन शून्य हटाने पर ९५/१६/९५ की राशि रहती है। मध्यमराशि १६ को तृतीय राशि ९५ से गुणा करने पर १५२० आते हैं । इसमें प्रथम राशि ९५ का भाग देने पर १६ भागफल होता है । अर्थात् ९५ योजन जाने पर १६ योजन की जलवृद्धि होती है। कहा है पंचाणउइसहस्से गंतूणं जोयणाणि उभओ वि। उस्सेहेणं लवणो सोलस साहिस्सओ भणिओ॥१॥ पंचणउई लवणे गंतूणं जोयणाणि उभओ वि। उस्सेहेणं लवणो सोलस किल जोयणे होइ॥२॥ यदि ९५ योजन जाने पर १६ योजन का उत्सेध है तो ९५ गव्यूत जाने पर १६ गव्यूत का, ९५ धनुष । जाने पर १६ धनुष का उत्सेध भी सहज ज्ञात हो जाता है। गोतीर्थ-प्रतिपादन १७१. लवणस्स णं भंते! समुदस्स केमहालए गोतित्थे पण्णत्ते? गोयमा! लवणस्स णं समुदस्स उभओ पासिं पंचाणउई पंचाणउई जोयणसहस्साइं गोतित्थं पण्णत्ते। लवणस्स णं भंते! समुदस्स केमहालए गोतित्थविरहिए खेत्ते पण्णत्ते? गोयमा! लवणस्स णं समुद्दस्स दसजोयणसहस्साई गोतित्थविरहिए खेत्ते पण्णत्ते? लवणस्स णं भंते! समुद्दस्स केमहालए उदगमाले पण्णत्ते? ' गोयमा! दस जोयणसहस्साई उदगमाले पण्णत्ते। १७१. हे भगवन् ! लवणसमुद्र का' गोतीर्थ भाग कितना बड़ा है? (क्रमशः नीचा-नीचा गहराई वाला भाग गोतीर्थ कहलाता है।) १.गोतीर्थमेव गोतीर्थम्-क्रमण नीचो नीचतरः प्रवेशमार्गः। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ ] [ जीवाजीवाभिगमसूत्र हे गौतम! लवणसमुद्र के दोनों किनारों पर ९५ हजार योजन का गोतीर्थ है। (क्रमशः नीचानीचा गहरा होता हुआ भाग है ।) हे भगवन्! लवणसमुद्र का कितना बड़ा भाग गोतीर्थ से विरहित कहा गया है ? गौतम ! लवणसमुद्र का दस हजार योजन प्रमाण क्षेत्र गोतीर्थ से विरहित है। (अर्थात् इतना दस हजार योजन प्रमाण क्षेत्र समतल है ।) हे भगवन्! लवणसमुद्र की उदकमाला (समपानी पर सोलह हजार योजन ऊंचाई वाली जलमाला) कितनी बड़ी है ? गौतम ! उदकमाला दस हजार योजन की है।' (जितना गहराई रहित भाग है उस पर रही हुई जलराशि को उदकमाला कहते हैं ।) १७२. लवणे णं भंते! समुद्दे किसंठिए पण्णत्ते ? गोयमा ! गोतित्थसंठिए, नावासंठाणसंठिए, सिप्पिसंपुडसंठिए, आसखंधसंठिए, वलभिसंठिए वट्टे वलयागारसंठाणसंठिए पण्णत्ते । लवणे णं भंते! समुद्दे केवइयं चक्कवालविक्खंभेणं? केवइयं परिक्खेवेणं? केवइयं उव्वेहेणं? केवइयं उस्सेहणं? केवइयं सव्वग्गेणं पण्णत्ते ? गोयमा ! लवणे णं समुद्दे दो जोयणसयसहस्साईं चक्क वालविक्खं भेणं, पण्णरस जोयणसयसहस्साइं एकासीइं च सहस्साइं सयं च इगुकालं किंचिविसेसूणे परिक्खेवेणं, एगं जोयणसहस्सं उव्वेहेणं, सोलसजोयणसहस्साइं उस्सेहेणं सत्तरसजोयणसहस्साइं सव्वग्गेणं पण्णत्ते । . हे भगवन ! लवणसमुद्र का संस्थान कैसा है ? १७२. गौतम ! लवणसमुद्र गोतीर्थ के आकार का, नाव के आकार का, सीप के पुट के आकार का, घोड़े के स्कंध के आकार का, वलभीगृह के आकार का, वर्तुल और वलयाकार संस्थान वाला 1 हे भगवन्! लवणसमुद्र का चक्रवाल- विष्कंभ कितना है, उसकी परिधि कितनी है? उसकी गहराई कितनी है, उसकी ऊँचाई कितनी है ? उसका समग्र प्रमाण कितना है ? गौतम : लवणसमुद्र चक्रवाल- विष्कंभ से दो लाख योजन का है, उसकी परिधि पन्द्रह लाख इक्यासी हजार एक सौ उनचालीस (१५८११३९) योजन से कुछ कम है, उसकी गहराई एक हजार योजन है, उसका उत्सेध ( ऊँचाई ) सोलह हजार योजन का है । उद्वेध योजन और उत्सेध दोनों मिलाकर समग्र रूप से उसका प्रमाण सत्तरह हजार योजन है । विवेचन- लवणसमुद्र का आकार विविध अपेक्षाओं को ध्यान में बताया गया है। क्रमश: निम्न, निम्नतर गहराई बढ़ने के कारण गोतीर्थ के १. " पंचाणउई सहस्से गोतित्थे उभयओ वि लवणस्स । " २. उदकमाला-समपानीयोपरिभूता पोडशयोजनसहस्रोच्छ्रया प्रज्ञप्ता । रखकर विभिन्न प्रकार का आकार का कहा गया है। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : गोतीर्थ प्रतिपादन ] [ २९ दोनों तरफ समतल भूभाग की अपेक्षा क्रम से जलवृद्धि होने के कारण नाव के आकार का कहा है। उद्वेध का जल और जलवृद्धि का जल एकत्र मिलने की अपेक्षा से सीप के पुट के आकार का कहा है। दोनों तरफ ९५ हजार योजन पर्यन्त उन्नत होने से सोलह हजार योजन प्रमाण ऊँची शिखा होने से अश्वस्कन्ध की आकृति वाला कहा गया है। दस हजार योजन प्रमाण विस्तार वाली शिखा वलभीगृहाकार प्रतीत होने से वलभी (भवन की अट्टालिका - चांदनी) के आकार का कहा गया है। लवणसमुद्र गोल तथा चूड़ी के आकार का है। लवणसमुद्र का चक्रवाल- विष्कंभ, परिधि, उद्वेध, उत्सेध और समग्र प्रमाण मूलार्थ से ही स्पष्ट है । १७३. जइ णं भंते ! लवणसमुद्दे दो जोयणसयसहस्साइं चक्कवालविक्खंभेणं पण्णरस जोयण-सयसहस्साइं एकासीइं च सहस्साइं सयं इगुयालं किंचिविसेसूणा परिक्खेवेणं एगं जोयणसहस्सं उव्वेहेणं सोलस जोयणसहस्साइं उस्सेहेणं सत्तरस जोयणसहस्साइं सव्वग्गेणं पण्णत्ते, कम्हा णं भंते ! लवणसमुद्दे जंबूद्दीवं दीवं नो उवीलेति नो उप्पीलीलेइ नो चेव णं एक्कोदगं करे ? • गोयमा ! जंबुद्दीवे णं दीवे भरहेरवएसु वासेसु अरहंत चक्कवट्टि बलदेवा वासुदेवा चारणा 'विज्जाधरा समणा समणीओ सावया सावियाओ मणुया पगइभद्दया पगइविणीया पगइउवसंता १. यहां पूर्वाचार्यों ने लवणसमुद्र के घन और प्रतर का गणित भी निकाला है जो जिज्ञासुओं के लिए यहां दिया जा रहा है। प्रतरभावना इस प्रकार है- लवणसमुद्र के दो लाख योजन विस्तार में से दस हजार योजन निकाल कर शेष राशि का आधा किया जाता है - ऐसा करने से ९५००० की राशि होती है। इस राशि में पहले के निकाले हुए दस हजार की राशि मिला दी जाती है तो १०५००० होते हैं। इस राशि को कोटी कहा जाता है। इस कोटी से लवणसमुद्र का मध्यभागवर्ती परिरय (परिधि ) ९४८६८३ का गुणा किया जाता है तो प्रतर का परिमाण निकल आता है। वह परिणाम है- ९९६११७१५००० । कहा है वित्थाराओ सोहिय दस सहस्साइं सेस अद्धम्मि । तं चैव पक्खिवित्ता लवणसमुद्दस्स सा कोडी ॥१ ॥ लक्खं पंचसहस्सा कोडीए तीए संगुणेऊणं । लवणस्स मज्झपरिहि ताहे पयरं इमं होइ ॥ २ ॥ नवनउई कोडिया एगट्ठी कोडिलक्खसत्तरसा । पन्नरस सहस्साणि य पयरं लवणस्स णिद्दिद्धं ॥ ३ ॥ घनगणित इस प्रकार है-लवणसमुद्र की १६००० योजन की शिखा और एक हजार योजन उद्वेध कुल सत्तरह हजार योजन की संख्या से प्राक्तन प्रतर के परिमाण को गुणित करने से लवणसमुद्र का घन निकल आता है। वह है१६९३३९९१५५०००००० योजन। कहा है जोयणसहस्स सोलह लवणसिहा अहोगया सहस्सेगं । पयरं सत्तरसहस्सगुणं लवणघणगणियं ॥१॥ सोलस कोडाकोडी ते णउइ कोडिसयसहस्साओ । उणयालीसहस्सा नवकोडिसया य पन्नरसा ॥२॥ (आगे के पृष्ठ में) Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०] .. [जीवाजीवाभिगमसूत्र पगइपयणु-कोह-माण-माया-लोभा मिउमद्दवसंपन्ना अल्लीणा भद्दगा विणीया, तेसिं णं पणिहाए लवणसमुद्दे जंबुद्दीवं दीवं नो उवीलेइ नो उप्पीलेइ नो चेव णं एगोदगं करेइ। गंगासिंधुरत्तारत्तवईसु सलिलासु देवयाओ महिड्ढीयाओ जाव पलिओवमट्टिईया परिवसंति, तेसिं णं पणिहाय लवणसमुद्दे जाव नो चेव णं एगोदगं करेइ। चुल्लहिमवंतसिहरेसु वासहरपव्वएसु देवा महिड्ढिया तेसि णं पणिहाय हेमवतेरण्णवएस वासेसु मणुया पगइभद्दगा०, रोहितंस-सुवण्णकूल-रूप्पकूलासु सलिलासु देवयाओ महिड्डियाओ तासिं पणिहाए० सदावइवियडावइवट्टवेयड्ढपव्वएसु देवा महिड्डिया जाव पलिओवमट्टिईया परिवसंति, महाहिमवंतरूप्पिसु वासहरपव्वएसु देवा महिड्डि या जाव पलिओवमट्ठिइया, हरिवासरम्मयवासेसु मणुया पगईभद्दगा, गंधावइमालवंतपरियाएसु वट्टवेयड्ढपव्वएसु देवा महिड्डिया० निसहनीलवंतेसु वासधरपव्वएसु देवा महिड्डिया० सव्वाओ दहदेवयाओ भाणियव्वाओ, पउमदहतिगिच्छके सरिदहावसाणेसु देवा महिड्डियाओ तासिं पणिहाए० पुव्वविदेहावरविदेहेसु वासेसु अरहंतचक्कवट्टिबलदेववासुदेवा चारणा विजाहरा समणा समणीओ सावगा सावियाओ मणुया पगइभद्दया तेसिं पणिहाए लवण०, सीयासीतोदगासु सलिलासु देवया महिड्डिया० देवकुरूउत्तरकुरूसु मणुया पगइभद्दगा० मंदरे पव्वए देवया महिड्डिया०जंबुए णं सुदंसणाए जंबूदीवाहिवई अणाढिए नामं देवे महिड्डिए जाव पलिओवमठिईए परिवसति, तस्स पणिहाए लवणसमुद्दे नो उवीलेइ नो उप्पीललेइ नो चेव णं एकोदगं करेइ, अदुत्तरं च णं गोयमा ! लोगट्ठिई लोगाणुभावे जण्णं लवणसमुद्दे जंबुद्दीवं दीवं नो उवीलेइ नो उप्पीलेइ नो चेव णं एगोदगं करेइ। १७३. हे भगवन् ! यदि लवणसमुद्र चक्रवाल-विष्कंभ से दो लाख योजन का है, पन्द्रह लाख इक्यासी हजार एक सौ उनचालीस योजन से कुछ कम उसकी परिधि है, एक हजार योजन उसकी गहराई है और सोलह हजार योजन उसकी ऊँचाई है कुल मिलाकर सत्तरह हजार योजन उसका प्रमाण पन्नाससयसहस्सा जोयणाणं भवे अणूणाई। लवणसमुद्दास्सेयं जोयणसंखाए घणगणियं ॥३॥ यहां यह शंका होती है कि लवणसमुद्र सब जगह सत्रह हजार योजन प्रमाण नहीं है, मध्यभाग में तो उसका विस्तार दस हजार योजन है। फिर यह घनगणित कैसे संगत होता है। यह शंका सत्य है, किन्तु जब लवणशिखा के ऊपर दोनों वेदिकान्तों के ऊपर सीधी डोरी डाली जाती है तो जो अपान्तराल में जलशून्य क्षेत्र बनता है वह भी करणगति अनुसार सजल मान लिया जाता है इस विषय में मेरूपर्वत का उदाहरण है। वह सर्वत्र एकादशभाग परिहानिरूप कहा जाता है परन्तु सर्वत्र इतनी हानी नहीं है। कहीं कितनी है, कहीं कितनी है। केवल मूल से लेकर शिखर तक डोरी डालने पर अपान्तराल में जो आकाश है वह सब मेरू का गिना जाता है। ऐसा मानकर गणितज्ञों ने सर्वत्र एकादश-परिभागहानि का कथन किया है। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने भी विशेषणवती ग्रन्थ में यही बात कही है-"एवं उभयवेइयंताओ सोलससहस्सुस्सेहस्सकन्नगईए जं लवणसमुद्दाभव्वं जलसुन्नपि खेत्तं तस्स गणियं । जहा मंदरपव्वयस्स एक्कारसभागपरिहाणी कन्नगईए आगासस्स वि तदाभव्वंतिकाउं भणिया तहा लवणसमुद्दस्स वि।" इसका अर्थ पूर्व विवरण से स्पष्ट ही है। -वृत्तिकार Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति: गोतीर्थ- प्रतिपादन ] [ ३१ है। तो भगवन्! वह लवणसमुद्र जम्बूद्वीप नामक द्वीप को जल आप्लावित क्यों नहीं करता, क्यों प्रबलता के साथ उत्पीड़ित नहीं करता? और क्यों उसे जलमग्न नहीं कर देता ? गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में भरत ऐरवत क्षेत्रों में अरिहंत, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, जंधाचारण आदि विद्याधर मुनि, श्रमण, श्रमणियां, श्रावक और श्राविकाएं हैं, (यह कथन तीसरे चौथेपांचवें आरे की अपेक्षा से है।) (प्रथम आरे की अपेक्षा) वहां के मनुष्य प्रकृति से भद्र, प्रकृति से विनीत, उपशान्त, प्रकृति से मन्द क्रोध - मान-माया - लोभ वाले, मृदु- मार्दवसम्पन्न, आलीन, भद्र और विनीत है, उनके प्रभाव से लवणसमुद्र जंबूद्वीप को जल - आप्लावित, उत्पीड़ित और जलमग्न नहीं करता है । (छठे आरे की अपेक्षा से) गंगा - सिन्धु-रक्ता और रक्तवती नदियों में महर्द्धिक यावत् पल्योपम की स्थितवाली देवियां रहती हैं। उनके प्रभाव से लवणसमुद्र जंबूद्वीप को जलमग्न नहीं करता । क्षुल्लक हिमवंत और शिखरी वर्षधर पर्वतों में महर्द्धिक देव रहते हैं, उनके प्रभाव से, हेमवत - ऐरण्यवत वर्षों ( क्षेत्रों) में मनुष्य प्रकृति से भद्र यावत् विनीत हैं, उनके प्रभाव से, रोहितांश, सुवर्णकूला और रूप्यकूला नदियों में जो महर्द्धिक देवियां हैं, उनके प्रभाव से, शब्दापाति विकटापाति वृत्तवैताढ्य पर्वतों में महर्द्धिक पल्योपम की स्थिति वाले देव रहते हैं, उनके प्रभाव से, महाहिमवंत और रूक्मि वर्षधरपर्वतों में महर्द्धिक यावत् पल्योपम स्थितिवाले देव रहते हैं, उनके प्रभाव से हरिवर्ष और रम्यकवर्ष क्षेत्रों में मनुष्य प्रकृति से भद्र यावत् विनीत हैं, गंधापति और मालवंत नाम वृत्तवैताढय पर्वतों में महर्द्धिक देव हैं, निषध और नीलवंत वर्षधरपर्वतों में महर्द्धिक देव है, इसी तरह सब द्रहों की देवियों का कथन चाहिए, पद्मद्रह तिगिंछद्रह केसरिद्रह आदि द्रहों से महर्द्धिक देव रहते हैं, उनके प्रभाव से, पूर्वविदेहों ओर पश्चिमविदेहों में अरिहंत, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, जंधाचारण विद्याधर मुनि, श्रमण, श्रमणियां, श्रावक, श्राविकाएं एव मनुष्य प्रकृति से भद्र यावत् विनीत, हैं, उनके प्रभाव से, मेरूपर्वत के महर्द्धिक देवों के प्रभाव से, (उत्तरकुरू में) जम्बू सुदर्शना में अनाहत नामक जंबूद्वीप का अधिपति महर्द्धिक यावत् पल्योपम स्थिति वाला देव रहता हैं, उसके प्रभाव से लवणसमुद्र जंबूद्वीप को जल से आप्लावित, उत्पीड़ित और जलमग्न नहीं करता है। गौतम ! दूसरी बात यह है कि लोकस्थिति और लोकस्वभाव ( लोकमर्यादा या जगत्-स्वभाव ) ही ऐसा है कि लवणसमुद्र जंबूद्वीप को जल से आप्लावित, उत्पीड़ित और जलमग्न नहीं करता है । ॥ तृतीय प्रतिपत्ति में मन्दरोद्देशक समाप्त ॥ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२] [जीवाजीवाभिगमसूत्र धातकीखण्ड की वक्तव्यता १७४. लवणसमुदं धायइसंडे णामं दीवे वट्टे वलयागारसंठाणसंठिए सव्वओ समंता संपरिक्खिवित्ताणं चिट्ठइ। धायइसंडे णं भंते ! दीवे किं समचक्कवालसंठिए विसमचक्कवालसंठिए ? गोयमा ! समचक्कवालसंठिए नो विसमचक्कवालसंठिए। धायइसंडे णं भंते ! दीवे केवइयं चक्कवालविक्खंभेणं केवइयं परिक्खेवेणं पण्णत्ते ? गोयमा ! चत्तारि जोयणसयसहस्साई चक्कवालविक्खंभेणं, एकयालीसं जोयणसयसहस्साई दसजोयणसहस्साइं णवएगढे जोयणसए किंचिविसेसूणे परिक्खेवेणं पण्णत्ते। से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेणं वणसंडेणं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते, दोण्ह वि वण्णओ दीवसमिया परिक्खेवेणं। धायइसंडस्स णं भंते ! दीवस्स कति दारा पण्णत्ता ? गोयमा ! चतारि दारा पण्णत्ता-विजए, वेजयंते, जयंते, अपराजिए। कहि णं भंते ! धायइसंडस्स दीवस्स विजए णामं दारे पण्णत्ते ? गोयमा ! धायइसंडपुरथिमपेरंते कालोयसमुद्दपुरथिमद्धस्स पच्चत्थिमेणं सीयाए महाणदीए उप्पिं एत्थ णं धायइसंडस्स दीवस्स विजए णामं दारे पण्णत्ते, तं चेव पमाणं। रायहाणीओ अण्णंमि धायइसंडे दीवे। दीवस्स वत्तव्वया भाणियव्वा। एवं चत्तारिवि दारा भाणियव्वा। . धायइसंडस्सं णं भंते ! दीवस्स दारस्स य दारस्स य एस णं केवइयं अबाहाए अंतरे पण्णते? गोयमा ! दस जोयणसयसहस्साई सत्तावीसं च जोयणसहस्साई सत्तपणतीसे जोयणसए तिन्नि य कोसे दारस्स य दारस्स य अबाहाए अंतरे पण्णत्ते। धायइसंडस्स णं भंते ! दीवस्स पएसा कालोयगं समुदं पुट्ठा ? हंता, पुट्ठा । ते णं भंते ! किं धायइसंडे दीवे कालोए समुद्दे ? ते धायइसंडे, नो खलु ते कालोयसमुद्दे । एवं कालोयस्सवि। धायइसंडदीवे जीवा उद्दाइत्ता उद्दाइत्ता कालोए समुद्दे पच्चायंति ? गोयमा ! अत्थेगइया पच्चायति अत्थेगइया नो पच्चायंति। एवं कालोएवि अत्थेगइया पच्चायंति अत्थेगइया नो पच्चायंति। से केणठेण भंते ! एवं वुच्चइ-धायइसंडे दीवे धायइसंडे दीवे ? गोयमा ! धायइसंडे णं दीवे तत्थ तत्थ पएसे धायइरूक्खा धायइवणा धायइवणसंडा णिच्चं कु सुमिया जाव उवसोभे माणा उवसोभेमाणा चिट्ठं ति। धायइमहाधायइरूक्खेसु सुदंसणपियदंसणा दुवे देवा महिड्डिया जाव पलिओवमट्टिईया परिवसंति, से एएणढेणं एवं Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : धातकीखण्ड की वक्तव्यता] [३३ वुच्चइ-धायइसंडे दीवे धायइसंडे दीवे। अदुत्तरं च णं गोयमा ! जाव णिच्चे। ___धायइसंडे णं दीवे कति चंदा पभासिंसु वा पभासिंति वा पभासिस्संति वा ? कइ सूरिया तविंसु वा ३। कइ महग्गहा चारं चरिंसु वा ३? कइ णक्खत्ता जोगं जोइंसु वा ३? कइ तारागणकोडाकोडीओ सोभिंसु वा ३ ? गोयमा ! बारस चंदा पभासिंसु वा ३ एवं चउवीसं ससिरविणो णक्खत्तासता य तिन्नि छत्तीसा। एगं च गह सहस्सं छप्पन्नं धायइसंडे ॥१॥ अद्वैव सयसहस्सा तिण्णि सहस्साइं सत्त य सयाई। धायइसंडे दीवे तारागण कोडिकोडीणं ॥२॥ सोभिंसु वा सोभंति वा सोभिस्संति वा। १७४. धातकीखण्ड नाम का द्वीप, जो गोल वलयाकार संस्थान से संस्थित है , लवणसमुद्र को सब ओर से घेरे हुए संस्थित है। __ भगवन् ! धातकीखण्डद्वीप समचक्रवाल संस्थान से संस्थित है या विषमचक्रवाल संस्थानसंस्थित है? .. गौतम ! धातकीखण्ड समचक्रवाल संस्थान-संस्थित है, विषमचक्रवालसंस्थित नहीं है। भगवन् ! धातकीखण्डद्वीप चक्रवाल-विष्कंभ से कितना चौड़ा है और उसकी परिधि कितनी है । गौतम ! वह चार लाख योजन चक्रवालविष्कंभ वाला और इकतालीस लाख दस हजार नौ सो इकसठ योजन से कुछ कम परिधि वाला है।' वह धातकीखण्ड एक पद्मवरवेदिका और वनखण्ड से सब ओर से घिरा हुआ है। दोनों का वर्णनक कहना चाहिए। धातकीखण्डद्वीप के समान ही उनकी परिधि है। भगवन् ? धातकीखण्ड के कितने द्वार हैं। गौतम ! धातकीखण्ड के चार द्वार हैं , यथा-विजय, वैजयंत, जयन्त और अपराजित । हे भगवन् ! धातकीखण्डद्वीप का विजयद्वार कहां पर स्थित है ? गौतम ! धातकीखण्ड के पूर्वी दिशा के अन्त में और कालोदसमुद्र के पूर्वार्ध के पश्चिमदिशा में शीता महानदी के ऊपर धातकीखण्ड का विजयद्वार है। जम्बूद्वीप के विजयद्वार की तरह ही इसका १. एयालीसं लक्खा दस य सहस्साणि जोयणाणं तु। नव य सया एगठ्ठा किंचूणो परिरओ तस्स ॥१॥ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४] [ जीवाजीवाभिगमसूत्र प्रमाण आदि जानना चाहिए। इसकी राजधानी अन्य धातकीखण्डद्वीप में है, इत्यादि वर्णन जंबूद्वीप की विजया राजधानी के समान जानना चाहिए। इसी प्रकार विजयद्वार सहित चारों द्वारों का वर्णन समझना चाहिए । हे भगवन् ! धातकीखण्ड के एक द्वार से दूसरे द्वार का अपान्तराल अन्तर कितना है ? गौतम ! दस लाख सत्तावीस हजार सात सौ पैतीस (१०२७७३५) योजन और तीन कोस का अपान्तराल अन्तर है ।' ( एक-एक द्वार की द्वारशाखा सहित माटाई साढ़े चार योजन है। चार द्वारों की मोटाई १८ योजन हुई । धातकीखण्ड की परिधि ४११०९६१ योजन में से १८ योजन कम करने से ४११०९४३ योजन होते हैं। इनमें चार का भाग देने से एक-एक द्वार उक्त अन्तर निकल आता है ।) भगवन् ! धातकीखण्डद्वीप के प्रदेश कालोदधिसमुद्र से छुए हुए हैं क्या? हां गौतम ! छुए हुए हैं । भगवन् ! वे प्रदेश धातकीखण्ड के हैं या कालोदसमुद्र के ? गौतम ! वे प्रदेश धातकीखण्ड के हैं, कालोदसमुद्र के नहीं । इसी तरह कालोदसमुद्र के प्रदेशों के विषय में भी कहना चाहिए। भगवन् ! धातकीखण्ड से निकलकर (मरकर) जीव कालोदसमुद्र में पैदा होते हैं क्या? गौतम ! कोई जीव पैदा होते हैं, कोई जीव नहीं पैदा होते हैं। इसी तरह कालोदसमुद्र से निकलकर धातकीखण्डद्वीप में कोई जीव पैदा होते हैं और कोई नहीं पैदा होते हैं । भगवन् ! ऐसा क्यों कहा जाता है कि धातकीखण्ड, धातकीखण्ड है ? गौतम ! धातकीखण्डद्वीप में स्थान-स्थान पर यहां वहां धातकी के वृक्ष, धातकी के बन और धातकी के वनखण्ड नित्य कुसुमित रहते है यावत् शोभित होते हुए स्थित हैं, धातकी महाधातकी वृक्षों पर सुदर्शन और प्रियदर्शन नाम के दो महर्द्धिक पल्योमप स्थितिवाले देव रहते हैं, इस कारण धातकीखण्ड धातकीखण्ड कहलाता है । गौतम ! दूसरी बात यह है कि धातकीखण्ड नाम नित्य है । (द्रव्यापेक्षया नित्य और पर्यायापेक्षया अनित्य है ) अतएव शाश्वत काल से उसका यह नाम अनिमित्तक है । भगवन् ! धातकीखण्डद्वीप में कितने चन्द्र प्रभासित हुए, होते हैं और होंगे ? कितने सूर्य तपित होते थे, होते हैं और होंगे? कितने महाग्रह चलते थे, चलते हैं और चलेंगे? कितने नक्षत्र चन्द्रादि से योग करते थे, योग करते हैं, और योग करेंगे? और कितने कोडाकोडी तारागण शोभित होते थे, शोभित होते हैं और शोभित होगें ? गौतम ! धातकीखण्डद्वीप में बारह चन्द्र उघोत करते थे, करते हैं और करेंगे। इसी प्रकार बारह सूर्य तपते थे, तपते हैं और तपेंगे। तीन सौ छतीस नक्षत्र चन्द्र सूर्य से योग करते थे, करते हैं और १. पणतीसा सत्त सया सत्तावीसा सहस्स दस लक्खा । धाइयखंडे दारं तरं त अवरं कोसतियं ॥१॥ २. 'चउवीसं ससिरविणो' का अर्थ १२ चन्द्र और १२ सूर्य समझना चाहिये । Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति: कालोदसमुद्र की वक्तव्यता ] [ ३५ करेंगे। (एक-एक चन्द्र के परिवार में २८ नक्षत्र हैं। बारह चन्द्रों के ३३६ नक्षत्र हैं ।) एक हजार छप्पन महाग्रह चलते थे, चलते हैं और चलेंगे। (प्रत्येक चन्द्र के परिवार में ८८ महाग्रह हैं । बारह चन्द्रों के १२ × ८८ = १०५६ महाग्रह हैं।) आठ लाख तीन हजार सात सौ कोडाकोडी तारागण शोभित होते थे, शोभित होते हैं और शोभित होगें । " कालोदसमुद्र की वक्तव्यता १७५. धायइसंडं णं दीवं कालोदे णामं समुद्दे वट्टे वलयागारसंठाणसंठिए सव्वओ समता संपरिक्खित्ता णं चिठ्ठा । कालोदे णं समुद्दे किं समचक्कवालसंठाणसंठिए विसमचक्कवालसंठाणसंठिए ? गोयमा ! समचक्कवालसंठाणसंठिए नो विसमचक्कवालसंठाणसंठिए । कालोदे णं भंते ! समुद्दे केवइयं चक्कवालविक्खंभेणं केवइयं परिक्खेवेणं पण्णत्ते ? गोयमा ! अठ्ठजोयणसयसहस्साइं चक्कवालविक्खंभेणं एकाणउइजोयणसयसहस्साइं सत्तरिसहस्साइं छच्च पंचत्तरे जोयणसए किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं पण्णत्ते । से णं गाए पउमवरवेइयाए एगेणं वणसंडेणं, संपरिक्खित्ते, दोपहवि वण्णओ । कालोयस्स णं भंते ! समुद्दस्स कति दारा पण्णत्ता ? गोयमा ! चत्तारि दारा पण्णत्ता, तं जहा - विजए, वेजयंते, जयंते, अपराजिए । कहि णं भंते ! कालोदस्स समुद्दस्स विजए णामं दारे पण्णत्ते ? गोयमा ! कालोदे समुद्दे पुरत्थिमपेरंते पुक्खरवरदीवपुरत्थिमद्धस्स पच्चत्थिमेणं सीतोदाए महाणईए उप्पिं एत्थ णं कालोदस्स समुद्दस्स विजए णामं दारे पण्णत्ते । अट्ठेव जोयणाइं तं चेव पमाणं जाव रायहाणीओ । कहि णं भंते ! कालोयस्स समुद्दस्स वेजयंते णामं दारे पण्णत्ते ? गोमा ! कालोस्स समुद्दस्स दक्खिणपेरंते पुक्खरवरदीवस्स दक्खिणद्धस्स उत्तरेणं, एत्थ णं कालोयसमुद्दस्स वेजयंते नामं दारे पण्णत्ते । कहि णं भंते ! कालोयसमुद्दस्स जयंते नामं दारे पण्णत्ते ? गोयमा ! कालोयसमुद्दस्स पच्चत्थिमपेरंते पुक्खरवरदीवस्स पच्चत्थिमद्धस्स पुरत्थिमेणं १. उक्तं च- बारस चंदा सूरा नक्खत्तसया य तिन्नि छत्तीसा । एगं च गह सह स्सं छप्पनं धायइसंडे ॥१ ॥ अट्ठेव सयसहस्सा तिनि सहस्सा य सत्त य सया य । धायइसंडे दीवे मारागणकोडिकोडीओ ॥२॥ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ ] सीता महाणई उप्पं जयंते णामं दारे पण्णत्ते । कहि णं भंते ! कालोयसमुद्दस्स अपराजिए नामं दारे पण्णत्ते ? गोयमा ! कालोयसमुद्दस्स उत्तरद्धपेरंते पुक्खरवरदीवोत्तरद्धस्स दाहिणओ एत्थ कालोयसमुद्दस्स अपराजिए णामं दारे पण्णत्ते । सेसं तं चेव । [ जीवाजीवाभिगमसूत्र कालोयस्स णं भंते ! समुद्दस्स दारस्स य दारस्स य एस णं केवइयं केवइयं अबाहाए अंतरे पण्णत्ते ? गोयमा ! -बावीससयसहस्सा बाणउइ खलु भवे सहस्साइं । छच्च सया बायाला दारंतरं तिन्नि कोसा य ॥ १ ॥ दारस्स य दारस्स य अबाहाए अंतरे पण्णत्ते । कालोदस्स णं भंते ! समुद्दस्स पएसा पुक्खरवरदीवं पुट्ठा ? तहेव, एवं पुक्खरवरदीवस्सवि जीवा उद्दाइत्ता उद्दाइत्ता तहेव भाणियव्वं । से केणट्ठेणं भंते ! एवं वुच्चइ - कालोए समुद्दे कालोए समुद्दे ? गोयमा ! कालोयस्स णं समुद्दस्स उदगे आसले मासले पेसले कालए मासरासिवण्णाभे पगईए उदगरसे णं पण्णत्ते, काल-महाकाला एत्थ दुवे देवा महिड्डिया जाव पलिओवमट्ठिया परिवसंति, से तेणट्ठेणं गोयमा ! जाव णिच्चे । कालो णं भंते! समुद्दे कति चंदा पभासिंसु वा ३ पुच्छा ? गोमा ! कालो णं समुद्दे बायालीसं चंदा पभासिंसु वा ३ । बायालीसं चंदा बायालीसं य दिणयरा दित्ता । कालो दहिम्मि एते चरंति संबद्धले सागा ॥ १ ॥ णक्खत्ताण सहस्सं एगं छावत्तरं च सयमण्णं । छच्चसया छण्णउया महागया तिण्णि य सहस्सा ॥ २ ॥ अट्ठावीसं कालो दहिम्मि बारस य सयसह स्साइं । नव य सया पन्नासा तारागणको डिकोडीणं ॥ ३ ॥ सोभं वा ३ ॥ १७५. गोल और वलयाकार आकृति का कालोद (कालोदधि) नाम का समुद्र धातकीखण्ड द्वीप को सब ओर से घेर कर रहा हुआ है। भगवन् ! कालोदसमुद्र समचक्रवाल रूप से संस्थित है या विषमचक्रवालसंस्थान से संस्थित है ? Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : कालोदसमुद्र की वक्तव्यता] [३७ गौतम ! कालोदसमुद्र समचक्रवाल रूप से संस्थित है, विषमचक्रवाल रूप से नहीं। भगवन् ! कालोदसमुद्र का चक्रवालविष्कंभ कितना है और उसकी परिधि कितनी है ? गौतम ! कालोदसमुद्र आठ लाख योजन का चक्रवालविष्कंभ से है और इक्यानवै लाख सत्तर हजार छह सौ पांच योजन से कुछ अधिक उसकी परिधि है। (एक हजार योजन उसकी गहराई है।) वह एक पद्मवरवेदिका और एक वनखंड से परिवेष्टित है। दोनों का वर्णनक कहना चाहिए। भगवन् ! कालोदसमुद्र के कितने द्वार हैं ? गौतम ! कालोदसमुद्र के चार द्वार हैं -विजय, वैजयंत, जयंत और अपराजित। भगवन् ! कालोदसमुद्र का विजयद्वार कहां स्थित हैं ? गौतम ! कालोदसमुद्र के पूर्वदिशा के अन्त में और पुष्करवरद्वीप के पूर्वार्ध के पश्चिम में शीतोदा महानदी के ऊपर कालोदसमद्र का विजयद्वार है। वह आठ योजन का ऊँचा है आदि प्रमाण पूर्ववत् यावत् राजधानी पर्यन्त जानना चाहिए। भगवन् ! कालोदसमुद्र का वैजयंद्वार कहां हैं ? गौतम ! कालोदसमुद्र के दक्षिण पर्यन्त में, पुष्करवरद्वीप के दक्षिणार्ध भाग के उत्तर में कालोदसमुद्र का वैजयंतद्वार है। भगवन् ! कालोदसमुद्र का जयन्तद्वार कहां है? गौतम ! कालोदसमुद्र के पश्चिमान्त में पुष्करवरद्वीप के पश्चिमार्ध के पूर्व में शीता महानदी के ऊपर जयंत नाम का द्वार है। भगवन् ! कालोदसमुद्र का अपराजितद्वार कहां है। गौतम ! कालोदसमुद्र के उत्तरार्ध के अन्त में और पुष्करवरद्वीप के उत्तरार्ध के दक्षिण में कालोदसमुद्र का अपराजितद्वार है। शेष वर्णन पूर्वोक्त जम्बूद्वीप के अपराजितद्वार के समान जानना चाहिए। (विशेष यह है कि राजधानी कालोदसमुद्र में कहनी चाहिए।) भगवन् ! कालोदसमुद्र के एक द्वार से दूसरे का अपान्तराल अन्तर कितना है ? गौतम ! बावीस लाख बानवै हजार छह सौ छियालीस योजन और तीन कोस का एक द्वार से दूसरे द्वार का अन्तर है। (चारों द्वारों की माटाई १८ योजन कालोदसमुद्र की परिधि में से घटाने पर ९१७०५८७ होते हैं । इनमें ४ का भाग देने पर २२९२६४६ योजन और तीन कोस का प्रमाण आ जाता है।) १. उक्तं च-अद्वैव सयसहस्सा कालोओ चक्कवालओ रुंदो। जोयणसहस्समेगं ओगाहे ण मुणे यव्वो ॥१॥ इगनउइसयसहस्सा हवंति तह सत्तरि सहस्सा य। छच्च सया पंचहिया कालोयहिपरिरओ एसो॥२॥ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८] [जीवाजीवाभिगमसूत्र भगवन् ! कालोदसमुद्र के प्रदेश पुष्करवरद्वीप से छुए हुए हैं क्या? इत्यादि कथन पूर्ववत् करना चाहिये, यावत् पुष्करवरद्वीप के जीव मरकर कालोद समुद्र में कोई उत्पन्न होते हैं और कोई नहीं। भगवन् ! कालोदसमुद्र, कालोदसमुद्र क्यों कहलाता है ? गौतम! कालोदसमुद्र, का पानी आस्वाद्य है, मांसल (भारी होने से), पेशल (मनोज्ञ स्वाद वाला) है, काला है, उड़द की राशि के वर्ण का है और स्वाभाविक उदकरस वाला है, इसलिए वह कालोद कहलाता है। वहां काल और महाकाल नाम के पल्योपम की स्थिति वाले महर्द्धिक दो देव रहते हैं। इसलिए वह कालोद कहलाता है । गौतम ! दूसरी बात यह है कि कालोदसमुद्र शाश्वत होने से उसका नाम भी शाश्वत और अनिमित्तक है। भगवन् ! कालोसमुद्र में कितने चन्द्र उद्योत करते थे आदि प्रश्न पूर्ववत् जानना चाहिए? गौतम ! कालोदसमुद्र में बयालीस चन्द्र उद्योत करते थे, उद्योत करते हैं और उद्योत करेंगे। गाथा में कहा है कि कालोदधि में बयालीस चन्द्र और बयालीस सूर्य सम्बद्धलेश्या वाले विचरण करते हैं। एक हजार एक सौ छिहत्तर नक्षत्र और तीन हजार छह सौ छियानवे महाग्रह और अट्ठाईस लाख बारह हजार नौ सौ पचास कोडाकोडी तारागण शोभित हुए, शोभित होते हैं और शोभित होंगे। पुष्करवरद्वीप की वक्तव्यता १७६. (अ) कालोयं णं समुदं पुक्खरवरे णामं दीवे वट्टे वलयागारसंठाणसंठिए सव्वओ समंता संपरिक्खित्ता णं चिट्ठई, तहेव जाव समचक्कवालसंठाणसंठिए नो विसमचक्कवालसंठाणसंठिए। पुक्खरवरे णं भंते ! दीवे केवइयं चक्कवालविक्खंभेणं केवइयं परिक्खेवेणं पण्णत्ते ? गोयमा ! सोलस जोयणसयसहस्साई चक्कवालविक्खंभेणं, एगा जोयणकोडी बाणउई खलु भवे सयसहस्सा। अउणाणउइं अट्ठसया चउणउया य परिरओ पुक्खरवरस्स। से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेण य वणसंडेणं संपरिक्खित्ते। दोण्हवि वण्णओ। पुक्खरवरस्स णं भंते ! कति दारा पण्णत्ता ? गोयमा ! चत्तारि दारा पण्णत्ता, तं जहा-विजए, वेजयंते, जयंते, अपराजिए। कहि णं भंते ! पुक्खरवरदीवस्स विजए णामं दारे पण्ण्त्ते ? गोयमा ! पुक्खरवरदीवपुरच्छिमपेरंते पुक्खरोदसमुद्दपुरच्छिमद्धस्स पच्चत्थिमेणं एत्थ णं १. प्रस्तुत पाठ में आई तीन गाथाए वृतिकार के सामने रही हुई प्रतियों में नही थीं, ऐसा लगता है, इसीलिए उन्होंने "अन्यत्राप्युक्तं" ऐसा बृत्ति में लिखकर उक्त तीन गाथाएं उद्धृत की हैं। -सम्पादक Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : पुष्करवरद्वीप की वक्तव्यता] [३९ पुक्खरवरदीवस्स विजए णामं दारे पण्णत्ते, तं चेव सव्वं। एवं चत्तारिवि दारा।सीयासीओदा णत्थि भाणियव्वाओ। पुक्खरवरस्सणं भंते ! दीवस्स दारस्स य दारस्स य एस णं केवइयं अबाधाए अंतरे पण्णत्ते? गोयमा ! अडयाल सयसहस्सा बावीसं खलु भवे सहस्साइं। ___ अगुणुत्तरा य चउरो दारंतर पुक्खरवरस्स॥१॥ पएसा दोण्हवि पुट्ठा, जीवा दोसुवि भाणियव्वा। से केणटठेणं भंते ! एवं वुच्चइ पुक्खरवरदीवे पुक्खरवरदीवे ? गोयमा ! पुक्खरवरे णं दीवे तत्थ तत्थ देसे तहिं तहिं बहवे पउमरूक्खा पउमवणा पउमवणसंडा णिच्चं कुसुमिआ जाव चिट्ठति; पउममहापमरूक्खे एत्थ णं पउमपुंडरीया णामं दुवे देवा महिड्डिया जाव पलिओवमट्ठिईया परिवसंति, से तेणढेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ पुक्खरवरदीवे पुक्खरवरदीवे जाव णिच्चे। . पुक्खरवरे णं भंते ! दीवे केवइया चंदा पभासिंसु वा ३ ? एवं पुच्छा चोयालं चंदसयं चउ यालं चेव सूरियाण सयं । पुक्खर वर दीवंमि चरं ति एता पभासें ता॥१॥ चत्तारि सहस्साई बत्तीसं चेव होंति णक्खत्ता। छ च्च सया बावत्तर महग्गहा बारस सहस्सा ॥२॥ छण्णउइ सयसहस्सा चत्तालीसं भवे सहस्साई। चत्तारि सया पुक्खरवर तारागणकोडिकोडीणं ॥३॥ सोभिंसु वा सोभन्ति वा सोभिस्संति वा। १७६. (अ) गोल और वलयाकार संस्थान से संस्थित पुष्करवर नाम का द्वीप कालोदसमुद्र को सब ओर घेर कर रहा हुआ है। उसी प्रकार कहना चाहिए यावत् यह समचक्रवाल संस्थान वाला है, विषमचक्रवाल संस्थान वाला नहीं है। भगवन् ! पुष्करवरद्वीप का चक्रवालविष्कंभ कितना है और उसकी परिधि कितनी है? गौतम ! वह सोलह लाख योजन चक्रवालविष्कंभ वाला है और उसकी परिधि एक करोड़ बानवै लाख नव्यासी हजार आठ सौ चौरानवै (१९२८९८९४) योजन है। वह एक पद्मवरवेदिका और एक वनखण्ड से परिवेष्ठित है । दोनों का वर्णनक कहना चाहिए। भगवन् ! पुष्करवरद्वीप के कितने द्वार हैं ? गौतम ! चार द्वार हैं -विजय, वैजयंत, जयंत और अपराजित । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०] [जीवाजीवाभिगमसूत्र भगवन् ! पुष्करवरद्वीप का विजयद्वार कहां है ? गौतम ! पुष्करवरद्वीप के पूर्वी पर्यन्त में और पुष्करोदसमुद्र के पूर्वार्ध के पश्चिम में पुष्करवरद्वीप का विजयद्वार है, आदि वर्णन जंबूद्वीप के विजयद्वार के समान कहना चाहिए। इसी प्रकार चारों द्वारों का वर्णन जानना चाहिए। लेकिन शीता शीतोदा नदियों का सद्भाव नहीं कहना चाहिये। भगवन् ! पुष्करवरद्वीप के एक द्वार से दुसरे द्वार का अन्तर कितना है ? गौतम ! अड़तालीस लाख बावीस हजार चार सौ उनहत्तर (४८२२४६९) योजन का अन्तर है। (चारों द्वारों की मोटाई १८ योजन है । पुष्करवरद्वीप की परिधि १९२८९८९४ योजन में से १८ योजन कम करने पर १९२८९८७६ योजन की राशि को ४ से भाग देने पर उक्त प्रमाण निकल आता है।) पुष्करवरद्वीप के प्रदेश पुष्करवरसमुद्र से स्पृष्ट हैं और वे प्रदेश उसी के हैं, इसी तरह पुष्करवरसमुद्र के प्रदेश पुष्करवरद्वीप से छुए हुए हैं और उसी के हैं । पुष्करवरद्वीप और पुष्करवरसमुद्र के जीव मरकर कोई कोई उनमें उत्पन्न होते है और कोई कोई उनमें उत्पन्न नहीं भी होते हैं। भगवन् ! पुष्करवरद्वीप पुष्करवरद्वीप क्यों कहलाता है ? गौतम ! पुष्करवरद्वीप में स्थान-स्थान पर यहां-वहां बहुत से पद्मवृक्ष, पद्मवन और पद्मवनखण्ड नित्य कुसुमित रहते हैं तथा पद्म और महापद्म वृक्षों पर पद्म और पुंडरीक नाम के पल्योपम स्थिति वाले दो महर्द्धिक देव रहते हैं, इसलिए पुष्करवरद्वीप पुष्करवरद्वीप कहलाता है यावत् नित्य है। ____ भगवन् ! पुष्करवरद्वीप में कितने चन्द्र उद्योत करते थे, करते हैं और करेंगे-इत्यादि प्रश्न करना चाहिए? गौतम ! एक सौ चवालीस चन्द्र और एक सौ चवालीस सूर्य पुष्करवरद्वीप में प्रभासित होते हुए विचरते हैं। चार हजार बत्तीस (४०३२) नक्षत्र और बारह हजार छह सौ बहत्तर (१२६७२) महाग्रह हैं। छियानवै लाख चवालीस हजार चार सौ (९६४४४००) कोडाकोडी तारागण पुष्करवरद्वीप में शोभित हुए, शोभित होते हैं और शोभित होंगे। मानुषोत्तरपर्वत की वक्तव्यता १७६. (आ) पुक्खरवरदीवस्स णं बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं माणुसुत्तरे नामं पव्वए पण्णत्ते, वट्टे वलयागारसंठाणसंठिए, जे णं पुक्खरवरदीवं दुहा विभयमाणे विभयमाणे चिट्ठइ, तं जहा-अभिंतरपुक्खरद्धं च बाहिरपुक्खरद्धं च। अभितरपुक्खरद्धे णं भंते! केवइयं चक्कवालेणं परिक्खेवेणं पण्णत्ते? गोयमा! अट्ठजोयण सयसहस्साई चक्कवालविक्खंभेणं कोडी बायालीसा तीसं दोण्णि य सया अगुणवण्णा। पुक्खर वद्धपरिरओ एवं च मणुस्सखेत्तस्स ॥१॥ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : मानुषोत्तरपर्वत की वक्तव्यता] [४१ से केणढेणं भंते ! एवं वुच्चइ अन्भिंतरपुक्खरद्धे य अभिंतरपुक्खरद्धे य? गोयमा ! अभिंतरपुक्खरद्धेणं माणुसुत्तरेणं पव्वएणं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते। से एएणटेणं गोयमा ! अभिंतरपुक्खरद्धे य अब्भितरपुक्खरद्धे य। अदुत्तरं च णं जाव णिच्चे। अभिंतरपुक्खरद्धे णं भंते ! के वइया चंद्गा पभासिंसु ३, सा चेव पुच्छा जाव तारागणकोडिकोडीओ? गोयमा ! बावतरं च चंदा बावत्तरिमेव दिणकरा दित्ता। पुक्खर वरदीवड् ढे चरं ति एते पभासेंता ॥१॥ तिणि सया छत्तीसा छच्च सहस्सा महग्गहाणं तु। णक्खत्ताणं तु भवे सोलाई दुवे सहस्साइं ॥२॥ अडयाल सयसहस्सा बावीसं खलु भवे सहस्साइं। दोण्णि सया पुक्खरद्धे तारागण कोडिकोडीणं ॥३॥ १७६. (आ) पुष्करवरद्वीप के बहुमध्यभाग में मानुषोत्तर नामक पर्वत है, जो गोल है और वंलयकार संस्थान से संस्थित है। वह पर्वत पुष्करवरद्वीप को दो भागों में विभाजित करता हैआभ्यन्तर पुष्करार्ध और बाह्य पुष्कराई। भगवन् ! आभ्यन्तर पुष्करार्ध का चक्रवालविष्कंभ कितना है और उसकी परिधि कितनी है ? गौतम ! आठ लाख योजन का उसका चक्रवालविष्कंभ है और उसकी परिधि एक करोड़, बयालीस लाख, तीस हजार, दो सौ उनपचास (१,४२,३०,२४९) योजन की है। मनुष्यक्षेत्र की परिधि भी यही है। भगवन् ! आभ्यन्तर पुष्करार्ध आभ्यन्तर पुष्करा क्यों कहलाता है ? गौतम ! आभ्यन्तर पुष्करार्ध सब ओर से मानुषोत्तरपर्वत से घिरा हुआ है । इसलिये वह आभ्यन्तर पुष्करार्ध कहलाता है। दूसरी बात यह है कि वह नित्य है (अत: यह अनिमित्तक नाम है।) भगवन् ! आभ्यन्तर पुष्करार्ध में कितने चन्द्र प्रभासित होते थे, होते हैं और होंगे, आदि वही प्रश्न तारागण कोडाकोडी पर्यन्त करना चाहिए। ___ गौतम ! बहत्तर चन्द्रमा और बहत्तर सूर्य प्रभासित होते हुए पुष्करवरद्वीपार्ध में विचरण करते हैं ॥१॥ ___छह हजार तीन सौ छत्तीस महाग्रह और दो हजार सोलह नक्षत्र गति करते हैं और चन्द्रादि से योग करते हैं ॥२॥ अड़तालीस लाख बावीस हजार दो सौ ताराओं की कोडाकोडी वहां शोभित होती थी, शोभित होती हैं और शोभित होगी ॥३॥ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ जीवाजीवाभिगमसूत्र विवेचन - सब जगह तारा-परिमाण में कोटी-कोटी से मतलब क्रोड (कोटि) ही समझना चाहिए। पूर्वाचार्यों ने ऐसी ही व्याख्या की है। क्योंकि क्षेत्र थोड़ा है। अन्य आचार्य उत्सेधांगुलप्रमाण से कोटिकोटि की संगति करते है । कहा है "कोडाकोडी सन्नंतरं तु मन्नंति केई थोवतया । अन्न उत्सेहांगुलमाणं काऊण ताराणं" ॥१॥ ४२ ] -वृत्ति समयक्षेत्र (मनुष्य क्षेत्र ) का वर्णन १७७. (अ) समयखेत्ते णं भंते ! केवइयं आयामविक्खंभेणं केवइयं परिक्खेवेणं पण्णत्ते ? गोयमा ! पणयालीसं जोयणसयसहस्साइं आयामविक्खंभेणं एगा जोयणकोडी जाव अब्भितर पुक्खरद्धपरिरओ से भाणियव्वो जाव अऊणपणे। सेकेणट्ठे भंते! एवं वुच्चइ - माणुसखेते माणुसखेत्ते ? गोयमा ! माणुस्सखेत्तेणं तिविहा मणुस्सा परिवसंति, तं जहा-कम्मभूमगा अकम्मभूमगा अंतरदीवगा। से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ माणुसखेत्ते माणुसखेत्ते । माणुसखेत्ते णं भंते! कति चंदा पभासिंसु वा ३, कइ सूरा तविंसु वा ३ ? बत्तीसं चंदसयं बत्तीसं चेव सूरियाण सयं । सयलं मणुस्सलोयं चरेंति एए पभासंता ॥ १ ॥ एक्कारस य सहस्सा छप्पि य सोलगमहग्गहाणं तु । छच्च सया छण्णउया णक्खत्ता तिण्णि य सहस्सा ॥ २ ॥ अडसीइ सयसहस्सा चत्तालीस सहस्स मणुयलोगंमि । सत्य या अणूणा तारागणकोडिकोडीणं ॥३॥ सोभं सासु वा ३ । १७७. (अ) हे भगवन् ! समयक्षेत्र ( मनुष्यक्षेत्र) का आयाम - विष्कंभ कितना और परिधि कितनी है ? गौतम ! समयक्षेत्र आयाम - विष्कंभ से पैतालीस लाख योजन का है और उसकी परिधि वही है जो आभ्यन्तर पुष्करवरद्वीप की कही । अर्थात् एक करोड़, बयालीस लाख, तीस हजार, दो सौ उनपचास योजन की परिधि है । Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति: समयक्षेत्र ( मनुष्यक्षेत्र) का वर्णन ] [ ४३ हे भगवन् ! मनुष्यक्षेत्र, मनुष्यक्षेत्र क्यों कहलाता है ? गौतम ! मनुष्यक्षेत्र में तीन प्रकार के मनुष्य रहते हैं, यथा- कर्मभूमक, अकर्मभूमक और अन्तर्द्धापक । इसलिए यह मनुष्यक्षेत्र कहलाता है । हे भगवन् ! मनुष्यक्षेत्र में कितने चन्द्र प्रभासित होते थे, प्रभासित होते हैं और प्रभासित होंगे ? कितने सूर्य तपते थे, तपते हैं और तपेंगे ? आदि प्रश्न कर लेना चाहिए । गौतम ! समयक्षेत्र में एक सौ बत्तीस चन्द्र और एक सौ बत्तीस सूर्य प्रभासित होते हुए सकल मनुष्यक्षेत्र में विचरण करते हैं ॥१ ॥ गयारह हजार छह सौ सोलह महाग्रह यहां अपनी चाल चलते हैं और तीन हजार छह सौ छियानवे नक्षत्र चन्द्रादिक के साथ योग करते है ॥२ ॥ अठासी लाख चालीस हजार सात सौ (८८४०७००) कोटाकोटी तारागण मनुष्यलोक में शोभित होते थे, शोभित होते हैं और शोभित होगे ॥३॥ १७७. (आ) एसो तारापिंडो सव्वसमासेण मणुयलो गम्मि | बहिया पुण ताराओ जिणेहिं भणिया असंखेज्जा ॥ १ ॥ एवइयं तारग्गं जं भणियं माणुसम्मि लोगम्मि । चारं कलुंबयापुप्फसंठियं जोइसं चरइ ॥ २ ॥ रवि-ससि-गह-नक्खत्ता एवइया आहिया मणुयलोए । जेसिं नामागोयं न पागया पन्नवेहिंति ॥३॥ छावट्ठि पिडगाई चंदा इच्चा मणुयलोगंमि । दो चन्दा दो सुराय होंति एक्क्क्कए पिडए ॥४ ॥ छावट्ठि पिडगाईं चंदाइच्चा मणुयलो गम्मि । छप्पन्नं नक्खत्ता य होंति एक्केक्कए पिडए ॥५॥ छावट्ठि पिडगाई महग्गहाणं तु मणुयलोगम्मि । छावत्तरं गहसयं य होइ एक्क्कए पिडए ॥ ६ ॥ चत्तारि य पंतीओ चंदाइच्चाण मणुयलोगम्मि । छावट्ठिय छावट्ठिय होइ य एक्केक्किया पंती ॥७॥ छप्पनं पंतीओ नक्खत्ताणं तु मणुयलोगम्मि । छावट्ठी छावट्ठी य होइ एक्वेक्किया पंती ॥८ ॥ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४] [जीवाजीवाभिगमसूत्र छावत्तरं गहाणं पंतिसयं होई मणुयलोगम्मि। छावट्ठी छावट्ठी य होई एक्केक्किया पंती॥९॥ ते मेरू परियडंता पयाहिणावत्तमंडला सव्वे। अणवट्ठिय जोगेहिं चंदा सूरा गहगणा य॥१०॥ १७७. (आ) इस प्रकार मनुष्यलोक में तारापिण्ड पूर्वोक्त संख्याप्रमाण हैं । मनुष्यलोक में बाहर तारापिण्डों का प्रमाण जिनेश्वर देवों ने असंख्यात कहा है। (असंख्यात द्वीप समुद्र होने से प्रति द्वीप में यथायोग संख्यात असंख्यात तारागण हैं।) ॥१॥ मनुष्यलोक में जो पूर्वोक्त तारागणों का प्रमाण कहा गया है वे सब ज्योतिष्क देवों के विमानरूप हैं, वे कदम्ब के फूल के आकार के (नीचे संक्षिप्त ऊपर विस्तृत उत्तानीकृत अर्धकवीठ के आकार के) हैं । तथाविध जगत्-स्वभाव से गतिशील हैं ॥२॥ सूर्य, चन्द्र, गृह, नक्षत्र, तारागण का प्रमाण मनुष्यलोक में इतना ही कहा गया है । इनके नाम-गोत्र (अन्वर्थयुक्त नाम) अनतिशायी सामान्य व्यक्ति कदापि नहीं कह सकते, अतएव इनको सर्वज्ञोपदिष्ट मानकर सम्यक् रूप से इन पर श्रद्धा करनी चाहिए ॥३॥ दो चन्द्र और दो सूर्यों का एक पिटक होता है। इस मान से मनुष्यलोक में चन्द्रों और सूर्यों के ६६-६६ (छियासठ-छियासठ) पिटक हैं । १ पिटक जम्बूद्वीप में, २ पिटक लवणसमुद्र में, ६ पिटक धातकीखण्ड में, २१ पिटक कालोदधि में और ३६ पिटक अर्धपुष्करवरद्वीप में, कुल मिलाकर ६६ पिटक सूर्यों के और ६६ पिटक चन्द्रों के हैं ॥४॥ मनुष्यलोक में नक्षत्रों में ६६ पिटक हैं । एक-एक पिटक में छप्पन-छप्पन नक्षत्र हैं ॥५॥ मनुष्यलोक में महाग्रहों के ६६ पिटक हैं । एक-एक पिटक में १७६-१७६ महाग्रह हैं ॥६॥ इस मनुष्यलोक में चन्द्र और सूर्यों की चार-चार पंक्तियां हैं। एक-एक पंक्ति में ६६-६६ चन्द्र और सूर्य हैं ॥७॥ इस मनुष्यलोक में नक्षत्रों की ५६ पंक्तियां हैं। प्रत्येक पंक्ति में ६६-६६ नक्षत्र हैं ॥८॥ . इस मनुष्यलोक में ग्रहों की १७६ पंक्तियां हैं । प्रत्येक पंक्ति में ६६-६६ ग्रह हैं ॥९॥ ये चन्द्र-सूर्योदि सब ज्योतिष्क मण्डल मेरूपर्वत के चारों ओर प्रदक्षिणा करते हैं । प्रदक्षिणा करते हुए इन चन्द्रादि के दक्षिण में ही मेरू होता है, अतएव इन्हें प्रदक्षिणावर्तमण्डल कहा हैं । (मनुष्यलोकवर्ती सब चन्द्रसूर्यादि प्रदक्षिणावर्तमण्डल गति से परिभ्रमण करते हैं।) चन्द्र, सूर्य, और ग्रहों के मण्डल अनवस्थित हैं (क्योंकि यथायोग रूप से अन्य मण्डल पर ये परिभ्रमण करते रहते हैं ।) ॥१०॥ १७७. (इ) नक्खत्ततारगाणं अवट्ठिया मंडला मुणेयव्वा। तेवि य पयाहिणा-वत्तमेव मेरू अणुचरं ति॥११॥ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४५ तृतीय प्रतिपत्ति : समयक्षेत्र ( मनुष्यक्षेत्र) का वर्णन ] रयणियरदिणयराणं उड्ढे व अहे व संकमो णत्थि। मंडलसंकमण पुण अभितर बाहिरं तिरिए॥१२॥ रयणियरदिणयराणं नक्खत्ताणं महग्गहाणं च।। चारविसेसेण भवे सुहदुक्खविही मणुस्साणं ॥१३॥ तेसिं पविसंताणं तावक्खेत्तं तु वड्डए नियमा।। तेणेव कमेण पुणो परिहायई निवखमंताणं ॥१४॥ तेसिं कलंबुयापुप्फसंठिया होई तावखेत्तपहा। अंतो य संकु या बाहिं वित्थडा चंदसूराणं ॥१५॥ केणं वड्डइ चंदो परिहाणी केण होई चंदस्स। कालो वा जोण्हो वा केण अणुभावेण चंदस्स ॥१६॥ किण्हं राहुविमाणं निच्चं चंदेण होइ अविरहियं। चउरं गुलमप्पत्तं हिट्ठा चंदस्स तं चरइ ॥१७॥ बावटुिं बावट्ठि दिवसे दिवसे उ सुक्कपक्खस्स। जं परिवड् ढे इ चंदो, खवेइ तं चेव कालेणं ॥१८॥ पन्नरसइभागेण य चंदं पन्नर समेव तं वरइ। पन्नरसइभागेण य पुणो वि तं चेवतिक्कमइ ॥१९॥ एवं वड्व इ चंदो परिहाणी एव होई चंदस्स। कालो वा जोण्हा वा तेणणुभावेण चंदस्स ॥२०॥ अंतो मणुस्सखेत्ते हवंति चारोवगा य उववण्णा। पंचविहा जोइसिया चंदा सूरा गह गणा य ॥२१॥ तेण परं जे सेसा चंदाइच्चगह तार नक्खत्ता। नत्थि गई न वि चारो अवट्ठिया ते मुणेयव्वा ॥२२॥ दो चंदा इह दीवे चत्तारि य सागरे लवणतोए। धायइसंडे दीवे बारस चंदा य सूरा य॥२३॥ दो दो जंबूद्दीवे ससिसूरा दुगुणिया भवे लवणे। लावणिगा य तिगुणिया ससिसूरा धायइसंडे ॥२४॥ धायइसंडप्पभिई उद्दिट्ठ तिगुणिया भवे चंदा। आइल्ल चंदसहि या अणंतराणंतरे खेत्ते ॥२५॥ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ ] [ जीवाजीवाभिगमसूत्र रिक्खग्गहतारग्गं दीवसमुद्दे जहिच्छ से नाउं । तस्स ससीहिं गुणियं रिक्खग्गहतार गाणं तु ॥ २६ ॥ चंदाओ सूरस्स य सूरा चंदस्स अंतरं होइ । पन्नास सहस्साइं तु जोयणाणं अणूणाई ॥ २७ ॥ सूरस्स य सूरस्सय ससिणो ससिणो य अंतरं होई । बहियाओ मणुस्सनगस्सं जोयणाणं सयसहस्सं ॥ २८ ॥ सूरं तरिया चंदा चंदंतरिया य दिणयरा दित्ता । चित्तंतरले सागा सुहलेसा मंदलेसा य ॥२९॥ अट्ठासीइं च गहा अट्ठावीसं च होंति नक्खत्ता । एगससिपरिवारो एत्तो ताराणं वोच्छामि ॥३०॥ छावट्ठि सहस्साइं नव चेव सयाई पंचसयराई । एगससिपरिवारो तारागणको डिकोडीणं ॥३१ ॥ बहियाओ मणुस्सनगस्स चंदसूराण अवट्ठिया जोगा । चंदा अभीइजुत्ता सूरा पुण होंति पुस्सेहिं ॥३२॥ १७७. (इ) नक्षत्र और ताराओं के मण्डल अवस्थित हैं । अर्थात ये नियतकाल तक एक मण्डल में रहते हैं । (किन्तु इसका मतलब यह नहीं कि ये विचरण नहीं करतें), ये भी मेरूपर्वत के चारों ओर प्रदक्षिणावर्तमण्डल गति से परिभ्रमण करते हैं ॥ ११ ॥ चन्द्र और सूर्य का ऊपर और नीचे संक्रम नहीं होता ( क्योंकि ऐसा ही जगत स्वभाव है।) इनका विचरण तिर्यक् दिशा में सर्व आभ्यन्तर मण्डल से सर्वबाह्यमण्डल तक और सर्ववाह्यमण्डल से सर्व आभ्यन्तरमण्डल तक होता रहता है ॥ १२ ॥ चन्द्र, सूर्य, नक्षत्र, महाग्रह, और ताराओं की गतिविशेष से मनुष्यों के सुख-दुख प्रभावित होते ॥१३॥ सर्वबाह्यमण्डल से आभ्यन्तरमण्डल में प्रवेश करते हुए, सूर्य और चन्द्रमा का तापक्षेत्र प्रतिदिन क्रमशः नियम से आयाम की अपेक्षा बढ़ता जाता है और जिस क्रम से वह बढ़ता है उसी क्रम से सर्वाभ्यन्तरमण्डल से बाहर निकलने वाले सूर्य और चन्द्रमा का तापक्षेत्र प्रतिदिन क्रमश: घटता जाता है ॥१४॥ उन चन्द्र-सूर्यो के तापक्षेत्र का मार्ग कदंबपुष्प के आकार जैसा है। यह मेरू की दिशा में संकुचित है और लवणसमुद्र की दिशा में विस्तृत है ॥ १५ ॥ भगवन् ! चन्द्रमा शुक्लपक्ष में क्यों बढ़ता है और कृष्णपक्ष में क्यों घटता है ? किस कारण से Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति: समयक्षेत्र ( मनुष्यक्षेत्र) का वर्णन ] कृष्णपक्ष और शुक्लपक्ष होते हैं ? ॥१६ ॥ गौतम ! कृष्ण वर्ण का राहु-विमान चन्द्रमा से सदा चार अंगुल दूर रहकर चन्द्रविमान के नीचे चलता है। (इस तरह चलता हुआ वह शुक्लपक्ष में धीरे-धीरे चन्द्रमा को प्रकट करता है और कृष्णपक्ष में धीरे-धीरे उसे ढंक लेता है ॥१७॥ ) [ ४७ शुक्लपक्ष चन्द्रमा प्रतिदिन चन्द्रविमान के ६२ भाग प्रमाण बढ़ता है और कृष्णपक्ष में ६२ भाग प्रमाण घटता है। [यहां ६२ भाग का स्पष्टीकरण ऐसा करना चाहिए कि चन्द्रविमान के ६२ भाग करने चाहिए। इनमें से ऊपर के दो भाग स्वभावत: आवार्य ( आवृत होने योग्य) न होने से उन्हें छोड़ देना चाहिए। शेष ६० भागों को १५ से भाग देने पर चार-चार भाग प्राप्त होते हैं। ये चार-चार भाग ही यहां ६२ भाग का अर्थ समझना चाहिए। चूर्णिकार ने भी ऐसी ही व्याख्या की है। परम्परानुसार सूत्रव्याख्या करनी चाहिए स्व- - बुद्धि से नहीं । ॥ १८ ॥ चन्द्रविमान के पन्द्रहवें भाग को कृष्णपक्ष में राहुविमान अपने पन्द्रहवें भाग से ढंक लेता है और शुक्लपक्ष में उसी पन्द्रहवें भाग को मुक्त कर देता है ॥ १९ ॥ इस प्रकार चन्द्रमा की वृद्धि और हानि होती है और इसी कारण कृष्णपक्ष और शुक्लपक्ष होते हैं ॥२०॥ मनुष्यक्षेत्र के भीतर चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र एवं तारा - ये पांच प्रकार के ज्योतिष्क गतिशील हैं ॥२१॥ अढ़ाई द्वीप से आगे - (बाहर) जो पांच प्रकार के चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारा हैं वे गति नहीं करते, (मण्डल गति से) विचरण नहीं करते अतएव अवस्थित ( स्थित ) हैं ॥२२॥ इस जम्बूद्वीप में दो चन्द्र और दो सूर्य हैं। लवणसमुद्र में चार चन्द्र और चार सूर्य हैं । धातकीखण्ड में बारह चन्द्र और बारह सूर्य हैं ॥ २३ ॥ जम्बूद्वीप में दो चन्द्र और दो सूर्य हैं। इनसे दुगुने लवणसमुद्र में हैं और लवणसमुद्र के चन्द्रसूर्यो के तिगुने चन्द्र-सूर्य धातकीखण्ड में हैं ॥ २४ ॥ धातकीखण्ड के आगे के समुद्र और द्वीपों में चन्द्रों ओर सूर्यों का प्रमाण पूर्व के द्वीप या समुद्र के प्रमाण से तिगुना करके उसमें पूर्व-पूर्व के सब चन्द्रों और सूर्यों को जोड़ देना चाहिए। (जैसे धातकीखण्ड में १२ चन्द्र और १२ सूर्य कहे हैं तो कालोदधिसमुद्र में इनसे तिगुने अर्थात् १२×३=३६ तथा पूर्व-पूर्व के - जम्बूद्वीप के २ और लवणसमुद्र के ४, कुल ६ जोड़ने पर ४२ चन्द्र और सूर्य कालोद समुद्र में हैं। इसी विधि से आगे के द्वीप समुद्रों में चन्द्रों और सूर्यों की संख्या का प्रमाण जाना जा सकता हैं ॥२५॥ जिन द्वीपों और समुन्द्रों में नक्षत्र, ग्रह एवं तारा का प्रमाण जानने की इच्छा हो तो उन द्वीपों और समुद्रों के चन्द्र सूर्यों के साथ एक-एक चन्द्र-सूर्य परिवार से गुणा करना चाहिए। (जैसे लवणसमुद्र में ४ चन्द्रमा हैं। एक-एक चन्द्र के परिवार में २८ नक्षत्र हैं तो २८ को ४ से गुणा करने पर ११२ नक्षत्र Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ जीवाजीवाभिगमसूत्र ४८ ] लवणसमुद्र में जानने चाहिए। एक-एक चन्द्र के परिवार में ८८-८८ ग्रह हैं, ८८x४= ३५२ ग्रह लवणसमुद्र में जानने चाहिए। एक चन्द्र के परिवार में छियासठ हजार नौ सौ पचहत्तर कोडाकोडी तारागण हैं तो इस राशि में चार का गुणा करने पर दो लाख सड़सठ हजार नौ सौ कोडाकोडी तारागण लवणसमुद्र में हैं ।) ॥२६॥ मनुष्यक्षेत्र के बाहर जो चन्द्र और सूर्य हैं, उनका अन्तर पचास-पचास हजार योजन का है। यह अन्तर चन्द्र से सूर्य का और सूर्य से चन्द्र का जानना चाहिए ॥ २७ ॥ सूर्य से सूर्य का ओर चन्द्र से चन्द्र का अन्तर मानुषोत्तरपर्वत के बाहर एक लाख योजन का है ॥२८ ॥ (मनुष्यलोक से बाहर पंक्तिरूप में अवस्थित ) सूर्यान्तरित चन्द्र और चन्द्रान्तरित सूर्य अपने अपने तेज:पुंज से प्रकाशित होते है इनका अन्तर और प्रकाशरूप लेश्या विचित्र प्रकार की है। (अर्थात चन्दमा का प्रकाश शीतल है और सूर्य का प्रकाश उष्ण है। इन चन्द्र सूर्यों का प्रकाश एक दूसरे से अन्तरित होने से न तो मनुष्यलोक की तरह अति शीतल या अति उष्ण होता है किन्तु सुख - रूप होता है ) ॥२९॥ 1 एक चन्द्रमा के परिवार में ८८ ग्रह और २८ नक्षत्र होते हैं । ताराओं का प्रमाण आगे की गाथाओं में कहते है ॥३०॥ एक चन्द्र के परिवार में ६६ हजार ९ सौ ७५ कोडाकोडी तारे हैं ॥३१ ॥ मनुष्यक्षेत्र के बाहर के चन्द्र और सूर्य अवस्थित योग वाले हैं । चन्द्र अभिजित्नक्षत्र से और सूर्य पुष्यनक्षत्र से युक्त रहते हैं। (कहीं कहीं " अवट्ठिया तेया" ऐसा पाठ है, उसके अनुसार अवस्थित तेज वाले हैं, अर्थात् वहां मनुष्यलोक की तरह कभी अतिउष्णता और कभी अतिशीतलता नहीं होती है ।) ॥३२ ॥ विवेचन - उक्त गाथाएं स्पष्टार्थ वाली हैं। केवल १३वीं गाथा में जो कहा गया है कि इन चन्द्र सूर्य नक्षत्र ग्रह और ताराओं की चालविशेष से मनुष्यों के सुख-दुःख प्रभावित होते हैं, इसका स्पष्टीकरण करते हुए वृत्तिकार लिखते हैं कि मनुष्यों के कर्म सदा दो प्रकार के होते हैं - शुभवेद्य और अशुभवेद्य । कर्मों के विपाक (फल) के हेतु सामान्यतया पांच हैं - द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भव । कहा हैउदयक्खयखओवसमोवसमा जं च कम्मुणो भणिया । दव्वं खेत्तं कालं भावं भवं च संपप्प ॥ १ ॥ अर्थात- कर्मों के उदय, क्षय, क्षयोपशम और उपशम में द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भव निमित्त होते हैं । प्राय: शुभवेद्य कर्मों के विपाक में शुभ द्रव्य क्षेत्रादि सामग्री हेतुरूप होती है और अशुभवेद्य कर्मो के विपाक में अशुभ द्रव्य-क्षेत्र आदि सामाग्री कारणभूत होती है। इसलिए जब जिन व्यक्तियों के जन्मनक्षत्रादि के अनुकूल चन्द्रादि की गति होती है तब उन व्यक्तियों के प्रायः शुभवेद्य कर्म तथाविध विपाक सामग्री पाकर उदय में आते हैं, जिनके कारण शरीर नीरोगता, धनवृद्धि, वैरोपशमन, प्रियसम्प्रयोग, कार्यसिद्धि आदि होने से सुख प्राप्त होता है। अतएव परम विवेकी बुद्धिमान् व्यक्ति किसी भी कार्य को Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : समयक्षेत्र (मनुष्यक्षेत्र) का वर्णन] [४९ शुभ तिथि नक्षत्रादि में आरम्भ करते हैं, चाहे जब नहीं। तीर्थकरों की भी आज्ञा है कि प्रवाजन (दीक्षा) आदि कार्य शुभक्षेत्र में शुभ दिशा में मुख रखकर, शुभ तिथि नक्षत्र आदि मुहूर्त में करना चाहिए, जैसा कि पंचवस्तुक ग्रन्थ में कहा है एसा जिणाण आणा खेत्ताइया य कम्मणो भणिया। उदयाइकारणं जं तम्हा सव्वत्थ जइयव्वं ॥१॥ अतएव छद्मस्थों को शुभ क्षेत्र और शुभ मुहूर्त का ध्यान रखना चाहिए। जो अतिशय ज्ञानी भगवन्त हैं वे तो अतिशय के बल से ही सविध्नता या निर्विघ्नता को जान लेते हैं अतएव वे शुभ तिथिमुहुर्तादि की अपेक्षा नहीं रखते । छद्मस्थों के लिए वैसा करना ठीक नहीं हैं । जो लोग यह कहते हैं कि भगवान् ने अपने पास प्रव्रज्या के लिए आये हुए व्यक्तियों के लिए शुभ तिथि आदि नहीं देखी; उनका यह कथन ठीक नहीं है। भगवान् तो अतिशय ज्ञानी हैं। उनका अनुकरण छद्मस्थों के लिए उचित नहीं हैं । अतएव शुभ तिथि आदि शुभ मुहुर्त में कार्यारम्भ करना उचित है। उक्त रीति से ग्रहादि की गति मनुष्यों के सुख-दुःख में निमित्तभूत होती है। १७८.(अ) माणुसुत्तरे णं भंते ! पव्वए केवइयं उड्ढं उच्चत्तेणं? केवइयं उव्वेहेणं? केवइयं मूले विक्खंभेणं ? केवइयं सिहरे विक्खंभेणं ? केवइयं अंतो गिरिपरिरएणं ? केवइयं बाहिं गिरिपरिरएणं? केवइयं मझे गिरिपरिरएणं? केवइयं उवरि गिरिपरिरएणं? गोयमां! माणुसुत्तरे णं पव्वए सत्तरस एक्कवीसाइं जोयणसयाई उड्ढं उच्चत्तेणं, चत्तारि तीसे जोयणसए कोसं च उव्वेहेणं, मूले दसबाबीसे जोयणसए विक्खंभेणं मझे सत्ततेवीसे जोयणसए विक्खंभेणं, उवरि चत्तारिचउवीसे जोयणसए विक्खंभेणं, अंतो गिरिपरिरएणं एगा जोयणकोडी, बायालीसं च सयसहस्साइं तीसं च सहस्साइं, दोण्णि य अउणापण्णे जोयणसए किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं । बाहिरगिरिपरिरएणं-एगा जोयणकोडी, बायालीसं च सयसहस्साइं छत्तीसं च सहस्साई सत्तचोद्दसोत्तरे जोयणसए परिक्खेवेणं। मझे गिरिपरिरएणं-एगा जोयणकोडी बायालीसं च सहसहस्साई चोत्तीसं च सहस्सा अट्ठतेवीसे जोयणसए परिक्खेवेणं। उवरि गिरिपरिरएणं एगा जोयणकोडी बायालीसं च सयसहस्साइं बत्तीसं च सहस्साइं नव य बत्तीसे जोयणसए परिक्खेवेणं। मूले विच्छिण्णे मज्झे संखित्ते उप्पिं तणुए अंतो सण्हे मज्झे बाहिं दरिसणिज्जे ईसिं सण्णिसण्णे सीहणिसाइ, अवद्धजवरासिसंठाणसंठिए सव्वजंबूणयामए अच्छे , सण्हे जाव पडिरूवे। उभओ पासिं दोहिं पउमवरवेइयाहिं दोहि य वणसंडेहिं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते, वण्णओ दोण्हवि॥ १७८. (अ) हे भगवन् ! मानुषोत्तरपर्वत की ऊँचाई कितनी है? उसकी जमीन में गहराई कितनी है? वह मूल में कितना चौड़ा है? मध्य में कितना चौड़ा है और शिखर पर कितना चौड़ा है? उसकी अन्दर की परिधि कितनी है? उसकी बाहरी परिधि कितनी है, मध्य में उसकी परिधि कितनी है और ऊपर की परिधि कितनी है? Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०] [जीवाजीवाभिगमसूत्र __गौतम ! मानुषोत्तरपर्वत १७२१ योजन पृथ्वी से ऊँचा है । ४३० योजन और एक कोस पृथ्वी में गहरा है। यह मूल में १०२२ योजन चौड़ा है, मध्य में ७२३ योजन चौड़ा और ऊपर ४२४ योजन चौड़ा है। पृथ्वी के भीतर की इसकी परिधि एक करोड़ बयालीस लाख तीस हजार दो सौ उनपचास (१,४२,३०,२४९) योजन है। बाह्यभाग में नीचे की परिधि एक करोड़ बयालीस लाख, छत्तीस हजार सात सौ चौदह (१,४२,३६,७१४) योजन है । मध्य में एक करोड़ बयालीस लाख चौंतीस हजार आठ सौ तेईस (१,४२,३४,८२३) योजन की है। ऊपर की परिधि एक करोड़ बयालीस लाख बत्तीस हजार नौ । सौ बत्तीस (१,४२,३२,९३२) योजन की है। यह पर्वत मूल में विस्तीर्ण, मध्य में संक्षिप्त और ऊपर पतला (संकुचित) है। यह भीतर से चिकना है , मध्य में प्रधान (श्रेष्ठ) और बाहर से दर्शनीय है। यह पर्वत कुछ बैठा हुआ है अर्थात जैसे सिंह अपने आगे के दोनों पैरों को लम्बा करके पीछे के दोनों पैरों को सिकोडकर बैठता है, उस रीति से बैठा हुआ है । (शिरः प्रदेश में उन्नत और पिछले भाग में निम्न निम्नतर है। इसी को और स्पष्ट करते है कि) यह पर्वत आधे यव की राशि के आकार में रहा हुआ है (अर्ध्व-अधोभाग से छिन्न और मध्यभाग में उन्नत है)। यह पर्वत पूर्णरूप से जांबूनद (स्वर्ण) मय है, आकाश ओर स्फटिकमणि की तरह निर्मल है, चिकना है यावत् प्रतिरूप है । इसके दोनों ओर दो पद्मवरवेदिकाएं और दो वनखण्ड इसे सब ओर से घेरे हुए स्थित हैं। दोनों का वर्णनक कहना चाहिए। . १७८. (आ) से केणट्टेणं भंते ! एवं वुच्चइ-माणुसुत्तरे पव्वए माणुसुत्तरे पव्वए ? गोयमा ! माणुसुत्तरस्स णं पव्वयस्स अन्तो मणुया उप्पिं सुवण्णा बाहिं देवा। अदुत्तरं च णं गोयमा! माणुसुत्तरपव्वयं मणुया णं कयावि वीइवइंसु वा वीइवयंति वा वीइवइस्संति वा णण्णत्थ चारणेहिं वा विज्जाहरेहिं वा देवकम्मुणा वा वि, से तेणठेणं गोयमा ! ० अदुत्तरं च णं जाव णिच्चे त्ति। जावं च णं माणुसुत्तरे पव्वए तावं च णं अस्सिं लोए त्ति पवुच्चइ जावं च णं वासाइं वा वासधराई वा तावं च णं अस्सिं लोए त्ति पवुच्चइ जावं च णं गेहाइं वा गेहावयणाइ वा तावं च णं अस्सिं लोए त्ति पवुच्चइ, जावं च णं गामाइ वा जाव रायहाणीइ वा तावं च णं अस्सि लोए त्ति पवुच्चइ, जावं च णं अरहंता चक्कवट्टी बलदेवा वासुदेवा पडिवासुदेवा चारणा विज्जाहरा समणा समणीओ सावया सावियाओ मणुया पगइभद्दगा विणीया तावं च णं अस्सि लोए त्ति पवुच्चइ।। ___जावं च णं समयाइ वा आवलियाइ वा आणपाणुइ वा थोवाइ वा लवाइ वा मुहुत्ताइ वा दिवसाइ वा अहोरत्ताइ वा पक्खाइ वा मासाइ वा उऊइ वा अयणाइ वा संवच्छराइ वा जुगाइ वा वाससयाइ वा वाससहस्साइ वा वाससयसहस्साइ वा पुव्वंगाइ वा पुव्वोइ वा तुडियंगाइ वा एवं पुव्वे तुडिए अड्डे अववे हूहुकए उप्पले पउमे णलिणे अच्छिनिउरे अउए पउए णउए चूलिया सीसपहेलिया जाव य सीसपहेलियंगेइ वा सीसपहेलियाइ वा पलिओवमेइ वा. सागरोवमेइ. वा अवसप्पिणीइ वा ओसप्पिणीइ वा तावं च णं अस्सिं लोए पवुच्चइ। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति: समयक्षेत्र ( मनुष्यक्षेत्र) का वर्णन ] [५१ जावं च णं बादरे विज्जुकारे बायरे थणियसद्दे तावं च णं अस्सि लोए पवुच्चइ, जावं च णं बहवे ओराला बलाहका संसेयंति संमुच्छंति वासं वासंति तावं च णं अस्सि लोए पवुच्चइ, जावं च णं बायरे तेउकाए तावं च णं अस्सि लोए पवुच्चइ, जावं च णं आगराई वा नदीउइ वा निहीइ वा तावं च णं अस्सि लोएत्ति पवुच्चइ; जावं च णं अगडाइ वा णईत्ति वा तावं च अस्सं लोए. जावं च णं चंदोवरागाइ वा सूरोवरागाइ वा चंदपरिएसाइ वा सूरपरिएसाइ वा पडिचंदाइ वा पडिसूराइ वा इंदधणुइ वा उदगमच्छेइ वा कपिहसियाइ वा तावं च णं अस्सि लोएत्ति पवच्च । जावं च णं चंदिमसूरियगहणक्खत्ततारारूवाणं अभिगमण- णिग्गमणवुड्ढ - णिव्वुड्ढि - अणवट्ठियसंठाणसंठिई आधविज्ज इ तावं च णं अस्सि लोए पवुच्चइ ॥ १७८. (आ) हे भगवन् ! यह मानुषोत्तरपर्वत क्यों कहलाता है ? गौतम ! मानुषोत्तर पर्वत के अन्दर - अन्दर मनुष्य रहते हैं, इसके ऊपर सुपर्णकुमार देव रहते हैं और इससे बाहर देव रहते हैं । गौतम ! दूसरा कारण यह है कि इस पर्वत के बाहर मनुष्य (अपनी शक्ति से) न तो कभी गये हैं, न कभी जाते हैं और न कभी जाएंगे, केवल जंघाचारण और विघाचारण मुनि तथा देवों द्वारा संहरण किये मनुष्य इस पर्वत से बाहर जा सकते हैं। इसलिए यह पर्वत मानुषोत्तरपर्वत कहलाता है ।' अथवा हे गौतम ! यह नाम शाश्वत होने से अनिमित्तिक हैं। जहां तक यह मानुषोत्तरपर्वत है वहीं तक यह मनुष्य-लोक है ( अर्थात् मनुष्यलोक में ही वर्ष, वर्षधर, गृह आदि हैं इससे बाहर नहीं। आगे सर्वत्र ऐसा ही समझना चाहिए।) जहां तक भरतादि क्षेत्र और वर्षधर पर्वत हैं वहां तक मनुष्यलोक है। जहां तक घर या दुकान आदि हैं वहा तक मनुष्यलोक है। जहां तक ग्राम यावत् राजधानी है, वहां तक मनुष्यलोक है। जहां तक अरिहन्त, चक्रवर्ती, बलदेव, प्रतिवासुदेव, जंघाचारण मुनि, विद्याचारण मुनि, श्रमण, श्रमणियां, श्रावक, श्राविकाएं और प्रकृति से भद्र विनीत मनुष्य हैं, वहां तक मनुष्यलोक है । अवव, जहां तक समय, आवलिका, आन-प्राण ( श्वासोच्छ्वास), स्तोक (सात श्वासोच्छ्वास), लव (सात स्तोक), मुहूर्त, दिन, अहोरात्र, पक्ष, मास, ऋतु (दो मास), अयन (छ: मास), संवत्सर (वर्ष) युग (पांच वर्ष), सौ वर्ष, हजार वर्ष, लाख वर्ष, पूर्वांग, पूर्व, त्रुटितांग, त्रुटित, इसी क्रम से अड्ड, हूहुक, उत्पल, पद्म, नलिन, अर्थनिकुर (अच्छिणेउर), अयुत, प्रयुत, नयुत, चूलिका, शीर्ष - प्रहेलिका, पल्योपम, सागरोपम, अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल है, वहां तक मनुष्यलोक है । जहां तक बादर विद्युत और बादर स्तनित (मेघगर्जन) है, जहां तक बहुत से उदार - बड़े मेघ उत्पन्न होते हैं, सम्मूर्छित होते हैं (बनते-बिखरते हैं), वर्षा बरसाते हैं, वहां तक मनुष्यलोक है। जहां तक बादर तेजस्काय (अग्नि) है, वहां तक मनुष्यलोक है। जहां तक खान, नदियां और निधियां है, कुए, तालाब आदि हैं, वहां तक मनुष्यलोक है। जहां तक चन्द्रग्रहण, सूर्यग्रहण, चन्द्रपरिवेष, सूर्यपरिवेष, प्रतिचन्द्र, प्रतिसूर्य, इन्ध्रधनुष, उदक१. मनुष्याणामुत्तरः- परः इति मानुषोत्तरः । - वृत्ति Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२] [जीवाजीवाभिगमसूत्र मत्स्य और कपिहसित आदि हैं , वहां तक मनुष्यलोक है। जहां तक चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और ताराओं का अभिगमन, निर्गमन, चन्द्र की वृद्धि-हानि तथा चन्द्रादि की सतत गतिशीलता रूप स्थिति कही जाती है, वहां तक मनुष्यलोक है। विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में कहा गया है कि जहां तक भरतादि वर्ष (क्षेत्र), वर्षधर पर्वत, घर दुकान-मकान, ग्राम, नगर, राजधानी, अरिहंतादि, श्लाध्य पुरूष, प्रकृतिभद्रिक विनीत मनुष्यादि, समय आदि का व्यवहार, विद्युत मेघगर्जन, मेघोत्पत्ति, बादर, अग्नि, खान, नदियां, निधियां, कुए-तालाब तथा आकाश में चन्द्र-सूर्यादि का गमनादि है, वहां तक मनुष्यलोक हैं । इसका फलितार्थ यह है कि उक्त सब का अस्तित्व मनुष्यलोक में ही है। मनुष्यलोक से बाहर उक्त सबका अस्तित्व नहीं है। मनुष्यलोक की सीमा करने वाला होने से मानुषोत्तरपर्वत, मानुषोत्तरपर्वत कहलाता है । मानुषोत्तरपर्वत से परे- बाहर की ओर उक्त सब पदार्थों और व्यवहारों का सदभाव नहीं है। प्रस्तुत सूत्र में आये हुए कालचक्र के सम्बन्ध में स्पष्टीकरण आवश्यक है अत: उसका संक्षेप में निरूपण किया जाता है काल का सबसे सूक्ष्म अंश, जिसका फिर विभाग न हो सके, वह समय कहा जाता है । इसकी सूक्ष्मता को समझाने के लिए शास्त्रकारों ने एक स्थूल उदाहरण दिया है। जैसे कोई तरूण, बलवान्, हृष्टपुष्ट , स्वस्थ और निपुण कलाकुशल दर्जी का पुत्र किसी जीण-शीर्ण शाटिका (साड़ी) को हाथ में लेते ही एकदम बिना हाथ फैलाये शीघ्र ही फाड़ देता है । देखने वालों कों ऐसा प्रतीत होता है कि इसने पलभर में साड़ी को फाड़ दिया है, परन्तु तत्त्वदृष्टि से उस साड़ी को फाड़ने में असंख्यात समय लगे हैं। साड़ी में अगणित तन्तु हैं। ऊपर का तन्तु फटे बिना नीचे का तन्तु नहीं फट सकता है। अतएव यह मानना पड़ता है कि प्रत्येक तन्तु के फटने का काल अलग-अलग है । वह तन्तु भी कई रेशों से बना होता है । वे रेशे भी क्रम से ही फटते हैं । अतएव साड़ी के उपरितन तन्तु के उपरितन रेशे के फटने में जितना समय लगा उससे भी बहुत सूक्ष्मत्तर समय कहा गया है। जघन्ययुक्तासंख्यात समयों की एक आवलिका होती है। संख्येय आवलिकाओं का एक उच्छ्वास होता है और संख्येय आवलिकाओं का एक नि:श्वास होता है। एक उच्छ्वास और एक नि:श्वास मिलकर एक आन-प्राण होता है । तात्पर्य यह है कि एक हृष्ट और नीरोग व्यक्ति श्रम और बुभुक्षा आदि से रहित अवस्था में स्वाभाविक रूप से जो श्वासोच्छ्वास लेता है, वह एक श्वासोच्छ्वास का काल आन-प्राण कहलाता है। सात आन-प्राणों का एक स्तोक और सात स्तोकों का एक लव होता हैं। ७७ १. हट्ठस्स अणवगल्लस निरूवकिट्ठस्स जन्तुणो। एगे उसासनीसासे एस पाणुत्ति वुच्चइ ॥१॥ सत्त पाणूणि से थोवे सत्त थोवाणि से लवे। लवाणं सत्तहत्तरिए एस मुहूत्ते वियाहिए ॥२॥ एगा कोडी सत्तट्ठी लक्खा सत्तत्तरी सहस्सा य। दो य सया सोलहिया आवलियाणं मुहूत्तम्मि॥३॥ तिन्नि सहस्सा सत्त य सयाई तेवत्तरिं च ऊसासा। एस मुहत्तो भणिओ सव्वेहिं अणंतणाणीहिं ॥४॥ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : समयक्षेत्र (मनुष्यक्षेत्र) का वर्णन] [५३ लवों का एक मुहूर्त होता है। एक मुहूर्त में एक करोड़ सड़सठ लाख सतत्तर हजार दो सो सोलह (१,६७,७७,२१६) आवलिकाएं होती है। एक मुहूर्त में तीन हजार सात सौ तिहत्तर (३७७३) उच्छास होते हैं। तीस मुहूर्तों का एक अहोरात्र, पन्द्रह अहोरात्र का एक पक्ष, दो पक्षों का एक मास, दो मास की एक ऋतु होती है । जैनसिद्धान्तानुसार प्रावृट, वर्षा, शरद, हेमन्त, वसन्त और ग्रीष्म-ये छह ऋतुएं हैं। आषाढ और श्रावण मास प्रावृट् ऋतु हैं , भाद्रपद-आश्विन वर्षाऋतु, कार्तिक-मृगशिर शरद ऋतु, पौषमाघ हेमन्तऋतु, फाल्गुन-चैत्र वसन्तऋतु और वैशाख-ज्येष्ठ ग्रीष्मऋतु है। ___तीन ऋतुओं का एक अयन, दो अयन का एक संवत्सर (वर्ष), पांच संवत्सर का एक युग, वीस युग का सौ वर्ष। पूर्वाचार्यों ने एक अहोरात्र, एक मास और एक वर्ष में जितने उच्छ्वास होते हैं, उनका संकलन इन गाथाओं में किया है एगं च सयसहस्सं ऊसासाणं तु तेरस सहस्सा। नउयसएण अहिया दिवस-निसिं होंति विन्नेया॥१॥ मासे वि य उस्सासा लक्खा तित्तीस सहसपणनउइ। सत्त सयाइं जाणसु कहियाई पूव्वसूरीहिं ॥२॥ चत्तारि य कोडीओ लक्खा सत्तेव होंति नायव्व। अडयालीस सहस्सा चार सया होंति वरिसेणं ॥३॥ एक लाख तेरह हजार नौ सौ (१,१३,९००) उच्छ्वास एक दिन में होते हैं । तेतीस लाख पंचानवै हजार सात सौ (३३,९५,७००) उच्छ्वास एक मास में होते हैं । चार करोड़ सात लाख अडतालीस हजार चार सौ (४,०७,४८,४००) उच्छ्वास एक वर्ष में होते हैं । दस सौ वर्ष का हजार वर्ष और सौ हजार वर्ष का एक लाख वर्ष होते हैं । ८४ लाख वर्ष का एक पूर्वांग, ८४ लाख पूर्वांग का एक पूर्व होता है । ८४ लाख पूर्वो का एक त्रुटित्तांग, ८४ लाख त्रुटितांगों का एक त्रुटित; ८४ लाख त्रुटितों का एक अड्डांग, ८४ लाख अड्डांगों का एक अड्ड; ८४ लाख अड्डों का एक अववांग ८४ लाख अववांगों का एक अवव, ८४ लाख अववों का एक हूहुकांग, ८४ लाख हूहुकांगों का एक हूहुक, १."आषाढाद्या ऋतवः इतिवचनात् । ये त्वभिदधति वसन्ताद्या ऋतवः तदप्रमाणमवसातव्यम् जैनमतोत्तीर्णत्वात्।"-वृत्तिः।, Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४] [जीवाजीवाभिगमसूत्र ८४ लाख हूहुकों का एक उत्पलांग, ८४ लाख उत्पलांगों का एक उत्पल, ८४ लाख उत्पलों का एक पद्मांग, ८४ लाख पद्मांगों का एक पद्म, ८४ लाख पदों का एक नलिनांग, ८४ लाख नलिनांगों का एक अर्थनिकुरांग, ८४ लाख अर्थनिकुरांगों का एक नलिन, ८४ लाख नलिनों का एक अर्थनिकुर, ८४ लाख अर्थनिकुरों का एक अयुतांग, ८४ लाख अयुतांगों का एक अयुत, ८४ लाख अयुतों का एक प्रयुतांग, ८४ लाख प्रयुतांगों का एक प्रयुत, ८४ लाख प्रयुतों का एक नयुतांग, ८४ लाख नयुतांगों का एक नयुत, ८४ लाख नयुतों का एक चूलिकांग, ८४ लाख चूलिकांगों की एक चूलिका, ८४ लाख चूलिकाओं का एक शीर्षप्रहेलिकांग, ८४ लाख शीर्षप्रहेलिकांगों की एक शीर्षप्रहेलिका। इस प्रकार समय से लगाकर शीर्षप्रहेलिकापर्यन्त काल ही गणित का विषय है। इससे आगे का काल उपमाओं से ज्ञेय होने से औपमिक है। पल्य की उपमा से ज्ञेय काल पल्योपम है और सागर की उपमा से ज्ञेय काल सागरोपम है। पल्योपम और सागरोपम का वर्णन पहले किया जा चुका है। दस कोडाकोडी पल्योपम का एक सागरोपम होता है। दस कोडाकोडी सागरोपम का एक अवसर्पिणी काल होता है। इतने ही समय का एक उत्सर्पिणी काल होता है। एक अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल अर्थात बीस कोडाकोडी सागरोपम का एक कालचक्र होता है। उक्त कालचक्र का व्यवहार मनुष्यलोक में ही है। क्योंकि कालद्रव्य मनुष्यक्षेत्र में ही है। वृत्तिकार ने अरिहंतादि पाठ के बाद विद्युत्काय उदार बलाहक आदि पाठ की व्याख्या की है और इसके बाद समयादि की व्याख्या की है। इससे प्रतीत होता है कि वृत्तिकार के सामने जो प्रति थी उसमें इसी क्रम से पाठ का होना संभवित है। किन्तु क्रम का भेद है अर्थ का भेद नहीं है। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : समयक्षेत्र ( मनुष्यक्षेत्र) का वर्णन] १७९. अंतो णं भंते ! मणुस्सखेत्तस्स जे चंदिमसूरियगहगणनक्खत्ततारारूवा ते णं भंते ! देवा किं उड्डोववण्णगा कप्पोववण्णगा विमाणोववण्णगा चारोववण्णगा चारद्वितीया गतिरइया गइसमावण्णगा? गोयमा ! ते णं देवा णो उड्डोववण्णगा णो कप्पोववण्णगा विमाणोववण्णगा चारोववण्णग्गा नो चारद्विईया गतिरतिया गतिसमावण्णगा उड्डमुहकलंबुयपुप्फसंठाणसंठिएहिं जोयणसाहस्सीएहिं तावखेत्तेहिं साहस्सीयाहिं बाहिरियाहिं वेउव्वियाहिं परिसाहिं महयाहयनट्टगीतवाइततंतीतालतुडि-यघणमुइंगपडुप्पवादिरवेणं दिव्वाई भोगभोगाइं भुंजमाणा महया उक्किट्ठसीहणायबोलकलकलसद्देणं विउलाई भोगभोगाइं भुंजमाणा अच्छ य पव्वयरायं पयाहिणावत्तमंडलयारं मेरूं अणुपरियइंति। तेसिं णं भंते ! देवाणं इंदे चवइ से कहमिदाणिं पकरेंति ? गोयमा ! ताहे चत्तारि पंच सामाणिया तं ठाणं उवसंपजित्तांण विहरंति जाव तत्थ अन्ने इंदे उववण्णे भवइ। इंदट्ठाणे णं भंते ! केवइयं कालं विरहिए उववएणं ? गोयमा ! जहणणेणं एवं समयं उक्कोसेणं छम्मासा। बहिया णं भंते ! मणुस्सखेत्तस्स जे चंदिमसूरियगहणक्खत्ततारारूवा ते णं भंते ! देवा किं उड्डोववण्णगा कप्पोववण्णगा विमाणोववण्णगा चारोववण्णगा चारद्वतीया गतिरतिया गतिसमावण्णगा? ___गोयमा ! ते णं देवा णो उड्डोवण्णगा नो कप्पोववण्णगा विमाणोववण्णगा, नो चारोववण्णगा चारट्टिईया, नो गतिरतिया नो गतिसमावण्णगा पक्किट्टगसंठाणसंठिएहिं जोयणसयसाहस्सिएहिं तावक्खेत्तेहिं साहस्सियाहिं य बाहिराहिं वेउव्वियाहिं परिसाहिं महयाहयनट्टगीयवाइयरवेणं दिव्वाइं भोगभोगाइं भुंजमाणा सुहलेस्सा सीयलेस्सा मंदलेस्सा मंदायवलेस्सा, चित्तंतरलेसागा, कूडा इव ठाणट्ठिया अण्णोण्णसमोगाढाहिं लेसाहिं ते पएसे सव्वओ समंता ओभासेंति उज्जोवेंति तवेंति पभासेंति। जया णं भंते ! तेसिं देवाणं इंदे चयइ, से कहमिदाणिं पकरेंति ? गोयमा ! जाव चत्तारि पंच सामाणिया तं ठांण उवसंपजित्ताणं विहरंति जाव तत्थ अण्णे उववण्णे भवइ। इंदट्ठाणे णं भंते ! केवइयं कालं विरहओ उववाएणं ? गोयमा ! जहण्णेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं छम्मासा। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ ] [ जीवाजीवाभिगमसूत्र १७९. भदन्त ! मनुष्यक्षेत्र के अन्दर जो चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारागण हैं, वे ज्योतिष्क देव क्या ऊर्ध्वविमानों में (बारह देवलोक से ऊपर के विमानों में) उत्पन्न हुए हैं या सौधर्म आदि कल्पों में उत्पन्न हुए हैं या (ज्योतिष्क) विमानों में उत्पन्न हुए हैं ? वे गतिशील हैं या गतिरहित हैं ? गति में ि करने वाले हैं और गति को प्राप्त हुए हैं ? गौतम ! वे देव ऊर्ध्वविमानों में उत्पन्न नहीं हुए हैं, बारह देवकल्पों में उत्पन्न नहीं हुए हैं, किन्तु ज्योतिष्क विमानों में उत्पन्न हुए हैं । वे गतिशील हैं, स्थितिशील नहीं हैं, गति में उनकी रति हैं और वे गतिप्राप्त हैं । वे ऊर्ध्वमुख कदम्ब के फूल की तरह गोल आकृति से संस्थित है हजारों योजन प्रमाण 'उनका तापक्षेत्र है, विक्रिया द्वारा नाना रूपधारी बाह्य पर्षदा के देवों से ये युक्त हैं । जोर से बजने वाले वाद्यों, नृत्यों, गीतों, वादित्रों, तंत्री, ताल, त्रुटित, मृदंग आदि की मधुर ध्वनि के साथ दिव्य भोगों का उपभोग करते हुए, हर्ष से सिंहनाद, बोल ( मुख से सीटी बजाते हुए) और कलकल ध्वनी करते हुए, स्वच्छ पर्वतराज मेरू की प्रदक्षिणावर्त मंडलगति से परिक्रमा करते रहते हैं । भगवन् ! जब उन ज्योतिष्क देवों का इन्द्र च्यवता है तब वे देव इन्द्र के विरह में क्या करते हैं ? गौतम ! चार-पांच सामानिक देव सम्मिलित रूप से उस इन्द्र के स्थान पर तब तक कार्यरत रहते हैं तब तक कि दूसरा इन्द्र वहां उत्पन्न हो। भगवन् ! इन्द्र का स्थान कितने समय तक इन्द्र की उत्पत्ति से रहित रहता है ? गौतम ! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छह मास तक इन्द्र का स्थान खाली रहता है । भदन्त ! मनुष्यक्षेत्र से बाहर के चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारा रूप ये ज्योतिष्क देव क्या. ऊर्ध्वोपपन्न हैं, कल्योपपन्न हैं, विमानोपपन्न हैं, गतिशील हैं या स्थिर हैं, गति में रति करने वाले हैं और क्या गति प्राप्त हैं ? गौतम ! वे देव ऊर्ध्वोपपन्नक नहीं हैं, कल्पोपपन्नक नहीं हैं, किन्तु विमानोपपन्नक हैं । वे गतिशील नहीं हैं, वे स्थिर हैं, वे गति में रति करने वाले नहीं हैं, वे गति प्राप्त नहीं हैं। वे पकी हुई ईंट के आकार के हैं, लाखों योजन का उनका तापक्षेत्र है । वे विकुर्वित हजारों बाह्य परिषद् के देवों के साथ जोर से बजने वाले वाद्यों, नृत्यों, गीतों और वादित्रों की मधुर ध्वनि के साथ दिव्य भोगोपभोगों का अनुभव करते हैं। वे शुभ प्रकाश वाले हैं, उनकी किरणें शीतल और मंद (मृदु) हैं, उनका आतप और प्रकाश उग्र नहीं हैं, विचित्र प्रकार का उनका प्रकाश है। कूट (शिखर) की तरह ये एक स्थान पर स्थित हैं ! इन चन्द्रों और सूर्यों आदि का प्रकाश एक दूसरे से मिश्रित हैं। वे अपनी मिली-जुली प्रकाश M किरणों से उस प्रदेश को सब ओर से अवभासित, उद्योतित, तपित और प्रभासित करते हैं । भदंत ! जब इन देवों का इन्द्र च्चवित होता हैं तो वे देव क्या करते हैं ? गौतम ! यावत् चार-पांच सामानिक देव उसके स्थान पर सम्मिलित रूप से तब तक कार्यरत रहते हैं जब तक कि दूसरा इन्द्र वहां उत्पन्न हो । भगवन् ! उस इन्द्र-स्थान का विरह कितने काल तक होता है ? Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५७ तृतीय प्रतिपत्ति : पुष्करोदसमुद्र की व्यक्तव्यता] गौतम ! जधन्य एक समय और उत्कृष्ट छह मास तक इन्द्रस्थान इन्द्रोत्पत्ति से विरहित हो सकता पुष्करोदसमुद्र की व्यक्तव्यता १८०.(अ) पुखरवरं णं दीवं पुक्खरोदे णामं समुद्दे वट्टे वलयागारसंठाणसंठिए जाव संपरिक्खित्ताणं चिट्ठइ। पुक्खरोदे णं भंते ! समुद्दे केवइयं चक्कवालविक्खंभेणं केवइयं परिक्खेवेणं पण्णत्ते ? गोयमा ! संखे जाई जोयणसयसहस्साइं चक्कवालविक्खं भेणं संखेजाइं जोयणसयसहस्साई परिक्खेवेणं पण्णत्ते। पुक्खरोदस्स णं समुद्दस्स कति दारा पण्णत्ता ? गोयमा ! चत्तारि दारा पण्णत्ता, तहे व सव्वं पुक्खरोदसमुद्दपुरथिमपेरं ते वरूणवरदीवपुरथिमद्धस्स पच्चत्थिमेणं एत्थ णं पुक्खरोदस्स विजए नामं दारे पण्णत्ते, एवं सेसाणवि। दारंतरम्मि संखेज्जाइं जोयणसयसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते। पदेसा जीवा य तहेव। से केणढेणं भंते ! एवं वुच्चइ पुक्खरोदे पुक्खरोदे ? गोयमा ! पुक्खरोदस्स णं समुदस्स उदगे अच्छे पत्थे जच्चे तणुए फलिहवण्णाभे पगईए उदगरसेणं सिरिधर-सिरिप्पभा य दो देवा जाव महिड्ढिया जाव पलिओवमद्विइया परिवसंति। से एतेणठेणं जाव णिच्चे। पुक्खरोदे णं भंते ! समुद्दे केवइया चंदा पभासिंसु वा ३? संखेजा चंदा पभासेंसु वा ३ जाव तारागणकोडीकोडीओ सोभेसु वा ३। १८०. (अ) गोल और वलयाकार संस्थान से संस्थित पुष्करोद नाम का समुद्र पुष्करवरद्वीप को सब ओर से घेरे हुए स्थित है। भगवन् ! पुष्करोदसमुद्र का चक्रवालविष्कंभ कितना है और उसकी परिधि कितनी है? गौतम ! संख्यात लाख योजन का उसका चक्रवालविष्कभ हैं और संख्यात लाख योजन की ही उसकी परिधि है। (वह पुष्करोद एक पद्मवरवेदिका और एक वनखण्ड से सब और से घिरा हुआ है।) भगवन् ! पुष्करोदसमुद्र के कितने द्वार हैं ? गौतम ! चार द्वार हैं आदि पूर्ववत कथन करना चाहिए यावत् पुष्करोदसमुद्र के पूर्वी पर्यन्त में और वरूणवरद्वीप के पूर्वार्ध के पश्चिम में पुष्करोदसमुद्र का विजयद्वार है (जम्बूद्वीप के विजयद्वार की तरह सब कथन करना चाहिए।) यावत् राजधानी अन्य पुष्करोदसमुद्र में कहनी चाहिए। इसी प्रकार शेष द्वारों का भी कथन कर लेना चाहिए । Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ जीवाजीवाभिगमसूत्र ५८ ] इन द्वारों का परस्पर अन्तर संख्यात लाख योजन का है। प्रदेशस्पर्श संबंधी तथा जीवों की उत्पत्ति का कथन भी पूर्ववत् कह लेना चाहिए । भगवन् ! पुष्करोदसमुद्र, पुष्करोदसमुद्र क्यों कहा जाता है ? गौतम ! पुष्करोदसमुद्र का पानी स्वच्छ, पथ्यकारी, जातिवंत (विजातीय नहीं,) हल्का, स्फटिकरल की आभा वाला तथा स्वभाव से ही उदकरस वाला (मधुर) है; श्रीधर और श्रीप्रभ नाम के दो महर्द्धिक यावत् पल्योपम की स्थिति वाले देव वहां रहते हैं। इससे उसका जल वैसे ही सुशोभित होता है जैसे चन्द्र-सूर्य और ग्रह-नक्षत्रों से आकाश सुशोभित होता है इसलिए पुष्करोद, पुष्करोद, कहलाता है यावत् वह नित्य होने से अनिमित्तिक नाम वाला भी है। भगवन् ! पुष्करोदसमुद्र में कितने चन्द्र प्रभासित होते थे, होते हैं और होंगे आदि प्रश्न पूर्ववत् करना चाहिए ? गौतम ! संख्यात चन्द्र प्रभासित होते थे, होते हैं और होंगे आदि पूर्ववत् कथन करना चाहिए यावत् संख्यात कोटी-कोटी तारागण वहां शोभित होते थे, होते हैं और शोभित होंगे। १८०. (आ) पुक्खरोदे णं समुद्दे वरूणवरेणं दीवेणं संपरिक्खित्ते वट्टे वलयागारे जाव चिट्ठइ, तहेव समचक्कवालसंठिए । केवइयं चक्कवालविक्खंभेणं ? केवइयं परिक्खेवेणं पण्णत्ते ? गोयमा ! संखे जाईं जोयणसयसहस्साइं चक्क वालविक्खं भेणं संखेज्जाई जोयणसयसहस्साइं परिक्खेवेणं पण्णत्ते, पउमवरवेइयावणसंडवण्णओ । दारंतरं, परसा, जीवा तहेव सव्वं । सेकेणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ - वरूणवरे दीवे वरूणवरे दीवे ? गोयमा ! वरूणवरे णं दीवे तत्थ - तत्थ देसे - देसे तर्हि तहिं बहुओ खुड्डा - खुडियाओ जाव बिलपंतियाओ अच्छाओ पत्तेयं - पत्तेयं पउमवर वेइयावनसंड परिक्खित्ताओ वारूणिवरोदगपडिहत्थाओ पासाईयाओ ४ । तासु खुड्डा खुड्डियासु जाव बिलपंतिया सु बहवे उप्पायपव्वया जाव णं हडहडगा सव्वफलियामया अच्छा तहेव वरूणवरूणप्पभा य एत्थ दो देवा महिड्डिया परिवसंति, से तेणट्ठेणं जाव णिच्चे । जोतिसं सव्वं संखेज्जगेणं जाव तारागणकोडीओ । १८०. (आ) गोल और वलयाकार पुष्करोद नाम का समुद्र वरूणवरद्वीप से चारों ओर से घिरा हुआ स्थित है । पूर्ववत् कथन करना चाहिए यावत् वह समचक्रवालसंस्थान से संस्थित हैं । भगवन् ! उसका चक्रवालविष्कंभ और परिधि कितनी है ? गौतम ! वरूणवरद्वीप का विष्कंभ संख्यात लाख योजन का है और संख्यात लाख योजन की Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : 'पुष्करोदसमुद्र की व्यक्तव्यता] उसकी परिधि है। उसके सब ओर एक पद्मवरवेदिका और वनखण्ड है । पद्मवरवेदिका और वनखण्ड का वर्णन कहना चाहिए। द्वार, द्वारों का अन्तर, प्रदेश-स्पर्शना, जीवोत्पत्ति आदि सब पूर्ववत् कहना चाहिए। भगवन् ! वरूणवरद्वीप, वरूणवरद्वीप क्यों कहा जाता हैं ? गौतम ! वरूणवरद्वीप में स्थान-स्थान पर यहां-वहां बहुत सी छोटी-छोटी बावड़िया यावत् बिल -पक्तियां हैं, जो स्वच्छ हैं, प्रत्येक पद्मवरवेदिका और वनखण्ड से परिवेष्टित है तथा श्रेष्ट वारूणी के समान जल से परिपूर्ण हैं यावत् प्रासादिक दर्शनीय अभिरूप और प्रतिरूप हैं। __ उन छोटी-छोटी बावड़ियों यावत् बिलपंक्तियों में बहुत से उत्पातपर्वत यावत् खडहडग हैं जो सर्वस्फटिकमय हैं, स्वच्छ हैं आदि वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए। वहां वरूण और वरूणप्रभ नाम के दो महर्द्धिक देव रहते हैं, इसलिए वह वरूणवरद्वीप कहलाता है। अथवा वह वरूणवरद्वीप शाश्वत होने से उसका यह नाम भी नित्य और अनिमित्तिक है। वहां चन्द्र-सूर्यादि ज्योतिष्कों की संख्या संख्यातसंख्यात कहनी चाहिए यावत् वहां संख्यात कोटीकोटी तारागण सुशोभित थे, हैं और होंगे। १८०. (इ) वरूणवरं णं दीवं वरूणोदे णामं समुद्दे वट्टे वलयागारसंठाणसंठिए जाव चिट्ठइ। समचक्कवालसंठाणसंठिए, नो विसमचक्कवालसंठाणसंठिए। तहेव सव्वं भाणियव्वं । विक्खंभपरिक्खेवो संखिज्जाइं जोयणसयसहस्साइं पउमवरवेइया वणसंडे दारंतरे य पएसा जीवा अट्ठो। गोयमा ! वारूणोदस्स णं समुद्दस्स उदए से जहाणामए चंदप्पभाइ वा मणिसिलागाइ वा वरसीधु-वरवारूणी इ वा पत्तासवेइ वा पुफ्फासवेइ वा चोयासवेइ वा फलासवेइ वा महुमेरएइ वा जाइप्पसन्नाइ वा खजूरसारेइ वा मुद्दियासारेइ वा कापिसायणाइ वा सुपक्कखोयरसेइ वा पभूयसंभारसंचिया पोसमाससतभिसयजोगवत्तिया निरूवहतमविसिट्ठदिनकालोवयारा सुधोया उक्कोसगमयपत्ता अट्ठपिट्ठनिट्ठिया जंबूफलकालिवरप्पसन्ना आसला मासला पेसला ईसीओट्ठावलंबिणी ईसीतंबच्छिकरणी ईसीवोच्छेया कडुआ, वण्णेणं उववेया, गंधेणं उववेया, रसेणं उववेया फासेणं उववेया आसायणिज्जा विस्सायणिज्जा पीणणिज्जा दप्पणिज्जा मयणिज्जा सव्विदियगायपल्हायणिज्जा, भवे एयारूवे सिया ? । णो इणढे समढे वारूणस्स णं समुद्दस्स उदए एत्तो इट्ठतरे जाव उदए।से एएणडेणं एवं वुच्चइ०। तत्थ णं वारूणि-वारूणकंता देवा महिड्डिया जाव परिवसंति, से एएणद्वेणं जाव णिच्चे। १. प्रस्तुत पाठ में प्रतियों में बहुत पाठभेद है । वृत्तिकार के व्याख्यात पाठ को मान्य करते हुए हमने मूलपाठ दिया है। अन्य प्रतियों में अट्ठपट्ठिणिट्ठिया' के आगे ऐसा पाठ भी है__(अट्ठपिट्ठपुट्ठा मुरवइंतवरकिमंदिण्णकद्दमा कोपसन्ना अच्छा वरवारूणी अतिरसा जंबूफलपुट्ठवण्णा सुजाता ईसिउट्ठावलंबिणी अहियमधुरपेज्जा ईसीसिरत्तणेत्ता कोमलकवोलकरणी जाव आसादिया विसादिया (शेष अगले पृष्ठ पर) Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ जीवाजीवाभिगमसूत्र वारूणिवरे णं दीवे कइ चंदा पभासिंसु ३ ? सव्वं जोइससंखिज्जगेण णायव्वं । ' १८०. (इ) वरूणोद नामक समुद्र, जो गोल और वलयाकार रूप से संस्थित है, वरूणवरद्वीप को चारों ओर से घेरकर स्थित है । वह वरूणोदसमुद्र समचक्रवालसंस्थान से संस्थित है, विषमचक्रवालसंस्थान से संस्थित नहीं है इत्यादि सब कथन पूर्ववत् कहना चाहिए । विष्कंभ और परिधि संख्यात लाख योजन की कहनी चाहिए। पद्मवरवेदिका, वनखण्ड, द्वार, द्वारान्तर, प्रदेशों की स्पर्शना, जीवोत्पत्ति और अर्थ सम्बन्धी प्रश्न पूर्ववत् कहना चाहिए । भगवन् ! वरूणोदसमुद्र, वरूणोदसमुद्र क्यों कहलाता है? ६० ] गौतम ! वरूणोदसमुद्र का पानी लोकप्रसिद्ध चन्द्रप्रभा नामक सुरा, मणिशलाकासुरा, श्रेष्ट सीधुसुरा, श्रेष्ठ वारूणीसुरा, धातकीपत्रों का आसव, पुष्पासव, चोयासव, फलासव, मधु, मेरक, जातिपुष्प सें वासित प्रसन्नासुरा, खजूर का सार, मृद्धीका ( द्राक्षा) का सार, कापिशायनसुरा, भलीभांति पकाया हु इक्षु का रस, बहुत सी सामग्रियों से युक्त पौष मास में सैकड़ों वैद्यों द्वारा तैयार की गई, निरूपहत और विशिष्ट कालोपचार से निर्मित, पुनः पुनः धोकर उत्कृष्ट मादक शक्ति से युक्त, आठ बार पिष्ट (आटा) प्रदान से निष्पन्न, जम्बूफल कालिवर प्रसन्न नामक सुरा, आस्वाद वाली गाढ पेशल (मनोज्ञ), अति प्रकृष्ट रसास्वाद वाली होने से शीघ्र ही ओठ को छूकर आगे बढ़ जाने वाली, नेत्रों को कुछ-कुछ लाल करने वाली, इलायची आदि से मिश्रित होने के कारण पीने के बाद थोड़ी कटुक ( तीखी) लगने वाली, वर्णयुक्त, सुगन्धयुक्त, सुस्पर्शयुक्त, आस्वादनीय, विशेष आस्वादनीय, धातुओं को पुष्ट करने वाली, दीपनीय (जठराग्नि को दीप्त करने वाली), मदनीय (काम पैदा करने वाली) एवं सर्व इन्द्रियों और शरीर में आह्लाद उत्पन्न करने वाली सुरा आदि होती है, क्या वैसा वरूणोदसमद्र का पानी है ? गौतम ! नहीं ! वरूणोदसमुद्र का पानी इनसे भी अधिक इष्टतर, कान्ततर, प्रियतर, मनोज्ञतर और मनस्तुष्टी करने वाला है । इसलिए वह वरूणोदसमुद्र कहा जाता है। वहां वारूणि और वारूणकांत नाम के दो देव महर्द्धिक यावत् पल्योपम की स्थिति वाले रहते हैं । इसलिए भी वह वरूणोदसमुद्र कहा जाता है । अथवा हे गौतम! वरूणोदसमुद्र (द्रव्यापेक्षया) नित्य है, वह सदा था, है और रहेगा इसलिए उसका यह नाम भी शाश्वत होने से अनिमित्तिक है । भगवन् ! वरूणोदसमुद्र में कितने चन्द्र प्रभासित होते थे, होते हैं और होंगे - इत्यादि प्रश्न करना चाहिए। अणिहुयसंलावकरणहरिसपीइजणणी संतोसतक विवोक्क हाव-विव्भम-विलास - वेल्ल-हल-गमणकरणी विरणमधियसत्तजणणी य होइ संगाम देसकालेकयरणसमरपसरकरणी कढियाणविज्जुपयतिहिययाण मउयकरणीय होइ उववेसिया समाणा गतिं खलावेति य सयलंमिवि सुभासवुप्पालिया समरभग्गवणोसहयारसुरभिरसदीविया सुगंधा आसायणिज्जा विस्सायणिज्जा पीणणिज्जा दप्पणिज्जा मयणिज्जा सव्विंदियगायपल्हायणिज्जा ।) १.‘सव्वं जोइससंखिज्जकेण णायव्वं वारूणवरे णं दीवे कइ चंदा पभासिंसु वा ३' ऐसा प्रतियों में पाठ है। संगति की दृष्टि से उक्त पाठदिया गया है। -सम्पादक Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति: क्षीरवरद्वीप और क्षीरोदसमुद्र ] [६१ गौतम ! वरूणोदसमुद्र में चन्द्र, सूर्य, नक्षत्र, तारा आदि सब संख्यात-संख्यात कहने चाहिए। क्षीरवरद्वीप और क्षीरोदसमुद्र १८१. वारूणवरं णं दीवं खीरवरे णामं दीवे वट्टे जाव चिट्ठइ।सव्वं संखेजगं विक्खंभो य परिक्खेवो य जाव अट्ठो। बहूओ खुड्डा-खुड्डियाओ वावीओ जाव सरसरपंतियाओ खीरोदग पडिहत्थाओ पासाईयाओ ४। तासु णं खुड्डियासु जाव बिलपंतियासु बहवे उप्पायपव्वयगा० सव्वरयणामया जाव पडिरूवा। पुंडरीगपुक्खरदंता एत्थ दो देवा महिड्डिया जाव परिवसंति; से एएणठेणं जाव णिच्चे जोतिसं सव्वं संखेज। ___ खीरवरं णं दीवं खीरोए णामं समुद्दे वट्टे वलयागारसंठाणसंठिए जाव परिक्खवित्ताणं चिट्ठइ समचक्कवालसंठिए नो विसमचक्कवालसंठिए, संखेज्जाइं जोयणसयसहस्साई विक्खंभपरिक्खेवो तहेव सव्वं जाव अट्ठो। गोयमा ! खीरोयस्स णं समुद्दस्स उदगं' खंडगुडमच्छंडियोववेए रण्णो चाउरंतचक्कवट्टिस्स उवट्ठविए आसायणिज्जे विस्सायणिज्जे पीणणिजे जाव सव्विदियगायपल्हायणिजे जाव वण्णेणं उवचिए जाव फासेणं भवे एयारूवे सिया ? णो इणढे समढे ।खोरोदस्स णं से उदए एत्तो इट्ठयराए चेव जाव आसाएणं पण्णत्ते। विमलविमलप्पभा एत्थ दो देवा महिड्ढिया जाव परिवति। से तेणढेणं, संखेजं चंदा जाव तारा। १८१. वर्तुल और वलयाकार क्षीरवर नामक द्वीप वरूणवरसमुद्र को सब ओर से घेर कर रहा हुआ है। उसका विष्कंभ (विस्तार) और परिधि संख्यात लाख योजन की है आदि क थन पूर्ववत् कहना चाहिए यावत् नाम सम्बन्धी प्रश्न करना चाहिए। क्षीरवर नामक द्वीप में बहुत-सी छोटी-छोटी बावड़िया यावत् सरसरपंक्तियां और बिलपंक्तियां हैं जो क्षीरोदक से परिपूर्ण हैं यावत् प्रतिरूप हैं। पुण्डरीक और पुष्करदन्त नाम के दो महर्द्धिक देव वहां रहते हैं यावत् वह शाश्वत है। उस क्षीरवर नामक द्वीप में सब ज्योतिष्कों की संख्या संख्यात-संख्यात कहनी चाहिए। उक्त क्षीरवर नामक द्वीप को क्षीरोद नामका समुद्र. सब ओर से घेरे हुए स्थित है। वह वर्तुल और १. अत्र एवंभूतोऽपि पाठः दृश्यते प्रतिषु परं टीकाकारेण न व्याख्यातं टीकामूलपाठयोर्महद्वैषम्यमत्रान्यत्रापि । "से जहाणामए-सुउसुहीमारूपण्णअज्जुणतरूगणसरसपत्तकोमलअत्थिग्गत्तणग्गपोंडगवरूच्छुचारिणीणं लवंगपत्तपुप्फपल्लवकक्कोलगसफल-रूक्खबहुगुच्छगुम्मकलियमलट्ठिमधुपयुरपिपपलीफलितवल्लिवरविवरचारिणीणं अप्पोदगपीतसइरस समभूमिभागणिभयसुहोसियाणं सुप्पेसियसुहात-रोगपरिवज्जिताणं णिरूवहयसरीराणं कालप्पसविणीणं बितियततियसमप्पसूयाणं अंजणवरगवलवलयजलधरजच्चंणरिट्ठभमरपभूयसमप्पभाणं कुंडदोहणाणं बद्धत्थिपत्थुयाणं रूढाणं मधुमासकाले संगहनेहो अज्जचातुरक्केव होज्ज तासिं खीरे मधुररस विवगच्छबहुदव्वसंपउत्ते पत्तेयं मंदग्गिसुकढिए आउत्ते खंडगुड......। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२] [जीवाजीवाभिगमसूत्र वलयाकार है। वह समचक्रवालसंस्थान से संस्थित है, विषमचक्रवालसंस्थान से नहीं। संख्यात लाख योजन उसका विष्कंभ और परिधि है आदि सब वर्णन पूर्ववत् करना चाहिए यावत् नाम सम्बन्धी प्रश्न करना चाहिए कि क्षीरोद, क्षीरोद क्यों कहलाता है ? गौतम ! क्षीरोदसमुद्र का पानी चक्रवर्ती राजा के लिये तैयार किये गये गोक्षीर (खीर) जो चतु:स्थान-परिणाम परिणत है, शक्कर, गुड़, मिश्री आदि से अति स्वादिष्ट बताई गई है, जो मंदअग्नि पर पकायी गई है, जो आस्वादनीय, विस्वादनीय, प्रीणनीय यावत् सर्व-इन्द्रियों और शरीर को आह्लादित करने वाली है, जो वर्ण से सुन्दर है यावत् स्पर्श से मनोज्ञ है । (क्या ऐसा क्षीरोद का पानी है ?) गौतम ! नहीं, इससे भी अधिक इष्टतर यावत् मन को तृप्ति देने वाला है । विमल और विमलप्रभ नाम के दो महर्द्धिक देव वहां निवास करते हैं । इस कारण क्षीरोदसमुद्र क्षीरोदसमुद्र कहलाता है। उस समुद्र में सब ज्योतिष्क चन्द्र से लेकर तारागण तक संख्यात-संख्यात हैं । घृतवर, घृतोद, क्षोदवर, क्षोदोद की वक्तव्यता १८२. (अ) खीरोदं णं समुदं घयवरे णामं दीवे वट्टे वलयागारसंठाणसंठिए जाव चिट्ठइ समचक्कवालसंठाणसंठिए नो विसमचक्वालसंठाणसंठिए, संखेजविक्खंभपरिक्खेवे० पएसा जाव अट्ठो। गोयमा ! घयवरेणं दीवे तत्थ-तत्थ बहुओ खुड्डाखुड्डियाओ वावीओ जावघयोदगपडिहत्थाओ उप्पायपव्वगा जाव खडहड० सव्वकंचणमया अच्छा जाव पडिरूवा। कणयकणयप्पभा एत्थ दो देवा महिड्डिया, चंदा संखेजा। घयवरं णं दीवं घयोदे णामं समुद्दे वट्टे वलयागारसंठाणसंठिए जाव चिट्ठइ समचक्क ० तहेव दार पदेसा जीवा य अट्ठो ? गोयमा ! घयोदस्स णं समुदस्स उदए-से जहाणामए पप्फुल्लसल्लइविमुक्कल कण्णियारसरसवसुविसुद्धकोरंटदामपिंडिततरस्सनिद्धगुणतेयदीविय निरूवहयविसिट्ठसुन्दरतरस्स सुजाय-दहिमथियतद्दिवसगहियणवणीयपडुवणावियमुक्कड्डिय. उद्दावसज्जवीसंदियस्स अहियं पीवर-सुरहिगंधमणहरमहुरपरिणामदरिसणिजस्स पत्थनिम्मलसुहोवभोगस्स सरयकालम्मि होज गोघयवरस्स मंडए, भवे एयारूवे सिया ? णो तिणठे समढे, गोयमा ! घयोदस्स णं समुदस्स एत्तो इठ्ठतरे जाव अस्साएणं पण्णत्ते, कंतसुकंता एत्थ दो देवा महिड्डिया जाव परिवति, सेसं तं चेव जाव तारागण कोडीकोडीओ। १८२. (अ) वर्तुल और वलयाकार संस्थान-संस्थित घृतवर नामक द्वीप क्षीरोदसमुद्र को सब ओर से घेर कर स्थित है। वह समचक्रवालसंस्थान वाला है, विषमचक्रवालसंस्थान वाला नहीं है। उसका विस्तार और परिधि संख्यात लाख योजन की है। उसके प्रदेशों की स्पर्शना आदि से लेकर यह घृतवरद्वीप क्यों कहलाता है, यहां तक का वर्णन पूर्ववत् कहना चाहिए। गौतम ! घृतवरद्वीप में स्थान-स्थान पर बहुत-सी छोटी-छोटी बावड़ीयां आदि हैं जो घृतोदक से Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति: घृतवर, घृतोद, क्षोदवर, क्षोदोद की वक्तव्यता ] [ ६३ भरी हुई हैं। वहां उत्पात पर्वत यावत् खडहड आदि पर्वत हैं, वे सर्वकंचनमय स्वच्छ यावत् प्रतिरूप हैं। वहां कनक और कनकप्रभ नाम के दो महर्द्धिक देव रहते हैं। उसके ज्योतिष्कों की संख्या संख्यात संख्यात है । उक्त घृतवरद्वीप को घृतोद नामक समुद्र चारों ओर से घेरकर स्थित है । वह गोल और वलय की आकृति से संस्थित है । वह समचक्रवालसंस्थान वाला है। पूर्ववत् द्वार, प्रदेशस्पर्शना, जीवोत्पत्ति और नाम का प्रयोजन सम्बन्धी प्रश्न कहने चाहिए । गौतम ! घृतोदसमुद्र का पानी गोघृत के मंड (सार) के जैसा श्रेष्ठ है ।' (घी के ऊपर जमे हुए थर को मंड कहते हैं) यह गोघृतमंड फूले हुए सल्लकी, कनेर के फूल, सरसों के फूल, कोरण्ट की माला की तरह पीले वर्ण का होता है, स्निग्धता के गुण से युक्त होता है, अग्निसंयोग से चमकवाला होता है, यह निरूपहत और विशिष्ट सुन्दरता से युक्त होता है, अच्छी तरह जमाये हुए दही को अच्छी तरह मथित करने पर प्राप्त मक्खन को उसी समय तपाये जाने पर, अच्छी तरह उकाले जाने पर उसे अन्यत्र न ले जाते हुए उसी स्थान पर तत्काल छानकर कचरे आदि के उपशान्त होने पर उस पर जो थर जम जाती, वह जैसे अधिक सुगन्ध से सुगन्धित, मनोहर, मधुर परिणाम वाली और दर्शनीय होती है, वह पथ्यरूप, निर्मल और सुखोपभोग्य होती है, ऐसे शरत्कालीन गोघृतवरमंड के समान वह घृतोद का पानी होता है क्या, यह पूछने पर भगवान् कहते हैं - गौतम! वह घृतोद का पानी इससे भी अधिक इष्टतर यावत् मन को तृप्त करने वाला है। वहां कान्त और सुकान्त नाम के दो महर्द्धिक देव रहते हैं। शेष सब कथन पूर्ववत् करना चाहिए यावत् वहां संख्यात तारागण कोटिकोटि शोभित होती थी, शोभित होती है और शोभित होगी। १८२. (आ) घयोदं णं समुद्दं खोदवरे णामं दीवे वट्टे वलयागारसंठाणसंठिए जाव चिट्ठइ तहेव जाव अट्ठो । खोयवरे णं दीवे तत्थ - तत्थ देसे तहिं तहिं खुड्डा वावीओ जाव खोदोदगपडिहत्थाओ, उप्पायपव्वया, सव्ववेरूलियामया जाव पडिरूवा । सुप्पभमहप्पभा य दो देवा महिड्डिया जाव परिवति । से एणद्वेणं सव्वं जोतिसं तं चेव जाव तारागणकोडिकोडीओ । खोयवरं णं दीवं खोदोदे णामं समुद्दे वट्टे वलयागारसंठाणसंठिए जाव संखेज्जाई जोयणसयसहस्साइं परिक्खेवेणं जाव अट्ठो । गोयमा ! खोदोदस्स णं समुद्दस्स उदए से जहाणामए - आलस-मासल-पसत्थ-वीसंतनिद्धसुकमाल - भूमिभागे सुच्छिन्ने सुकट्ठ लट्ठ विसिट्ठ निरू वह याजीयवाविते - सुकासगपयत्तनिउणपरिकम्म- अणुपालिय- सुवुड्ढिवुड्डाणं सुजाताणं लवणतणदोसवज्जियाणं णयाय-परिवढियाणं निम्मातसुंदराणं रसेणं परिणय-मउपीणपोरभंगुरसुजायमहुररसपुप्फ १. "घृतमण्डो घृतसार:' " -- इति मूल टीकाकार Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४] [जीवाजीवाभिगमसूत्र -विरहियाणं उवद्दवविवज्जियाणं सीयपरिफासियाणं अभिणवतवग्गाणं अपालिताणं तिभायणिच्छोडियवाडगाणं अवणीतमूलाणं गंठिपरिसोहियाणं कुसलणरकप्पियाणं उव्वणं जाव पोंडियाणं बलवगणरजत्तजन्तपरिगालितमेत्ताणं खोयरसे होजा वत्थपरिपूए चाउज्जातगसुवासिए अहियपत्थलहुए वण्णोववेए तहेव', भवे एयारूवे सिया ? णो तिणढे समढे । खोयोदस्स णं समुद्दस्स उदए एत्तो इट्टतरए चेव जाव आसाएणं पण्णत्ते। पुण्णभद्दमाणिभद्दा य (पुण्णपुण्णभद्दा य) इत्थ दुवे देवा जाव परिवसंति, सेसं तहेव। जोइसं संखेजं चंदा०। १८२. (आ) गोल और वलयाकार क्षोदवर नाम का द्वीप घृतोदसमुद्र को सब ओर से घेरे हुए स्थित है, आदि वर्णन अर्थपर्यन्त पूर्ववत् कहना चाहिए। क्षोदवरद्वीप में जगह-जगह छोटी-छोटी बावडियां आदि हैं जो क्षोदोदग (इक्षुरस) से परिपूर्ण हैं । वहां उत्पात पर्वत आदि हैं जो सर्ववैडूर्यरत्नमय यावत् प्रतिरूप हैं। वहां सुप्रभ और महाप्रभ नाम के दो महर्द्धिक देव रहते हैं। इस कारण यह क्षोदवरद्वीप कहा जाता है । यहां संख्यात-संख्यात चन्द्र, सूर्य, ग्रह नक्षत्र और तारागण कोटिकोटि हैं। इस क्षोदवरद्वीप को क्षोदोद नाम का समुद्र सब ओर से घेरे हुए है। यह गोल और वलयाकार है यावत् संख्यात लाख योजन का विष्कंभ और परिधि वाला है आदि सब कथन अर्थ सम्बन्धी प्रश्न तक पूर्ववत् जानना चाहिए। अर्थ इस प्रकार है-हे गौतम ! क्षोदोदसमुद्र का पानी जातिवंत श्रेष्ट इक्षुरस से भी अधिक इष्ट यावत् मन को तृप्ति देने वाला है। वह इक्षुरस स्वादिष्ट, गाढ़, प्रशस्त, विश्रान्त, स्निग्ध और सुकुमार भूमि भाग में निपुण कृषि कार द्वारा काष्ट के सुन्दर विशिष्ट हल से जोती गई भूमि में जिस इक्षु का आरोपण किया गया है और निपुण पुरूष के द्वारा जिसका संरक्षण किया गया हो, तृणरहित भूमि में जिसकी वृद्धि हुई हो और इससे जो निर्मल एवं पककर विशेष रूप से मोटी हो गई हो और मधुररस जो युक्त बन गई हो, शीतकाल के जन्तुओ के उपद्रव से रहित हो, ऊपर और नीचे की जड़ का भाग निकाल कर और उसकी गाठों को भी अलग कर बलवंत बैलों द्वारा यंत्र से निकाला गया हो तथा वस्त्र से छाना गया हो और चार प्रकार के-(दालचीनी, इलायची, केशर, कालीमिर्च) सुगंधित द्रव्यों से युक्त किया गया हो, अधिक पथ्यकारी और पचने में हल्का हो तथा शुभ वर्ण गंध रस स्पर्श से समन्वित हो, ऐसे इक्षुरस के समान क्या क्षोदोद का पानी है ? गौतम ! इससे भी अधिक इष्टतर यावत् मन को तृप्ति करने वाला है। पूर्णभद्र और माणिभद्र (पूर्ण और पूर्णभद्र) नाम के दो महर्द्धिक देव यहां रहते हैं । इस कारण यह क्षोदोदसमुद्र कहा जाता है। शेष कथन पूर्ववत् करना चाहिए यावत् वहां संख्यात-संख्यात चन्द्र, सूर्य, नक्षत्र और तारागण-कोटी-कोटी शोभित थे, शोभित हैं और शोभित होंगे। १. वृत्तिकारानुसारेण अयमेव पाठः सम्भाव्यते खोदोदस्स णं समुद्दस्स उदए से जहाणामए-वरपुंडगाणं भेरण्डेक्खूणं वा कालपोराणं अवणीयमूलाणं तिभायणिच्छोडियवाडिगाणं गंठिपरिसोहियाणं वत्थपरिपूए चाउज्जायगसुवासिए अहियपत्थलहुए वण्णोववेए तहेव। Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति :नंदीश्वरद्वीपकी वक्तव्यता] [६५ नंदीश्वरद्वीप की वक्तव्यता १८३. (क) खोदोद णं समुदं गंदीसरवरे णामं दीवे वट्टे वलयागारसंठाणसंठिए तहेव जाव परिक्खेवो। पउमवरवेदिआवणसंडपरिक्खित्ते। दारा दारंतरपएसे जीवा तहेव। से केणढेणं भंते? गोयमा ! तत्थ-तत्थ देसे तहिं-तहिं बहूओ खुड्डाओ वावीओ जाव बिलपंतियाओ खोदोदगपडिहत्थाओ उप्पायपव्वया सव्ववइरामया अच्छा जाव पडिरूवा। ___ अदुत्तरं च णं गोयमा ! णंदीसरदीवस्स चक्कवालविक्खंभस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं चउदिसि चत्तारि अंजणपव्वया पण्णत्ता। ते णं अंजणपव्वया चउरसीइजोयणसहस्साई उड्ढं उच्चत्तेणं एगमेगं जोयणसहस्सं उव्वेहेणं मूले साइरेगाइं धरणियले दसजोयणसहस्साई आयामविक्खंभेणं, तओ अणंतरं च णं मायाए-मायाए पएसपरिहाणीए परिहायमाणा परिहायमाणा उवरि एगमेगं जोयणसहस्सं आयामविक्खंभेणं, मूले एक्कतीसं जोयणसहस्साई छच्च तेवीसे जोयणसए किंचिविसेसाहिया परिक्खेवेणं धरणियले एक्कतीसं जोयणसहस्साई छच्च तेवीसे जोयणसए देसूणे परिक्खेवेणं, सिहरतले तिण्णि जोयणसहस्साई एगं च वावजें जोयणसयं किंचिविसेसाहिया परिक्खेवेणं पण्णत्ता, मूले वित्थिण्णा मझे संखित्ता उप्पिं तणुआ, गोपुच्छ संठाणसंठि या सव्वंजणमया अच्छा जाव पत्तेयं पत्ते यं पउमवरवेइयापरिक्खित्ता, पत्तेयं पत्तेयं वणसंडपरिक्खित्ता, वण्णओ। तेसि णं अंजणपव्वयाणं उवरि पत्तेयं-पत्तेयं बहुसमरमणिजो भूमिभागो पण्णत्तो, से जहाणामएआलिंगपुक्खरेइ वा जाव सयंति। तेसि णं बहुसमरमणिजाणं भूमिभागाणं बहुमझंदेसभाए पत्तेयं पत्तेयं सिद्धायतणा एगमेगं जोयणसयं आयामेण पण्णासं जोयणाई विक्खंभेणं वावत्तरि जोयणाई उड्ढे उच्चत्तेणं अणेगखंभसयसंनिविट्ठा, वण्णओ। १८३. (क) क्षोदोदकसमुद्र को नंदीश्वर नाम का द्वीप चारों ओर से घेर कर स्थित है। यह गोल और वलयाकार है। यह नन्दीश्वरद्वीप समचक्रवालविष्कंभ से युक्त है। परिधि आदि के कथन से लेकर जीवोपपाद सूत्र तक सब कथन पूर्ववत् कहना चाहिए। . भगवन् ! नंदीश्वरद्वीप के नाम का क्या कारण है ? गौतम ! नंदीश्वरद्वीप में स्थान-स्थान पर बहुत-सी छोटी-छोटी बावड़ियां यावत् विलपंक्तियां हैं, जिनमें इक्षुरस जैसा जल भरा हुआ है। उसमें अनेक उत्पातपर्वत हैं जो सर्व वज्रमय है, स्वच्छ हैं यावत् प्रतिरूप हैं । __ गौतम ! दूसरी बात यह है कि नंदीश्वरद्वीप के चक्रवालविष्कंभ के मध्यभाग में चारों दिशाओं में चार अंजनपर्वत कहे गये हैं। वे अंजनपर्वत चौरासी हजार योजन ऊंचे, एक हजार योजन गहरे, मूल में Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६] [जीवाजीवाभिगमसूत्र दस हजार योजन से अधिक लम्बे-चौड़े, धरणितल में दस हजार योजन लम्बे-चौड़े हैं। इसके बाद एक-एक प्रदेश कम होते-होते ऊपरी भाग में एक हजार योजन लम्बे-चौड़े हैं । इनकी परिधि मूल में इकतीस हजार छह सौ तेवीस योजन से कुछ अधिक, धरणितल में इकतीस हजार छह सौ तेवीस योजन से कुछ कम और शिखर में तीन हजार एक सौ बासठ योजन से कुछ अधिक है। ये मूल में विस्तीर्ण, मध्य में संक्षिप्त और ऊपर पतले हैं, अत: गोपुच्छ के आकार के हैं । ये सर्वात्मना अंजनरत्नमय हैं स्वच्छ हैं यावत् प्रत्येक पर्वत पद्मवरवेदिका और वनखण्ड से वेष्टित हैं । यहां पद्मवरवेदिका और वनखण्ड का वर्णनक कहना चाहिए। उन अंजनपर्वतों में से प्रत्येक पर बहुत सम और रमणीय भूमिभाग है। वह भूमिभाग मृदंग के मढ़े हुए चर्म के समान समतल है यावत् वहां बहुत से वानव्यन्तर देव-देवियां निवास करते हैं यावत् अपने पुण्य-फल का अनुभव करते हुए विचरते हैं। उन समरमणीय भूमिभागों के मध्यभाग में अलग-अलग सिद्धायतन हैं, जो एक सौ योजन लम्बे, पचास योजन चौड़े और बहत्तर योजन ऊँचे हैं , सैकड़ों स्तम्भों पर टिके हुए हैं आदि वर्णन सुधर्मसभा की तरह जानना चाहिए। १८३ (ख) तेसि णं सिद्धायतणाणं पत्तेयं पत्तेयं चउद्दिसिं चत्तारि दारा पण्णत्तादेवदारे , असुरदारे , णागदारे , सुवण्णदारे । तत्थ णं चत्तारि देवा महिड्डि या जाव पलिओवमद्वितीया परिवसंति, तं जहा-देवे, असुरे, णागे, सुवण्णे। तेणं दारा सोलसजोयणाई उड्ढं उच्चत्तेणं, अट्ठ जोयणाई विक्खंभेणं, तावइयं चेव पवेसेणं सेया वरकगण० वण्णओ जाव वणमाला। तेसि णं दाराणं चउद्दिसिं चत्तारि मुहमंडवा पण्णत्ता। ते णं मुहमंडवा जोयणसयं आयामेणं पण्णासं जोयणाइंवं विक्खंभेणं साइरेगाइं सोलसजोयणाई उड्ढं उच्चत्तेणं वण्णओ। तेसि णं मुहमंडवाण चउद्दिसिं (तिदिसिं) चत्तारि (तिण्णि) दारा पण्णत्ता। ते णं दारा सोलसजोयणाई उड्ढे उच्चत्तेणं, अट्ठजोयणाई विक्खंभेणं तावइयं चेव पवेसेणं सेसं ते चेव जाव वणमालाओ। एवं पेच्छाघरमंडवा वि, तं चेव पमाणं जं मुहमंडवाणं दारा वि तहेवणवरि बहुमज्झदेसे पेच्छाघरमंडवाणं अक्खाडगा मणिपेढियाओ अट्ठजोयणपमाणाओ सीहासणा अपरिवारा जाव दामा थूभाई चउद्दिसिं तहेव णवरि सोलसजोयणप्पमाणा साइरेगाइं उच्चा सेसं तहेव जाव जिणपडिमा। चेइयरूक्खा तहेव चउद्दिसिं तं चेव पमाणं जहा विजयाए रायहाणीए णवरि मणिपेढियाओ सोलसजोयणप्पमाणाओ। तेसिं णं चेइयरूक्खाणं चउद्दिसिं चत्तारि मणिपेढियाओ अट्ठजोयणविक्खंभाओ चउजोयणबाहल्लाओ महिंदज्झया चउसट्ठिजोयणुच्चा जोयणोव्वेधा जोयणविक्खंभा सेसं तं चेव। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : नंदीश्वर द्वीप की वक्तव्यता ] [६७ एवं चउद्दिसिं चत्तारि णंदापुक्खरणीओ, णवरि खोयस्स पडिपुण्णाओ जोयणसयं आयामेणं पन्नासं जोयणाई विक्खंभेणं पण्णासं जोयणाई उव्वेहे णं सेसं तं चेव। मणोगुलियाणं गोमाणसीण य अडयालीसं अडयालीसं सहस्साइं पुरच्छिमेणवि सोलह पच्चत्थिमेणवि सोलस दाहिणेणवि अठ्ठ उत्तरेणवि अठ्ठ साहस्सीओ तहेव सेसं उल्लोया भूमिभागा जाव बहुमज्झदेसभाए मणिपेढिया सोलसजोयणा आयामविक्खंभेणं अट्ठजोयणाई बाहल्लेणं तारिसं मणिपेढियाणं उप्पि देवच्छंदगा सोलसजोयणाई आयामविक्खंभेणं साइरेगाइं सोलसजोयणाई उड्ढे उच्चत्तेणं सव्वरयणामया० अठ्ठसयं जिणपडिमाणं सो चेव गमो जहेव वेमाणियसिद्धाययणस्स। १८३. (ख) उन प्रत्येक सिद्धायतनों की चारों दिशाओं में चार द्वार कहे गये हैं; उनके नाम हैंदेवद्धार, असुरद्वार, नागद्वार और सुपर्णद्वार। उनमें महर्द्धिक यावत् पल्योपम की स्थिति वाले चार देव रहते है। उनके नाम हैं-देव, असर. नाग और सपर्ण। वे द्वार सोलह योजन ऊँचे, आठ योजन चौडे, और उतने ही प्रमाण के प्रवेश वाले हैं। ये सब द्वार सफेद हैं, कनकमय इनके शिखर हैं आदि वनमाला पर्यन्त सब वर्णन विजयद्वार के समान जानना चाहिए। उन द्वारों की चारों दिशाओं में चार मुखमंडप हैं। वें मुखमंडप एक सौ योजन विस्तार वाले, पचास योजन चौड़े और सोलह योजन से कुछ अधिक ऊँचे हैं। विजयद्वार के समान वर्णन कहना चाहिए उन मुखमंडप की चारों (तीनों ) दिशाओं में चार (तीन) द्वार कहे गये हैं । वे द्वार सोलह योजन ऊँचे, आठ योजन चौड़े और आंठ योजन प्रवेश वाले हैं आदि वर्णन वनमाला पर्यन्त विजयद्वार तुल्य ही इसी तरह प्रेक्षागृहमंडपों के विषय में भी जानना चाहिए। मुखमंडपों के समान ही उनका प्रमाण है। द्वार भी उसी तरह के हैं । विशेषता यह हैं कि बहुमध्यभाग में प्रेक्षागृहमंडपों के अखाड़े, (चौक) मणिपीठिका आठ योजन प्रमाण, परिवार रहित सिंहासन यावत् मालाएं, स्तूप आदि चारों दिशाओं में उसी प्रकार कहने चाहिए। विशेषता यह है कि वे सोलह योजन से कुछ अधिक प्रमाण वाले और कुछ अधिक सोलह योजन ऊँचे हैं । शेष उसी तरह जिनप्रतिमा पर्यन्त वर्णन करना चाहिए। चारों दिशाओं में चैत्यवृक्ष हैं। उनका प्रमाण वही है जो विजया राजधानी के चैत्यवृक्षों का हैं। विशेषता यह है कि मणिपीठिका सोलह योजन प्रमाण है। उन चैत्यवृक्षों की चारों दिशाओं में चार मणिपीठिकाएं हैं जो आठ योजन चौड़ी, चार योजन मोटी हैं। उन पर चौसठ योजन ऊँची, एक योजन गहरी, एक योजन चौड़ी महेन्द्रध्वजा है। शेष पूर्ववत् । इसी तरह चारों दिशाओं में चार नंदा पुष्करिणियां हैं विशेषता यह है कि वे इक्षुरस से भरी हुई हैं। उनकी लम्बाई सौ योजन, चौड़ाई पचास योजन और गहराई पचास योजन है। शेष पूर्ववत् । उन सिद्धायतनों में प्रत्येक दिशा में-पूर्व दिशा में सोलह हजार, पश्चिम में सोलह हजार, दक्षिण में आठ हजार और उत्तर में आठ हजार-यों कुल ४८ हजार मनोगुलिकाएं (पीठिकाविशेष) हैं और इतनी Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८] [जीवाजीवाभिगमसूत्र ही गोमानुषी (शय्यारूप स्थानविशेष) हैं । उसी तरह उल्लोक (छत, चन्देवा) और भूमिभाग का वर्णन जानना चाहिए। यावत् मध्यभाग में मणिपीठिका है जो सोलह योजन लम्बी-चौड़ी, कुछ अधिक सोलह योजन ऊँचे हैं, सर्वरत्नमय हैं । इन देवच्छंदकों में १०८ जिन प्रतिमाएं हैं । जिनका सब वर्णन वैमानिक की विजया राजधानी के सिद्धायतनों के समान जानना चाहिए। __ १८३. (ग) तत्थ णं जे से पुरथिमिल्ले अंजणपव्वए, तस्स णं चउद्दिसिं चत्तारि णंदाओ पुक्खरिणीओ पण्णत्ताओ, तं जहा णंदुत्तरा, य णंदा, आणंदा णंदिवद्वणा। नंदिसेणा अमोघा य गोथूभा य सुदंसणा॥ ताओ णं णंदापुक्खरिणीओ एगमेगंजोयणसयसहस्सं आयामविक्खंभेणं, दस जोयणाई उव्वेहेणं अच्छाओ सण्हाओ पत्तेयं पत्तेयं पउमवरवेइयापरिक्खित्ताओ पत्तेयं पत्तेयं वणसंडपरिक्खित्ताओ, तत्थ तत्थ जाव सोवाणपडिरूवगा, तोरणा। तासिं णं पुक्खरिणीणं वहु मज्झदेसभाए पत्तेयं पत्तेयं दहिमुहपव्वया चउसट्ठि जोयणसहस्साई उड्ढं उच्चत्तेणं एगंजोयणसहस्सं उव्वेहेणं सव्वत्थ समा पल्लगसंठाणसंठिया दस जोयणसहस्साई विक्खंभेणं इक्कतीसं जोयणसहस्साइं छच्च तेवीसे जोयणसए परिक्खेवेणं पण्णत्ता,सव्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा। तहा पत्तेयं पत्तेयं पउमवरवेइया० वणसंडवण्णओ। बहुसम० जाव आसयंति सयंति । सिद्धाययणं चेव पमाणं अंजणपव्वएसु. सच्चेव वत्तव्वया णिरवसेसं भाणियव्वं जाव अट्ठट्ठमंगलगा। १८३. (ग) उनमें जो पूर्वदिशा का अंजनपर्वत हैं , उसकी चारों दिशाओं में चार नंदा पुष्करिणियां हैं । उनके नाम हैं -नंदुत्तरा, नंदा, आनंदा और नंदिवर्धना । (नंदिसेना, अमोघा, गोस्तूपा और सुदर्शनाये नाम भी कहीं-कहीं कहे गये हैं।) ये नंदा पुष्करिणियां एक लाख योजन की लम्बी-चौड़ी है, इनकी गहराई दस योजन की है। ये स्वच्छ हैं , श्लक्ष्ण हैं । प्रत्येक के आसपास चारों ओर पद्मवरवेदिका और वनखंड हैं। इनमें त्रिसोपान-पंक्तियां और तोरण हैं । उन प्रत्येक पुष्करिणियों के मध्यभाग में दधिमुखपर्वत हैं जो चौसठ हजार योजन ऊँचे, एक हजार योजन जमीन में गहरे और सब जगह समान हैं । ये पल्यंक के आकार के हैं। दस हजार योजन की इनकी चौड़ाई है। इकतीस हजार छ सौ तेवीस इनकी परिधि है। ये सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं यावत् प्रतिरूप हैं। इनके प्रत्येक के चारों ओर पद्मरवेदिका और वनखण्ड हैं। यहां इनका वर्णनक कहना चाहिए। उनमें बहुसमरमणीय भूमिभाग हैं यावत् वहां बहुत वान-व्यन्तर देव-देवियां बैठते हैं और लेटते हैं और पुण्यफल का अनुभव करते हैं । सिद्धायतनों का प्रमाण अंजनपर्वत के सिद्धायतनों के समान जानना चाहिए, सब वक्तव्यता वैसी ही कहनी चाहिए यावत् आठ-आठ मंगलों का कथन करना चाहिए। १८३. (घ) तत्थ णं जे से दक्खिणिल्ले अंजणपव्वए तस्स णं चउद्दिसिं चत्तारि Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : नंदीश्वर द्वीप की वक्तव्यता] [६९ णंदाओ पुक्खरिणीओ पण्णत्ताओ, तं जहा भद्दा य विसाला य कुमुया पुंडरिगिणो। नंदुत्तरा य नंदा आनंदा नंदिवद्धणा॥ तं चेव दहिमुहा पव्वया चेव पमाणं जाव सिद्धाययणा। तत्थ णं जे से पच्चत्थिमिल्ले अंजणपव्वए तस्स णं चउद्दिसिं चत्तारि णंदा पुक्खरिणीओ पण्णत्ताओ, तं जहा ___णंदिसेणा अमोहा य गोथूभा य सुदंसणा। भद्दा विसाला कु मुया पुंडरिगिणि॥ तं चेव सव्वं भाणियव्वं जाव सिद्धाययणा। तत्थ णं जे से उत्तरिल्ले अंजणपव्वए तस्स णं चउद्दिसिं चत्तारि णंदा पुक्खरिणीओ तं जहा-विजया, वेजयंती, जयंती, अपराजिया। सेसं तहेव जाव सिद्धाययणा। सव्वाय चिय वण्णणा णायव्वा। __ तत्थ णं बहवे भवणवइ-वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिया देवा चाउमासियासु पडिवयासु संवच्छरीएसु वा अण्णेसु बहुसु जिणजम्मण-निक्खमण-णाणुप्पत्ति-परिणिव्वाणमाइएसु सुभदेवकज्जेसु य देवसमुदएसु य देवसमिईसु य देवसमवाएसु य देवपओयणेसु य एगंतओ सहिया समुवागया समाणा पमुइयपक्कीलिया अट्ठहियारूवाओ महामहिमाओ करेमाणा पालेमाणा सुहंसुहेणं विहरंति। कइलासहरिवाहणा य तत्थ दुवे देवा महिड्डिया जाव पलिओवमट्ठिइया परिवसंति; से तेणढेणं गोयमा ! जाव णिच्चा, जोइसं संखेज। १८३. (घ) उनमें जो दक्षिणदिशा का अंजनपर्वत है, उसकी चारों दिशाओं में चार नंदा पुष्करिणियां हैं । उनके नाम इस प्रकार हैं - भद्रा, विशाला, कुमुदा और पुंडरीकिणी। (अथवा नंदोत्तरा, नंदा, आनन्दा और नंदिवर्धना)। उसी तरह दधिमुख पर्वतों का वर्णन उतना ही प्रमाण आदि सिद्धायतन पर्यन्त कहना चाहिए। दक्षिणदिशा के अंजनपर्वत की चारों दिशाओं में चार नंदा पुष्करिणियां हैं। उनके नाम हैंनंदिसेना, अमोघा, गोस्तूपा और सुदर्शना। अथवा भद्रा, विशाला, कुमुदा और पुंडरीकिणी। सिद्धायतन पर्यन्त सब कथन पूर्ववत् कहना चाहिए। ___उत्तरदिशा के अंजनपर्वत की चारों दिशाओं में चार नंदा पुष्करिणियां हैं । उनके नाम हैं - विजया, वैजयन्ती, जयन्ती और अपराजिता। शेष सब वर्णन सिद्धायतन पर्यन्त पूर्ववत् जानना चाहिए। उन सिद्धायतनों में बहुत से भवनपति, वान-व्यन्तर ज्योतिष्क और वैमानिक देव चातुर्मासिक प्रतिपदा आदि पर्व दिनों में, सांवत्सरिक उत्सव के दिनों में तथा अन्य बहुत से जिनेश्वर देव के जन्म, Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०] [जीवाजीवाभिगमसूत्र दीक्षा, ज्ञानोत्पत्ति और निर्वाण कल्याणकों के अवसर पर देवकार्यों में, देव-मेलों में, देवगोष्ठियों में, देवसम्मेलनों में और देवों के जीतव्यवहार सम्बन्धी प्रयोजनों के लिए एकत्रित होते हैं, सम्मिलित होते हैं और आनन्द-विभोर होकर महामहिमाशाली अष्टाह्निका पर्व मनाते हुए सुखपूर्वक विचरते हैं। कैलाश और हरिवाहन नाम के दो महर्द्धिक यावत् पल्योपम की स्थिति वाले देव वहां रहते हैं। इस कारण हे गौतम ! इस द्वीप का नाम नंदीश्वरद्वीप है। अथवा द्रव्यापेक्षया शाश्वत होने से यह नाम शाश्वत और नित्य है। सदा से चला आ रहा है। यहां सब चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारा संख्यातसंख्यात हैं। १८४. नंदीस्सरवरं णं दीवं नंदीसरोदे णामं समुद्दे वट्टे वलयागारसंठाणसंठिए जाव सव्वं तहेव अट्ठो जो खोदोदगस्स जाव सुमणसोमणसभद्दा एत्थ दो देवा महिड्डिया जाव परिवसंति, सेसं तहेव जाव तारग्गं। १८४. उक्त नंदीश्वरद्वीप को चारों ओर से घेरे हुए नंदीश्वर नामक समुद्र हैं, जो गोल है एवं वलयाकार संस्थित है इत्यादि सब वर्णन पूर्ववत् (क्षोदोकवत्) कहना चाहिए। विशेषता यह है कि यहां सुमनस और सौमनसभद्र नामक दो महर्द्धिक देव रहते हैं। शेष सब वर्णन तारागण की संख्या पर्यन्त पूर्ववत् कहना चाहिए। अरूणद्वीप का कथन १८५.(अ) नंदीसरोदं समुदं अरूणे णामं दीवे वट्टे वलयागार जाव संपरिक्खित्ताणं चिट्ठइ। अरूणे णं भंते ! दीवे किं समचक्कवालसंठिए विसमचक्कवालसंठिए ? गोयमा ! . समचक्कवालसंठिए नो विसमचक्कवालसंठिए। केवइयं समचक्कवालविक्खंभेणं संठिए ? संखेज्जाइं जोयणसयसहस्साई चक्कवालविक्खंभेणं संखेज्जाइं जोयणसयसहस्साई परिवेणं पण्णत्ते। पउमवरवेदीया-वणसंड-दारा-दारंतरा तहे व संखेज्जाई जोयणसयसहस्साई दारंतरं जाव अट्ठो वावीओ खोदोदगे पडिहत्थाओ उप्पायपव्वयगा सव्ववइरामया अच्छा; असोग-वीतसोगा य एत्थ दुवे देवा महिड्डिया जाव परिवसंति। से तेणढेणं० जाव संखेज सव्वं । १८५. (अ) नंदीश्वर नामक समुद्र को चारों ओर से घेरे हुए अरूण नाम का द्वीप है जो गोल है और वलयाकार रूप से संस्थित हैं। हे भगवन् ! अरूणद्वीप समचक्रवालविष्कंभ वाला है या विषमचक्रवालविष्कंभ वाला है ? गौतम ! वह समचक्रवालविष्कंभ वाला है, विषमचक्रवालविष्कंभ वाला नहीं है। भगवन् ! उसका चक्रवालविष्कंभ कितना है ? गौतम ! संख्यात लाख योजन उसका चक्रवालविष्कंभ है और संख्यात लाख योजन उसकी परिधि है। पद्मवरवेदिका, वनखण्ड, द्वार, द्वारान्तर भी संख्यात लाख योजन प्रमाण है । इसी द्वीप का Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : अरूणद्वीप का कथन] [७१ ऐसा नाम इस कारण है कि यहां पर बावड़ियां इक्षुरस जैसे पानी से भरी हुई हैं । इसमें उत्पातपर्वत हैं जो सर्ववज्रमय है और स्वच्छ हैं । यहां अशोक और वीतशोक नाम के दो महर्द्धिक देव रहते हैं । इस कारण से इसका नाम अरूणद्वीप है। यहां सब ज्योतिप्कों की संख्या संख्यात जाननी चाहिए। १८५. (आ) अरूणं णं दीवं अरूणोदे णामं समुद्दे, तस्सवि तहेव परिक्खेवो अठ्ठो, खोदोदगे, णवरिं सुभद्दसुमणभद्दा एत्थ दुवे देवा महिड्डिया सेसं तहेव। __ अरूणोदगं समुदं अरूणवरे णामं दीवे वट्टे वलयागारसंठाणसंठिए तहेव संखेजगं सव्वं जाव अट्ठो खोदोदगपडिहत्थाओ० उप्पायपव्वया सव्ववइरामया अच्छा। अरूणवरभद्दअरूणवरमहाभद्द एत्थ दो देवा महिड्डिया० । एवं अरुणवरोदेवि समुद्दे जाव देवा अरूणवरअरूणमहावरा य एत्थ दो देवा, सेसं तहेव। ___ अरूणवरोदं णं समुदं अरूणवरावभासे णामं दीवे वट टे जाव देवा अरूणवरावभासभद्द-अरूणव-रावभासमहाभद्दा य एत्थ दो देवा महिड्ढिया। एवं अरूणवरावभासे समुद्दे णवरं देवा अरूणवरावभासवर-अरूणवरावभासमहावरा एत्थ दो देवा महिड्डिया। कुण्डले दीवे कुंडलभद्द-कुंडलमहाभद्दा दो देवा महिड्डिया। कुंडलोदे समुद्दे चक्खसुभचक्खुकंता एत्थ दो देवा महिड्डिया। कुंडलवरे दीवे कुण्डलवरभद्द-कुण्डलवरमहाभद्दा एत्थ णं दो देवा महिड्डिया। कुंडलवरोदे समुद्दे कुण्डलवर-कुंडलवरमहावर एत्थ दो देवा महिड्डिया। ___कुंडलवरावभासे दीवे कुंडलवरावभालभद्द-कुंडलवरावभासमहाभद्दा एत्थ दो देवा महिड्डिया। कुंडलवरोभासोदे समुद्दे कुंडलवरोभासवर-कुंडलवरोभासमहावरा एत्थ दो देवा महिड्डिया जाव पलिओवमट्ठिइया परिवसंति। __ १८५. (आ) अरूणद्वीप को चारों ओर से घेरकर अरूणोद नाम का समुद्रअवस्थित है । उसका विष्कंभ, परिधि, अर्थ, उसका इक्षुरस जैसा पानी आदि सब कथन पूर्ववत् जानना चाहिए। विशेषता यह है कि इसमें सुभद्र और सुमनभद्र नामक दो महर्द्धिक देव रहते हैं, शेष पूर्ववत् कहना चाहिए। ___उस अरूणोदक नामक समुद्र को अरूणवर नाम का द्वीप चारों ओर से घेरकर स्थित है। वह गोल और वलयाकार संस्थान वाला है। उसी तरह संख्यात लाख योजन का विष्कंभ, परिधि आदि जानना चाहिए। अर्थ के कथन में इक्षुरस जैसे जल से भरी बावड़ियां, सर्ववज्रमय एवं स्वच्छ, उत्पातपर्वत और अरूणवरभद्र एवं अरूणवरमहाभद्र नाम के दो महर्द्धिक देव वहां निवास करते हैं आदि कथन करना चाहिए। इसी प्रकार अरूणवरोद नामक समुद्र का वर्णन भी जानना चाहिए यावत् वहां अरूणवर और अरूणमहावर नाम के दो महर्द्धिक देव रहते हैं। शेष पूर्ववत् । अरूणवरोदसमुद्र को अरूणवरावभास नाम का द्वीप चारों ओर से घेर कर स्थित है । वह गोल है Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२] [जीवाजीवाभिगमसूत्र यावत् वहां अरूणवरावभासभद्र एवं अरूणवरावभासमहाभद्र नाम के दो महर्द्धिक देव रहते हैं। इसी तरह अरुणवरावभाससमुद्र में अरूणवरावभासवर एवं अरूणवरावभासमहावर नाम के दो महर्द्धिक देव वहां रहते हैं । शेष पूर्ववत् । कुण्डलद्वीप में कुण्डलभद्र एवं कुण्डलमहाभद्र नाम के दो देव रहते हैं और कुण्डलोदसमुद्र में चक्षुशुभ और चक्षुकांत नाम के दो महर्द्धिक देव रहते हैं । शेष वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए। कुण्डलवरद्वीप में कुण्डलवरभद्र और कुण्डलवरमहाभद्र नामक दो महर्द्धिक देव रहते हैं। कुण्डलवरोदसमुद्र में कुण्डलवर और कुण्डलवरमहावर नाम के दो महर्द्धिक देव रहते हैं। कुण्डलवरावभासद्वीप में कुण्डलवरावभासभद्र और कुण्डलवरावभासमहाभद्र नाम के दो महर्द्धिक देव रहते हैं । कुण्डलवरावभासोदकसमुद्र में कुण्डलवरोभासवर एवं कुण्डलवरोभासमहावर नाम के दो महर्धिक देव रहते हैं । ये देव पल्योपम की स्थिति वाले हैं आदि वर्णन जानना चाहिए। १८५. (इ) कुण्डलवरोभासं णं समुदं रूचगे णामं दीवे वलयागार० जाव चिट्ठइ। किं समचक्कवाल० विसमचक्कवाल? गोयमा ! समचक्कवाल० नो विसमचक्कवालसंठिए। केवइयं चक्कवाल० पण्णत्ते ? सव्वट्ठमणोरमा एत्थ दो देवा, सेसं तहेव। रू यगोदे णामं समुद्दे जहा खोदोदे समुद्दे संखे जाई जोयणसयसहस्साई चक्कवालविक्खंभेणं, संखेजाइं जोयणसयसहस्साइं परिक्खेवेणं। दारा, दारंतरं वि संखेजाइं, जोइस पि सव्वं सखेजं भाणियव्वं। अट्ठो वि जहेव खोदोदस्स णवरि सुमण-सोमणसा एत्थ दो देवा महिड्डिया तहेव। रूयगाओ आढत्तं असंखेनं विक्खंभ परिक्खेवो दारा दारंतरं जोइसं च सव्वं असंखेजं भाणियव्वं। रूयदोगं णं समुदं रूयगवरे णं दीवे वट्टे रूयगवरभद्द-रूयगवरमहाभद्दा एत्थ दो देवा। रूयगवरोदे रूयगवर-रूयगवरमहावरा एत्थ दो देवा महिड्डिया। रूयगवराभासे दीवे रूयगवरावभासभद्द-रूयगवरावभासमहाभद्दा एत्थ दो देवा महिड्डिया। रूयगवरावभासे समुद्दे रूयगवरावभावसर-रूयगवरावभासमहावरा एत्थ दो देवा० । हारद्दीवे । हारभद्द-हारमहाभद्दा दो देवा। हारसमुद्दे हारवर-हारवरमहावरा एत्थ दो देवा महिड्डिया। हारवरदीवे हारवरभद्द-हारवरमहाभद्दा एत्थ दो देवा महिडिया। हारवरोए समुद्दे हारवर-हारवरमहावरा एत्थ दो देवा०। हारवरावभासे दीवे हारवरावभासभद्दहारवरावभासमहाभद्दा एत्थ दो देवा० । हारवरावभासोए समुद्दे हारवरावभावरहारवरावभासमहावरा एत्थ दो देवा महिड्डिया। एवं सव्वेवि तिपडोयारा णेयव्वा जाव सूरवरावभोसोदे समुद्दे। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : अरूणद्वीप का कथन ] [ ७३ दीवेसु भद्दनामा वरनामा होंति उदहीसु । जाव पच्छिमभावं च खोयवरादीसु सयंभूरमणपज्जन्तेसु ॥ वावीओ खोदोदग पडिहत्थाओ पव्वया य सव्ववइरामया ॥ १८५. (इ) कुण्डलवराभाससमुद्र को चारों ओर से घेरकर रूचक नामक द्वीप अवस्थित है, जो गोल और वलयाकार है । भगवन् ! वह रूचकद्वीप समचक्रवालविष्कंभ वाला है या विषमचक्रवालविष्कंभ वाला है। गौतम ! समचक्रवालविष्कंभ वाला है, विषमचक्रवालविष्कंभ वाला नहीं है। भगवन् ! उसका चक्रवालविष्कंभ कितना है ? यहां से लगाकर सब वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिये यावत् वहां सर्वार्थ और मनोरम नाम के दो महर्द्धिक देव रहते हैं। शेष कथन पूर्ववत् । रूचकोदक नामक समुद्र क्षोदोद समुद्र की तरह संख्यात लाख योजन चक्रवालविष्कंभ वाला, संख्यात लाख योजन परिधि वाला और द्वार द्वारान्तर भी संख्यात लाख योजन वाले हैं। वहां ज्योतिष्कों की संख्या भी संख्यात कहनी चाहिए। क्षोदोदसमुद्र की तरह अर्थ आदि की वक्तव्यता कहनी चाहिए। विशेषता यह है कि यहां सुमन और सौमनस नामक दो महर्द्धिक देव रहते हैं। शेष पूर्ववत् जानना चाहिए । रूचकद्वीप समुद्र से आगे के सब द्वीप समुद्रों का विष्कंभ, परिधि, द्वार, द्वारान्तर, ज्योतिष्कों का प्रमाण - ये सब असंख्यात कहने चाहिए । रूचकोदसमुद्र को सब ओर से घेरकर रूचकवर नाम का द्वीप अवस्थित है, जो गोल है आदि कथन करना चाहिए यावत् रूचकवरभद्र और रूचकवरमहाभद्र नाम के दो महर्द्धिक देव रहते हैं । रूचकवरोदसमुद्र में रूचकवर और रूचकवरमहावर नाम के दो देव रहते हैं, जो महर्द्धिक हैं । - रूचकवरावभासद्वीप में रूचकवरावभासभद्र और रूचकवरावभासमहाभद्र नाम के दो महर्द्धिक देव रहते हैं । रूचकवरावभाससमुद्र में रूचकवरावभासवर ओर रूचकवरावभासमहावर नाम के दो महर्द्धिक देव हैं । 1 हार द्वीप में हारभद्र और हारमहाभद्र नाम के दो देव हैं। हारसमुद्र में हारवर और हारवरमहावर नाम के दो महर्द्धिक देव हैं। हारवरद्वीप में हारवरभद्र और हारवरमहाभद्र नाम के दो महर्द्धिक देव हैं हारवरोदसमुद्र में हारवर और हारवरमहावर नाम के दो महर्द्धिक देव हैं। हारवरावभासद्वीप में हारवरावभासभद्र और हरवरावभासमहाभद्र नाम दो महर्द्धिक देव हैं । हारवरावभासोदसमुद्र में हारवरावभासवर और हारवरावभासमहावर नाम के दो महर्द्धिक देव रहते हैं । इस तरह आगे सर्वत्र त्रिप्रत्यवतार और देवों के नाम उद्भावित कर लेने चाहिए। द्वीपों के नामों के साथ भद्र और महाभद्र शब्द लगाने से एवं समुद्रों के नामों के साथ "वर" शब्द लगाने से उन द्वीपों और समुद्रों के देवों के नाम बन जाते हैं यावत् १. सूर्यद्वीप, २. सूर्यसमुद्र, ३. सूर्यवरद्वीप, ४ . सूर्यवरसमुद्र, ५. सूर्यवराभासद्वीप और ६. सूर्यवरावभाससमुद्र में क्रमशः १. सूर्यभद्र और सूर्यमहाभद्र Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४] [जीवाजीवाभिगमसूत्र २. सूर्यवर और सूर्यमहावर, ३. सूर्यवरभद्र और सूर्यवरमहाभद्र, ४. सूर्यवरवर और सूर्यवरमहावर, ५. सूर्यवरावभासभद्र और सूर्यवरावभासमहाभद्र, ६. सूर्यवरावभासवर और सूर्यवरावभासमहावर नाम के देव रहते हैं। क्षोदवरद्वीप से लेकर स्वयंभूरमण तक के द्वीप और समुद्रों में वापिकाएं यावत् बिलपंक्तियां इक्षुरस जैसे जल से भरी हुई हैं और जितने भी पर्वत हैं, वे सब सर्वात्मना वज्रमय हैं। १८५. (ई) देवदीवे दीवे दो देवा महिड्डिया देवभव-देवमहाभवा एत्थ०। देवोदे समुद्दे देववर-देवमहावरा एत्थ० जाव सयंभूरमाणे दीवे सयंभूरमणभव-सयंभूरमणमहाभवा एत्थ दो देवा महिड्डिया। सयंभूरमणं णं दीवं सयंभूरमणोदे णामं समुद्दे वट्टे वलयागारसंठाणसंठिए जाव असंखेजाइं जोयणसयसहस्साइं परिक्खेवेणं जाव अट्ठो ? गोयमा ! सयंभूरमणोदए उदए अच्छे पत्थे जच्चे तणुए फलिहवण्णाभे पगईए उदगरसेणं पण्णत्ते । सयंभूरमणवर-सयंभूरमणमहावरा एत्थ दो देवा महिड्डिया सेसं तहेव असंखेज्जाओ तारागण-कोडिकोडीओ सोभेसु वा। १८५. (ई) देवद्वीप नामक द्वीप में दो महर्द्धिक देव रहते हैं -देवभव और देवमहाभव । देवोदसमुद्र में दो महर्द्धिक देव हैं -देववर और देवमहावर यावत् स्वयंभूरमणद्वीप में दो महर्द्धिक देव रहते हैं।स्वयंभूरमणभव और स्वयंभूरमणमहाभव। स्वयंभूरमणद्वीप को सब ओर से घेरे हुए स्वयंभूरमणसमुद्र अवस्थित है, जो गोल है और वलयाकार रहा हुआ है यावत् असंख्यात लाख योजन उसकी परिधि है यावत् वह स्वयंभूरमणसमुद्र क्यों कहा जाता है ? गौतम ! स्वयंभूरमणसमुद्र का पानी स्वच्छ है, पथ्य है, जात्य-निर्मल है, हल्का है, स्फटिकमणि की कान्ति जैसा है और स्वाभाविक जल के रस से परिपूर्ण है । यहां स्वयंभूरमणवर और स्वयंभूरमणमहावर नाम के दो महर्द्धिक देव रहते हैं। शेष कथन पूर्ववत् कहना चाहिए। यहां असंख्यात कोडाकोडी तारागण शोभित होते थे, होते हैं और होंगे। विवेचन--द्वीप-समुद्रों का क्रम सम्बन्धी वर्णन इस प्रकार है-पहला द्वीप जम्बूद्वीप है। इसको घेरे हुए लवणसमुद्र है । लवणसमुद्र को घेरे हुए धातकीखण्ड है। धातकीखण्ड को घेरे हुए कालोदसमुद्र है। कालोदसमुद्र को सब ओर से घेरे पुष्करवरद्वीप है। पुष्करवरद्वीप को घेरे हुए वरूणसमुद्र है। वरूणसमुद्र को घेरे हुए क्षीरवरद्वीप है । क्षीरवरद्वीप को घेरे हुए घृतोदसमुद्र है। घृतोदसमुद्र को घेरे हुए क्षोदवरद्वीप है । क्षोदवरद्वीप को घेरे हुए क्षोदोदकसमुद्र है । क्षोदोदकसमुद्र को घेरे हुए नंदीश्वरद्वीप है। नंदीश्वरद्वीप के बाद नंदीश्वरोदसमुद्र हैं । उसको घेरे हुए अरूण नामक द्वीप है, फिर अरूणोदसमुद्र है, फिर अरूणवरद्वीप, अरूणवरोदसमुद्र, अरूणवराभासद्वीप, और अरूणवरावभाससमुद्र है। इस प्रकार Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति: जम्बूद्वीप आदि नामवाले द्वीपों की संख्या ] [७५ अरूणद्वीप से त्रिप्रत्यवतार हुआ है । इन द्वीप समुद्रों के बाद जो शंख, ध्वज, कलश, श्रीवत्स आदि शुभ नाम हैं , उन नाम वाले द्वीप और समुद्र हैं । ये सब त्रिपत्यवतार वाले हैं । अपान्तराल में भुजगवर कुशवर और क्रौंचवर हैं तथा जितने भी हार-अर्धहार आदि शुभ नाम वाले आभरणों के नाम हैं , अजिन आदि जितने भी वस्तु-नाम हैं , कोष्ठ आदि जितने भी गंधद्रव्यों के नाम हैं , जलरूह, चन्द्रोद्योत आदि जितने भी कमल के नाम हैं , तिलक आदि जितने भी वृक्ष-नाम हैं , पृथ्वी, शर्करा-बालुका, उप्पल, शिला आदि जितने भी ३६ प्रकार के पृथ्वी के नाम हैं , नौ निधियों और चौदह रत्नों के, चुल्लहिमवान् आदि वर्षधर पर्वतों के, पद्म महापद्म आदि हृदों के, गंगा-सिंधु आदि महानदियों के, अन्तरनदियों के, ३२ कच्छादि विजयों के, माल्यवन्त आदि वक्षस्कार पर्वतों के, सौधर्म आदि १२ जाति के कल्पों के, शक्र आदि दस इन्द्रों के, देवकुरू-उत्तरकुरू के, सुमेरूपर्वत के, शक्तादि सम्बन्धी आवास पर्वतों के, मेरूप्रत्यासन्ना भवनपति आदि के कूटों के, चुल्लहिमवान आदि के कूटों के, कृत्तिका आदि २८ नक्षत्रों के, चन्द्रों के और सूर्यों के जितने भी नाम हैं , उन नामों वाले द्वीप और समुद्र हैं । ये सब त्रिप्रत्यवतारवाले हैं। इसके बाद देवद्वीप देवोदसमुद्र है, अन्त में स्वयंभूरमणद्वीप और स्वयंभूरमणसमुद्र है। जम्बूद्वीप आदि नामवाले द्वीपों की संख्या १८६. (अ) केवइया णं भंते ! जंबुद्दीवा दीवा नामधेजेहिं पण्णत्ता ? गोयमा ! असंखेजा जंबुद्दीवा दीवा नामधेजेहिं पण्णत्ता। केवइया णं भंते ! लवणसमुद्दा समुद्दा नामधेजेहिं पण्णत्ता ? गोयमा ! असंखेजा लवणसमुद्दा नामधेजेहिं पण्णत्ता। एवं धायइसंडावि। एवं जाव असंखेजा सूरदीवा नामधेजेहि य। एगे देवे दीवे पण्णत्ते। एगे देवोदे समुद्दे पण्णत्ते। एगे नागे जक्खे भूए जाव एगे सयंभूरमणे दीवे, एगे सयंभूरमणसमुद्दे णामधेजेणं पण्णत्ते। .१८६. (अ) भगवन् ! जम्बूद्वीप नाम के कितने द्वीप हैं ? गौतम ! जम्बूद्वीप नाम के असंख्यात द्वीप कहे गये हैं। . भगवन् ! लवणसमुद्र नाम के समुद्र कितने कहे गये हैं ? गौतम ! लवणसमुद्र नाम के असंख्यात समुद्र कहे गये हैं । इसी प्रकार धातकीखण्ड नाम के द्वीप भी असंख्यात हैं यावत् सूर्यद्वीप नाम के द्वीप असंख्यात कहे गये हैं। देवद्वीप नामक द्वीप एक ही हैं । देवोदसमुद्र भी एक ही है । इसी तरह नागद्वीप, यक्षद्वीप, भूतद्वीप, यावत् स्वयंभूरमणद्वीप भी एक ही है। स्वयंभूरमण नामक समुद्र भी एक है। _ विवेचन- पूर्ववर्ती सूत्र में द्वीप-समुद्रों के क्रम का कथन किया गया है। उसमें अरूणद्वीप से लगाकर सूर्यद्वीप तक त्रिप्रत्यवतार (अरूण, अरूणवर, अरूणवरावभास, इस तरह तीन-तीन) का कथन किया गया है । इसके पश्चात् त्रिप्रत्यवतार नहीं हैं । सूर्यद्वीप के बाद देवद्वीप देवोदसमुद्र, नागद्वीप Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६] [ जीवाजीवाभिगमसूत्र नागोदसमुद्र, यक्षद्वीप यक्षोदसमुद्र, इस प्रकार से यावत् स्वयंभूरमणद्वीप और स्वयंभूरमणसमुद्र है। समुद्रों के उदकों का आस्वाद १८६. (आ) लवणस्स णं भंते ! समुद्दस्स उदए केरिसए अस्साएणं पण्णत्ते ? गोयमा ! लवणस्स उदए आइले, रइले, लिंदे, लवणे, कडुए, अपेज्जे बहूणं दुप्पयचउप्पय-मिग-पसु-पक्खि-सरिसवाणं णण्णत्थ तज्जोणियाणं सत्ताणं। कालोयस्स णं भंते ! समुद्दस्स उदए केंरिसए अस्साएणं पण्णत्ते ! गोयमा ! आसले पेसले कालए मासरासिवण्णाभे पगईए उदगरसेणं पण्णत्ते। पुक्खरोदस्स णं भंते ! समुद्दस्स उदए केरिसए पण्णत्ते ? गोयमा ! अच्छे, जच्चे, तणुए फालिहवण्णाभे पगईए उदगरसेणं पण्णत्ते। __ वरूणोदस्स णं भंते०? गोयमा ! से जहाणामए पत्तासवेइ वा, चोयासवेइ वा, खजूरसारेइ वा, सुपक्कखोयरसेइ वा, मेरएइ वा, काविसायणेइ वा, चंदप्पभाइ वा, मणसिलाइ वा, वरसीधूइ वा, वरवारूणीइ वा, अट्ठपिट्ठपरिणिट्ठियाइ वा, जंबूफलकालिया वरप्पसण्णा उक्कोसमदपत्ता ईसि उट्ठावलंबिणी, ईसितंबच्छिकरणी, ईसिवोच्छेयकरणी, आसला मासला पेसला वण्णेणं उववेया जाव णो इणढे समठे, वरूणोदए इत्तो इठ्ठतरे चेव अस्साएणं पण्णत्ते। खीरोदस्स णं भंते ! समुदस्स उदए केरिसए अस्साएणं पण्णत्ते ? गोयमा ! से जहाणामए चाउरंतचक्कवट्टिस्स चाउरक्के गोखीरे पजत्तमंदग्गिसुकड्डिए आउत्तरखण्डमच्छंडिओववेए वण्णेणं उववेए जाव फासेणं उववेए, भवे एयारूवे सिया ? णो इणढे समढे , गोयमा ! खीरोयस्स० एत्तो इट्ठयरे जाव अस्साएणं पण्णत्ते। घयोदस्स णं से जहाणामए सारइयस्स गोघयवरस्स मंडे सल्लइकणियारपुप्फवण्णाभे सुकड्डियउदारसज्झवीसंदिए वण्णेणं उववेए जाव फासेण य उववेए-भवे एयारूवे ? णो इणढे समठे, एत्तो इट्ठयरो०। खोदोदस्स से जहाणामए उच्छूण जच्चपुंडयाण हरियालपिंडिएणं भेरूंडुप्पणाण वा कालपेराणं तिभागनिव्वडियवाडगाणं बलवगणरजंतपरिगालियमित्ताणं जे य रसे होज्जा। वत्थपरिपूए चाउजतग-सुवासिए अहियपत्थे लहुए वण्णेणं उववेए जाव भवे एयारूवे सिया? णो इणढे समढे, एत्तो इट्ठयरे०। एवं सेसगाणवि समुद्दाणं भेदो जाव सयंभूरमणस्स णवरि अच्छे जच्चे पत्थे जहा पुक्खरोदस्स। कइ णं भंते ! समुद्दा पत्तेयरसा पण्णत्ता ? गोयमा ! चत्तारि समुद्दा पत्तेयरसा पण्णत्ता, Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति: समुद्रों के उदकों का आस्वाद ] [ ७७ तं जहा- लवणोदे, वरूणोदे, खीरोदे, घओदए । कइ णं भंते ! समुद्दा पराईए उदगरसेणं पण्णत्ता ? गोयमा ! तओ समुद्दा पगईए उदगरसेणं पण्णत्ता, तं जहा - कालोए, पुक्खरोए, सयंभूरमणे । अवसेसा समुद्दा उस्सण्णं खोयरसा पण्णत्ता समणाउसो ! १८६. (आ) भगवन् लवणसमुद्र के पानी का स्वाद कैसा है ? गौतम ! लवणसमुद्र का पानी मलिन, रजवाला, शैवालरहित चिरसंचित जल जैसा, खारा, कडुआ अतएव बहुसंख्यक द्विपद- चतुष्पद - मृग-पशु-पक्षी - सरीसृपों के लिए पीने योग्य नहीं है, किन्तु उसी जल में उत्पन्न और संवर्धित जीवों के लिये पेय है । भगवन्! कालोदसमुद्र के जल का आस्वाद कैसा है ? गौतम ! कालोदसमुद्र के जल का आस्वाद पेशल (मनोज्ञ), मांसल (परिपुष्ट करनेवाला), काला, उड़द की राशि की कृष्णकांति जैसी कांतिवाला है और प्रकृति से अकृत्रिम रस वाला है। भगवन् ! पुष्करोदसमुद्र का जल स्वाद में कैसा है ? गौतम ! वह स्वच्छ है, उत्तम जाति का है, हल्का है और स्फटिकमणि जैसी कांतिवाला और प्रकृति से अकृत्रिम रस वाला है 1 भगवन् ! वरूणोदसमुद्र का जल स्वाद में कैसा है ? गौतम ! जैसे पत्रासव, त्वचासव, खजूर का सार, भली-भांति पकाया हुआ इक्षुरस होता है तथा मेरक-कापिशायन-चन्द्रप्रभा - मनः शिला - वरसीधु - वरवारूणी तथा आठ बार पीसने से तैयार की गई जम्बूफल - मिश्रित वरप्रसन्ना जाति की मदिराएं उत्कृष्ट नशा देने वाली होती हैं, ओठों पर लगते ही आनन्द देनेवाली, कुछ-कुछ आँखें लाल करनेवाली, शीघ्र नशा उत्तेजना देने वाली होती हैं, जो आस्वाद्य, पुष्टिकारक एवं मनोज्ञ हैं, शुभ वर्णादि से युक्त हैं, उसके जैसा वह जल है । इस पर गौतम पूछते हैं कि क्या वह जल उक्त उपमाओं जैसा ही है ? इस पर भगवान् कहते हैं कि, "नहीं" यह बात ठीक नहीं है, इससे भी इष्टतर वह जल कहा गया है। भगवन् ! क्षीरोदसमुद्र का जल आस्वाद में कैसा हैं ? गौतम ! जैसे चातुरन्त चक्रवर्ती के लिए चतुःस्थान परिणत गोक्षीर (गाय का दूध) जो मंदमंद अग्नि पर पकाया गया हो, आदि और अन्त में मिसरी मिला हुआ हो, जो वर्ण गंध रस और स्पर्श से श्रेष्ठ हो, ऐसे दूध के समान वह जल है । यह उपमामात्र है, वह जल इससे भी अधिक इष्टतर है । घृतोदसमुद्र के जल का आस्वाद शरद् ऋतु के गाय के घी के मंड (सार-थर) के समान है जो सल्लकी और कनेर के फूल जैसा वर्णवाला है, भली-भांति गरम किया हुआ है, तत्काल नितारा हुआ है तथा जो श्रेष्ट वर्ण गंध-रस-स्पर्श से युक्त है । यह केवल उपमामात्र है, इससे भी अधिक इष्ट घृतोदसमुद्र का जल है । Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ ] [ जीवाजीवाभिगमसूत्र भगवन्! क्षोदोदसमुद्र का जल स्वाद में कैसा है ? गौतम ! जैसे भेरुण्ड देश में उत्पन्न जातिवंत उन्नत पौण्ड्रक जाति का ईख होता है जो पकने पर हरिताल के समान पीला हो जाता है, जिसके पर्व काले हैं, ऊपर और नीचे के भाग को छोड़कर केवल बिचले त्रिभाग को ही बलिष्ठ बैलों द्वारा चलाये गये यंत्र से रस निकाला गया हो, जो वस्त्र से छाना गया हो, जिसमें चतुर्जातक - दालचीनी, इलायची, केसर, कालीमिर्च मिलाये जाने से सुगन्धित हो, जो बहुत पथ्य, पाचक और शुभ वर्णादि से युक्त हो-ऐसे इक्षुरस जैसा वह जल है । यह उपमा मात्र है, इससे भी अधिक इष्टतर क्षोदोदसमुद्र का जल है । इसी प्रकार स्वयंभूरमणसमुद्र पर्यन्त शेष समुद्रों के जल का आस्वाद जानना चाहिए। विशेषता यह है कि वह जल वैसा ही स्वच्छ, जातिवंत और पथ्य है जैसा कि पुष्करोद का जल 1 भगवन् ! कितने समुद्र प्रत्येक रस वाले कहे गये । ? गौतम ! चार समुद्र प्रत्येक रसवाले हैं अर्थात् वैसा रस अन्य किसी दूसरे समुद्र का नहीं है । वे - लवण, वरूणोद, क्षोरोद और घृतोद । भगवन् ! कितने समुद्र प्रकृति से उदगरस वाले हैं ? गौतम ! तीन समुद्र प्रकृति से उदग रसवाले हैं अर्थात इनका जल स्वाभाविक पानी जैसा ही है । वे है - कालोद, पुष्करोद और स्वयंभूरमण समुद्र । आयुष्मन् श्रमण ! शेष सब समुद्र प्रायः क्षोदरस ( इक्षुरस) वाले कहे गये हैं । १८७. कइ णं भंते ! समुद्दा बहुमच्छकच्छभाइण्णा पण्णत्ता ? गोयमा ! तओ समुद्दा बहुमच्छकच्छभाइण्णा पण्णत्ता, तं जहा - लवणे, कालोए, सयंभूरमणे । अवसेसा समुद्दा अप्पमच्छकच्छभाइण्णा पण्णत्ता समण्णाउसो ! लवणे णं भंते ! समुद्दे कइमच्छजाइकुलजोणीपमुहसयसहस्सा पण्णत्ता ? गोमा ! सत्त मच्छजाइकुलकोडीपमुहसयसहस्सा पण्णत्ता । कालो णं भंते! समुद्दे कइ मच्छजाइ पण्णत्ता ? गोयमा ! नवमच्छकुलकोडीजोणीपमुहसयसहस्सा पण्णत्ता । सयंभूरमणे णं भंते ! समुद्दे कइमच्छजइ० ? गोयमा ! अद्धतेरसमच्छजाइकुलकोडीजोणीपमुहसयसहस्सा पण्णत्ता । लवणे णं भंते ! समुद्दे मच्छाणं केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं पंचजोयणसयाई । एवं कालोए सत्तजोयणसयाइं । सयंभूरमणे जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जभागं उक्को सेणं दस जोयसयाई । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : समुद्रों के उदकों का आस्वाद ] [७९ १८७. भगवन् ! कितने समुद्र बहुत मत्स्य-कच्छपों वाले हैं ? गौतम ! तीन समुद्र बहुत मत्स्य-कच्छपों वाले हैं, उनके नाम हैं -लवण, कालोद और स्वयंभूरमण समुद्र । आयुष्मन श्रमण ! शेष सब समुद्र अल्प मत्स्य-कच्छपों वालें कहे गये हैं । भगवन् ! कालोदसमुद्र में मत्स्यों की कितनी लाख जातिप्रधान कुलकोडियों की योनियां कही गई हैं ? गौतम ! नव लाख मत्स्य-जातिकुलकोडी योनियां कही हैं। भगवन् ! स्वयंभूरमणसमुद्र में मत्स्यों की कितनी लाख जातिप्रधान कुलकोडियों की योनियां हैं? गौतम ! साढे बारह लाख मत्स्य-जातिकुलकोडी योनियां हैं। भगवन् ! लवणसमुद्र में मत्स्यों के शरीर की अवगाहना कितनी बड़ी हैं ? गौतम ! जघन्य से अंगुल का असंख्यात भाग और उत्कृष्ट पांच सौ योजन की उनकी अवगाहना इसी तरह कालोदसमुद्र में (जघन्य अंगुल का असंख्यात भाग) उत्कृष्ट सात सौ योजन की अवगाहना है। स्वयंभूरमणसमुद्र में मत्स्यों की जघन्य अवगाहना अंगुल का असंख्यातवां भाग और उत्कृष्ट एक हजार योजन प्रमाण हैं। १८८. केवइया णं भंते ! दीवसमुद्दा नामधेजेहिं पण्णत्ता ? गोयमा ! जावइया लोगे सुभा णामा सुभा वण्णा जाव सुभा फासा, एवइया दीवसमुद्दा णामधेज्जेहिं पण्णत्ता। केवइया णं भंते ! दीवसमुद्दा उद्धारसमएणं पण्णत्ता ? गोयमा ! जावइया अड्डाइजाणं सागरोवमाणं उद्धारसमया एवइया दीवसमुद्दा उद्घारसमएणं पण्णत्ता। दीवसमुद्दा णं भंते ! किं पुढविपरिणामा आउपरिणामा जोवपरिणामा पोग्गलपरिणामा? गोयमा ! पुढवीपरिणामावि, आउपरिणामावि, जीवपरिणामावि, पोग्गलपरिणामावि। दीवसमुद्देसु णं भंते ! सव्वपाणा, सव्वभूया, सव्वजीवा सव्वसत्ता पुढविकाइयत्ताए जाव तसकाइयत्ताए उववण्णपुव्वा ? हंता गोयमा ! असइ अदुवा अणंतखुत्तो । इति दीवसमुद्दा समत्ता। १८८. भंते ! नामों की अपेक्षा द्वीप और समुद्र कितने नाम वाले हैं ? गौतम ! लोक में जितने शुभ नाम हैं , शुभ वर्ण हैं यावत् शुभ स्पर्श हैं , उतने ही नामों वाले द्वीप Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०] [जीवाजीवाभिगमसूत्र और समुद्र हैं। भंते ! उद्धारसमयों की अपेक्षा से द्वीप-समुद्र कितने हैं ? गौतम ! अढाई सागरोपम के जितने उद्धारसमय हैं, उतने द्वीप और सागर हैं। भगवन् ! द्वीप-समुद्र पृथ्वी के परिणाम हैं , अप् के परिणाम है, जीव के परिणाम हैं तथा पुद्गल के परिणाम हैं? गोतम ! द्वीप-समुद्र पृथ्वी परिणाम भी हैं, जलपरिणाम भी हैं, जीवपरिणाम भी हैं और पुद्गलपरिणाम भी हैं। भगवन् ! इन द्वीप-समुद्रों में सब प्राणी, सब भूत, सब जीव और सब सत्व पृथ्वीकाय यावत् त्रसकाय के रूप में पहले उत्पन्न हुए हैं क्या ? गौतम ! हां, कईबार अथवा अनन्तबार उत्पन्न हो चुके हैं। इस तहर द्वीप-समुद्र की वक्तव्यता पूर्ण हुई। इन्द्रिय पुद्गल परिणाम १८९. कइविहे णं भंते ! इंदियविसए पोग्गलपरिणामे पण्णत्ते ? गोयमा !पंचविहे इंदियविसए पोग्गलपरिणामे पण्णत्ते, तं जहा-सोइंदियविसए जाव फासिंदियविसए। सोइंदियविसए णं भंते ! पोग्गलपरिणामे कइविहे पण्णत्ते ? .. गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-सुब्भिसद्दपरिणामे य दुब्भिसद्दपरिणामे य। एवं चक्खिदियविसयादिएहि वि सुरूवपरिणामे य दुरूवपरिणामे य। एवं सुरभिगंधपरिणामे य दुरभिगंधपरिणामे य। एवं सुरसपरिणामे य दुरसपरिणामे य। एवं सुफासपरिणामे य दुफासपरिणामे य। से नूणं भंते ! उच्चावएसु सद्दपरिणामेसु उच्चावएसु रूवपरिणामेसु एवं गंधपरिणामेसु रसपरिणामेसु फासपरिणामेसु परिणममाणा पोग्गला परिणमंतीति वत्तव्वं सिया ? हंता गोयमा ! उच्चावएसु सद्दपरिणामेसु परिणममाणा पोग्गला परिणमंतीति वत्तव्वं सिया।। से नूणं भंते ! सुब्भिसद्दा पोग्गला दुब्भिसहत्ताए परिणमंति, दुब्भिसद्दा पोग्गला सुब्भिसद्दत्ताए परिणमंति ? हंता गोयमा ! सुन्भिसद्दा पोग्गला दुन्भिसद्दत्ताए परिणमंति, दुब्भिसद्दा पोग्गला सुब्भिसद्दत्ताए परिणमंति ? __ से नूणं भंते! सुरूवा पोग्गला दुरूवत्ताए परिणमंति, दुरूवा पोग्गला सुरूवत्ताए परिणमंति? हंता गोयमा ! एवं सुब्भिगंधा पोग्गला दुब्भिगंधत्ताए परिणमंति, दुब्भिगंधा Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : देवशक्ति सम्बन्धी प्रश्नोत्तर] [८१ पोग्गला सुब्भिगंधत्ताए परिणमंति? हंता गोयमा! एवं सुफासा दुफासत्ताए०? सुरसा दुरसत्ताए०? हंता गोयमा ! १८९. भगवन् ! इन्द्रियों का विषयभूत पुद्गलपरिणाम कितने प्रकार का है? गौतम ! इन्द्रियों का विषयभूत पुद्गलपरिणाम पांच प्रकार का है, यथा-श्रोत्रेन्द्रिय का विषय यावत् स्पर्शनेन्द्रिय का विषय । भगवन् ! श्रोत्रेन्द्रिय का विषयभूत पुद्गलपरिणाम कितने प्रकार का है? गौतम ! दो प्रकार का है-शुभ शब्दपरिणाम और अशुभ शब्दपरिणाम। इसी प्रकार चक्षुरिन्द्रिय आदि के विषयभूत पुद्गलपरिणाम भी दो-दो प्रकार के हैं -यथा सुरूपपरिणाम और कुरूपपरिणाम, सुरभिगंधपरिणाम और दुरभिगंधपरिणाम, सुरसपरिणाम एवं दुरसपरिणाम और सुस्पर्शपरिणाम एवं दु:स्पर्शपरिणाम। भगवन् ! उत्तम अधम शब्दपरिणामों में, उत्तम-अधम रूपपरिणामों में, इसी तरह गंधपरिणामों में, रसपरिणामों में और स्पर्शपरिणामों में परिणत होते हुए पुद्गल परिणत होते हैं -बदलते हैं -ऐसा कहा जा सकता है क्या? (अवस्था के बदलने से वस्तु का बदलना कहा जा सकता है क्या?) ___ हां, गौतम ! उत्तम-अधम रूप में बदलने वाले शब्दादि परिणामों के कारण पुद्गलों का बदलना कहा जा सकता है। (पर्यायों के बदलने पर द्रव्य का बदलना कहा जा सकता है।) भगवन् ! क्या उत्तम शब्द अधम शब्द के रूप में बदलते हैं ? अधम शब्द उत्तम शब्द के रूप में बदलते हैं क्या? . गौतम ! उत्तम शब्द अधम शब्द के रूप में और अधम शब्द उत्तम शब्द के रूप में बदलते हैं। भगवन् ! क्या शुभ रूप वाले पुद्गल अशुभ रूप में और अशुभ रूप के पुद्गल शुभ रूप में बदलते हैं? हां, गौतम ! बदलते हैं। इसी प्रकार सुरभिगंध के पुद्गल दुरभिगंध के रूप में और दुरभिगंध के पुद्गल सुरभिगंध के रूप में बदलते हैं। इसी प्रकार शुभस्पर्श के पुदगल अशुभस्पर्श के रूप में और अशुभस्पर्श वाले शुभस्पर्श के रूप में तथा इसी तरह शुभरस के पुद्गल अशुभरस के रूप में और अशुभरस के पुद्गल शुभरस में परिणत हो सकते है। . देवशक्ति सम्बन्धी प्रश्नोत्तर १९०. देवे णं भंते ! महिड्डिए जाव महाणुभागे पुव्वामेव पोग्गलं खवित्ता पभू तमेव अणुपरिवट्टित्ताणं गिण्हित्तए ? हंता प्रभू ! से केणठेणं एवं वुच्चइ देवे णं भंते ! महिड्डिए जाव गिण्हित्तए ? ___ गोयमा ! पोग्गले खित्तेसमाणे पुलवामेव सिग्घगई भवित्ता तओ पच्छा मंदगई भवइ, देवे णं महिड्डिए जाव महाणुभागे पुव्वंपि पच्छावि सिग्धे सिग्धगई (तुरिए तुरियगई) चेव, Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२] [जीवाजीवाभिगमसूत्र से तेणढेणं गोयमा! एवं वुच्चइ जाव अणुपरियत्ताणं गेण्हित्तए। देवे णं भंते ! महिड्डिए बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता पुव्वामेव बालं अच्छित्ता अभित्ता पभू गंठित्तए ? नो इणढे समढे। देवे णं भंते ! महिड्डिए बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता पुव्वामेव बालं अच्छित्ता अभित्ता पभू गंठित्ता? नो इणढे समढे। ___ देवे णं भंते ! महिड्डिए जाव महाणुभागे बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता पुव्वामेव बालं अछेत्ता अभेत्ता पभू गंठित्तए ? हंता पभू। तं चेव णं गंठिं छउमत्थे ण जाणइ, ण पासइ, एवं सुहुमं च णं गंठिया। देवे णं भंते ! महिड्डिए पुव्वामेव बालं अच्छे त्ता अभेत्ता पभू दीहीकरित्तए वा हस्सीकरित्तए वा? नो इणढे समढे । एवं चत्तारिवि गमा, पढमबिइयभंगेसु अपरियाइत्ता एगंतरियगा अच्छेत्ता, अभेत्ता सेसं तदेव। तं चेव सिद्धं छउमत्थे ण जाणइ, ण पासइ। एवं सुहुमं च णं दीहीकरेज वा हस्सीकरेज वा। १९०. भगवन् ! कोई महर्द्धिक यावत् महाप्रभावशाली देव (अपने गमन से) पहले किसी वस्तु को फेंके और फिर वह गति करता हुआ उस वस्तु को बीच में ही पकड़ना चाहे तो वह ऐसा करने में समर्थ है? हां, गौतम! वह ऐसा करने में समर्थ है। भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है कि वह वैसा करने में समर्थ है ? गौतम ! फेंकी गई वस्तु पहले शीघ्रगति वाली होती है और बाद में उसकी गति मन्द हो जाती है , जबकी उस महर्द्धिक और महाप्रभावशाली देव की गतिपहले भी शीघ्र होती है और बाद में भी शीघ्र होती है, इसलिए ऐसा कहा जाता है कि वह देव उस वस्तु को पकड़ने में समर्थ है। भगवन् ! कोई महर्द्धिक यावत् महाप्रभावशाली देव बाह्य पुद्गलों को ग्रहण किये बिना और किसी बालक को पहले छेदे-भेदे बिना उसके शरीर को सांधने में समर्थ है क्या ? नहीं, गौतम ! ऐसा नहीं हो सकता? भगवन् ! कोई महर्द्धिक यावत् महाप्रभावशाली देव बाह्य पुद्गलों को ग्रहण करके परन्तु बालक के शरीर को पहले छेदे-भेदे बिना उसे सांधने में समर्थ हैं क्या? नहीं गौतम ! वह समर्थ नहीं हैं। भगवन! कोई महर्द्धिक एवं महाप्रभावशाली देव बाह्य पुद्गलों को ग्रहण कर और बालक के शरीर को पहले छेद-भेद कर फिर उसे सांधने में समर्थ है क्या? हां, गौतम! वह ऐसा करने में समर्थ है । वह ऐसी कुशलता से उसे सांधता है कि उस संधि-ग्रन्थि Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८३ तृतीय प्रतिपत्ति : ज्योतिष्क चन्द्र-सूर्याधिकार ] को छद्यस्थ न देख सकता है और न जान सकता है । ऐसी सूक्ष्म ग्रन्थि वह होती है। ___भगवन! कोई महर्द्धिक देव (बाह्य पुद्गलों को ग्रहण किये बिना) पहले बालक को छेदे-भेदे बिना बड़ा या छोटा करने में समर्थ है क्या? गौतम! ऐसा नहीं हो सकता। इस प्रकार चारों भंग कहने चाहिए। प्रथम द्वितीय भंगों में बाह्य पुद्गलों का ग्रहण नहीं है और प्रथम भंग में बाल-शरीर का छेदन-भेदन भी नहीं है। द्वितीय भंग में छेदन-भेदन है । तृतीय भंग में बाह्य पुद्गलों का ग्रहण करना और बाल-शरीर का छेदन-भेदन करना नहीं है। चौथे भंग में बाह्य पुद्गलों का ग्रहण भी है और पूर्व में बाल-शरीर का छेदन-भेदन भी है। ___इस छोटे-बड़े करने की सिद्धि को छद्मस्थ नहीं जान सकता और नहीं देख सकता। ह्रस्वीकरण और दीर्धीकरण की यह विधि बहुत सूक्ष्म होती है। ज्योतिष्क चन्द्र-सूर्याधिकार १९१. अत्थि णं भंते! चंदिमसूरियाणं हिहिँपि तारारूवा अणुंपि तुल्लावि, समंपि तारारूवा अणुंपि तुल्लावि, उप्पिंपि तारारूवा अणुंपि तुल्लावि? 'हंता, अत्थि। से केणढेणं भंते! एवं वुच्चइ-अत्थि णं चंदिमसूरियाणं जाव उप्पिंपि तारारूवा अणुंपि, तुल्लावि? गोयमा! जहा जहा णं तेसिं देवाणं तव-णियम-बंभचेर-वासाइं उक्कडाई उस्सियाई भवंति तहा तहा णं तेसिं देवाणं एवं पण्णायइ अणुत्ते वा तुल्ले वा। से एएणठेणं गोयमा! अत्थि णं चंदिमसूरियाणं उप्पिंपि तारारूवा अणुंपि तुल्लावि०। ए गमेगस्स णं चंदिम-सूरियस्स, अट्ठासीइं च गहा, अट्ठावीसं च होइ नक्खत्ता। एक ससीपरिवारो एत्तो ताराणं वोच्छामि॥१॥ छावट्ठि सहस्साइं नव चेव सयाइं पंच सयराइं। एक ससीपरिवारो तारागणकोडिकोडीणं ॥२॥ १९१. भगवन् ! चन्द्र और सूर्यों के क्षेत्र की अपेक्षा नीचे रहे हुए जो तारा रूप देव हैं, वे क्या (द्युति, वैभव, लेश्या आदि की अपेक्षा) हीन भी हैं और बराबर भी हैं? चन्द्र-सूर्यों के क्षेत्र की समश्रेणी में रहे हुए तारा रूप देव, चन्द्र-सूर्यों से द्युति आदि में हीन भी हैं और बराबर भी हैं? तथा जो तारा रूप देव चन्द्र और सूर्यों के ऊपर अवस्थित है, वे द्युति आदि की अपेक्षा हीन भी हैं और बराबर भी है। हां, गौतम! कोई हीन भी है और कोई बराबर भी हैं। Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४] [जीवाजीवाभिगमसूत्र भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है कि कोई तारादेव हीन भी हैं और कोई तारादेव बराबर भी हैं? गौतम! जैसे-जैसे उन तारा रूप देवों के पूर्वभव में किये हुए नियम और ब्रह्मचर्यादि में उत्कृष्टता या अनुत्कृष्टता होती है, उसी अनुपात में उनमें अणुत्व या तुल्यत्व होता है। इसलिए गौतम! ऐसा कहा जाता है कि चन्द्र-सूर्यों के नीचे, समश्रेणी में या ऊपर जो तारा रूपदेव हैं वे हीन भी हैं और बराबर भी हैं। प्रत्येक चन्द्र और सूर्य के परिवार में (८८) अठ्यासी ग्रह, अटावीस (२८) नक्षत्र होते हैं और ताराओं की संख्या छियासठ हजार नौ सौ पचहत्तर (६६९७५) कोडाकोडी होती है। १९२. जंबुद्दीवे णं भंते! दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरथिमिल्लाओ चरमंताओ केवइयं अबाहाए जोइसं चारं चरइ? गोयमा! एक्कारसहिं एक्कवीसेहिं जोयणसएहिं अबाहाए जोइसं चारं चरइ; एवं दक्खिणिल्लाओ पच्चत्थिमिल्लाओ उत्तरिल्लाओ एक्कारसहिं एक्कवीसेहिं जोयणसएहिं अबाहाए जोइसं चारं चरइ। लोगंताओ णं भंते! केवइयं अबाहाए जोइसे पण्णत्ते? गोयमा! एक्कारसहिं एक्कारेहिं जोयणसएहिं अबाहाए जोइसे पण्णत्ते। इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ केवइयं अबाहाए . सव्वहेट्ठिल्ले तारारूवे चारं चरइ? केवइयं अबाहाए सूरविमाणे चारं चरइ? केवइयं अबाहाए चंदविमाणे चारं चरइ? केवइयं अबाहाए सव्वउवरिल्ले तारारूवे चारं चरइ? गोयमा! इमीसे णं रयणप्पभापुढवीए बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ सत्तहिं णउएहिं जोयणसएहिं अबाहाए जोइस सव्वहेट्ठिल्ले तारारूवे चारं चरइ।अट्ठहिं जोयणसएहिं अबाहाए सूरविमाणे चारं चरइ। अट्ठहिं असीएहिं जोयणसएहिं अबाहाए चंदविमाणे चारं चरइ। नवहिं जोयणसएहिं अबाहाए सव्वउवरिल्ले तारारूवे चारं चरइ। सव्वहेद्विमिल्लाओ णं भंते! तारारूवाओ केवइयं अबाहाए सूरविमाणे चारं चरइ? केवइयं चंदविमाणे चारं चरइ? केवइयं अबाहाए सव्वउवरिल्ले तारारूवे चारं चरइ? गोयमा! सव्वहेट्ठिल्लाओ णं दसहिं जोयणेहिं सूरविमाणे चारं चरइ। णउइए जोयणेहिं अबाहाए चंदविमाणे चारं चरइ। दसुत्तरे जोयणसए अबाहाए सव्वोवरिल्ले तारारूवे चारं चरइ। सूरविमाणाओ भंते! केवइयं अबाहाए चंदविमाणे चारं चरइ? केवइयं सव्वउवरिल्ले तारारूवे चारं चरइ? Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : ज्योतिष्क चन्द्र-सूर्याधिकार ] [८५ गोयमा! सूरविमाणाओ णं असीए जोयणेहिं चंदविमाणे चारं चरइ। जोयणसए अबाहाए सव्वोवरिल्ले तारारूवे चारं चरइ। चंदविमाणाओ णं भंते! केवइयं अबाहाए सव्वउवरिल्ले तारारूवे चारं चरइ? गोयमा! चंदविमाणाओ णं वीसाए जोयणेहिं अबाहाए सव्व उवरिल्ले तारारूवे चारं चरइ। एवामेव सपुव्वावरेणं दसुत्तरसयजोयणबाहल्ले तिरियमसंखेज्जे जोइसविसए पण्णत्ते। जंबुद्दीवे णं भंते! दीवे कयरे णक्खत्ते सव्वभितरिल्लं चारं चरति? कयरे णक्खत्ते सव्वबाहिरिल्लं चारं चरइ? कयरे णक्खत्ते सव्वउवरिल्लं चारं चरइ? कयरे णक्खत्ते सव्वभितरिल्लं चारं चरइ? गोयमा! जंबुद्दीवे णं दीवे अभीइनक्खत्ते सव्वभितरिल्लं चारं चरइ, मूले नक्खत्ते सव्वबाहिरिल्लं चारं चरइ, साइणक्खत्ते सव्वोवरिल्लं चारं चरइ, भरणीनक्खत्ते सव्वहेट्ठिल्लं चारं चरइ। १९२. भगवन् ! जम्बूद्वीप में मेरुपर्वत के पूर्व चरमान्त से ज्योतिष्कदेव कितनी दूर रह कर उसकी प्रदक्षिणा करते हैं? ___ गौतम ! ग्यारह सौ इक्कीस (११२१) योजन दूरी से प्रदक्षिणा करते हैं । इसी तरह दक्षिण चरमान्त से, पश्चिम चरमान्त से और उत्तर चरमान्त से भी ग्यारह सौ इक्कीस योजन दूरी से प्रदक्षिणा करते हैं । भगवन् ! लोकान्त से कितनी दूरी पर ज्योतिष्कचक्र कहा गया है? गौतम! ग्यारह सौ ग्यारह (११११) योजन पर ज्योतिष्कचक्र है। भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के बहुसमरमणीय भूमिभाग से कितनी दूरी पर सबसे निचला तारा रूप गति करता है? कितनी दूरी पर सूर्यविमान गति करता है? कितनी दूरी पर चन्द्रविमान चलता है? कितनी दूरी पर सबसे ऊपरवर्ती तारा चलता है? गौतम! इस रत्नप्रभापृथ्वी के बहुसमरमणीय भूमिभाग से ७९० योजन दूरी पर सबसे निचला तारा गति करता है। आठ सौ (८००) योजन दूरी पर सूर्यविमान चलता है । आठ सौ अस्सी (८८०) योजन पर चन्द्रविमान चलता है । नौ सौ (९००) योजन दूरी पर सबसे ऊपरवर्ती तारा गति करता है। ___भगवन् ! सबसे निचले तारा से कितनी दूर सूर्य का विमान चलता है? कितनी दूरी पर चन्द्र का विमान चलता है? कितनी दूरी पर सबसे ऊपर का तारा चलता है? गौतम! सबसे निचले तारा से दस योजन दूरी पर सूर्यविमान चलता है, नब्बै योजन दूरी पर चन्द्रविमान चलता है। एक सौ दस योजन दूरी पर सबसे ऊपर का तारा चलता है। भगवन् ! सूर्य विमान से कितनी दूरी पर चन्द्रविमान चलता है? कितनी दूरी पर सर्वोपरि तारा चलता है? गौतम! सूर्य विमान से अस्सी योजन की दूरी पर चन्द्रविमान चलता है और एक सौ योजन ऊपर Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ ] सर्वोपरि तारा चलता है । भगवन्! चन्द्र विमान से कितनी दूरी पर सबसे ऊपर का तारा गति करता है ? गौतम ! चन्द्र विमान से बीस योजन दूरी पर सबसे ऊपर का तारा चलता है। इस प्रकार सब मिलाकर एक सौ दस योजन के बाहल्य (मोटाई) में तिर्यग्दिशा में असंख्यात योजन पर्यन्त ज्योतिष्कचक्र कहा गया है। [ जीवाजीवाभिगमसूत्र भगवन् ! जम्बूद्वीप में कौन-सा नक्षत्र सब नक्षत्रों के भीतर, बाहर मण्डल गति से तथा ऊपर, नीचे विचरण करता है । गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में अभिजित् नक्षत्र सबसे भीतर रहकर मंडल गति से परिभ्रमण करता है। मूल नक्षत्र सब नक्षत्रों से बाहर रहकर मण्डलगति से परिभ्रमण करता है । स्वाति नक्षत्र सब नक्षत्रों से ऊपर रहकर चलता है और भरणी नक्षत्र सबसे नीचे मण्डल गति से विचरण करता है । १९३. चंदविमाणे णं भंते! किंसंठिए पण्णत्ते ? गोयमा! अद्धकविट्ठगसंठाणसंठिए सव्वफालियामए अब्भुग्गयमूसियपहसिए वण्णओ । एवं सूरविमाणेवि गहविमाणेवि नक्खत्तविमाणेवि ताराविमाणेवि अद्धकविट्ठसंठाणसंठिए । चंदविमाणे णं भंते! केवइयं आयाम विक्खंभेणं केवइयं परिक्खेवेणं ? के वइयं बाहल्लेणं पण्णत्ते ? गोयमा ! छप्पन्ने एकसद्विभागे जोयणस्स आयामविक्खंभेणं, तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं, अट्ठावीसं एगसद्विभागे जोयणस्स बाहल्लेणं पण्णत्ते । सूरविमाणस्स सच्चेव पुच्छा? गोयमा! अडयालीसं एकसद्विभागे जोयणस्स आयामविक्खंभेणं, तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं, चडवीसं एकसद्विभागे जोयणस्स बाहल्लेणं पण्णत्ते । एवं गहविमाणेवि अद्धजोयणं आयामविक्खंभेणं, तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं कोसं बाहल्लेणं पण्णत्ते । नक्खत्तविमाणे णं कोसं आयामविक्खभेणं, तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं अद्धकोसं बाहल्लेणं पण्णत्ते । ताराविमाने अद्धकोसं आयामविक्खंभेणं, तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं पंचधणुसयाई बाहल्लेणं पण्णत्ते । १. सव्वब्भितराऽभीई, मूलो पुण सव्व बाहिरो होई । सव्वोपरिंतु साई भरणी पुण सव्व हेट्ठिलिया ॥ १ ॥ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : ज्योतिष्क चन्द्र-सूर्याधिकार ] १९३. भगवन्! चन्द्रमा का विमान किस आकार का है ? गौतम ! चन्द्रविमान अर्धकबीठ के आकार का है । वह चन्द्रविमान सर्वात्मना स्फटिकमय है, इसकी कान्ति स दिशा - विदिशा में फैलती है, जिससे यह श्वेत, प्रभासित है ( मानो अन्य का उपहास कर रहा हो ) इत्यादि विशेषणों का वर्णन करना चाहिए । इसी प्रकार सूर्य विमान भी ग्रहविमान भी और ताराविमान भी अर्धकबीठ आकार के हैं । [ ८७ भगवन्! चन्द्रविमान का आयाम - विष्कंभ कितना है ? परिधि कितनी है ? और बाहल्य (मोटाई) कितना है ? गौतम ! चन्द्रविमान का आयाम - विष्कंभ ( लम्बाई-चौड़ाई) एक योजन के ६१ भागों में से ५६ भाग (५६/६१) प्रमाण है। इससे तीन गुणी से कुछ अधिक उसकी परिधि है । एक योजन के ६१ भागों में से २८ भाग (२८/६१) प्रमाण उसकी मोटाई है। सूर्यविमान के विषय में भी वैसा ही प्रश्न किया है। गौतम ! सूर्यविमान एक योजन के ६१ भागों में से ४८ भाग प्रमाण लम्बा -चौड़ा, इससे तीन गुणी से कुछ अधिक उसकी परिधि और एक योजन के ६१ भागों में से २४ भाग ( २४ / ६१ ) प्रमाण उसकी मोटाई है। ग्रहविमान आधा योजन लम्बा- -चौड़ा, इससे तीन गुणी कोस की मोटाई वाला है । कुछ अधिक परिधि वाला और एक नक्षत्र विमान एक कोस लम्बा-चौड़ा, इससे तीन गुणी से कुछ अधिक परिधि वाला और आधे कोस की मोटाई वाला है । ताराविमान आधे कोस की लम्बाई-चौड़ाई वाला, इससे तिगुनी से कुछ अधिक परिधि वाला और पांच सौ धनुष की मोटाई वाला है । विवेचन - इस सूत्र में चन्द्रादि विमानों का आकार आधे कबीठ के आकार के समान बतलाया गया है। यहां यह शंका हो सकती है कि जब चन्द्रादि का आकार अर्धकबीठ जैसा हो तो उदय के समय, पौर्णमासी के समय जब वह तिर्यक् गमन करता है तब उस आकार का क्यों नहीं दिखाई देता है? इसका समाधान करते हुए कहा गया है कि यहां रहने वाले पुरुषों द्वारा अर्धकपित्थाकार वाले चन्द्रविमान की केवल गोल पीठ ही देखी जाती है, हस्तामलक की तरह उसका समतल भाग नहीं देखा जाता। उस पीठ के ऊपर चन्द्रदेव का महाप्रासाद है जो दूर रहने के कारण चर्मचक्षुओं द्वारा साफ-साफ दिखाई नहीं देता । १. अद्धकविट्ठागारा उदयत्थमणम्मि कहं न दीसंति ? ससिसूराण विमाणा तिरियखेत्तट्ठियाणं च ॥ उद्धविट्ठागारं पीठं तदुवरिं च पासाओ । वट्टालेखेण ततो समवट्टं दूरभावाओ ॥ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८] [जीवाजीवाभिगमसूत्र १९४. (अ) चंदविमाणं णं भंते! कइ देवसाहस्सीओ परिवहंति? गोयमा! (सोलस देवसाहस्सीओ परिवहंति ) चंदविमाणस्स णं पुरच्छिमेणं सेयाणं सुभगाणं सुप्पभाणं संखतलविमलनिम्मल-दहिघणगोखीर-फेणरययनिरप्पगासाणं महुगुलियपिंगलक्खा - णं थिर लट्ठ -पऊट्ठ वट्ट पीवर सुसिलिट्ठ सुविसिट्ठ तिक्खदाढाविडं बियमु हाणं रत्तुप्पलपत्तमउयसुकुमालतालुजीहाणं ( पसत्थसत्थविरुलियभिसंतकक्कडनहाणं)विसालपीवरोरुपडिपुण्णविउल-खंधाणं मिउविसय-पसत्थ-सहुमलक्खण-विच्छिण्ण-केसरसडोवसोभियाणं चंकमियललियपुलितधवलगव्वियगईणं उस्सिय सुणिम्मियसुजाय-अप्फोडिय-णंगूलाणं वइरामयणक्खाणं वइरामयदंताणं वइरामयदाढाणं तवणिज्ज-जोहाणं तवणिज्जतालुयाणं तवणिज्जजोत्तगसुजोइयाणं कामगमाणं पीइगमाणं मणोगमाणं मणोरमाणं मणोहराणं अमियगईणं अमियबलविरियपुरिसकारपरकम्माणं महया अप्फोडिय-सीहनाइय-बोल-कलकलरवेणं महुरेणं मणहरेण य पूरिता अंबरं दिसाओ य सोभयंता चत्तारि देवसाहस्सीओ सीहरू-वधारिणं देवाणं पुरच्छिमिल्लं बाहं परिबहंति। १९४. (अ) भगवन् ! चन्द्रविमान को कितने हजार देव वहन करते हैं? गौतम! सोलह हजार देव चन्द्रविमान को वहन करते हैं। उनमें से चार हजार देव सिंह का रूप धारण कर पूर्व दिशा से उठाते हैं। उन सिंहों का रूपवर्णन इस प्रकार हैं-वे श्वेत हैं , सुन्दर हैं, श्रेष्ठ कांति वाले हैं , शंख के तल के समान विमल और निर्मल तथा जमे हुए दही, गाय का दूध, फेन चांदी के निकर (समूह) के समान श्वेत प्रभा वाले हैं, उनकी आंखें शहद की गोली के समान पीली हैं, उनके मुख में स्थित सुन्दर प्रकोष्ठों से युक्त, गोल, मोटी, परस्पर जुड़ी हुई विशिष्ट और तीखी दाढ़ाएं हैं, उनके तालु और जीभ लाल कमल के पत्ते के समान मृदु एवं सुकोमल हैं ,उनके नख प्रशस्त और शुभ वैडूर्यमणि की तरह चमकते हुए और कर्कश हैं , उनके उरु विशाल और मोटे हैं, उनके कंधे पूर्ण और विपुल हैं, उनके गले की केसर-सटा मृदु विशद (स्वच्छ) प्रशस्त सूक्ष्म लक्षणयुक्त और विस्तीर्ण है, उनकी गति चंक्रमणों-लीलाओं और उछलने-कूदने से गर्वभरी (मस्तानी) और साफ-सुथरी होती है, उनकी पूंछे ऊंची उठी हुई, सुनिर्मित-सुजात और फटकारयुक्त होती हैं । उनके नख वज्र के समान कठोर हैं, उनके दांत वज्र के समान मजबूत हैं, उनकी दाढाएं वज्र के समान सुदृढ़ हैं , तपे हुए सोने के समान उनकी जीभ है, तपनीय सोने की तरह उनके तालु हैं, सोने के जोतों से वे जोते हुए हैं। ये इच्छानुसार चलने वाले हैं, इनकी गति प्रीतिपूर्वक होती है, ये मन को रुचिकर लगने वाले हैं , मनोरम हैं, मनोहर हैं, इनकी गति अमित-अवर्णनीय है (चलते-चलते थकते नहीं), इनका बल वीर्यपुरुषकारपराक्रम अपरिमित है। ये जोर-जोर से सिंहनाद करते हुए और उस सिंहनाद से आकाश और दिशाओं को गुंजाते हुए और सुशोभित करते हुए चलते रहते हैं । (इस प्रकार चार हजार देव सिंह का रूप धारण कर चन्द्रविमान को पूर्व दिशा की ओर से वहन करते चलते हैं।) १९४. (आ) चंदविमाणस्स णं दक्खिणेणं सेयाणं सुभगाणं सुप्पभाणं संखतलविमल Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : ज्योतिष्क चन्द्र-सूर्याधिकार ] [ ८९ निम्नलदधिघणगोखीरफेणरययणियरप्पगासाणं वइरामयकुंभजुयलसुट्ठियपीवरवरवइरसोडव - -ट्टियदित्त- सुरत्तपरमप्पगासाणं अब्भुण्णयमुहाणं तवणिज्जविसालचंचल चलंतचवलकण्णविमलुज्जलाणं मधुवण्णभिसंतणिद्धपिंगलपत्तलतिवण्णमणिरयणलोयणाणं अब्भुग्गयमउलमल्लियाणं धवल - सरिस - संठिय- णिव्वणदढकसिण- फालियामयसुजायदंतमुसलोवसोभियाणं कंचणकोसीपविट्ठदंतग्गविमल-मणिरयणरुइरपेरंतचित्तरूवगविरायाणं तवणिज्ज-विसालतिलगपमुह परि मंडियाणं णाणामणिरयण-मुद्धगे वेज् जबद्धगलयवरभूसणाणं वेरुलियविचित्त-दंडणिम्मलवइामयतिक्खलट्ठअंकुसकुं भुजयलंतरोदियाणं तवणिज्जसुबद्धकच्छदप्पियबलुद्धराणं जंबूणयविमलघणमंडलवइरामयलालाललिय-ताल णाणा- मणिरयणघंटपासगरययामय-रज्जुबद्धलंबितघंटाजुयलमहुरसरमणहराणं अल्लीणपाण- जुत्त वट्टिय-सुजायलक्खण-पसत्थतवणिज्जबालगत्तपरिपुच्छणाणं उवचिय-पडिपुण्णकुम्म-चलण- लहु - विक्कमाणं अंकामयणक्खाणं तवणिज्जतालुयाणं तवणिज्जजीहाणं तवणिज्जजोत्तगसुजोइयाणं कामगमाणं पीइगमाणं मणोगमाणं मणोरमाणं मणोहराणं अमियगईणं अमियबलवीरिय- पुरिसकार- परक्कमाणं महया गंभीरगुलगुलाइरवेणं महुरेणं मणहरेणं पूरेंता अंबरं दिसाओ य सोभयंता चत्तारि देवसाहस्सीओ गयरूवधारीणं देवाणं दक्खिणिल्लं वाहं परिवहंति । स्वत: १९४. (आ) उस चन्द्रविमान को दक्षिण की तरफ से चार हजार देव हाथी का रूप धारण कर उठाते वहन करते हैं। उन हाथियों का वर्णन इस प्रकार है - वे हाथी श्वेत हैं, सुन्दर हैं, सुप्रभा वाले हैं। उनकी कांति शंखतल के समान विमल - निर्मल है, जमे हुए दही की तरह, गाय के दूध, फेन और चांदी के निकर की तरह उनकी कान्ति श्वेत है । उनके वज्रमय कुम्भ-युगल के नीचे रही हुई सुन्दर मोटी सूंड में जिन्होंने क्रीडार्थ रक्तपद्मों के प्रकाश को ग्रहण किया हुआ है ( कहीं-कहीं ऐसा देखा जाता है कि जब हाथी युवावस्था में वर्तमान रहता है तो उसके कुंभस्थल से लेकर शुण्डादण्ड तक ही पद्मप्रकाश के समान बिन्दु उत्पन्न हो जाया करते हैं - उसका यहां उल्लेख है) उनके मुख ऊंचे उठे हुए हैं, वे तपनीय स्वर्ण के विशाल, चंचल और चपल हिलते हुए विमल कानों से सुशोभित हैं, शहद वर्ण के चमकते हुए स्निग्ध पीले और पक्ष्मयुक्त तथा मणिरत्न की तरह त्रिवर्ण श्वेत कृष्ण पीत वर्ण वाले उनके नेत्र हैं, अतएव वे नेत्र उन्नत मृदुल मल्लिका के कोरक जैसे प्रतीत होते हैं, उनके दांत सफेद, एक सरीखे, मजबूत, परिणत अवस्था वाले, सुदृढ़, सम्पूर्ण एवं स्फटिकमय होने से सुजात हैं और मूसल की उपमा से शोभित हैं, इनके दांतों के अग्रभाग पर स्वर्ण के वलय पहनाये गये हैं। अतएव ये दांत ऐसे मालूम होते हैं मानो विमल मणियों के बीच चांदी का ढेर हों। इनके मस्तक पर तपनीय स्वर्ण के विशाल तिलक आदि आभूषण पहनाये हुए हैं, नाना मणियों से निर्मित ऊर्ध्व ग्रैवेयक आदि कंठ के आभरण गले में पहनाये हुए हैं। जिनके गण्डस्थलों के मध्य में वैडूर्यरत्न के विचित्र दण्ड वाले निर्मल वज्रमय तीक्ष्ण एवं सुन्दर अंकुश स्थापित किये हुए हैं । तपनीय स्वर्ण की रस्सी से पीठ का आस्तरण - झूले बहुत ही अच्छी तरह सजाकर एवं कसकर बांधा गया है अतएव ये दर्प से युक्त Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९०] [जीवाजीवाभिगमसूत्र और बल से उद्धत बने हुए हैं, जम्बूनद स्वर्ण के बने घनमंडल वाले और वज्रमय लाला से ताडित तथा आसपास नाना मणिरत्नों की छोटी-छोटी घंटिकाओं से युक्त रत्नमयी रज्जु में लटके दो बड़े घंटों के मधुर स्वर से वे मनोहर लगते हैं। उनकी पूंछे चरणों तक लटकती हुई हैं, गोल हैं तथा उनमें सुजात और प्रशस्त लक्षण वाले बाल हैं जिनसे वे हाथी अपने शरीर को पोंछते रहते हैं। मांसल अवयवों के कारण परिपूर्ण कच्छप की तरह उनके पांव होते हुए भी वे शीघ्र गति वाले हैं । अंकरत्न के उनके नख हैं , तपनीय स्वर्ण के जोतों द्वारा वे जोते हुए हैं । वे इच्छानुसार गति करने वाले हैं, प्रीतिपूर्वक गति करने वाले हैं, मन को अच्छे लगने वाले हैं, मनोरम हैं, मनोहर हैं , अपरिमित गति वाले हैं, अपरिमित बलवीर्य-पुरुषकार-पराक्रम वाले हैं। अपने बहुत गंभीर एवं मनोहर गुलगुलाने की ध्वनि से आकाश को पूरित करते हैं और दिशाओं को सुशोभित करते हैं। (इस प्रकार चार हजार हाथी रूपधारी देव चन्द्रविमान को दक्षिणदिशा से उठा कर गति करते रहते हैं) १९४. (इ) चंदविमाणस्स णं पच्चत्थिमेणं से याणं सुभगाणं सुप्पभाणं चंकमियललियपुलिय-चलचवलककुदसालणं सण्णयपासाणं संगतपासाणं सुजायपासाणं मियमाइयपीणरइइपासाणं झसविहग सुजायकुच्छीणं पसत्थणिद्धमधुगुलियभिसंतपिंगलक्खाणं विसालपीवरोरुपडि पुण्णविउलखंधाणं वट्ट पडि-पुण्णविउलकवोलकलियाणं घणणितियसुबद्धलक्खणुण्णतइसिआणयवसभोट्ठाणं चंकमियललियपुलियचक्क वालचवलगव्वियगईणं पीनपीवरवट्टियसुसंठियकडीणं ओलंबपलंबलक्खणपमाणजुत्तपसत्थरम -णिज्ज वालगंडाणं समखुरवालधाणीणं समलिहियतिक्खग्गसिंगाणं तणुसुहुमसुजायणिद्धलो -मच्छविधराणं उवचियमंसलविसाल-पडिपुण्णखुद्दपमुहपुंडाणं (खंधपएसे सुंदराणं) वेरुलियभिसंतकडक्खसुनिरिक्खणाणं जुत्तप्पमाणप्पहाणलक्खण पसत्थरमणिज्जगग्गरगलसोभि -याणं घग्घरगसुबद्धकंठपरिमंडियाणं नानामणिकणगरयणघंटवेयच्छगसूकयरइयमालियाणं वरघंटागलगलियसोभंतसस्सिरीयाणं पउमुष्पलसगलसुरभिमालाविभूसियाणं वइरखुराणं विविहखु राणं फलियामयदंताणं तवणिज्जजीहाणं तवणिज्जतालुयाणं तवणिज्जजोत्तगसुजोइयाणं कामगमाणं पीइगमाणं मणोगमाणं मणोरमाणं मणोहराणं अमियगईण अमियबलवीरियपुरिसकारपरक्कमाणं महया गंभीरगज्जियरवेणं महुरेणं मणहरेण य पूरेता अंबरं दिसाओ यसोभयंता चत्तारि देवसाहस्सीओ वसभरूवधारीणं देवाणं पच्चथिमिल्लं बाहं परिवहंति। ___ १९४. (इ) उस चन्द्रविमान को पश्चिमदिशा की ओर से चार हजार बैलरूपधारी देव उठाते हैं। उन बैलों का वर्णन इस प्रकार है-- वे श्वेत है, सुन्दर लगते हैं, उनकी कांति अच्छी है, उनके ककुद (स्कंध पर उठा हुआ भाग कुछ कुछ कुटिल हैं , ललित (विलासयुक्त) और पुष्ट हैं तथा दोलायमान हैं, उनके दोनों पार्श्वभाग सम्यग् नीचे की ओर झुके हुए हैं , सुजात हैं , श्रेष्ठ हैं, प्रमाणोपेत हैं, परिमित मात्रा में ही मोटे होने से सुहावने लगने वाले हैं, मछली और पक्षी के समान पतली कुक्षि वाले हैं, इनके नेत्र प्रशस्त, स्निग्ध, Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : ज्योतिष्क चन्द्र-सूर्याधिकार] [९१ शहद की गोली के समान चमकते पीले वर्ण के हैं, इनकी जंघाए विशाल, मोटी और मांसल हैं, इनके स्कंध विपुल और परिपूर्ण हैं, इनके कपोल गोल और विपुल हैं इनके ओष्ठ घन के समान निचित (मांसयुक्त) और जबड़ों से अच्छी तरह संबद्ध हैं , लक्षणोपेत उन्नत एवं अल्प झुके हुए हैं । वे चंक्रमित (बांकी) ललित (विलासयुक्त) पुलित (उछलती हुई) और चक्रवाल की तरह चपल गति से गर्वित हैं, मोटी स्थूल वर्तित (गोल) और सुसंस्थित उनकी कटि है। उनके दोनों कपोलों के बाल ऊपर से नीचे तक अच्छी तरह लटकते हुए हैं, लक्षण और प्रमाणयुक्त, प्रशस्त और रमणीय हैं उनके खुर और पूंछ एक समान हैं, उनके सींग एक समान पतले और तीक्ष्ण अग्रभाग वाले हैं। उनकी रोमराशि पतली सूक्ष्म सुन्दर और स्निग्ध है। इनके स्कंधप्रदेश उपचित परिपुष्ट मांसल और विशाल होने से सुन्दर हैं, इनकी चितवन वैडूर्यमणि जैसे चमकीले कटाक्षों से युक्त अतएव प्रशस्त और रमणीय गर्गर नामक आभूषणो से शोभित हैं , घग्घर नामक आभूषण से उनका कंठ परिमंडित हैं, अनेक मणियों स्वर्ण और रत्नों से निर्मित छोटी-छोटी घंटियों की मालाएं उनके उर पर तिरछे रूप में पहनायी गई हैं। उनके गले में श्रेष्ठ घंटियों की मालाएं पहनायी गई हैं । उनसे निकलने वाली कांति से उनकी शोभा में वृद्धि हो रही हैं । ये पद्मकमल की परिपूर्ण सुगधियुक्त मालाओं से सुगन्धित हैं। इनके खुर वज्र जैसे हैं, इनके खुर विविध प्रकार के हैं अर्थात विविध विशिष्टता वाले हैं। उनके दांत स्फटिक रत्नमय हैं, तपनीय स्वर्ण जैंसी उनकी जिह्वा हैं , तपनीय स्वर्णसम उनके तालु हैं, तपनीय स्वर्ण के जोतों से वे जुते हुए हैं । वे इच्छानुसार चलने वाले हैं, प्रीतिपूर्वक चलनेवाले हैं, मन को लुभानेवाले हैं , मनोहर और मनोरम हैं उनकी गति अपरिमित है, अपरिमित बल-वीर्य-पुरूषकार-पराक्रम वाले हैं, वे जोरदार गंभीर गर्जना के गधुर एवं मनोहर स्वर से आकाश को गुंजातें हुए और दिशाओं को शोभित करते हुए गति करते हैं। (इस प्रकार चार हजार वृषभरूपधारी देव चन्द्रविमान को पश्चिमदिशा से उठाते हैं।) १९४. (ई) चंदविमाणस्स णं उत्तरेणं सेयाणं सुभगाणं सुप्पभाणं जच्चाणं तरमल्लिहायणाणं हरिमेलामउलमल्लियच्छाणं घणणिचियसुबद्धलक्खणुण्णयचंकमिय-(चंयुरिय) ललियपुलियचलचवलचंचलगईणं लंघणवग्गणधावणधारणतिवइजइणसि -क्खियगईणं ललंतलामगलायवरभूसणाणं सण्णयपासाणं संगयपासाणं सुजायपासाणं मियमाइयपीणरइयपासाणं झसविहगसुजायकु च्छीणंपीणपीवरवट्टिय-सुसंठियकडीणं ओलंबपलंबलक्खणपमाणजुत्तपसत्थरमणिजबालगंडाणं तणुसुहुमसुजायणिद्धलोमच्छवि -धराणंमिउविसयपसत्थसुहुमलक्खणविकिण्णकेसरवालिधराणं ललियसविलासगइललं -तथासगलला-थासगललाडवरभूसणाणं मुहमंडगोचूलचमर थासगपरिमंडयकडीणं तवण्णिजखुराणं तवणिजजीहाणं तवणिजतालुयाणं तवणिज्जजोत्तगसुजोइयाणं कामगमाणं पीइगमाणं मणोगमाणं मणोहराणं अमियगईणं अमियबलवीरियपुरिसकारपरक्कमाणं महयाहयहेसियकिलकिलाइयरवेणं महुरेणं मणहरेण य पूरेता अंबरं दिसाओ य सोभयंता चत्तारि देवसाहस्सीओ हयरूवधारीणं देवाणं उत्तरिल्लं बाहं परिवहति। Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२] [जीवाजीवाभिगमसूत्र १९४. (ई) उस चन्द्रविमान को उत्तर की ओर से चार हजार अश्वरूपधारी देव उठाते हैं। वे अश्व इन विशेषणों वाले हैं --वे श्वेत हैं , सुन्दर हैं , सुप्रभावले हैं , उत्तम जाति के हैं , पूर्ण बल और वेग प्रकट होने की (तरूण) वय वाले हैं , हरिमेलकवृक्ष की कोमल कली के समान धवल आंख वाले हैं वे अयोधन की तरह दृढ़ीकृत, सुबद्ध, लक्षणोन्नत कुटिल (बांकी) ललित उछलती चंचल और चपल चाल वाले है , लांघना, उछलना, दौड़ना, स्वामी को धारण किये रखना त्रिपदी (लगाम) के चलाने के अनुसार चलना, इन सब बातों की शिक्षा के अनुसार ही वे गति करने वाले हैं हिलते हुए रमणीय आभूषण उनके गले में धारण किये हुए हैं, उनके पार्श्वभाग सम्यक् से झुके हुए हैं, संगत-प्रमाणापेत हैं , सुन्दर हैं , यथोचित मात्रा में मोटे रति पैदा करने वाले हैं, मछली और पक्षी के समान उनकी कुक्षि हैं , पीन-पीवर और गोल सुन्दर आकार वाली उनकी कटि है, दोनों कपोलों के बाल ऊपर से नीचे तक अच्छी तरह से लटकते हुए हैं , लक्षण और प्रमाण से युक्त हैं , प्रशस्त हैं , रमणीय हैं। उनकी रोमराशि पतली, सूक्ष्म, सुजात और स्निग्ध हैं। उनकी गर्दन के बाल मृदु, विशद, प्रशस्त, सूक्ष्म और सुलक्षणोपेत हैं और सुलझे हुए हैं। सुन्दर और विलासपूर्ण गति से हिलते हुए दर्पणाकार स्थासक-आभूषणों से उनके ललाट भूषित हें , मुखमण्डप, अवचुल, चमर-स्थासक आदि आभूषणों से उनकी कटि परिमंडित है. तपनीय स्वर्ण के उनके खर हैं तपनीय स्वर्ण की जिह्ना हैं तपनीय स्वर्ण के ताल हैं तपनीय स्वर्ण के जोतों से वे भलीभांति जते हए हैं। वे इच्छापूर्वक गमन करने वाले हैं, प्रीतिपूर्वक चलने वाले हैं, मन को लुभावने लगते हैं, मनोहर हैं । वे अपरिमित गति वाले हैं, अपरिमित बल-पुरूषाकार-पराक्रम वाले है । वे जोरदार हिनहिनाने की मधुर और मनोहर ध्वनी से आकाश को गुंजाते हुए दिशाओं को शोभित करते हुए चन्द्रविमान को उत्तर-दिशा की ओर से उठाते हैं । __ १९४. (उ) एवं सूरविमाणस्सवि पुच्छा ? गोयमा ! सोलह देवसाहस्सीओ परिवहंति पुव्वकमेणं । एवं गहविमाणस्सवि पुच्छा ? गोयमा ! अट्ठ देवसाहस्सीओ परिवहंति पुव्वकमेणं। दो देवाणं साहस्सीओ पुरथिमिल्लं बाहं परिवहंति, दो देवाणं साहस्सीओ दक्खिणिल्लं०, दो देवाणं साहस्सीओ पच्चत्थिमं, दो देवसाहस्सीओ उत्तरिल्लं बाहं परिवहंति। एवं णक्खत्तविमाणस्स वि पुच्छा ? गोयमा! चत्तारि देवसाहस्सीओ परिवहंति सीहरूवधारीणं देवाणं दस देवसया पुरिथमिल्लं बाहं परिवहंति एवं चउद्दिसिं। एवं तारगाणपि णवरं दो देवसाहस्सीओ परिवहंति, सीहरूवधारीणं देवाणं पंचदेवसया पुरथिमिल्लं बाहं परिवहंति एवं चउद्दिसिं। ___ १९४. (उ) सूर्य के विमान के विषय में भी यही प्रश्न करना चाहिए। गौतम ! सोलह हजार देव पूर्वक्रम के अनुसार सूर्यविमान को वहन करते है। इसी प्रकार ग्रहविमान के विषय में प्रश्न करने पर भगवान् ने कहा-गौतम ! आठ हजार देव ग्रहविमान को वहन करते हैं । दो हजार देव पूर्व की तरफ से, १. चन्द्रादि विमानानि जगतः स्वभावात निरालम्बानि, तथापि कियन्तो विनोदिनोऽनेकरूपधराः अभियोगिकादेवाः सततवहनशीलेषु विमानेषु अधः स्थित्वा परिवहन्ति कौतूहलादिति। - वृति Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : ज्योतिष्क चन्द्र-सूर्याधिकार ] [ ९३ दो हजार देव दक्षिणदिशा से दो हजार देव पश्चिमदिशा से और दो हजार देव उत्तर की दिशा से ग्रहविमान को उठाते हैं । नक्षत्रविमान की पृच्छा होने पर भगवान् ने कहा- गौतम ! चार हजार देव नक्षत्रविमान को वहन करते हैं । एक हजार देव सिंह का रूप धारण कर पूर्वदिशा की और से वहन करते हैं। इसी तरह चारों दिशाओं से चार हजार देव नक्षत्रविमान को वहन करते हैं । इसी प्रकार ताराविमान को दो हजार देव वहन करते हैं। पांच सौ पांच सौ देव चारों दिशाओं से ताराविमान को वहन करते हैं । १९५. एएसिं णं भंते ! चंदिमसूरियगहणक्खत्ततारारूवाणं कयरे कयरेहिंतो सिग्धगई वा मंदई वा ? गोयमा ! चंदेहिंतो सूरा सिग्धगई, सूरेहिंतो गहा सिग्धगई, गहेहिंतो नक्खत्ता सिग्धगई, णक्खत्तेहिंतो तारा सिग्धगई । सव्वपगइ चंदा सव्वसिग्धगइओ तारारूवे । एएसि णं भंते ! चंदिम जाव तारारूवाणं कयरे कयरेहिंतो अप्पिड्डिया वा महिड्डिया वा ? गोयमा ! तारारूवेहिंतो नक्खत्ता महिड्डिया, नक्खत्तेहिंतों गहा महिड्डिया, गहिंतो सूरा महिड्डिया, सूरेहिंतो चंदा महिड्डिया । सव्वप्पिड्डिया तारारूवा सव्व महिड्डिया चंदा । १९५. भगवन् ! इन चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र, और ताराओं में कौन किससे शीघ्रगति वाले हैं और कौन मंदगति वाले हैं ? गौतम ! चन्द्र से सूर्य तेजगति वाले हैं, सूर्य से ग्रह शीघ्रगति वाले हैं, ग्रह से नक्षत्र शीघ्रगति वाले हैं और नक्षत्रों से तारा शीघ्रगति वाले हैं । सबसे मन्दगति चन्द्रों की है और सबसे तीव्रगति ताराओं की I भगवन् ! इन चन्द्र यावत् तारारूप में कौन किससे अल्पऋद्धि वाले हैं और कौन महाऋद्धि वाले हैं ? गौतम ! तारारूप से नक्षत्र महर्द्धिक हैं, नक्षत्र से ग्रह महर्द्धिक हैं, ग्रहों से सुर्य महर्द्धिक हैं और सूर्यों से चन्द्रमा महर्द्धिक हैं। सबसे अल्पऋद्धि वाले तारारूप हैं और सबसे महर्द्धिक चन्द्र हैं । १९६. ( अ ) जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे तारारूवस्स तारारूवस्स एस णं केवइए अबाहा अंतरे पण्णत्ते ? गोयमा ! दुविहे अंतरे पण्णत्ते, तं जहा - बाधाइमे य निव्वाघाइमे य । तत्थ णं जे से वाघाइमे से जहन्नेणं दोण्णि या छावट्ठे जोयणसए उक्कोसेणं बारस जोयणसहस्साइं दोfor a बायाले जोयणसए तारारूवस्स तारारूवस्स य अबाहाएअंतरे पण्णत्ते । तत्थ णं जे से निव्वाघाइमे से जहन्नेणं पंचधणु-सयाइं उक्कोसणं दो गाउयाइं तारारूवस्स तारारूवस्स अंतरे पण्णत्ते । चंदस्स णं भंते! जोइसिंदस्स जोइसरन्नो कइ अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ ? Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ जीवाजीवाभिगमसूत्र गोयमा ! चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, तं जहा - चंदप्पभा दोसिणाभा अच्चिमाली पभंकरा । एत्थ णं एगमेगाए देवीए चत्तारि देविसाहस्सीओ परिवारे य । पभू णं तओ एगमेगा देवी अण्णाइं चत्तारि चत्तारि देविसहस्साइं परिवारं विउवित्तए । एवामेव सपुव्वावरेणं सोलस देविसाहस्सीओ पण्णत्ताओ से तं तुडिए । , १९६. (अ) भगवन् ! जम्बूद्वीप में एक तारा का दूसरे तारे से कितना अन्तर कहा गया है ? गौतम ! अन्तर दो प्रकार का है, यथा- व्याघातिम (कृत्रिम) और निर्व्याघातिम (स्वाभाविक ) । व्याघातिम अन्तर जघन्य दो सौ छियासठ (२६६) योजन का और उत्कृष्ट बारह हजार दो सौ बयालीस (१२२४२) योजन का कहा गया है। जो निर्व्याघातिम अन्तर है वह जघन्य पांच सौ धनुष और उत्कृष्ट दो कोस का जानना चाहिए। (निषध व नीलवंत पर्वत के कूट ऊपर से २५० योजन लम्बे-चौड़े हैं। कूट की दोनों ओर से आठ-आठ योजन को छोड़कर तारामंडल चलता है, अतः २५० में १६ जोड़ देने से २६६ योजन का अन्तर निकल आता है। उत्कृष्ट अन्तर मेरु की अपेक्षा से है । मेरु की चौड़ाई दस हजार योजन की है और दोनों ओर के ११२१ योजन प्रदेश छोड़कर तारामण्डल चलता है। इस तरह १० हजार योजन में २२४२ मिलाने से उत्कृष्ट अन्तर आ जाता है ।) भगवन् ! ज्योतिष्केन्द्र ज्योतिषराज चन्द्र की कितनी अग्रमहिषियां हैं ? गौतम ! चार अग्रमहिषियां हैं, यथा- चन्द्रप्रभा, ज्योत्स्नाभा, अर्चिमाली और प्रभंकरा । इनमें से प्रत्येक अग्रमहिषी अन्य चार हजार देवियों की विकुर्वणा कर सकती है। इस प्रकार कुल मिलाकर सोलह हजार देवियों का परिवार हो जाता है। यह चन्द्रदेव के "तुटिक" अन्तःपुर का कथन हुआ । ९४] १९६. (आ) पभू णं भंते! चंदे जोइसिंदे जोइसराया चंदवडिंसर विमाणे सभाए सुहम्माए चंदंसि सीहासंणसि तुडिएण सद्धिं दिव्वाइं भोगभोगाई भुंजमाणे विहरित्तए ? णो इणट्ठे समट्ठे । से कणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ नो पभू चंदे जोइसराया चंदवडें सए विमाणे सभाए सुम्माए चंदंसि सीहासणंसि तुडिएणं सद्धिं दिव्वाइं भोगभोगाई भुंजमाणे विहरित्तए ? गोयमा ! चंदस्स जोइसिंदस्स जोइसरण्णो चंदवडिंसए विमाणे सभाए सुहम्माए माणवगंसि चेइयखंभंसि वइरामएस गोलवट्ट समुग्गएसु बहुयाओ जिणसक हाओ सणिक्खित्ताओ चिट्ठेति जाओ णं चंदस्स जोइसिंदस्स जोइसरण्णो अन्नेसिं च बहूणं जोइसियाणं देवाण य देवीण य अच्चणिज्जाओ जाव पज्जुवासणिज्जाओ । तासि पणिहाय नो पभू चंदे जोइसराया चंदवडिंसए जाव चंदंसि सीहासणंसि जाव भुंजमाणे विहरित्तए । से एएणट्ठेणं गोयमा ! नो पभू चंदे जोइसराया चंदवडेसए विमाणे जाव भुंजमाणे विहत्तिए । से एएट्ठेणं गोयमा ! नो पभू चंदे जोइसराया चंदवडें सए विमाणे सभाए सुहम्माए चंदंसि सीहासांसि तुडिएण सद्धिं दिव्वाइं भोगभोगाई भुंजमाणे विहरित्तए । Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति: ज्योतिष्क चन्द्र-सूर्याधिकार ] [ ९५ अदुत्तरं च णं गोयमा ? पभू चंदे जोइसराया चंदवडिंसए विमाणे सभाए सुहम्मा चंदंसि सीहासांसि चउहिं सामाणियसाहस्सीहिं जाव सोलसहिं आयरक्खदेवाणं साहस्सीहिं अन्नेहिं बहूहिं जोइसिएहिं देवेहिं य सद्धिं संपरिवुडे हयणट्टगीयवाइयतंतीतलतालतुडियघण -मुइंग पडुप्पाइयरवेणं दिव्वाइं भोगभोगाई भुंजमाणे विहरित्तए, केवलं परियारतुडिएण सद्धिं भोगभोगाई बुद्धिए नो चेव णं मेहुणवत्तियं । १९६. (आ) भगवन् ! ज्योतिष्केन्द्र ज्योतिषराज चन्द्र चन्द्रावतंसक विमान में सुधर्मा सभा में चन्द्र नामक सिंहासन पर अपने अन्तःपुर के साथ दिव्य भोगोपभोग भोगने में समर्थ है क्या ? गौतम ! नहीं। वह समर्थ नहीं है । भगवन् ! ऐसा क्यों कहा जाता है कि ज्योतिषराज चन्द्र चन्द्रावतंसक विमान मे सुधर्मा सभा में चन्द्र नामक सिंहासन पर अन्तःपुर के साथ दिव्य भोगोपभोग भोगने में समर्थ नहीं है? गौतम ! ज्योतिष्केन्द्र ज्योतिषराज चन्द्र के चन्द्रावतंसक विमान में सुधर्मा सभा में माणवक चैत्यस्तंभ में वज्रमय गोल मंजूषाओं में बहुत-सी जिनदेव की अस्थियां रखी हुई हैं, जो ज्योतिष्केन्द्र ज्योतिषराज चन्द्र और अन्य बहुत-से ज्योतिषी देवों और देवियों के लिए अर्चनीय यावत् पर्युपासनीय हैं । उनके कारण ज्योतिषराज चन्द्र चन्द्रावतंसक विमान में यावत् चन्द्रसिंहासन पर यावत् भोगोपभोग भोगने में समर्थ नहीं है । इसलिए ऐसा कहा गया है कि ज्योतिषराज चन्द्र चन्द्रावतंसक विमान में सुधर्मा सभा में चन्द्र सिंहासन पर अपने अन्तःपुर के साथ दिव्य भोगोपभोग भोगने में समर्थ नहीं है । गौतम ! दूसरी बात यह है कि ज्योतिषराज चन्द्र चन्द्रावतंसक विमान में सुधर्मा सभा में चन्द्र सिंहासन पर अपने चार हजार सामानिक देवों यावत् सोलह हजार आत्मरक्षक देवों तथा अन्य बहुत से ज्योतिषी देवों और देवियों के साथ घिरा हुआ होकर जोर-जोर से बजाये गये नृत्य में, गीत में, वादित्रों के, तन्त्री के, तल के, ताल के, त्रुटित के, धन के, मृदंग के बजाये जाने से उत्पन्न शब्दों से दिव्य भोगोपभोगों को भोग सकने में समर्थ है। किन्तु अपने अन्तःपुर के साथ मैथुनबुद्धि से भोग भोगने में वह समर्थ नहीं है। १९६. (इ) सूरस्स णं भंते! जोइसिंदस्स जोइसरन्नो कइ अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ? गोयमा ! चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, तं जहा- सूरप्पभा, आयवाभा, अच्चिमाली, पभंकरा । एवं अवसेसं जहा चंदस्स णवरिं सूरवडिंसए विमाणे सूरंसि सीहासांसि तहेव सव्वेसिं गहाईणं चत्तारि अग्गमहिसीओ, तं जहा - विजया वेजयंती जयंती अपराइया तेसिं पि तहेव । १९६. (इ) भगवन् ! ज्योतिष्केन्द्र ज्योतिषराज सूर्य की कितनी अग्रमहिषियां हैं ? गौतम ! चार अग्रमहिषियां हैं, जिनके नाम हैं- सूर्यप्रभा, आतपाभा, अर्चिमाली और प्रभंकरा । शेष वक्तव्यता चन्द्र के समान कहनी चाहिए । विशेषता यह है कि यहां सूर्यावतंसक विमान में Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ जीवाजीवाभिगमसूत्र ९६] सूर्य सिंहासन पर कहना चाहिए। उसी तरह ग्रहादि की भी चार अग्रमहिषियां हैं- विजया, वेजयंती, जयंति और अपराजिता । इनके सम्बन्ध में भी पूर्ववत् कथन करना चाहिए । १९७. चंदविमाणे णं भंते ! देवाणं केवइयं कालं ठिइ पण्णत्ता? एवं जहा ठिईपए तहा भाणियव्वा जाव ताराणं । एएसि णं भंते ! चंदिमसूरियगहणक्खत्ततारारूवाणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा, वहुया वा, तुल्ला वा, विसेसाहिया वा? गोयमा ! चंदिमसूरिया एए णं दोण्णिवि तुल्ला सव्वत्थोवा । संखेज्जगुणा णक्खत्ता, संखेज्जगुणा गहा, संखेज्जगुणाओ ताराओ । जोइसुद्देसओ समत्तो । १९७. भगवन् ! चन्द्रविमान में देवों की कितनी स्थिति कही गई है ? इस प्रकार प्रज्ञापना में स्थितिपद के अनुसार तारारूप पर्यन्त स्थिति का कथन करना चाहिए । भगवन् ! इन चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और ताराओं में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक है ? गौतम ! चन्द्र और सूर्य दोनों तुल्य हैं और सबसे थोड़े हैं। उनसे संख्यातगुण नक्षत्र हैं। उनसे संख्यातगुण ग्रह हैं, उनसे संख्यातगुण तारागण हैं । ज्योतिष्क उद्देशक पूरा हुआ। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में स्थिति के सम्बन्ध में प्रज्ञापना के स्थितिपद की सूचना की गई है। वह इस प्रकार है - चन्द्र विमान में चन्द्र, सामानिक देव तथा आत्मरक्षक देवों की जघन्य स्थिति पल्योपम के चतुर्थ भाग प्रमाण और उत्कृष्ट स्थिति एक हजार वर्ष अधिक एक पल्योपम की है।. यहाँ देवियों की स्थिति जघन्य पल्योपम के चतुर्थ भाग प्रमाण और उत्कृष्ट पांच सौ वर्ष अधिक आधे पल्योपम की है। सूर्य विमान में देवों की जघन्य स्थिति १ / ४ पल्योपम और उत्कृष्ट एक हजार वर्ष अधिक एक पल्योपम की है। यहां देवियों की स्थिति जघन्य १/४ पल्योपम और उत्कृष्ट पांच सौ वर्ष अधिक आधा पल्योपम की है । ग्रहविमानगत देवों की जघन्य स्थिति १/४ पल्योपम और उत्कृष्ट एक पल्योपम की है । यहां देवियों की स्थिति जघन्य पल्योपम का चतुर्थभाग और उत्कृष्ट आधा पल्योपम है । नक्षत्रविमान में देवों की जघन्य स्थिति १/४ पल्योपम और उत्कृष्ट एक पल्योपम की है। यहां देवियों की जघन्य स्थिति १/४ पल्योपम और उत्कृष्ट कुछ अधिक १/४ पल्योपम की है । ताराविमान में देवों की जघन्य स्थिति १/८ पल्योपम की और उत्कृष्ट १/२ पल्योपम है। देवियों की स्थिति जघन्य १/८ पल्योपम और उत्कृष्ट कुछ अधिक पल्योपम का १/८ भाग प्रमाण है । ॥ ज्योतिष्क उद्देश्क समाप्त ॥ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैमानिक उद्देशक वैमानिक-वक्तव्यता १९८. कहि णं भंते! वेमाणियाणं विमाणा पण्णत्ता, कहि णं भंते! वेमाणिया देवा परिवसंति? जहा ठाणपए सव्व भाणियव्वं नवरं परिसाओ भाणियव्वाओ जाव अच्चुए, अन्नेसिं च बहूणं सोहम्मकप्पवासीणं देवाण य देवीण य जाव विहरंति। १९८. भगवन ! वैमानिक देवों के विमान कहां कहे गये हैं? भगवान् ! वैमानिक देव कहां रहते हैं? इत्यादि वर्णन जैसा प्रज्ञापनासूत्र के स्थानपद में कहा है, वैसा यहां करना चाहिए। विशेष रूप में यहां अच्युत विमान तक परिषदाओं का कथन भी करना चाहिए यावत् बहुत से सौधर्मकल्पवासी देव और देवियों का आधिपत्य करते हुए सुखपूर्वक विचरण करते हैं। . विवेचन-प्रस्तुतं सूत्र में प्रज्ञापनासूत्र के स्थानपद की सूचना की गई है। विषय की स्पष्टता के लिए उसे यहां देना आवश्यक है । वह इस प्रकार है "इस रत्नप्रभापृथ्वी के बहुसमरणीय भूभाग से ऊपर चन्द्र-सूर्य-ग्रह-नक्षत्र तथा तारारूप ज्योतिष्कों के अनेक सौ योजनं, अनेक हजार योजन, अनेक लाख योजन, अनेक करोड़ योजन और बहुत कोटाकोटि योजन ऊपर दूर जाकर सौधर्म-ईशान-सनत्कुमार-माहेन्द्र-ब्रह्मलोक-लान्तक-महाशुक्रसहस्रार-प्राणत-आरण-अच्युत-ग्रैवेयक और अनुत्तर विमानों में वैमानिक देवों के चौरासी लाख सत्तानवै हजार तेवीस विमान एवं विमानावास हैं। ये विमान सर्वरत्नमय स्फटिक के समान स्वच्छ, चिकने, कोमल, घिसे हुए, चिकने बनाये हुए, रजरहित, निर्मल, पंकरहित, निरावरण कांतिवाले, प्रभायुक्त, श्रीसम्पन्न, उद्योतसहित प्रसन्नता उत्पन्न करने वाले, दर्शनीय, रमणीय, रूपसम्पन्न और अप्रतिम सुन्दर हैं। उनमें बहुत से वैमानिक देव निवास करते हैं। वे इस प्रकार हैं-सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्मलौक, महाशुक्र, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण, अच्युत, नौ ग्रैवेयक और पांच अनुत्तरोपपातिक देव।" । ___ वे सौधर्म से अच्युत तक के देव क्रमशः १. मृग, २. महिष, ३. वराह, ४. सिंह, ५. बकरा (छगल), ६. दर्दुर ७. हय, ८. गजराज, ९. भुजंग, १०. खड्ग (गेंडा), ११. वृषभ और १२. विडिम के प्रकट चिह्न से युक्त मुकुट वाले, शिथिल और श्रेष्ठ मुकुट और किरीट के धारक, श्रेष्ठ कुण्डलों से उद्योतित मुख वाले, मुकुट के कारण शोभायुक्त, रक्त आभा युक्त, कमल-पत्र के समान गोरे, श्वेत, सुखद वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श वाले, उत्तम वैक्रिय-शरीरधारी, प्रवर वस्त्र-गन्ध-माल्य-अनुलेपन के धारक, महर्द्धिक, महाद्युतिमान, महायशस्वी, महाबली, महानुभाग, महासुखी, हार से सुशोभित वक्षस्थल वाले हैं । कड़े और बाजूबंदों से मानो भुजाओं को उन्होंने स्तब्ध कर रखी है, अगंद, कुण्डल आदि आभूषण Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८] [जीवाजीवाभिगमसूत्र उनके कपोल को सहला रहे हैं, कानों में कर्णफूल और हाथों में विचित्र करभूषण धारण किये हुए हैं। विचित्र पुष्पमालाएं मस्तक पर शोभायमान हैं । वे कल्याणकारी उत्तम वस्त्र पहने हुए हैं तथा कल्याणकारी श्रेष्ठमाला और अनुलेपन धारण किये हुए हैं। उनका शरीर देदीप्यमान होता है। वे लम्बी वनमाला धारण किये हुए होते हैं । दिव्य वर्ण से, दिव्य गंध से, दिव्य स्पर्श से, दिव्य संहनन और दिव्य संस्थान से, दिव्य ऋद्धि, दिव्य द्युति, दिव्य प्रभा, दिव्य छाया, दिव्य अर्चि दिव्य तेज और दिव्य लेश्या से दसों दिशाओं को उद्योतित एवं प्रभासित करते हुए वे वहां अपने-अपने लाखों विमानावासों का, अपनेअपने हजारों सामानिक देवों का, अपने-अपने त्रायस्त्रिंशक देवों का, अपने-अपने लोकपालों का, अपनी-अपनी सपरिवार अग्रमहिषियों का, अपनी-अपनी परिषदों का, अपनी-अपनी सेनाओं का, अपने-अपने सेनाधिपति देवों का, अपने-अपने हजारों आत्मरक्षक देवों का तथा बहुत से वैमानिक देवों और देवियों का आधिपत्य पुरोवर्तित्व (अग्रसत्व), स्वामित्व, भर्तृत्व, महत्तरकत्व, आजैश्वर्यत्व तथा सेनापतित्व करते-कराते और पालते-पलाते हुए निरन्तर होने वाले महान् नाट्य, गीत तथा कुशलवादकों द्वारा बजाये जाते हुए वीणा, तल, ताल, त्रुटित, घनमृदंग आदि वाद्यों की समुत्पन्न ध्वनि के साथ दिव्य शब्दादि कामभोगों को भोगते हुए विचरण करते हैं। जंबूद्वीप के सुमेरु पर्वत के दक्षिण के इस रत्नप्रभा पृथ्वी के बहुसमरणमीय भूभाग से ऊपर ज्योतिष्कों से अनेक कोटा-कोटी योजन ऊपर जाने पर सौधर्म नामक कल्प है । यह पूर्व-पश्चिम में लम्बा, उत्तर-दक्षिण में विस्तीर्ण, अर्धचन्द्र के आकार में संस्थित अर्चिमाला और दीप्तियों की राशि के समान कांतिवाला, असंख्यात कोटा-कोटी योजन की लम्बाई-चौड़ाई और परिधि वाला तथा सर्वरत्नमय है। इस सौधर्म विमान में बत्तीस लाख विमानावास है। इन विमानों के मध्यदेश भाग में पांच अवतंसक . कहे गये हैं -१. अशोकावतंसक, २. सप्तपर्णावतंसक, ३. चंपकावतंसक, ४. चूतावतंसंक और इन चारों के मध्य में है ५. सौधर्मावतंसक । ये अवतंसक रत्नमय हैं , स्वच्छ है यावत् प्रतिरूप हैं । इन सब बत्तीस लाख विमानों में सौधर्मकल्प के देव रहते हैं जो महर्द्धिक है यावत् दसों दिशाओं को उद्योतित करते हुए आनन्द से सुखोपभोग करते है और सामानिक आदि देवों का अधिपत्य करते हुए रहते हैं। परिषदों और स्थिति आदि का वर्णन १९९. (अ) सक्कस्स णं भंते! देविंदस्स देवरन्नो कइ परिसाओ पण्णत्ताओ? गोयमा! तओ परिसाओ पण्णत्ताओ-तं जहा, समिया चंडा जाया।अभितरिया समिया, मज्झमिया चंडा, बाहिरिया जाया। सक्कस्स णं भंते! देविंदस्स देवरन्नो अभितरियाए परिसाए कई देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ? मज्झिमियाए परिसाए. तहेव बाहिरियाए पृच्छा? गोयमा! सक्कस्स देविंदस्स देवरन्नो अभितरियाए परिसाए बारस देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ, मज्झिमियाए परिसाए चउद्दस देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ, बाहिरियाए परिसाए सोलस देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ, तहा-अभितरियाए परिसाए सत्त देवीसयाणि, Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : परिषदों और स्थिति आदि का वर्णन ] [९९ मज्झिमियाए छच्च देवीसयाणि, बाहिरियाए पंच देवीसयाणि पण्णत्ताई। सक्कस्स णं भंते! देविंदस्स देवरन्नो अभितरियाए परिसाए देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता? एवं मज्झिमियाए बाहिरियाएवि पुच्छा? गोयमा! सक्कस्स देविंदस्स देवरन्नो अभितरियाए परिसाए देवाणं पचंपलिओवमाइ ठिई पण्णत्ता, मज्झिमिया परिसाए चत्तारि पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता, बाहिरियाए परिसाए देवाणं तिण्णि पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता। देवीणं ठिइ अभितरियाए परिसाए देवीणं तिन्नि पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता, मज्झिमियाए दुन्नि पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता, बाहिरियाए परिसाए एगं पलिओवमं ठिई पण्णत्ता। अट्ठो सो चेव जहा भवणवासीणं। १९९. (अ) भगवन् ! देवेन्द्र देवराज शक्र की कितनी पर्षदाएं कही गई है? गौतम! तीन पर्षदाएं कही गई हैं - समिता, चण्डा और जाया। आभ्यंतर पर्षदा को समिता कहते हैं , मध्य पर्षदा को चण्डा और बाह्यपर्षदा को जाया कहते हैं। भगवन् ! देवेन्द्र देवराज शक्र की आभ्यंतर परिषद् में कितने हजार देव हैं , मध्य परिषद् और बाह्य परिषद् में कितने-कितने हजार देव हैं? गौतम! देवेन्द्र देवराज शक्र की आभ्यन्तर परिषद् में बारह-हजार देव, मध्यम पषिद् में चौदह हजार देव और बाह्य परिषद् में सोलह हजार देव हैं । आभ्यन्तर परिषद् में सात सौ देवियां मध्य परिषद् में छह सौ और बाह्य परिषद् में पांच सौ देवियां हैं। ____ भगवन् ! देवेन्द्र देवराज शक्र की आभ्यन्तर परिषद् के देवों की स्थिति कितनी कही गई है? इसी प्रकार मध्यम और बाह्य परिषद् के देवों की स्थिति कितनी कितनी है? गौतम! देवेन्द्र देवराज शक्र की आभ्यन्तर परिषद् के देवों की स्थिति पांच पल्योपम की है, मध्यम परिषद् के देवों की स्थिति चार पल्योपम की है और बाह्य परिषद् के देवों की स्थिति तीन पल्योपम की है । आभ्यन्तर परिषद् की देवियों की स्थिति तीन पल्योपम, मध्यम परिषद की देवियों की स्थिति दो पल्योपलम और बाह्य परिषद् की देवियों की स्थिति एक पल्योपम की है। समिता, चण्डा और जाया परिषद् का अर्थ वही है जो भवनवासी देवों के चमरेन्द्र के प्रसंग में कहा गया है। १९९ (आ) कहि णं भंते! ईसाणकाणं देवाणं विमाणा पण्णत्ता? तहेव सव्वं जाव ईसाणे एत्थ देविंदे देवराया जाव विहरइ। ईसाणस्स भंते! देविंदस्स देवरन्नो कई परिसाओ पण्णत्ताओ? गोयमा! तओ परिसाओ पण्णत्ताओ, तं जहा-समिया, चंडा, जाया। तहेव सव्वं, णवरं अभितरियाए परिसाए दस देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ, मज्झिमियाए परिसाए वारस देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ, बाहिरियाए चउद्दस देवसाहस्सीओ।देवीणं पुच्छा? अभितरियाए नव देवीसया पण्णत्ता, मज्झिमियाए परिसाए अट्ठ देवीसया पण्णत्ता, बाहिरियाए परिसाए सत्त देविसया पण्णत्ता। Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १००] [जीवाजीवाभिगमसूत्र देवाणं भंते! के वइयं कालं ठिई पण्णत्ता? अब्भितरियाए परिसाए देवाणं सत्त पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता। मज्झिमियाए छ पलिओवमाइं, बाहिरियाए परिसाए पंच पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता। देवीणं पुच्छा? अभितरियाए साइरेगाइं पंच पलिओवमाई मज्झिमियाए परिसाए चत्तारि पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता, बाहिरियाए परिसाए तिण्णि पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता। अट्ठो तहेव भाणियव्वो। १९९ (आ) भगवन् ! ईशानकल्प के देवों के विमान कहां से कहे गये हैं आदि सब कथन सौधर्मकल्प की तरह जानना चाहिए। विशेषता यह है कि वहां ईशान नामक देवेन्द्र देवराज आधिपत्य करता हुआ विचरता है। भगवन् ! देवेन्द्र देवराज की कितनी पर्षदाएं हैं? गौतम तीन पर्षदाएं कही गई हैं-समिता, चंडा और जाया। शेष कथन पूर्ववत् कहना चाहिए। विशेषता यह है कि आभ्यन्तर पर्षदा में दस हजारदेव, मध्य में बारह हजार देव और बाह्य पर्षदा में चौदह हजार देव हैं। आभ्यन्तर पर्षदा में नौ सौ, मध्य परिषदा में आठ सौ और बाह्य पर्षदा में सात सौ देवियां हैं। भगवन् ! ईशानकल्प के देवों की स्थिति कितनी कही गई है गौतम! आभ्यन्तर पर्षदा के देवों की स्थिति सात पल्योपम, मध्यम पर्षदा के देवों की स्थिति छह पल्योपम और बाह्य पर्षदा के देवों की स्थिति पांच पल्योपम की है। देवियों की स्थिति की पृच्छा? आभ्यन्तर पर्षदा की देवियों की स्थिति कुछ अधिक पांच पल्योपम, मध्यम पर्षदा की देवियों की स्थिति चार पल्योपम और बाह्य पर्षदा की देवियों की स्थिति तीन पल्योपम की है। तीन प्रकार की पर्षदाओं का अर्थ आदि कथन चमरेन्द्र की तरह कहना चाहिए? १९९.(इ) सणंकुमाराणं पुच्छा? तहेव ठाणपदगमेणं जाव सणंकुमारस्स तओ परिसाओ समियाइ तहेव। नवरं अभितरियाए परिसाए अट्ठ देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ, मज्झिमियाए परिसाए दस देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ। बहिरियाए परिसाए बारस देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ। अब्भितरियाए परिसाए देवाणं अद्धपंचमाई सागरोवमाइं पंचपलिओवमाई ठिई पण्णत्ता, मज्झिमियाए परिसाए अद्धपंचमाइं सागरोवमाइं चत्तारि पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता, बाहिरियाए परिसाए अद्धपंचमाइं सागरोवमाइं तिण्णि परिओवमाइं ठिई पण्णत्ता। अट्ठो सो चेव। __एवं माहिंदस्सवि तहेव।तओ परिसाओ, णवरं अभितरियाए परिसाए छ देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ, मज्झिमियाए परिसाए अट्ठ देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ, बाहिरियाए दस देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ। ठिई देवाणं अभितरियाए परिसाए अद्धपंचमाइं सागरोवमाई सत्त य पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता, मज्झिमियाए परिसाए अद्धपचमाइं सागरोवमाइं छच्च पलिओवमाइं, बाहिरियाए परिसाए अद्धपंचमाइं सागरोवमाइं पंच य पलिओवमाई ठिई Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : परिषदों और स्थिति आदि का वर्णन ] [ १०१ पण्णत्ता। तहेव सव्वेसिं इंदाणं ठाणपदगमेणं विमाणाणि बुच्चा परिसाओ पत्तेयं पत्तेयं वुच्चइ | १९९ (इ) सनत्कुमार देवों के विमानों के विषय में प्रश्न करने पर कहा गया है कि प्रज्ञापना के स्थान पद के अनुसार कथन करना चाहिए यावत् वहां सनत्कुमार देवेन्द्र देवराज हैं। उसकी तीन पर्षदा हैं - समिता, चंडा और जाया । आभ्यन्तर परिषदा में आठ हजार, मध्य परिषदा में दस हजार और बाह्य परिषदा में बारह हजार देव हैं। आभ्यन्तर पर्षदा के देवों की स्थिति साढ़े चार सागरोपम और पांच पल्योपम है, मध्यम पर्षदा के देवों की स्थिति साढ़े चार सागरोपम और चार पल्योपम है, बाह्य पर्षदा देवों की स्थिति साढ़े चार सागरोपम और तीन पल्योपम की है । पर्षदों का अर्थ पूर्व चमरेन्द्र के प्रसंगानुसार जानना चाहिए । ( सनत्कुमार में और आगे के देवलोक में देवियां नहीं है। अतएव देवियों का कथन नहीं किया गया है।) इसी प्रकार माहेन्द्र देवलोक के विमानो और माहेन्द्र देवराज देवेन्द्र का कथन करना चाहिए । वैसी ही तीन पर्षदा कहनी चाहिए। विशेषता यह है कि आभ्यन्तर पर्षदा में छह हजार, मध्य पर्षदा में आठ हजार और बाह्य पर्षदा में दस हजार देव हैं। आभ्यन्तर पर्षदा के देवों की स्थिति साढ़े चार सागरीपम और सात पल्योपम की है। मध्य पर्षदा देवों की स्थिति साढ़े चार सागरोपम और छह पल्योपम की है और बाह्य पर्षदा के देवों की स्थिति साढ़े चार सागरोपम और पांच पल्योपम की है । इसी प्रकार स्थानपद के अनुसार पहले सब इन्द्रों के विमानों का कथन करने के पश्चात् प्रत्येक की पर्षदाओं का कथन करना चाहिए । १९९ (ई) बंभस्सवि तओ परिसाओ पण्णत्ताओ । अभितरियाए चत्तारि देवसाहस्सीओ, मज्झमियाए छ देवसाहस्सीओ, बाहिरियाए अट्ठ देवसाहस्सीओ । देवाणं ठिई - अब्भितरियाए परिसाए अद्धणवमाई सागरोवमाई पंच य पलिओवमाई, मज्झिमियाए परिसाए अद्धनवमाइं सागरोवमाइं चत्तारि पलिओवमाइं, बाहिरियाए परिसाए अद्धनवमाई सागरोवमाइं तिणि य पलिओवमाइं । अट्ठो सो चेव । लंतगस्सवि जाव तओ परिसाओ जाव अब्भितरियाए परिसाए दो देवसाहस्सीओ, मज्झमिया चत्तारि देवसाहस्सीओ, बाहिरियाए छ देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ । ठिई भाणियव्वा । अब्भितरियाए परिसाए बारस सागरोवमाइं सत्तपलिओवमाई ठिई पण्णत्ता, मज्झमिया परिसाए बारस सागरोवमाइं छच्चपलिओवमाई ठिई पण्णत्ता, बाहिरिया परिसाए बारस सागरोवमाई पंच पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता । महासुक्कस्सवि जाव तओ परिसाओ जाव अब्भितरियाए एगं देवसहस्सं, मज्झिमियाए दो देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ, बाहिरियाए चत्तारि देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ । अब्भितरियाए परिसाए अद्धसोलस सागरोवमाई पंच य पलिओवमाइं, मज्झिमियाए अद्धसोलस सागरोवमाइं Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२] तिणि पलिओमाई पण्णत्ता । अट्ठो सो चेव । [ जीवाजीवाभिगमसूत्र सहस्सारे पुच्छा जाव अब्भितरियाए परिसाए पंच देवसया, मज्झिमिया परिसाए एगा देवसाहस्सी, बाहिरियाए परिसाए दो देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ । ठिई - अब्भितरियाए परिसाए अद्धट्ठारस सागरोवमाइं सत्त पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता, एवं मज्झिमिझाए अद्धट्ठारस सागरोवमा छ पलिओवमाइं, बाहिरियाए अट्ठारस सागरोवमाइं पंच पलिओवमाई । अट्ठो सो चेव । १९९. (ई) ब्रह्म इन्द्र की भी तीन पर्षदाएं हैं। आभ्यन्तर परिषद् में चार हजार देव, मध्य परिषद् में छह हजार देव और बाह्य परिषद् में आठ हजार देव हैं। आभ्यन्तर परिषद् के देवों की स्थिति साढे आठ सागरोपम और पांच पल्योपम है । मध्यम परिषद् के देवों की स्थिति साढे आठ सागरोपम और चार पल्योपम की है। बाह्य परिषद् के देवों की स्थिति साढ़े आठ सागरोपम और तीन पल्योपम की है । परिषदों का अर्थ पूर्वोक्त ही है । लन्तक इन्द्र की भी तीन परिषद् हैं यावत् आभ्यन्त परिषद् में दो हजार देव, मध्यम परिषद् में चार हजार देव और बाह्य परिषद् में छह हजार देव हैं। आभ्यन्तर परिषद् के देवों की स्थिति बारह सागरोपम और सात पल्योपम की है, मध्यम परिषद् के देवों की स्थिति बारह सागरोपम और छह पल्योपम की, बाह्य परिषद् के देवों की स्थिति बारह सागरोपम और पांच पल्योपम की है । महाशुक्र इन्द्र की भी तीन परिषद् हैं। आभ्यन्तर परिषद् में एक हजार देव, मध्यम परिषद् में दो हजार देव और बाह्य परिषद् में चार हजार देव हैं। आभ्यन्तर परिषद् के देवों की स्थिति साढ़े पन्द्रह सागरोपम और पांच पल्योपम की है । मध्यम परिषद् के देवों की स्थिति साढ़े पन्द्रह सागरोपम और चार पल्योपम की और बाह्य परिषद् के देवों की स्थिति साढ़े पन्द्रह सागरोपम और तीन पल्योपम की है। परिषदों का अर्थ पूर्ववत् कहना चाहिए । सहस्रार इन्द्र की आभ्यन्तर पर्षद में पांच सौ देव, मध्य पर्षद में एक हजार देव और बाह्य पर्षद में दो हजार देव हैं। आभ्यन्तर पर्षद के देवों की स्थिति साढ़े सत्रह सागरोपम और सात पल्योपम की है, मध्यम पर्षद के देवों की स्थिति सत्रह सागरोपम और छह पल्योपम की है, बाह्य पर्षद के देवों की स्थिति साढ़े सत्रह सागरोपम और पंच पल्योपम की है । १९९. (उ) आणयपाणयस्सवि पुच्छा जाव तओ परिसाओ नवरं अभितरियाए अड्डाइज्जा देवसया, मज्झिमियाए पंच देवसया, बाहिरियाए एगा देवसाहस्सी । ठिईअभितरियाए एगूणवीसं सागरोवमाई पंच य पलिओवमाइं, एवं मज्झिमियाए एगूणवीसं सागरोवमाइं चत्तारि य पलिओवमाइं, बाहिरियाए परिसाए एगूणवीसं सागरोवमाइं तिण्णि पलिओमाई ठिई । अट्ठो सो चेव । कहि णं भंते! आरण-अच्चुयाणं देवाणं अच्चुए सपरिवारे जाव विहरइ । अच्चुयस्स Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति: परिषदों और स्थिति आदि का वर्णन] [१०३ णं देविंदस्स तओ परिसाओ पण्णत्ताओ।अभितरियाए देवाणं पणवीसं सयं, मज्झिमपरिसाए अड्डाइज्जासया, बाहिरियपरिसाए पंचसया। अधिभतरियाए एक्कवीसं सागरोवमाइं सत्त य पलिओवमाइं, मज्झिमाए, एक्कवीसं सागरोवमाइं छप्पलिओवमाइं, बाहिरियाए एक्कवीसं सागरोवमाइं पंच य पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता। कहि णं भंते! हे ट्ठि मगेवेज्जगाणं देवाणं विमाणा पण्णत्ता? कहि णं भंते! हेट्ठिमगेवेज्जगा देवा परिवसंति? जहेव ठाणपदे तहेव; एवं मज्झिमगेवज्जगा उवरिमगेवेज्जगा अणुत्तरा य जाव अहमिंदा नामं ते देवा पण्णत्ता समणाउसो! १९९. (उ) आनत-प्राणत देवलोक विषयक प्रश्न के उत्तर में कहा गया है कि प्राणत देव की तीन पर्षदाएं हैं । आभ्यन्तर पर्षद में अढाई सौ देव हैं, मध्यम पर्षद में पांच सौ देव और बाह्य पर्षद में एक हजार देव हैं, आभ्यन्तर पर्षद के देवों की स्थिति उन्नीस सागरोपम और पांच पल्योपम है, मध्यम पर्षद के देवों की स्थिति उन्नीस सागरोपम और चार पल्योपम की है, बाह्य पर्षद के देवों की स्थिति उन्नीस सागरोपम और तीन पल्योपम की है । पर्षदा का अर्थ पहले की तरह करना चाहिए। भगवन् ! आरण-अच्युत देवों के विमान कहां कहे गये हैं -इत्यादि कथन करना चाहिए यावत् वहां अच्युत नाम का देवेन्द्र देवराज सपरिवार विचरण करता है। देवेन्द्र देवराज अच्युत की तीन पर्षदाएं हैं। आभ्यतर पर्षद में एक सौ पच्चीस देव, मध्य पर्षद में दो सौ पचास देव और बाह्य पर्षद में पांच सौ देव हैं । आभ्यन्तर पर्षद के देवों की स्थिति इक्कीस सागरोपम और सात पल्योपम की है, मध्य पर्षद के देवों की स्थिति इक्कीस सागरोपम और छह पल्योपम की है, बाह्य पर्षद के देवों की स्थिति इक्कीस सागरोपम और पांच पल्योपम की है। भगवन् ! अधस्तन-ग्रैवेयक देवों के विमान कहां कहे गये हैं? भगवन् ! अधस्तन-प्रैवेयक देव कहां रहते हैं? जैसा स्थानपद में कहा है वैसा ही कथन यहां करना चाहिए। इसी तरह मध्यम-ग्रैवेयक, उपरितन-ग्रैवेयक और अनुत्तर विमान के देवों का कथन करना चाहिए। यावत् हे आयुष्मन् श्रमण! ये सब अहमिन्द्र हैं -वहां कोई छोटे-बड़े का भेद नहीं है। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में वर्णित विषय को निम्न कोष्टक से समझने में सुविधा रहेगीकल्पों के नाम देवों की संख्या देवी संख्या देव स्थिति देवी सौधर्म आभ्यन्तर पर्षद १२,००० ७०० ५ पल्यो . मध्यम पर्षद १४,००० ४ पल्यो . बाह्य पर्षद १६,००० ५०० ३ पल्यो. ईशान आभ्यन्तर पर्षद १०,००० ९०० ७ पल्यो . ६०० __ २ प. . ५ प. से Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४] [जीवाजीवाभिगमसूत्र कल्पों के नाम देवों की संख्या देवी संख्या देव स्थिति देवी ८०० मध्यम पर्षद बाह्य पर्षद १२,००० १४,००० ६ पल्यो . ५ पल्यो . कुछ अधिक ४ प. ३ प. ७०० सनत्कुमार आभ्यन्तर पर्षद मध्यम पर्षद बाह्य पर्षद ८,००० १०,००० १२,००० देवियां नहीं साढ़े चार सागरो. ५ प. नहीं है देवियां नहीं साढ़े चार सागरो. ४ प. " देवियां नहीं साढ़े चार सागरो. ३ प. " ४. माहेन्द्र आभ्यन्तर पर्षद मध्यम पर्षद बाह्य पर्षद ६,००० ८,००० १०,००० देवियां नहीं साढ़े चार सागरो. ७ प. देवियां नहीं साढ़े चार सागरो. ६ प. देवियां नहीं साढ़े चार सागरो. ५ प.. ". " ४,००० ६,००० ८,००० देवियां नहीं सा.५ प. देवियां नहीं साढ़े आठ सा. ४ प. देवियां नहीं साढ़े आठ सा. ३ प. ब्रह्म आभ्यन्तर पर्षद मध्यम पर्षद बाह्य पर्षद ६. लांतक आभ्यन्तर पर्षद मध्यम पर्षद बाह्य पर्षद २,००० ४,००० ६,००० देवियां नहीं १२ सागरो. ७ प. देवियां नहीं १२ सागरो. ६ प. देवियां नहीं १२ सागरो. ५ प. ७. महाशुक आभ्यन्तर पर्षद मध्यम पर्षद बाह्य पर्षद १,००० २,००० ४,००० देवियां नहीं साढ़े १५ सा. ५ पल्यो. देवियां नहीं साढ़े १५ सा. ४ पल्यो. देवियां नहीं साढ़े १५ सा. ३ पल्यो. " ८. सहस्त्रार आभ्यन्तर पर्षद मध्यम पर्षद बाह्य पर्षद ५०० १,००० २,००० देवियां नहीं साढ़े १७ सा.७ पल्यो. देवियां नहीं साढ़े १७ सा. ६ पल्यो. देवियां नहीं साढ़े १७ सा.५ पल्यो. Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : परिषदों और स्थिति आदि का वर्णन ] कल्पों के नाम देवों की संख्या ९-१०. आनत - प्राणत आभ्यन्तर पर्षद मध्यम पर्षद बाह्य पर्षद ११-१२. आरण-अच्युत आभ्यन्तर पर्षद मध्यम पर्षद बाह्य पर्षद अधस्तन-ग्रैवेयक मध्यम-ग्रैवेयक उपरितन - ग्रैवेयक २५० ५०० १,००० १. सौधर्म देवलोक में २. ईशान देवलोक में १२५ २५० ५०० · देवी संख्या देवियां नहीं देवियां नहीं देवियां नहीं देवियां नहीं देवियां नहीं देवियां नहीं अनुत्तर -विमान विमानावासों की संग्रह-गाथाओं का अर्थ- अहमिन्द्र होने से पर्षद नहीं हैं अहमिन्द्र होने से पर्षद नहीं हैं। अहमिन्द्र होने से पर्षद नहीं हैं अहमिन्द्र होने से पर्षद नहीं हैं ३२ लाख विमानावास हैं २८ लाख विमानावास हैं १२ लाख विमानावास हैं ८ लाख विमानावास हैं ४ लाख विमानावास हैं ३. सनत्कुमार में ४. माहेन्द्र में ५. ब्रह्मलोक में ६. लान्तक में ७. महाशुक्र में १. बत्तीस अट्ठावीसा बारस अट्ठ चउरो सयसहस्सा । पन्ना चत्तालीसा छच्च सहस्सा सहस्सारे ॥ १ ॥ आणय-पाणय कप्पे चत्तारि सया आरण-अच्चुए तिण्णि । सत्त विमाणसयाइं चउसुबि एसु कप्पे ॥२ ॥ सामानिक संग्रह गाथा चउरासीइ असीइ बावत्तरी सत्तरिय सट्ठी य । पण्णा चत्तालीसा तीसा वीसा दस सहस्सा ॥ १ ॥ ५० हजार विमानावास हैं ४० हजार विमानावास हैं देव १९ सा. ५ पल्यो. १९ सा. ४ पल्यो. १९ सा. ३ पल्यो. स्थिति २१ सा. ७ पल्यो. २१ सा. ६ पल्यो. २१ सा. ५ पल्यो. देवी ::: 11 11 [ १०८ 11 Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६] [जीवाजीवाभिगमसूत्र ८. सहस्रार में ६ हजार विमानावास हैं ९-१०. आनत-प्राणत ४०० विमानावास हैं ११-१२. आरण-अच्युत ३०० विमानावास हैं नवग्रैवेयक ३१८ विमानावास हैं (प्रथमत्रिक में १११) (द्वितीयत्रिक में १०७) (तृतीयत्रिक में १००) अनुत्तरविमान विमानावास हैं। चौरासी लाख सत्तानवै हजार तेईस ८४,९७,०२३ (कुल) विमानावास हैं। प्रथम कल्प में ८४ हजार सामानिक देव हैं। दूसरे में ८०,०००, तीसरे में ७२,०००, चौथे में ७० हजार, पांचवें में ६०,०००, छठे में ५०,०००, सातवें में ४०,०००, आठवें में ३०,०००, नौवें-दसवें २०,०००, ग्यारहवें-बारहवें कल्प में १०,००० सामानिक देव हैं। ॥ प्रथम वैमानिक उद्देशक पूर्ण ॥ २००. सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु विमाणपुढवी किं पइट्ठिया पण्णत्ता? गोयमा! घणोदहिपइट्ठिया। सणंकुमारमाहिदेसु कप्पेसु विमाणपुढवी किंपइट्ठिया पण्णत्ता। गोयमा! घणवायपईट्ठिया पण्णत्ता। बंभलोए णं कप्पे विमाणपुढवी णं पुच्छा? घणवायपइट्ठिया पण्णत्ता। लंतए णं भंते पुच्छा? गोयमा तदुभयपइट्ठिया। महासुक्कसहस्सारेसुवि तदुभय पइट्ठि या। आणय जाव अच्चुएसु णं भंते! कप्पेसु पुच्छा? ओवासंतरपइट्ठि या। गेवेज्जविमाणपुढवी णं पुच्छा? गोयमा! ओवासंतरपइट्ठिया। अणुत्तरोववाइयपुच्छा? ओवासंतरपइट्ठिया। २००. भगवन् ! सौधर्म और ईशान कल्प की विमानपृथ्वी किसके आधार पर रही हुई है ? गौतम! घनोदधि के आधार पर रही हुई है। सनत्कुमार और माहेन्द्र की विमानपृथ्वी किस पर टिकी हुई है? गौतम! घनवात पर प्रतिष्ठित है। ब्रह्मलोक विमान-पृथ्वी किसके आधार पर है? गौतम! घनवात पर प्रतिष्ठित है। लान्तक विमानपृथ्वी का प्रश्न? गौतम! लान्तक विमानपृथ्वी घनोदधि और घनवात दोनों के आधार पर रही हुई है। महाशुक्र और सहस्रार विमान पृथ्वी भी घनोदधि-घनवात पर प्रतिष्ठित है। आनत यावत् अच्युत विमानपृथ्वी (९ से १२ देवलोक) किस पर आधारित है? गौतम ये चारों कल्प आकाश पर प्रतिष्ठित हैं। ग्रैवेयकविमान और अनुत्तरविमान भी आकाश-प्रतिष्ठित हैं। (संग्रहणी गाथा में कहा है-प्रथम, द्वितीय कल्प घनोदधि पर, तीसरा, चौथा, पांचवां कल्प घनवात पर, छठा-सातवां-आठवां कल्प उभय प्रतिष्ठित हैं, आगे नौवां, दसवां, ग्यारहवां, बारहवां Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : बाहल्य आदि प्रतिपादन] [१०७ कल्प और नौ ग्रेवेयक, अनुत्तर विमान आकाश प्रतिष्ठित हैं।' बाहल्य आदि प्रतिपादन २०१. (अ) सोहम्मीसाणकप्पेसु विमाणपुढवी केवइयं बाहल्लेणं पण्णत्ता? गोयमा! सत्तावीसं जोयणसयाई बाहल्लेणं पण्णत्ता। एवं पुच्छा? सणंकुमारमाहिं देसु छव्वीसं जोयणसयाई, बंभलंतए वीसं, महासुक्क-सहस्सारे सु चउ वीसं, आणय-पाणयआरणाच्चुएसु तेवीसं सयाई। गेविजविमाणपुढवी बावीसं, अणुत्तरविमणापुढवी एक्कवीसं जोयणसयाइं बाहल्लेणं। सोहम्मीसाणेसु णं भंते। कप्पेसु विमाणा के वइयं उड्ढे उच्चत्तेणं? गोयमा! पंचजोयणसयाई उड्ढं उच्चत्तेणं। सणंकुमार-माहिंदेसु छ जोयणसयाई, बंभलंतएसु सत्त, महासुक्कसहस्सारेसु अट्ठ, आणय-पाणयारणाच्चुएसुणव, गेवेन्जविमाणा णं भंते! केवइयं उड्ढे उच्चत्तेणं? गोयमा! दस जोयणसयाई। अणुत्तरविमाणा णं एक्कारस जोयणसयाई उड्ढं उच्चत्तेणं। . २०१. (अ) भगवन् ! सौधर्म और ईशान कल्प में विमानपृथ्वी कितनी मोटी है? गौतम! सत्ताईससौ योजन मोटी है। इसी प्रकार सबकी प्रश्न पृच्छा करनी चाहिए। सनत्कुमार और माहेन्द्र में विमानपृथ्वी छव्वीससौ योजन मोटी है । ब्रह्मलोक और लांतक में पच्चीससौ योजन मोटी है । महाशुक्र और सहस्रार में चौवीससौ योजन मोटी है । आणत प्राणत आरण और अच्युत कल्प में विमानपृथ्वी तेईससौ योजन मोटी है । ग्रैवेयकों में विमानपृथ्वी बाईससौ योजन मोटी है । अनुत्तर विमानों में विमानपृथ्वी इक्कीससौ योजन मोटी है। भगवन् ! सौधर्म-ईशानकल्प में विमान कितने ऊँचे हैं? गौतम! पांच सौ योजन ऊंचे हैं । सनत्कुमार और माहेन्द्र में छहसौ योजन, ब्रह्मलोक और लान्तक में सातसौयोजन, महाशुक्र और सहस्रार में आठसौ योजन, आणत प्राणत आरण और अच्युत में नौ सो योजन, ग्रैवेयकविमान में दससौ योजन और अनुत्तरविमान ग्यारहसौ योजन ऊंचे कहे गये हैं। २०१. (आ) सोहम्मीसाणेसु णं भंते! कप्पेसु विमाणा किंसंठिया पण्णत्ता? गोयमा! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-आवलिया-पविट्ठा य बाहिरा य। तत्थ णं जे ते आवलियापविट्ठा ते तिविहा पण्णत्ता, तं जहा-वट्टा, तंसा, चउरंसा। तत्थ णं जे आवलियाबाहिरा ते णं णाणासंठिया पण्णत्ता। एवं जाव गेवेन्जविमाणा। अणुत्तरोववाइयाविमाणा १. धणोदहिपइट्ठाणा सुरभवणा दोसु कप्पेसु । तिसु वायपइट्ठाणा तदुभय पइट्ठिया तिसु॥१॥ तेण परं उवरिमगा आगासंतर-पइट्ठिया सव्वे। एस पइट्ठाण विही उड्ढं लोए विमाणाणं ॥२॥ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८] [जीवाजीवाभिगमसूत्र दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-वट्टे य तंसा य। सोहम्मीसाणेसु भंते! विमाणा केवइयं आयाम-विक्खंभेणं, केवइयं परिक्खेवेणं पण्णत्ता? गोयमा! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-संखेज्जवित्थडा य असंखेज्जवित्थडा य। जहा णरगा तहा जाव अणत्तरोववाइया संखेज्जवित्थडा य असंखेज्जवित्थडा य। तत्थ णं जे से संखेन्जवित्थडे से जंबुद्दीवप्पमाणे; असंखेज्जवित्थडा असंखेज्जाइं जोयणसयाइं जाव परिक्खेवेणं पण्णत्ता। सोहम्मीसाणेसु णं भंते! विमाणा कइवण्णा पण्णत्ता? गोयमा! पंचवण्णा पण्णत्ता, तं जहा किण्हा, नीला, लोहिया, हालिद्दा, सुक्किला। सणंकुमारमाहिदेसु चउवण्णा नीला जाव सुक्किला। बंभलोगलंतएसु तिवण्णा पण्णत्ता, लोहिया जाव सुक्किला। महासुक्कसहस्सारेसु दुवण्णा हालिद्दा य सुक्किला य।आणत-पाणतारणाच्चुएसु सुक्किला, गेवेज्जविमाणा सुक्किला, अणुत्तरोववाइयविमाणा परमसुक्किला वण्णेणं पण्णत्ता। सोहम्मीसाणेसु णं भंते! कप्पेसु विमाणा के रिसया पभाए पण्णत्ता? गोयमा! णिच्चालोया, णिच्चुज्जोया सयंपभाए पण्णत्ता जाव अणुत्तरोववाइयविमाणा णिच्चालोया णिच्चुजोया सयंपभाए पण्णत्ता। सोहम्मीसाणेसु णं भंते! कप्पेसु विमाणा केरिसया गंधेणं पण्णत्ता? गोयमा! से जहाणामए कोट्ठपुडाण वा जाव गंधेण पण्णत्ता, एवं जाव एत्तो इट्ठतरगा चेव जाव अणुत्तरविमाणा। सोहम्मीसाणेसु विमाणा केरिसया फासेणं पण्णत्ता? से जहाणामए आइणेइ वा रूएइ वा सव्वो फासो भाणियव्वो जाव अणुत्तरोववाइयविमाणा। २०१. (आ) भगवन् ! सौधर्म-ईशानकल्प में विमानों का आकार कैसा कहा गया है? गौतम! वे विमान दो तरह के हैं-१. आवलिका-प्रविष्ट और २. आवलिका बाह्य । जो आवलिकाप्रविष्ट (पंक्तिबद्ध) विमान हैं, वे तीन प्रकार के हैं --१. गोल, २. त्रिकोण और ३. चतुष्कोण। जो आवलिका-बाह्य हैं वे नाना प्रकार के हैं । इसी तरह का कथन |वेयक विमानों पर्यन्त कहना चाहिए। अनुत्तरोपपातिक विमान दो प्रकार के हैं -गोल और त्रिकोण। भगवन् ! सौधर्म-ईशानकल्प में विमानों की लम्बाई-चौड़ाई कितनी है? उनकी परिधि कितनी है? गौतम! वे विमान दो तरह के हैं -संख्यात योजन विस्तार वाले और असंख्यात योजन विस्तार वाले। जैसे नरकों का कथन किया गया है वैसा ही कथन यहां करना चाहिए; यावत् अनुत्तरोपपातिक विमान दो प्रकार के हैं -संख्यात योजन विस्तार वाले और असंख्यात योजन विस्तार वाले। जो संख्यात योजन विस्तार वाले हैं वे जम्बूद्वीप प्रमाण हैं और असंख्यात योजन विस्तार वाले हैं वे असंख्यात हजार योजन विस्तार और परिधि वाले कहे गये है। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति: बाहल्य आदि प्रतिपादन ] [ १०९ भगवन् ! सौधर्म - ईशानकल्प में विमान कितने रंग के हैं ? गौतम पांचों वर्ण के विमान है, यथा कृष्ण, नील, लाल, पीले और सफेद । सनत्कुमार और माहेन्द्र कल्प में विमान चार वर्ण के हैं--नील यावत् शुक्ल । ब्रह्मलोक एवं लान्तक कल्पों में विमान तीन वर्ण के हैं -लाल यावत् शुक्ल । महाशुक्र एवं सहस्रार कल्प में विमान दो रंग के हैं - पीले और सफेद । आनत प्राणत आरण और अच्युत कल्पों में विमान सफेद वर्ण के हैं। ग्रैवेयकविमान भी सफेद हैं। अनुत्तरोपपातिकविमान परम-शुक्ल वर्ण के हैं । भगवन्! सौधर्म - ईशानकल्प में विमानों की प्रभा कैसी है? गौतम! वे विमान नित्य स्वयं की प्रभा से प्रकाशमान और नित्य उद्योत वाले हैं यावत् अनुत्तरोपपातिकविमान भी स्वयं की प्रभा से नित्यालोक और नित्योद्योत वाले कहे गये हैं । भगवन् ! सौधर्म - ईशानकल्प में विमानों की गंध कैसी कही गई है ? गौतम! जैसे कोष्ठपुढादि सुगंधित पदार्थों की गंध होती है उससे भी इष्टतर उनकी गंध है, अनुत्तरविमान पर्यन्त ऐसा ही कथन करना चाहिए । भगवन् ! सौधर्म-ईशानकल्प में विमानों का स्पर्श कैसा कहा गया है ? गौतम! जैसे अजिन चर्म, रूई आदि का मृदुल स्पर्श होता है, वैसा स्पर्श करना चाहिए, अनुत्तरोपपातिकविमान पर्यन्त ऐसा ही कहना चाहिए । २०१. (इ) सोहम्मीसाणेसु णं भंते! कप्पेसु विमाणा केमहालया पण्णत्ता ? गोयमा ! अयण्णं जंबुद्दीवे दीवे सव्वदीवे - समुद्दाणं सो चेव गमो जाव छम्मासे वीइवएज्जा जाव अत्थेगइया विमाणावासा नो वीइवएज्जा जाव अणुत्तरोववाइयविमाणा, अत्थेगइयं विमाणं वीइवएज्जा, अत्थेगइए णो वीइवएज्जा । सोहम्मीसाणेसु णं भंते! कप्पेसु विमाणा किंमया पण्णत्ता ? गोयमा ! सव्वरयणामया पण्णत्ता । तत्थ णं बहवे जीवा य पोग्गला य वक्कमंति, विउक्कमंति चयंति उवचयंति । सासया णं ते विमाणा दव्वट्ठ याए जाव फासपज्जवेहिं असासया जाव अणुत्तरोववाइयाविमाणा । सोहम्मीसाणेसु णं भंते! कप्पेसु देवा कओहिंतो उववज्जंति ? उववाओ णेयव्वो जहा वक्कंतीए तिरियमणुएसु पंचिंदिएसु सम्मुच्छिमवज्जिएसु, उववाओ वक्कंतिगमेणं जाव अणुत्तरोववाइया । सोहम्मीसाणेसु देवा एगसमए णं केवइया उववज्जंति ? गोयमा ! जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिणि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा वा असंखेज्जा वा उववज्जंति, एवं जाव सहस्सारे । आणयादिगेवेज्जा अणुत्तरा य एक्को वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसेणं संखेज्जा वा उववज्र्ज्जति । सोहम्मीसाणेसु णं भंते! कप्पेसु देवा समए समए अवहीरमाणा अवहीरमाणा केवइए कालेणं अवहिया सिया ? गोयमा ! ते णं असंखेज्जा समए समए अवहीरमाणा अवहीरमाणा Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११०] [जीवाजीवाभिगमसूत्र असंखिज्जाहिं उस्सप्पिणी-ओसप्पिणीहिं अवहीरंति नो चेव णं अवहिया सिया जाव सहस्सारे। आणतादिसु चउसु वि। गेवेज्जेसु अणुत्तरेसु य समए समए जाव केवइयं कालेणं अवहिया सिया? गोयमा! ते णं असंखेज्जा समए समए अवहीरमाणा पलिओवमस्स असंखेज्जइ भागमेत्तेणं अवहीरंति नो चेव णं अवहिया सिया। २०१. (इ) भगवन् ! सौधर्म-ईशानकल्प में विमान कितने बड़े हैं? गौतम! कोइ देव जो चुटकी बजाते ही इस एक लाख योजन के लम्बे-चौड़े और तीन लाख योजन से अधिक की परिधि वाले जम्बूद्वीप की २१ बार प्रदक्षिणा कर आवे, ऐसी शीघ्रतादि विशेषणों वाली गति से निरन्तर छह मास चलता रहे, तब वह कितनेक विमानों के पास पहुंच सकता है, उन्हें लांघ सकता है और कितनेक उन विमानों को नहीं लांघ सकता है, इतने बड़े वे विमान कहे गये हैं । इसी प्रकार का कथन अनुत्तरोपपातिक विमानों तक के लिए समझना चाहिए कि कितनेक विमानों को लांघ सकता है और कितनेक विमानों को नहीं लांघ सकता है। भगवन् ! सौधर्म-ईशानकल्प के विमान किसके बने हुए हैं? गौतम! वे सर्वरत्नमय हैं। उनमें बहुत से जीव और पुद्गल पैदा होते हैं, च्यवित होते हैं , इकट्ठे होते हैं और वृद्धि को प्राप्त करते हैं। वे विमान द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा से शाश्वत हैं और स्पर्श आदि पर्यायों की अपेक्षा अशाश्वत हैं। ऐसा ही कथन अनुत्तरोपपातिक विमानों तक समझना चाहिए। भगवन् ! सौधर्म-ईशानकल्प में देव कहां से आकर उत्पन्न होते हैं ? गौतम! सम्मूर्छिम जीवों को छोड़कर शेष पंचेन्द्रिय तिर्यंचों और मनुष्यों में से आकर जीव सौधर्म और ईशान में देवरूप से उत्पन्न होते हैं । इस प्रकार प्रज्ञापना के छठे व्युत्क्रान्तिपद में जैसा उत्पाद कहा है वैसा यहां कह लेना चाहिए। (सहस्रार देवलोक तक उक्त रीति से तथा आगे केवल मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते है ।) अनुत्तरोपपातिक विमानों तक व्युत्क्रान्तिपद के अनुसार कहना चाहिए। ___भगवन् ! सौधर्म-ईशानकल्प में एक समय में कितने देव उत्पन्न होते हैं? गौतम! जघन्य एक, दो, तीन और उत्कृष्ट संख्यात और असंख्यात जीव उत्पन्न होते हैं । यह कथन सहस्रार देवलोक तक कहना चाहिए। आनत आदि चार कल्पों में, नवग्रैवेयको में और अनुत्तरविमानों में जघन्य एक, दो, तीन यावत् उत्कृष्ट संख्यात जीव उत्पन्न होते हैं। भगवन् ! सौधर्म-ईशानकल्प के देवों में से यदि प्रत्येक समय में एक-एक का अपहार किया जायेनिकाला जाये तो कितने काल में वे खाली हो सकेंगे? गौतम! वे देव असंख्यात हैं अत: यदि एक समय में एक देव का अपहार किया जाये तो असंख्यात उत्सर्पिणियों अवसर्पिणियों तक अपहार का यह क्रम चलता रहे तो भी वे कल्प खाली नहीं हो सकते । उक्त कथन सहस्रार देवलोक तक करना चाहिए। आगे के आनतादि चार कल्पों में, ग्रैवेयकों में तथा अनुत्तर विमानों के देवों के अपहार सम्बन्धी प्रश्न के उत्तर में कहना चाहिए कि वे असंख्यात हैं अतः समय-समय में एक-एक का अपहार करने का क्रम पल्योपम के असंख्यातवें भाग तक चलता रहे तो भी उनका अपहार पूरा नहीं हो सकता। (यह अपहार कभी हुआ नहीं, होगा नहीं, केवल संख्या बताने के लिए के लिए कल्पनामात्र है।) Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : बाहल्य आदि प्रतिपादन] [१११ २०१.(ई) सोहम्मीसाणेसुणं भंते! कप्पेसु देवाणं के महालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता? गोयमा! दुविहा सरीरा पण्णत्ता, तं जहा-भवधारणिज्जा य उत्तरवेउव्विया य। तत्थ णं जे से भवधारणिज्जे से जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागो, उक्कोसेणं सत्तरयणीओ। तत्थ णं जे से उत्तरवेउव्विए से जहन्नेणं अंगुलस्स संखेज्जइ भागो, उक्कोसेणं जोयणसयसहस्सं। एवं एक्के क्का ओसारेत्ताणं जाव अणुत्तराणं एक्का रयणी। गेवेज्जणुत्तराणं एगे भवधारणिज्जे सरीरे उत्तरवेउव्विया णत्थि। सोहम्मीसाणेसु णं भंते! देवाणं सरीरगा किं संघयणी पण्णत्ता? गोयमा! छण्हं संघयणाणं असंघयणी पण्णत्ता। नेवट्ठि नेव छिरा णवि पहारू णेव संघयणमत्थि; जे पोग्गला इट्ठा कंता जाव एएसिं संघायत्ताए परिणमंति जाव अणुत्तरोववाइया। सोहम्मीसाणेसु णं भंते! देवाणं सरीरगा किंसंठिया पण्णत्ता? गोयमा! दुविहा सरीरा, भवधारणिज्जा य उत्तरवेउव्विया य। तत्थ णं जे से भवधारणिज्जा ते समचउरंससंठाणसंठिया पण्णत्ता। तत्थ णं जे से उत्तरवेउव्विया ते णाणासंठाणसंठिया पण्णत्ता जाव अच्चुओ। अवेउव्विया गेवेज्जणुत्तरा भवधार णिज्जा समचउरंससंठाणसंठिया, उत्तरवेउव्विया णत्थि। सोहम्मीसाणेसु देवा केरिसया वण्णेणं पण्णत्ता? गोयमा! कणगत्तयरत्ताभा वण्णेणं पण्णत्ता। सणंकुमारमाहिंदेसुणं पउमपम्हगोरा वण्णेणं पण्णत्ता। बंभलोए णं भंते! गोयमा! अल्लमधुगवण्णाभा।एवं जाव गेवेज्जा।अणुत्तरोववाइया परमसुक्किल्ला वण्णेणं पण्णत्ता। सोहम्मीसाणेसु णं भंते! कप्पेसु देवाणं सरीरगा केरिसया गंधेणं पण्णत्ता? गोयमा! से जहाणामए कोट्ठपुडाण वा तहे व सव्वं मणामतरगा चेव गंधेणं पण्णत्ता। जाव अणुत्तरोववाइया। सोहम्मीसाणेसु णं भंते! देवाणं सरीरगा केरिसया फासेणं पण्णत्ता? गोयमा! थिरमउयणिद्धसुकुमालछवि फासेणं पण्णत्ता, एवं जाव अणुत्तरोववाइया। ___सोहम्मीसाणदेवाणं केरिसया पोग्गला उस्सासत्ताए परिणमंति? गोयमा! जे पोग्गला इट्ठा कंता जाव एएसिं उस्सासत्ताए परिणमंति जाब अणुत्तरोववाइया; एवं आहारत्ताएवि जाव अणुत्तरोववाइया। सोहम्मीसाणदेवाणं कइ ले स्साओ? गोयमा! एगा तेउले स्सा पण्णत्ता। सणंकुमारमाहिंदेसु एगा पम्हलेस्सा एवं बंभलोएवि पम्हा, सेसेसु एक्का सुक्कलेस्सा; अणुत्तरोववाइयाणं एक्का परमसुक्कलेस्सा। ___ सोहम्मीसाणदेवा किं सम्मद्दिट्ठी, सम्मामिच्छादिट्ठी? तिण्णिवि, जाव अंतिमगेवेज्जादेवा सम्मदिट्ठीवि मिच्छादिट्ठीवि सम्मामिच्छादिट्ठीवि। अणुत्तरोववाइया सम्मदिट्ठी, नो मिच्छादिट्ठी Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२] [जीवाजीवाभिगमसूत्र नो सम्मामिच्छादिट्ठी। ___सोहम्मीसाणादेवा किं णाणी अण्णाणी? गोयमा! दोवि तिण्णि णाणा, तिण्णि अण्णाणा णियमा जाव गेवेज्जा। अणुत्तरोववाइया नाणी, णो अण्णाणी। तिण्णि णाणा तिण्णि अण्णाणा णियमा जाव गेवेज्जा। अणुत्तरोववाइया णाणी, नो अण्णाणी, तिण्णि णाणा णियमा। तिविहे जोगे, दुविहे उवओगे, सव्वेसिं जाव अणुत्तरा। २०१. (ई) भगवन् ! सौधर्म और ईशान कल्प में देवों के शरीर की अवगाहना कितनी है? गौतम! उनके दो प्रकार के शरीर होते हैं -भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय, उनमें भवधारणीय शरीर की अवगाहना जघन्य से अंगुल का असंख्यातवां भाग और उत्कृष्ट से सात हाथ है । उत्तरवैक्रिय शरीर की अपेक्षा से जघन्य अंगुल का संख्यातवां भाग और उत्कृष्ट एक लाख योजन है। इस प्रकार आगे-आगे के कल्पों के एक-एक हाथ कम करते जाना चाहिए, यावत् अनुत्तरोपपातिक देवों की एक हाथ की अवगाहना रह जाती हैं । (जैसे सनत्कुमार-माहेन्द्र कल्प में उत्कृष्ट भवधारणीय शरीर की अवगाहना छह हाथ प्रमाण, ब्रह्मलोक-लान्तक में पांच हाथ, महाशुक्र-सहस्रार में चार हाथ, आनतप्राणत-आरण-अच्युत में तीन हाथ, नवग्रैवेयक में दो हाथ और अनुत्तर-विमानों में एक हाथ प्रमाण अवगाहना है ।) ग्रैवेयकों और अनुत्तर विमानों में केवल भवधारणीय शरीर होता है । वे देव उत्तरविक्रिया नहीं करते। भगवन् ! सौधर्म-ईशानकल्प में देवों के शरीर का संहनन कौनसा है? गौतम! छह संहननों में से एक भी संहनन उनमें नहीं होता; क्योंकि उनके शरीर में न हड्डी · होती है, न शिराएं होती हैं और न नसें ही होती हैं। अत: वे असंहननी हैं। जो पुद्गल इष्ट, कान्त यावत् मनोज्ञ-मनाम होते हैं, वे उनके शरीर रूप में एकत्रित होकर तथारूप में परिणत होते हैं । यही कथन अनुत्तरोपपातिक देवों तक कहना चाहिए। भगवन् ! सौधर्म-ईशानकल्प में देवों के शरीर का संस्थान कैसा है? गौतम! उनके शरीर दो प्रकार के हैं -भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय। जो भवधारणीय शरीर है, उसका समचतुरस्रसंस्थान है और जो उत्तरवैक्रिय शरीर है, उनका संस्थान (आकार) नाना प्रकार का होता है । यह कथन अच्युत देवलोक तक कहना चाहिए। ग्रैवेयक और अनुत्तर विमानों के देव उत्तरविकुर्वणा नहीं करते। उनका भवधारणीय शरीर समचतुरस्रसंस्थान वाला है। उत्तरविक्रिया वहां नहीं भगवन् ! सौधर्म-ईशान के देवों के शरीर का वर्ण कैसा है? गौतम! तपे हुए स्वर्ण के समान लाल आभायुक्त उनका वर्ण है। सनत्कुमार और माहेन्द्र कल्प के देवों का वर्ण पद्म, कमल के पराग (केशर) के समान गौर है। ब्रह्मलोक के देव गीले महुए के वर्ण वाले (सफेद) हैं । इसी प्रकार ग्रैवेयक देवोंतक सफेद वर्ण कहना चाहिए। अनुत्तरोपपातिक देवों के शरीर का वर्ण परमशक्ल है। Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ततीय प्रतिपत्ति: बाहल्य आदि प्रतिपादन] [११३ भगवन् ! सौधर्म-ईशान कल्पों के देवों के शरीर की गंध कैसी है? गौतम! जैसे कोष्ठपुट आदि सुगंधित द्रव्यो की सुगंध होती है, उससे भी अधिक इष्ट, कान्त यावत् मनाम उनके शरीर की गंध होती है । अनुत्तरोपपातिक देवों पर्यन्त ऐसा ही कथन करना चाहिए। भगवन् ! सौधर्म-ईशान कल्पों के देवों के शरीर का स्पर्श कैसा कहा गया है? गौतम! उनके शरीर का स्पर्श स्थिर रूप से मृदु, स्निग्ध और मुलायम छवि वाला कहा गया है। इसी प्रकार अनुत्तरोपपातिकदेवों पर्यन्त कहना चाहिए। भगवन् ! सौधर्म-ईशान देवों के श्वास के रूप में कैसे पुद्गल परिणत होते हैं? गौतम! जो पुद्गल इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ और मनाम होते हैं, वे उनके श्वास के रूप में परिणत होते हैं । यही कथन अनुत्तरोपपातिकदेवों तक कहना चाहिए तथा यही बात उनके आहार रूप में परिणत होने वाले पुद्गलों के सम्बन्ध में जाननी चाहिए। यही कथन अनुत्तरोपपातिकदेवों पर्यन्त समझना चाहिए। भगवन् ! सौधर्म-ईशान देवलोक के देवों के कितनी लेश्याएं होती है? . गौतम! उनके मात्र एक तेजोलेश्या होती है । सनत्कुमार और माहेन्द्र में एक पद्मलेश्या होती है, ब्रह्मलोक में भी पद्मलेश्या होती है। शेष सब में केवल शुक्ललेश्या होती है। अनुत्तरोपपातिकदेवों में परमशुक्ल लेश्या होती है। भगवन् ! सौधर्म-ईशान कल्प के देव सम्यग्दृष्टि हैं, मिथ्यादृष्टि हैं या सम्यमिथ्यादृष्टि हैं? गौतम! तीनों प्रकार के हैं। ग्रैवेयक विमानों तक के देव सम्यग्दृष्टि-मिथ्यादृष्टि-मिश्रदृष्टि तीनों प्रकार के हैं। अनुत्तर विमानों के देव सम्यग्दृष्टि ही होते हैं, मिथ्यादृष्टि और मिश्रदृष्टि वाले नहीं होते। भगवन् ! सौधर्म-ईशान कल्प के देव ज्ञानी हैं या अज्ञानी? गौतम ! तीनों प्रकार के हैं । जो ज्ञानी हैं वे नियम से तीन ज्ञान वाले हैं और जो अज्ञानी हैं वे नियम से तीन अज्ञान वाले हैं । यह कथन |वेयकविमान तक करना चाहिए। अनुत्तरोपपातिकदेव ज्ञानी ही है-अज्ञानी नहीं। इस प्रकार ग्रैवेयक देवों तक तीन ज्ञान और तीन अज्ञान की नियमा है । अनुत्तरोपपातिकदेव ज्ञानी ही हैं-अज्ञानी नहीं। इस प्रकार ग्रैवेयकदेवों तक तीन ज्ञान और तीन अज्ञान की नियमा है । अनुत्तरोपपातिकदेव ज्ञानी ही हैं, अज्ञानी नहीं। उनमें तीन ज्ञान नियमत: होते ही हैं। इसी प्रकार उन देवों में तीन योग और दो उपयोग भी कहने चाहिए। सौधर्म-ईशान से लगाकर अनुत्तरोपपातिक पर्यन्त सब देवों में तीन योग और दो उपयोग पाये जाते हैं। १. किण्हा नीला काऊ तेउलेस्सा य भवणवंतरिया। जोइस सोहम्मीसाण तेउलेस्सा मुणेयव्वा ॥१॥ कप्पेसणंकुमारे माहिंदे चेव बंभलोए य। एएसु पम्हलेस्सा तेणं परं सुक्कलेस्सा य॥२॥ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४] .. [जीवाजीवाभिगमसूत्र अवधिक्षेत्रादि प्ररूपण २०२. सोहम्मीसाणेसु देवा ओहिणा केवइयं खेत्तं जाणंति पासंति? गोयमा! जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेन्जइभागं, उक्कोसेणं अहे जाव रयणप्पभापुढवी, उड्ढं जाव साइं विमाणाइं, तिरियं जाव असंखेज्जा दीवसमुद्दा एवं सक्कीसाणा पढमं दोच्चं च सणंकुमारमाहिंदा। तच्चं च बंभलंतक सुक्कसहस्सारगा चउत्थिं ॥१॥ आणयपाणयकप्पे देवा पासंति पंचमिं पुडवीं। तं चेव आरणच्चुय ओहिनाणेण पासंति ॥२॥ छट्टि हेट्ठिममज्झिमगेवेज्जा सत्तमिं च उवरिल्ला। संभिण्णलोगनालिं पासंति अणुत्तरा देवा ॥३॥ २०२. भगवन् ! सौधर्म-ईशान कल्प के देव अवधिज्ञान के द्वारा कितने क्षेत्र को जानते हैं -देखते गौतम! जघन्यतः अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्र को और उत्कृष्ट से नीची दिशा में रत्नप्रभापृथ्वी तक, ऊर्ध्व दिशा में अपने-अपने विमानों के ऊपरी भाग ध्वजा-पताका तक और तिरछीदिशा में असंख्यात द्वीप-समुद्रों को जानते-देखते हैं । (इस विषय को तीन गाथाओ में कहा है-) . शक्र और ईशान प्रथम रत्नप्रभा नरकपृथ्वी के चरमान्त तक, सनत्कुमार और माहेन्द्र दूसरी पृथ्वी शर्कराप्रभा के चरमान्त तक, ब्रह्म और लांतक तीसरी पृथ्वी तक, शुक्र और सहस्रार. चौथी पृथ्वी तक, आणत-प्राणत-आरण-अच्युत कल्प के देव पांचवीं पृथ्वी तक अवधिज्ञान के द्वारा जानते-देखते हैं। अधस्तनौवेयक, मध्यमग्रैवेयक देव छठी नरक पृथ्वी के चरमान्त तक देखते हैं और उपरितनग्रैवेयक देव सातवीं नरकपृथ्वी तक देखते है। अनुत्तरविमानवासी देव सम्पूर्ण चौदह रज्जू प्रमाण लोकनाली को अवधिज्ञान के द्वारा जानते-देखते हैं। विवेचन-यहां सौधर्म-ईशान कल्प के देवों का अवधिज्ञान जघन्यतः अंगुल का असंख्यातवां भाग प्रमाण क्षेत्र बताया है । यहां ऐसी शंका होती है कि अंगुल का असंख्यातवां भाग प्रमाण क्षेत्र वाला जघन्य अवधिज्ञान तो मनुष्य और तिर्यंचों में ही होता है। देवों में तो मध्यम अवधिज्ञान होता है। तो यहां सौधर्म ईशान में जघन्य अवधिज्ञान कैसे कहा गया है? इसका समाधान इस प्रकार है कि यहां जिस जघन्य अवधिज्ञान का देवों में होना बताया है, वह उन सौधर्मादि देवों के उपपातकाल में पारभविक अवधिज्ञान को लेकर बतलाया गया है। तद्भवज अवधिज्ञान को लेकर नहीं। प्रज्ञापना में उत्कृष्ट अवधिज्ञान को लेकर जो कथन किया गया है-वही यहां निर्दिष्ट है। ऊपर मूल में दी गई तीन गाथाओं १. वेमाणियाणमंगुलभागमसंखं जहन्नओ ओही। उववाए परभविओ तब्भवओ होइ तो पच्छा ॥१॥ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : अवधिक्षेत्रादि प्ररूपण ] [११५ और उनके अर्थ से वह स्पष्ट ही है। २०३. सोहम्मीसाणेसुणं भंते! देवाणं कइ समुग्घाया पण्णत्ता? गोयमा! पंच समुग्घाया पण्णत्ता, तं जहा-वेयणासमुग्घाए, कसायसमुग्घाए, मारणंतियसमुग्घाए, वेउव्वियसमुग्घाए, तेजससमुग्धाए। एवं जाव अच्चुए। गेवेन्जाणं आदिल्ला तिण्णिसमुग्घाया पण्णत्ता। सोहम्मीसाणदेवा भंते! केरिसयं खुहपिवासं पच्चणुब्भवमाणा विहरंति? गोयमा! णस्थि खुहपिवासं पच्चणुब्भवमाणा विहरंति जाव अणुत्तरोववाइया। सोहम्मीसाणेसु णं भंते! देवा एगत्तं पभू विउव्वित्तए, पुहुत्तं पभू विउव्वित्तए? हंता पभू; एगत्तं विउव्वेमाणा एगिंदियरूवं वा जाव पंचिंदियरूवं वा, पुहुत्तं विउव्वेमाणा एगिंदियरूवाणि वा जाव पंचिंदियरूवाणि वा; ताई संखेज्जाइंपि असंखेज्जाइंपि सरिसाइंपि असरिसाइंपि संबद्धाइंपि असंबद्धाइंपि रूवाइं विउव्वतिं, विउव्वित्ता अप्पणा जहिच्छियाई कज्जाइं करेंति जाव अच्चुओ। गेविजणुत्तरोववाइयादेवा किं एगत्तं पभू विउव्वित्तए, पुहुत्तं पभू विउव्वित्तए? गोयमा! एगत्तंपि पुहुत्तंपि। नो चेव णं संपत्तीए विउववंसु वा विउव्वंति वा विउविस्संति वा। सोहम्मीसाणदेवा केरिसयं सायासोक्खं पच्चणुब्भवमाणा विहरंति? गोयमा! मणुण्णा सद्दा जाव मणुण्णा फासा जाव गेविज्जा। अणुत्तरोववाइया अणुत्तरा सद्दा जाव फासा। सोहम्मीसाणेसु देवाणं केरिसया इड्ढी पण्णत्ता? गोयमा! महड्ढिया महिज्जुइया जाव महाणुभागा इड्ढीए पण्णत्ता जाव अच्चुओ। गेविज्जणुत्तरा य सव्वे महिड्ढिया जाव सव्वे महाणुभागा अणिंदा जाव अहमिंदा णामं णामं ते देवगणा पण्णत्ता समणाउसो! २०३. भगवन् ! सौधर्म-ईशानकल्पों में देवों के कितने समुद्घात कहे हैं? गौतम! पांच समुद्धात होते हैं -१. वेदनासमुद्घात, २. कषायसमुद्घात, ३. मारणान्तिकसमुद्घात, ४. वैक्रियसमुद्घात और ५. तेजससमुद्घात । इसी प्रकार अच्युतदेवलोक तक पांच समुद्घात कहने चाहिए। ग्रैवेयकदेवों के आदि के तीन समुद्घात कहे गये हैं - वेदना, कषाय और मारणान्तिक समुद्घात। . भगवन् ! सौधर्म-ईशान देवलोक के देव कैसी भूख-प्यास का अनुभव करते हुए विचरते हैं? गौतम! यह शंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि उन देवों को भूख-प्यास की वेदना होती ही नहीं है। अनुत्तरोपपातिकदेवों पर्यन्त इसी प्रकार का कथन करना चाहिए। भगवन् ! सौधर्म-ईशानकल्पों के देव एकरूप की विकुर्वणा करने में समर्थ हैं या बहुत सारे रूपों की विकुर्वणा करने में समर्थ है? गौतम ! दोनों प्रकार की विकुर्वणा करने में समर्थ है। एक की विकुर्वणा करते हुए वे एकेन्द्रिय का रूप यावत् पंचेन्द्रिय का रूप बना सकते हैं और बहुरूप की Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६] [जीवाजीवाभिगमसूत्र विकुर्वणा करते हुए वे बहुतसारे एकेन्द्रिय रूपों की यावत् पंचेन्द्रिय रूपों की विकुर्वणा कर सकते हैं। वे संख्यात अथवा असंख्यात सरीखे या भिन्न-भिन्न और संबद्ध (आत्मप्रदेशों से समवेत) असंबद्ध (आत्मप्रदेशों से भिन्न) नाना रूप बनाकर इच्छानुसार कार्य करते हैं । ऐसा कथन अच्युतदेवों पर्यन्त कहना चाहिए। भगवन् ! ग्रैवेयकदेव और अनुत्तर विमानों के देव एक रूप बनाने में समर्थ हैं या बहुत सारे रूप बनाने में समर्थ हैं? गौतम! वे एक रूप भी बना सकते हैं और बहुत सारे रूप भी बना सकते हैं। लेकिन उन्होंने ऐसी विकुर्वणा न तो पहले कभी की है, न वर्तमान में करते हैं और न भविष्य में कभी करेंगे। (क्योंकि वे उत्तरविक्रिया करने की शक्ति से सम्पन्न होने पर भी प्रयोजन के अभाव तथा प्रकृति की उपशान्तता से विक्रिया नहीं करते ।) भगवन् ! सौधर्म-ईशानकल्प के देव किस प्रकार का साता-सौख्य अनुभव करते हुए विचरते हैं? गौतम! मनोज्ञ शब्द यावत् मनोज्ञ स्पर्शों द्वारा सुख का अनुभव करते हुए विचरते हैं । यह कथन ग्रैवेयकदेवों तक समझना चाहिए। अनुत्तरोपपातिकदेव अनुत्तर (सर्वश्रेष्ठ) शब्दजन्य यावत् अनुत्तर स्पर्शजन्य सुखों का अनुभव करते हैं। भगवन् ! सौधर्म-ईशान देवों की ऋद्धि कैसी है? गौतम! वे महान् ऋद्धिवाले, महाद्युतिवाले यावत् महाप्रभावशाली ऋद्धि से युक्त हैं। अच्युतविमान पर्यन्त ऐसा कहना चाहिए। ग्रैवेयकविमानों और अनुत्तरविमानों में सब देव महान् ऋद्धि वाले यावत् महाप्रभावशाली हैं । वहां कोई इन्द्र नहीं है । सब "अहमिन्द्र" हैं, वहां छोटे-बड़े का भेद नहीं है । हे आयुष्मान्, श्रमण ! वे देव अहमिन्द्र कहलाते हैं। २०४. सोहम्मीसाणा देवा केरिसया विभूसाए पण्णत्ता? गोयमा! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-वेउव्वियसरीरा य, अवेउव्विय-सरीरा य। तत्थ णं जे से वेउव्वियसरीरा ते हारविराइयवच्छा जाव दस दिसाओ उज्जोवेमाणा पभासेमाणा जाव पडिरूवा। तत्थ णं जे से अवेउव्वियसरीरा ते णं आभरणवसणरहिआ पगइत्था विभूसाए पण्णत्ता। सोहम्मीसाणेसु णं भंते! कप्पेसु देवीओ केरिसयाओ विभूसाए पण्णत्ताओ? गोयमा! दुविहाओ पण्णत्ताओ तं जहा-वेउव्वियसरीराओ य अवेउव्वियसरीराओ य। तत्थं णं जाओ वेउव्वियसरीराओ ताओ सुवण्णसद्दालाओ सुवण्णसद्दालाई वत्थाई पवर परिहियाओ चंदाणणाओ चंदविलासिणोओ चंदद्धसमणिडालाओ सिंगारागारचारुवेसाओ संगय जाव पासाइओ जाव पडिरूवाओ। तत्थ णं जाओ अवेउव्वियसरीराओ ताओ णं आभरणवसणरहियाओ पगइत्थाओ विभूसाए पण्णत्ताओ। सेसेसु देवीओ णत्थि जाव अच्चुओ। Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : अवधिक्षेत्रादि प्ररूपण ] [ ११७ गेवेज्जगदेवा केरिया विभूसाए पण्णत्ता ? गोयमा ! आभरणवसणरहिया एवं देवी णत्थि भणियव्वं । पगइत्था विभूसाए पण्णत्ता एवं अणुत्तरावि । सोहम्मीसाणेसु देवा केरिसए कामभोगे पच्चणुब्भवमाणा विहरंति ? गोयमा ! इट्ठा सद्दा इट्ठा रूवा जाव फासा । एवं जाव गेवेज्जा । अणुत्तरोववाइयाणं अणुत्तरा सद्दा जाव अणुत्तरा फासा । ठिई सव्वेसिं भाणियव्वा । अणंतरं चयंति, चइत्ता जे जहिं गच्छंति तं भाणियव्वं । २०४. भगवन् ! सौधर्म-ईशान कल्प के देव विभूषा की दृष्टि से कैसे हैं ? गौतम वे देव दो प्रकार के हैं - वैक्रियशरीर वाले और अवैक्रियशरीर वाले । उनमें जो वैक्रियशरीर (उत्तरवैक्रिय) वाले हैं वे हारों से सुशोभित वक्षस्थल वाले यावत् दसों दिशाओं को उद्योतित करने वाले, प्रभासित करने वाले यावत् प्रतिरूप हैं। जो अवैक्रियशरीर ( भवधारणीय शरीर) वाले हैं वे आभरण और वस्त्रों से रहित हैं और स्वाभाविक विभूषण से सम्पन्न हैं । 1 भगवन् ! सौधर्म - ईशान कल्पों में देवियां विभूषा की दृष्टि से कैसी हैं ? गौतम ! वे दो प्रकार की है - उत्तरवैक्रियशरीर वाली और अवैक्रियशरीर ( भवधारणीयशरीर) वाली। इनमें जो उत्तरवैक्रियशरीर वाली वे स्वर्ण के नूपुरादि आभूषणों की ध्वनि से युक्त हैं तथा स्वर्ण की बजती किंकिणियों वाले वस्त्रों को तथा उद्भट वेश को पहनी हुई है, चन्द्र के समान उनका मुखमण्डल है, चन्द्र के समान विलास वाली है, अर्धचन्द्र के समान भाल वाली है, वे श्रृंगार की साक्षात् मूर्ति हैं और सुन्दर परिधान वाली हैं, वे सुन्दर यावत् दर्शनीय, प्रसन्नता पैदा करने वाली और सौन्दर्य की प्रतीक हैं । उनमें जो अविकुर्वित शरीर वाली हैं वे आभूषणों और वस्त्रों से रहित स्वाभाविक सहज सौन्दर्य वाली हैं । सौधर्म - ईशान को छोड़कर शेष कल्पों में देव ही हैं, वहां देवियां नहीं हैं । अतः अच्युतकल्प पर्यन्त देवों की विभूषा का वर्णन उक्त रीति के अनुसार ही करना चाहिए। ग्रैवेयकदेवों की विभूषा कैसी है? इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया है कि गौतम! वे देव आभरण और वस्त्रों की विभूषा से रहित हैं, स्वाभाविक विभूषा से सम्पन्न हैं । वहां देवियां नहीं हैं। इसी प्रकार अनुत्तरविमान के देवों की विभूषा का कथन भी कर लेना चाहिए । T भगवन्! सौधर्म - ईशान कल्प में देव कैसे कामभोगों का अनुभव करते हुए विचरते हैं ? गौतम ! इष्ट शब्द, इष्ट रूप यावत् इष्ट स्पर्श जन्य सुखों का अनुभव करते हैं। ग्रैवेयकदेवों तक उक्त रीति से कहना चाहिए। अनुत्तरविमान के देव अनुत्तर शब्द यावत् अनुत्तर स्पर्श जन्य सुख का अनुभव करते हैं । सब वैमानिक देवों की स्थिति कहनी चाहिए तथा देवभव से च्यवकर कहां उत्पन्न होते हैं - यह उद्वर्तनाद्वार कहना चाहिए । विवेचन - उक्त सूत्र में स्थिति और उद्वर्तना का निर्देशमात्र किया गया है। अतएव संक्षेप में उसकी स्पष्टता करना यहां आवश्यक है । स्थिति इस प्रकार है Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८] क्र.सं. १. २. ३. ४. ५. ६. ७. ८. ९. १०. ११. १२. कल्पादि के नाम सौधर्मकल्प ईशानकल्प सनत्कुमारकल्प माहेन्द्रकल्प ब्रह्मलोककल्प लान्तककल्प महाशुक्रकल्प सहस्रारकल्प आनतकल्प प्राणतकल्प आरणकल्प अच्युतकल्प देवों के नाम जघन्यस्थिति १ पल्योपम १ पल्यो. से कुछ अधिक २ सागरोपम २. सागरोपम से अधिक ७ सागरोपम १० सागरोपम १४ सागरोपम १७ सागरोपम १८ सागरोपम १९ सागरोपम २० सागरोपम २१ सागरोपम जघन्यस्थिति २२ सागरोपम २३ सागरोपम २४ सागरोपम [ जीवाजीवाभिगमसूत्र २५ सागरोपम २६ सागरोपम २७ सागरोपम २८ सागरोपम २९ सागरोपम ३० सागरोपम ३१ सागरोपम ३१ सागरोपम ३१ सागरोपम ३१ सागरोपम अजघन्योत्कर्ष उत्कृष्टस्थिति २ सागरोपम २ सागरोपम से कुछ अधिक ७ सागरोपम ७ सागरोपम से अधिक १० सागरोपम १४ सागरोपम १७ सागरोपम १८ सागरोपम १९ सागरोपम २० सागरोपम २१ सागरोपम २२ सागरोपम उत्कृष्टस्थिति २३ सागरोपम २४ सागरोपम २५ सागरोपम २६ सागरोपम २७ सागरोपम २८ सागरोपम २९ सागरोपम प्रथम ग्रैवेयक द्वितीय ग्रैवेयक तृतीय ग्रैवेयक चतुर्थ ग्रैवेयक पंचम ग्रैवेयक षष्ठ ग्रैवेयक सप्तम ग्रैवेयक अष्टम ग्रैवेयक नवम ग्रैवेयक विजय अनुत्तर विमान वेजयंत अनुत्तर विमान जयंत अनुत्तर विमान अपराजित अनुत्तर विमान सर्वार्थसिद्ध अनुत्तर विमान उद्वर्तनाद्वार - सौधर्म देवलोक के देव बादर पर्याप्त पृथ्वीकाय अप्काय और वनस्पतिकाय में, ३० सागरोपम ३१ सागरोपम ३२ सागरोपम ३२ सागरोपम ३२ सागरोपम ३२ सागरोपम ३३ सागरोपम Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : अवधिक्षेत्रादि प्ररूपण] . [११९ संख्यात वर्ष की आयु वाले पर्याप्त गर्भज तिर्यंच पंचेन्द्रिय और गर्भज मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं। ईशानदेव भी इन्हीं में उत्पन्न होते हैं । सनत्कुमार से लेकर सहस्रार पर्यन्त के देव संख्यात वर्ष की आयु वाले पर्याप्त गर्भज तिर्यंच और मनुष्यों में ही उत्पन्न होते हैं, ये एकेन्द्रियों में उत्पन्न नहीं होते । आनत से लगाकर अनुत्तरोपपातिक देव तिर्यंच पंचेन्द्रियों में भी उत्पन्न नहीं होते, केवल संख्यात वर्ष की आयु वाले गर्भज मनुष्यों में ही उत्पन्न होते हैं। २०५. सोहम्मीसाणेसु भंते! कप्पेसु सव्वपाणा सव्वभूया जाव सत्ता पुढविकाइयत्ताए' देवत्ताए देवित्ताए आसणसयण जाव भंडोवगरणत्ताए उववण्णपुव्वा? हंता, गोयमा! असई अदुवा अणंतखुत्तो। सेसेसु कप्पेसु एवं चेव नवरं नो चेव णं देवित्ताए जाव गेवेज्जगा। अणुत्तरोववाइएसुवि एवं णो चेव णं देवत्ताए देवित्ताए। सेत्तं देवा। २०५. भगवन् ! सौधर्म-ईशानकल्पों में सब प्राणी, सब भूत, सब जीव और सब सत्व पृथिवीकाय के रूप में, देव के रूप में, देवी के रूप में, आसन-शयन यावत् भण्डोपकरण के रूप में पूर्व में उत्पन्न हो चुके हैं क्या? हाँ, गौतम! अनेक बार अथवा अनन्तबार उत्पन्न हो चुके हैं। शेष कल्पों में ऐसा ही कहना चाहिए, किन्तु देवी के रूप में उत्पन्न होना नहीं चाहिए (क्योंकि सौधर्म-ईशान से आगे के विमानों में देवियां नहीं होती)। ग्रैवेयक विमानों तक ऐसा कहना चाहिए। अनुत्तरोपपातिक विमानों में पूर्ववत् कहना चाहिये, किन्तु देव और देवीरूप में नहीं कहना चाहिए। यहां देवों का कथन पूर्ण हुआ। विवेचन-यहां प्रश्न किया गया है कि सौधर्म देवलोक के बत्तीस लाख विमानों में से प्रत्येक में क्या सब प्राणी, भूत, जीव और सत्व पृथ्वीरूप में, देव, देवी और भंडोपकरण के रूप में पहले उत्पन्न हो चुके हैं? (द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय को प्राण में सम्मिलित किया है, वनस्पति को भूत में, पंचेन्द्रियों को जीव में और शेष पृथ्वी-अप-तेज-वायु को सत्व में शामिल किया गया है। उत्तर में कहा गया है-अनेकबार अथवा अनन्तबार उत्पन्न हो चुके हैं। सांव्यवहारिक राशि के अन्तर्गत जीव प्रायः सर्वस्थानों में अनन्तबार उत्पन्न हुए हैं। यहां पर अनेक प्रतियों में "पुढविकाइयत्ताए जाव वणस्सइकाइयत्ताए" पाठ उपलब्ध होता है । परन्तु वृत्तिकार के अनुसार यह संगत नहीं है । क्योंकि वहां तेजस्काय का अभाव है। वृत्तिकार के अनुसार "पृथ्वीकाइयतया देवतया देवीतया" इतना ही उल्लेख संगत है। आसन, शयन यावत् भण्डोपकरण आदि पृथ्वीकायिक जीव में सम्मिलित हैं। १. जाव वणस्सइकाइयत्ताए' पाठ कई प्रतियों में है, परन्तु वृत्तिकार ने उसे उचित नहीं माना है। क्योंकि वहां तेजस्काय संभव ही नहीं है। २. प्राणा द्वित्रिचतुः प्रोक्ताः भूताश्च तरवः स्मृताः। जीवाः पंचेन्द्रिया ज्ञेयाः शेषाः सत्वा उदीरिता। -वृत्ति Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२०] [जीवाजीवाभिगमसूत्र सौधर्म-ईशानकल्प तक ही देविया हैं , अतएव आगे के विमानों में देवीरूप से उत्पन्न होना नहीं कहना चाहिए। ग्रैवेयक विमानों तक तो देवीरूप में उत्पन्न होने का निषेध किया गया है । अनुत्तरविमानों में देवीरूप और देवरूप दोनों का निषेध है । देवियां तो वहां होती ही नहीं। देवों का निषेध इसलिए किया गया है कि विजयादि चार विमानों में तो उत्कर्ष से दो बार, सर्वार्थसिद्ध विमान में केवल एक ही बार जीव जा सकता है अनन्तबार नहीं। अनन्तबार न जाने की दृष्टि से ही निषेध समझना चाहिए। यहां देवों का वर्णन समाप्त होता है। सामान्यतया भवस्थिति आदि का वर्णन २०६. नेरइयाणं भंते! केवइयं कालं ठिती पण्णत्ता? गोयमा! जहन्नेणं दसवाससहस्साई उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई, एवं सव्वेसिं पुच्छा। तिरिक्खजोणियाणं जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाइं एवं मणुस्साणवि। देवाणं जहा रइयाणं।। देव-णेरइयाणं जा चेव ठिती सा चेव संचिट्ठणा।तिरिक्खजोणियस्स जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं वणस्सइकालो। मणुस्से णं भंते! मणुस्सेति कालओ केवच्चिरं होइ? गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं तिन्नि पलिओवमाइं पुव्वकोडि पुहुत्तमब्भहियाई। णेरइयमणुस्सदेवाणं अंतरं जहन्नेणं अंतोमुहु त्तं उक्कोसेणं वणस्सइकालो। तिरिक्खजोणियस्स अंतरं जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं सागरोपमसयपुहुत्तसाइरेगं। . __एएसिंणं भंते! णेरइयाणं जाव देवाणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा मणुस्सा, णेरइया असंखेज्जगुणा, देवा असंखेज्जगुणा, तिरिया अणंतगुणा। सेत्तं चउव्विहा संसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता। २०६. भगवन् ! नैरयिकों की स्थिति कितनी है? गौतम! जघन्य दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की है। इस प्रकार सबके लिए प्रश्न कर लेना चाहिए। तिर्यंचयोनिक की जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की है। मनुष्यों की भी यही है। देवों की स्थिति नैरयिकों के समान जाननी चाहिए। देव और नारक की जो स्थिति है, वही उनकी संचिट्ठणा है अर्थात् कार्यस्थिति है। (उसी-उसी भव में उत्पन्न होने के काल को कायस्थिति कहते हैं)। तिर्यंच की कायस्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है। भंते ! मनुष्य, मनुष्य के रूप में कितने काल तक रह सकता है? गौतम! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम तक रह सकता है। नैरयिक, मनुष्य और देवों का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है। तिर्यंचयोनियों Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : सामान्यतया भवस्थिति आदि का वर्णन] [१२१ का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट कुछ अधिक दो सौ से नौ सो सागरोपम का होता है। भगवन् ! इन नैरयिकों यावत् देवों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक है? गौतम! सबसे थोड़े मनुष्य हैं, उनसे नैरयिक असंख्यगुण हैं, उनसे देव असंख्यगुण हैं और उनसे तिर्यंच अनन्तगुण हैं। इस प्रकार चार प्रकार के संसारसमापन्नक जीवों का वर्णन पूरा होता है। विवेचन-देवों के वर्णन के पश्चात् नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देवों की समुच्चय रूप से स्थिति, संचिट्ठना (कायस्थिति), अन्तर और अल्पबहुत्व का कथन प्रस्तुत सूत्र में किया गया है । नारकों की जघन्यस्थिति दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की है। जघन्यस्थिति रत्नप्रभा नरक के प्रथम प्रस्तर की अपेक्षा से और उत्कृष्टस्थिति सप्तम नरकपृथ्वी की अपेक्षा से समझनी चाहिए। __ तिर्यग्योनिकों की जघन्यस्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की है। यह देवकुरु आदि से अपेक्षा से है । मनुष्यों की भी जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की स्थिति है। देवों की जघन्य दस हजार वर्ष-भवनपति और व्यन्तर देवों की अपेक्षा से और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम विजयादि विमान की अपेक्षा से कही गई है। यह भवस्थिति बताई है। - संचिट्ठणा का अर्थ कायस्थिति है। अर्थात् कोई जीव उसी-उसी भव में जितने काल तक रह सकता है । नारकों और देवों की भवस्थिति ही उनकी कायस्थिति है। क्योंकि यह नियम है कि देव नन्तर भव में देव नहीं होता है. नारक भी मरकर अनन्तर भव में नारक नहीं होता। इसलिए कहा गया है कि देवों और नारकों की जो भवस्थिति है, वही उनकी संचिट्ठणा (कायस्थिति) है। तिर्यग्योनिकों की संचिट्ठणा जघन्य अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि तदनन्तर मरकर वे मनुष्यादि में उत्पन्न हो सकते हैं। उत्कृष्ट से उनकी संचिट्ठणा अनन्तकाल है, क्योंकि वनस्पति में अनन्तकाल तक जन्ममरण हो सकता है। अनन्तकाल का अर्थ यहां वनस्पतिकाल से है । वनस्पतिकाल का प्रमाण इस प्रकार है-काल से अनन्त उत्सर्पिणियां-अवर्पिणियां प्रमाण, क्षेत्र से अनन्त लोक और असंख्यात पुद्गलवपरावर्त प्रमाण। ये पुद्गलपरावर्त आवलिका के असंख्यातवें भाग में जितने समय हैं, उतने समझने चाहिए। __ मनुष्य की संचिट्ठणा जघन्य से अन्तर्मुहूर्त । तदनन्तर मरकर तिर्यग् आदि में उत्पन्न हो सकता है । उत्कृष्ट संचिट्ठणा पृथक्त्वं अधिक तीन पल्योपम है। महाविदेह आदि में सात मनुष्यभव (पूर्वकोटि आयु के) और आठवां भव देवकुरु आदि में उत्पन्न होने की अपेक्षा से समझना चाहिए। अन्तरद्वार-कोई जीव एक भव से मरकर फिर जितने काल के बाद उसी भव में आता है-वह अन्तर कहलाता है। नैरयिक का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है। नरक से निकलकर अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त तिर्यंच या मनुष्य भव में रहकर पुनः नारक बनने की अपेक्षा से है । कोई १. "नो नेरइएसु उववज्जइ", "नो देव देवेसु उववज्जइ" इति वचनात् । Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२] [जीवाजीवाभिगमसूत्र जीव नरक से निकलकर गर्भज मनुष्य के रूप में उत्पन्न हुआ, सह पर्याप्तियों से पूर्ण हुआ और विशिष्ट संज्ञान से युक्त होकर वैक्रियलब्धिमान होता हुआ राज्यादि का अभिलाषी, परचक्री का उपद्रव जानकर अपनी शक्ति के प्रभाव से चतुरंगिणी सेना विकुर्वित कर संग्राम करता हुआ महारौद्रध्यान ध्याता हुआ गर्भ में ही मरकर नरक में उत्पन्न होता है-इस अपेक्षा से मनुष्यभव में पैदा होकर जघन्य अन्तर्मुहूर्त में वह नारक जीव नरक में उत्पन्न होता है। नरक से निकलकर तन्दुलमत्स्य के रूप में उत्पन्न होकर महारौद्रध्यान वाला बनकर अन्तर्मुहूर्त जीकर फिर नरक में पैदा होता है-इस अपेक्षा से तिर्यक्भव करके पुनः नारक उत्पन्न होने का जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त समझना चाहिए। उत्कृष्ट अन्तर वनस्पति में अनन्तकाल जन्म-मरण के पश्चात् नरक में उत्पन्न होने पर घटित होता है। तिर्यग्योनिकों का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। कोई तिर्यच मरकर मनुष्यभव में अन्तर्मुहूर्त रहकर फिर तिर्यंच रूप में उत्पन्न हुआ, इस अपेक्षा से है । उत्कृष्ट अन्तर सागरोपमशतपृथक्त्व से कुछ अधिक है। दो सौ सागरोपम से नौ सौ सागरोपम तक निरन्तर देव, नारक और मनुष्य भव में भ्रमण करते रहने पर घटित होता है। मनुष्य का जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर वनस्पतिकाल है। मनुष्यभव से निकलकर अन्तर्मुहूर्त काल तक तिर्यग्भव में रहकर फिर मनुष्य बनने पर जघन्य अन्तर घटित होता है। उत्कृष्ट अन्तर वनस्पतिकाल स्पष्ट ही है। देवों का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । कोई जीव देवभव से च्यवकर गर्भज मनुष्य के रूप में पैदा हुआ, सब पर्याप्तियों से पूर्ण हुआ। विशिष्ट संज्ञान वाला हुआ। तथाविध श्रवण या श्रमणोपासक के पास धार्मिक आर्यवचनों को सुनकर धर्मध्यान ध्याता हुआ गर्भ में ही मरकर देवों में उत्पन्न हुआ, इस अपेक्षा से जघन्य अन्तर्मुहूर्त काल घटित होता है । उत्कृष्ट अन्तर वनस्पतिकाल का है, जो वनस्पतिकाल में अनन्तकाल तक जन्म-मरण करते रहने के बाद देव बनने पर घटित होता है। अल्पबहुत्वद्वार-अल्पबहुत्व विवक्षा में सबसे थोड़े मनुष्य हैं। क्योंकि वे श्रेणी के असंख्येयभागवर्ती आकाशप्रदेशों की राशिप्रमाण हैं। उनसे नैरयिक असंख्येयगुण हैं, क्योंकि वे अंगुलमात्र क्षेत्र की प्रदेशराशि के प्रथम वर्गमूल को द्वितीय वर्गमूल से गुणित करने पर जितनी प्रदेश राशि होती है उतने प्रमाण वाली श्रेणियों में जितने आकाशप्रदेश होते हैं, उतने प्रमाण में नैरयिक है। नैरयिको से देव असंख्येयगुण हैं, क्योंकि महादण्डक में व्यन्तर और ज्योतिष्क देव नारकियों से असंख्यातगुण कहे गये हैं । देवों से तिर्यंच अनन्तगुण है, क्योंकि वनस्पति के जीव अनन्तानन्त कहे गये हैं। इस प्रकार चार प्रकार के संसारसमापन्नक जीवों की प्रतिपत्ति का कथन सम्पूर्ण हुआ। ॥ तृतीय प्रतिपत्ति समाप्त ॥ ★★★★★★ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चविधाख्या चतुर्थ प्रतिपत्ति २०७. तत्थ जंजे ते एवमाहंसु - पंचविहा संसारसमावण्णगा जीवा, ते एवमाहंसु, तं जहा - एगिंदिया, बेदिया, तेइंदिया, चउरिंदिया, पंचिंदिया | से किं तं एगिंदिया? एगिंदिया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-पज्जत्तगा य अपज्जत्तगा य । एवं जाव पंचिंदिया दुविहा- पज्जत्तगा य अपज्जत्तगा य । एगिंदियस्स णं भंते! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्साइं । बेइंदियस्स० जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं बारस संवच्छराणि। एवं तेइंदियस्स एगूणपण्णं राइंदियाणं, चउरिंदियस्स छम्मासा, पंचिंदियस्स जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई । अपज्जत्तएगिंदियस्स णं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणवि अंतोमुहुत्तं । एवं सव्वेसिं । पज्जत्तेगिंदियाणं णं जाव पंचिंदियाणं पुच्छा? जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्साइं अंतोमुहुत्तूणाई । एवं उक्कोसियावि ठिई अंतोमुहुत्तूणा सव्वेसिं पज्जत्ताणं कायव्वा । २०७. जो आचार्यादि ऐसा प्रतिपादन करते हैं कि संसारसमापन्नक जीव पांच प्रकार के हैं, उनके भेद इस प्रकार कहते हैं यथा - एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय । भगवन् ! एकेन्द्रिय जीवों के कितने प्रकार हैं? गौतम! एकेन्द्रिय जीव दो प्रकार के है - पर्याप्त एकेन्द्रिय और अपर्याप्त एकेन्द्रिय । इस प्रकार पंचेन्द्रिय पर्यन्त सबके दो-दो भेद कहने चाहिये - पर्याप्त और अपर्याप्त । भगवन् ! एकेन्द्रिय जीवों की कितने काल की स्थिति कही गई है। गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट बावीस हजार वर्ष की । द्वीन्द्रिय की जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट बारह वर्ष की, त्रीन्द्रिय की ४९ उनचास रात-दिन की, चतुरिन्द्रिय की छह मास की और पंचेन्द्रिय की जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की स्थिति है । भगवन् ! अपर्याप्त एकेन्द्रिय की कितनी स्थिति है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त की स्थिति है। इसी प्रकार सब अपर्याप्तों की स्थिति कहनी चाहिए । Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४] [जीवाजीवाभिगमसूत्र भगवन् ! पर्याप्त एकेन्द्रिय यावत् पर्याप्त पंचेन्द्रिय जीवों की कितनी स्थिति है? गौतम! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम बावीस हजार वर्ष की स्थिति है। इसी प्रकार सब पर्याप्तों की उत्कृष्ट स्थिति उनकी कुलस्थिति से अन्तर्मुहूर्त कम कहनी चाहिए। ___ २०८. एगिदिए णं भंते! एगिदिएत्ति कालओ केवच्चिरं होइ? गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं वणस्सइकालो। बेइंदिए णं भंते! बेइंदिएत्ति कालओ केवच्चिरं होइ? गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं संखेज्जं कालं जाव चउरिदिए संखेज्जं कालं। पंचिंदिए णं भंते! पंचिंदिएत्ति कालओ केवच्चिरं होइ? गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं सागरोवमसहस्सं सातिरेगं। एगिदिए णं अपज्जत्तए णं भंते! कालओ केवच्चिरं होइ? गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणवि अंतोमुहुत्तं जाव पंचिंदियअपज्जत्तए। पज्जत्तगएगिदिए णं भंते! कालओ केवच्चिरं होइ? गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं संखिज्जाइं वाससहस्साई। एवं बेइंदिएवि, णवरिं संखेज्जाइं वासाइं। तेइंदिए णं भंते० संखेज्जा राइंदिया। चउरिदिए णं० संखेज्जा मासा। पज्जत्तपंचिंदिए सागरोवमसयपुहुत्तं सातिरेगं। एगिदियस्स णं भंते! केवइयं कालं अंतरं होई? गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्त उक्कोसेणं दो सागरोवमसहस्साइं संखेन्जवासमब्भहियाई। ____बेइंदियस्स णं अंतरं कालओ केवच्चिरं होइ? गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं वणस्सइकालो।एवं तेइंदियस्स चउरिदियस्स पंचेंदियस्स।अपज्जत्तगाणं एवं चेव।पज्जत्तगाण वि एवं चेव। ___ २०८. भगवन् ! एकेन्द्रिय, एकेन्द्रियरूप में कितने काल तक रहता है? गौतम! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल पर्यन्त रहता है। . भगवन् ! द्वीन्द्रिय, द्वीन्द्रियरूप में कितने काल तक रहता है। गौतम! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट संख्यातकाल तक रहता है। यावत् चतुरिन्द्रिय भी संख्यात काल तक रहता है। भगवन् ! पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रियरूप में कितने काल तक रहता है? गौतम! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट कुछ अधिक हजार सागरोपम तक रहता है। भगवन् ! अपर्याप्त एकेन्द्रिय उसी रूप में कितने समय तक रहता है? गौतम! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से भी अन्तर्मुहूर्त तक रहता है। इसी प्रकार अपर्याप्त पंचेन्द्रिय तक कहना चाहिए। भगवन् ! पर्याप्त एकेन्द्रिय उसी रूप में कितने समय तक रहता है? गौतम! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट संख्यात हजार वर्ष तक रहता है। इसी प्रकार द्वीन्द्रिय का कथन करना चाहिए, विशेषता यह है कि यहां संख्यात वर्ष कहना चाहिए। Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चविधाख्या चतुर्थ प्रतिपत्ति ] [ १२५ भगवन् ! त्रीन्द्रिय की पृच्छा ? संख्यात रात-दिन तक रहता है । चतुरिन्द्रय संख्यात मास तक रहता है पर्याप्त पंचेन्द्रिय साधिकसागरोपमशतपृथक्त्व तक रहता है । भगवन् ! एकेन्द्रिय का अन्तर कितना कहा गया है? गौतम! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट दो हजार सागरोपम और संख्यात वर्ष अधिक का अन्तर है । भगवन! द्वीन्द्रिय का अन्तर कितना है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है। इसी प्रकार त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय का तथा अपर्याप्तक और पर्याप्तक का भी अन्तर इसी प्रकार कहना चाहिए । विवेचन-भवस्थिति संबंधी सूत्र तो स्पष्ट ही है । कायस्थिति तथा अन्तरद्वार की स्पष्टता इस प्रकार है केन्द्रिय की कायस्थिति जघन्य अन्तर्मुहुर्त है, तदनन्तर मरकर द्वीन्द्रियादि में उत्पन्न हो सकते हैं । उत्कृष्ट अनन्तकाल अर्थात् वनस्पतिकाल है । वनस्पति एकेन्द्रिय होने से एकेन्द्रियपद में उसका भी ग्रहण है । द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय सूत्रों में उत्कृष्ट कार्यस्थिति संख्येयकाल अर्थात् संख्येय हजार वर्ष है, क्योंकि ‘“विगलिंदियाणं वाससहस्सासंखेज्जा" ऐसा कहा गया है. पंचेन्द्रिय सूत्र में उत्कृष्ट कायस्थिति हजार सागरोपम से कुछ अधिक है - इतने काल तक नैरयिक, तिर्यक्, मनुष्य और देव भव में पंचेन्द्रिय रूप से बना रह सकता है। 1 एकेन्द्रियादि अपर्याप्तक सूत्रों में जघन्य और उत्कृष्ट कायस्थिति अन्तर्मुहूर्त प्रमाण ही है, क्योंकि अपर्याप्तलब्धि का कालप्रमाण इतना ही है । एकेन्द्रिय-पर्याप्त सूत्र उत्कृष्ट कार्यस्थिति संख्येय हजार वर्ष है। एकेन्द्रियों में पृथ्वीकाय की उत्कृष्ट भवस्थिति बावीस हजार वर्ष है, अप्काय की सात हजार वर्ष, तेजस्काय की तीन अहोरात्र, वायुकाय की तीन हजार वर्ष, वनस्पतिकाय की दस हजार वर्ष की भवस्थिति है, अतः निरन्तर कतिपय पर्याप्त भवों को जोड़ने पर संख्येय हजार वर्ष ही घटित होते हैं । द्वीन्द्रिय पर्याप्त में उत्कृष्ट संख्येय वर्ष की कायस्थिति है। क्योंकि द्वीन्द्रिय की उत्कृष्ट भवस्थिति बारह वर्ष की है । सब भवों में उत्कृष्ट स्थिति तो होती नहीं, अतः कतिपय निरन्तर पर्याप्त भवों के जोड़ने से संख्येय वर्ष ही प्राप्त होते हैं, सौ वर्ष या हजार वर्ष नहीं । त्रीन्द्रिय-पर्याप्त सूत्र में संख्येय अहोरात्र की कायस्थिति है, क्योंकि उनकी भवस्थिति उत्कृष्ट उनपचास दिन की है । कतिपय निरन्तर पर्याप्त भवों की संकलना करने से संख्येय अहोरात्र ही प्राप्त होते हैं । चतुरिन्द्रिय- पर्याप्त सूत्र में संख्येय मास की उत्कृष्ट कार्यस्थिति है, क्योंकि उनकी भवस्थिति उत्कर्ष से छह मास है । अतः कतिपय निरन्तर पर्याप्त भवों की संकलना से संख्येय मास ही प्राप्त होते हैं। पंचेन्द्रिय-पर्याप्त सूत्र में सातिरेक सागरोपम शतपृथक्त्व की कायस्थिति है । नैरयिक-तिर्यंच-मनुष्य-देवभवों में पंचेन्द्रिय-पर्याप्त के रूप में इतने कालतक रह सकता है। अन्तरद्वार - एकेन्द्रियों का अन्तरकाल जघन्य अन्तर्मुहूर्त है; एकेन्द्रिय से निकलकर द्वीन्द्रियादि में अन्तर्मुहूर्त काल रहकर पुनः एकेन्द्रिय में उत्पन्न होने की अपेक्षा से है । उत्कृष्ट अन्तर संख्येयवर्ष अधिक दो हजार सागरोपम है । जितनी त्रसकाय की कायस्थिति है, उतना ही एकेन्द्रिय का अन्तर है । Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६] [जीवाजीवाभिगमसूत्र त्रसकाय की कायस्थिति संख्येय वर्ष अधिक दो हजार सागरोपम की कही गई है। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय सूत्र में जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट सर्वत्र वनस्पतिकाल है। जो द्वीन्द्रिय से निकल कर अनन्तकाल तक वनस्पति में रहने के बाद फिर द्वीन्द्रियादि में उत्पन्न होने की अपेक्षा से समझना चाहिए। जिस प्रकार अन्तर विषयक पांच औघिक सूत्र कहे हैं उसी प्रकार पर्याप्त विषय में, अपर्याप्त विषय में भी कह लेने चाहिए। अल्पबहुत्व द्वार २०९. एएसि णं भंते! एगिंदियाणं बेइंदियाणं तेइंदियाणं चउरिदियाणं पंचिंदियाणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा पंचिंदिया, चउरिदिया विसेसाहिया, तेइंदिया विसेसाहिया, बेइंदिया विसेसाहिया, एगिंदिया अणंतगुणा। एवं अपज्जत्तगाणं सव्वत्थोवा पंचिंदिया अपज्जत्तगा, चउरिंदिया अपज्जत्तगा विसेसाहिया, तेइंदिया अपज्जत्तगा विसेसाहिया, बेइंदिया अपज्जत्तगा विसेसाहिया, एगिंदिया अपज्जत्तगा अणंतगुणा, सइंदिया अपज्जत्तगा विसेसाहिया।सव्वत्थोवा चउरिदिया पज्जत्तगा, पंचिंदिया पज्जत्तगा विसेसाहिया, बेइंदिया पज्जत्तगा विसेसाहिया, तेइंदिया पज्जत्तगा विसेसाहिया, एगिंदिया पज्जत्तगा अणंतगुणा, सइंदिया पज्जत्तगा विसेसाहिया। एतेसि णं भंते! सइंदियाणं पज्जत्तग-अपज्जत्तगाणं कयरे कयरेहित्तो अप्पा वाo? गोयमा! सव्वत्थोवा सइंदिया अपज्जत्तगा, सइंदियपज्जत्तगा संखेज्जगुणा। एवं एगिंदियावि। एएसि णं भंते! बेइंदियाणं पज्जत्तापज्जत्तगाणं अप्पाबहुं? गोयमा! सव्वत्थोवा बेइंदियपज्जत्तगा अपज्जत्तगा असंखेज्जगुणा। एवं तेइंदिया चउरिंदिया पंचिंदिया वि। ____एतेसि णं भंते! एगिदियाणं, बेइंदियाणं, तेइंदियाणं चउरिंदियाणं पंचिंदियाण य पर जत्तगाण य अपज्जत्तगाण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा०? गोयमा! सव्वत्थोवा चउरिंदिया पज्जत्तगा, पंचिंदिया पज्जत्तगा विसेसाहिया, बेइंदिया पज्जत्तगा विसेसाहिया, तेइंदिया पज्जत्तगा विसेसाहिया, पंचिंदिया अपज्जत्तगा अंसखेज्जगुणा, चउरिंदिया अपज्जत्ता विसेसाहिया, तेइंदिया अपज्जत्तगा विसेसाहिया, बेइंदिया अपज्जत्तगा विसेसाहिया, एगिंदिया अपज्जत्तगा अणंतगुणा, सइंदिया अपज्जत्तगा विसेसाहिया, एगिंदिया पज्जत्ता संखेज्जगुणा, सइंदियपज्जत्ता विसेसाहिया, सइंदिया विसेसाहिया।सेत्तं पंचविहा संसारसमावण्णगजीवा॥ १."तसकाइए णं भंते! तसकाएत्ति कालओ केवच्चिरं होई? गोयमा! जहन्नेणं अंतोमहत्तं उक्कोसेणं दो सागरोवमसहस्साई संखेज्जवासमब्भहियाइं।" Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चविधाख्या चतुर्थ प्रतिपत्ति] [१२७ २०९. भगवन् इन एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रियों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं? गौतम! सबसे थोड़े पंचेन्द्रिय हैं, उनसे चतुरिन्द्रिय विशेषाधिक हैं, उनसे त्रीन्द्रिय विशेषाधिक हैं, उनसे द्वीन्द्रिय विशेषाधिक हैं और उनसे एकेन्द्रिय अनन्तगुण हैं। ___ इसी प्रकार अपर्याप्तक एकेन्द्रियादि में सबसे थोड़े पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, उनसे चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त विशेषाधिक, उनसे त्रीन्द्रिय अपर्याप्त विशेषाधिक, उनसे द्वीन्द्रिय अपर्याप्त विशेषाधिक और उनसे एकेन्द्रिय अपर्याप्त अनन्तगुण हैं। उनसे सेन्द्रिय अपर्याप्त विशेषाधिक है। ___ इसी प्रकार पर्याप्तक एकेन्द्रियादि में सबसे थोड़े चतुरिन्द्रिय पर्याप्तक, उनसे पंचेन्द्रिय पर्याप्तक विशेषाधिक, उनसे द्वीन्द्रिय पर्याप्तक विशेषाधिक, उनसे त्रीन्द्रिय पर्याप्तक विशेषाधिक, उनसे एकेन्द्रिय पर्याप्तक है। उनसे सेन्द्रिय पर्याप्तक विशेषाधिक है। भगवन् ! इन सेन्द्रिय पर्याप्त-अपर्याप्त में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक है? गौतम! सबसे थोड़े सेन्द्रिय अपर्याप्त, उनसे सेन्द्रिय पर्याप्त संख्येयगुण हैं। ___ इसी प्रकार एकेन्द्रिय पर्याप्त-अपर्याप्त का अल्पबहुत्व जानना चाहिए। ___भगवन् ! इन द्वीन्द्रिय पर्याप्त-अपर्याप्त में कौन किससे अल्प यावत् विशेषाधिक है? गौतम! सबसे थोड़े द्वीन्द्रिय पर्याप्त , उनसे द्वीन्द्रिय अपर्याप्त असंख्येगुण हैं । इसी प्रकार त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रियों का अल्पबहुत्व जानना चाहिए। भगवन्! इन एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त और अपर्याप्तों में कौन किससे अल्प, बहु, तुल्य या विशेषाधिक है? ___ गौतम! सबसे थोड़े चतुरिन्द्रिय पर्याप्त, उनसे पंचेन्द्रिय पर्याप्त विशेषाधिक, उनसे द्वीन्द्रिय पर्याप्त विशेषाधिंक, उनसे त्रीन्द्रिय पर्याप्त विशेषाधिक, उनसे पंचेन्द्रिय अपर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त विशेषाधिक, उनसे त्रीन्द्रिय अपर्याप्त विशेषाधिक, उनसे द्वीन्द्रिय अपर्याप्त विशेषाधिक, उनसे एकेन्द्रिय अपर्याप्त अनन्तगुण, उनसे सेन्द्रिय अपर्याप्त विशेषाधिक, उनसे एकेन्द्रिय पर्याप्त संख्येयगुण, उनसे सेन्द्रिय पर्याप्त विशेषाधिक, उनसे सेन्द्रिय विशेषाधिक। इस प्रकार पांच प्रकार के संसारसमापन्नक जीवों का वर्णन पूरा हुआ। विवेचन-(१) पहले एकेन्द्रिय यावत् पंचेन्द्रियों का सामान्य रूप से अल्पबहुत्व बताते हुए कहा गया है-सबसे थोड़े पंचेन्द्रिय हैं, क्योंकि ये पंचेन्द्रियजीव संख्यात योजन कोटी-कोटी प्रमाण विष्कंभसूची से प्रमित प्रतर के असंख्यातवें भाग में रही हुई असंख्य श्रेणियों के आकाश-प्रदेशों के बराबर हैं। उनसे चतुरिन्द्रिय जीव विशेषाधिक है, क्योंकि ये प्रभूत संख्येययोजन कोटीकोटिप्रमाण विष्कंभसूची के प्रतर के असंख्यातवें भाग में रही हुई श्रेणियों के आकाश-प्रदेशराशि के बराबर हैं। उनसे त्रीन्द्रिय विशेषाधिक हैं, क्योंकि ये प्रभूततर संख्येय कोटीकोटीप्रमाण विष्कंभसूची के प्रतर के असंख्येयभागगत श्रेणियों की आकाशराशिप्रमाण हैं । उनसे द्वीन्द्रिय विशेषाधिक हैं, क्योंकि ये प्रभूततम संख्येय कोटीकोटीप्रमाण Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८] [जीवाजीवाभिगमसूत्र विष्कम्भसूची के प्रत्तरासंख्येयभागगत श्रेणियों के आकाश-प्रदेश-राशि के बराबर हैं। उनसे एकेन्द्रिय अनन्तगुण हैं, क्योंकि वनस्पतिकाय अनन्तानन्त हैं। (२) अपर्याप्तों का अल्पबहुत्व-सबसे थोड़े पंचेन्द्रिय अपर्याप्त हैं, क्योंकि ये एक प्रतर में अंगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण जितने खण्ड होते हैं, उतने प्रमाण में है। उनसे चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त विशेषाधिक हैं, क्योंकि ये प्रभूत अगुंलासंख्येय-भागखण्डप्रमाण हैं । उनसे त्रीन्द्रिय अपर्याप्त विशेषाधिक हैं, क्योंकि ये प्रभूततर प्रतरांगुलासंख्येयभागखण्डप्रमाण हैं। उनसे द्वीन्द्रिय अपर्याप्त विशेषाधिक हैं, क्योंकि ये प्रभूततम प्रतरांगुलासंख्येयभागखण्ड प्रमाण हैं। उनसे एकेन्द्रिय अपर्याप्त अनन्तगुण हैं, क्योंकि वनस्पतिकाय में अपर्याप्त जीव सदा अनन्तानन्त प्राप्त होते हैं। (३) पर्याप्तों का अल्पबहुत्व-सबसे थोड़े चतुरिन्द्रिय पर्याप्त हैं। क्योंकि चतुरिन्द्रिय जीव अल्पायु वाले होने से प्रभूतकाल तक नहीं रहते हैं, अतः पृच्छा के समय वे थोड़े हैं । थोड़े होते हुए भी वे प्रतर में अंगुलासंख्येयभागखण्डप्रमाण हैं। उनसे द्वीन्द्रिय पर्याप्त विशेषाधिक हैं, क्योंकि ये प्रभूततर अंगुलासंख्येयभागखण्डप्रमाण हैं। उनसे त्रीन्द्रिय विशेषाधिक हैं, क्योंकि स्वभाव से ही वे प्रभूततर अंगुलासंख्येयभागखण्डप्रमाण हैं। उनके एकेन्द्रिय पर्याप्त अनन्तगुण है। क्योंकि वनस्पतिकाय में पर्याप्त जीव अनन्त हैं। (४) पर्याप्तापर्याप्तों का समुदित अल्पबहुत्व-सबसे थोड़े एकेन्द्रिय अपर्याप्त, पर्याप्त उनसे संख्येयगुण। एकेन्द्रियों में सूक्ष्मजीव बहुत हैं क्योंकि वे सर्वलोकव्यापी हैं । सूक्ष्मों में अपर्याप्त थोड़े हैं और पर्याप्त संख्येयगुण हैं। द्वीन्द्रिय सूत्र में सबसे थोड़े द्वीन्द्रिय पर्याप्त, क्योंकि वे प्रतर में अंगुल के संख्यातवें भागप्रमाणखण्डों के बराबर हैं। उनसे अपर्याप्त असंख्येगुण हैं, क्योंकि ये प्रतरगत अंगुलसंख्येयभागखण्ड प्रमाण हैं। इसी प्रकार त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रियों में पर्याप्त-अपर्याप्त को लेकर अल्पबहुत्व समझना चाहिए। (५) एकेन्द्रियादि पांचों के पर्याप्त-अपर्याप्त का समुदित अल्पबहुत्व-यह पूर्वोक्त तृतीय और द्वितीय अल्पबहुत्व की भावनानुसार ही समझ लेना चाहिए। मूलपाठ के अर्थ में यह क्रमशः स्पष्टरूप से निर्दिष्ट कर दिया है। इस प्रकार पांच प्रकार के संसारसमापन्नक जीवों का प्रतिपादन करने वाली चतुर्थ प्रतिपत्ति पूर्ण होती है। Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षड्विधाख्या पंचम प्रतिपत्ति २१०. तत्थ णं जेते एवमाहंसु छव्विहा संसारसमावण्णगा जीवा, ते एवमाहंसु, तं जहा-पुढविकाइया, आउक्काइया, तेउक्काइया, वाउकाइया वणस्सइकाइया, तसकाइया। ___ से किं तं पुढविकाइया? पुढविकाइया दुविहा पण्णत्ता तं जहा-सुहुमपुढविकाइया, बायर-पुढविकाइया। सुहुमपुढविकाइया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-पज्जत्तगा य अपज्जत्तगा य।एवं बायर-पुढविकाइयावि।एवं चउक्कएणं भेएणं आउतेउवाउवणस्सइकाइयाणं चउक्का णेयव्वा। से किं तं तसकाइया? तसकाइया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-पज्जत्तगा य अपज्जत्तगा य। ___ २१०. जो आचार्य ऐसा प्रतिपादन करते हैं कि संसारसमापन्नक जीव छह प्रकार के हैं, उनका कथन इस प्रकार है-१. पृथ्वीकायिक, २. अप्कायिक, ३. तेजस्कायिक, ४. वायुकायिक, ५. वनस्पतिकायिक और ६. त्रसकायिक। - भगवन् ! पृथ्वीकायिकों का क्या स्वरूप है? गौतम! पृथ्वीकायिक दो प्रकार के हैं-सूक्ष्मपृथ्वीकायिक और बादरपृथ्वीकायिक। सूक्ष्मपृथ्वीकायिक दो प्रकार के हैं -पर्याप्तक और अपर्याप्तक। इसी प्रकार बादरपृथ्वीकायिक के भी दो भेद (प्रकार) हैं -पर्याप्तक और अपर्याप्तक। इसी प्रकार अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय और वनस्पतिकाय के चार-चार भेद कहने चाहिए। भगवन् ! त्रसकायिक का स्वरूप क्या है? गौतम! त्रसकायिक दो प्रकार के हैं-पर्याप्तक और अपर्याप्तक। __ २११. पुढविकाइयस्स णं भंते! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता? गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्साइं। एवं सव्वेसिं ठिई णेयव्वा। तसकाइयस्स जहन्नहेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं।अपज्जत्तगाणं सव्वेसिं जहन्नेणं वि उक्कोसेणवि अंतोमुहुत्तं । पज्जत्तगाणं सव्वेसिं उक्कोसिया ठिई अंतोमुहुत्तऊणा कायव्वा। २११. भगवन् ! पृथ्वीकायिक की कितने काल की स्थिति कही गई है? गौतम! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट बावीस हजार वर्ष। इसी प्रकार सबकी स्थिति कहनी चाहिए। त्रसकायिकों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की है। सब अपर्याप्तकों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है । सब पर्याप्तकों की उत्कृष्ट स्थिति कुल स्थिति में से अन्तर्मुहूर्त कम करके कहनी चाहिए। Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३०] [जीवाजीवाभिगमसूत्र २१२. पुढविकाए णं भंते! पुढविकाइएत्ति कालओ केवच्चिरं होइ? गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं असंखेज कालं जाव असंखेज्जा लोया। एवं जाव आउ-तेउवाउक्काइयाणं, वणस्सइकाइयाणं अणंतं कालं जाव आवलियाए असंखेज्जइभागो। तसकाइए णं भंते! तसकाइएत्ति कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं दो सागरोवमसहस्साइं संखेज्जवासमब्भहियाइं। अपज्जत्तगाणं छण्हवि जहण्णेणवि उक्कोसेणवि अंतोमुहुत्तं । पज्जत्तगाणं वाससहस्सा संखा पुढविदगाणिलतरुणपज्जत्ता। तेऊ राइंदिसंखा तस सागरसयपुत्ताइं॥१॥ (पन्जत्तगाणवि सव्वेसिं एवं) पुढविकाइयस्स णं भंते! केवइयं कालं अंतरं होइ? गोयमा जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं वणप्फइकाले। एवं आउ-तेउ-वाउकाइयाणं वणस्सइकालो। तसकाइयाणवि। वणस्सइकाइयस्स पुढविकाइयकालो। एवं अपज्जत्तगाणवि वणस्सइकालो, वणस्सईणं पुढविकालो। पज्जत्तगाणवि एवं चेव वणस्सइकालो, पज्जत्तवणस्सईणं पुढविकालो। २१२. भगवन् ! पृथ्वीकाय, पृथ्वीकाय के रूप में कितने काल तक रह सकता है? गौतम! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट असंख्येय काल यावत् असंख्येय लोकप्रमाण आकाशखण्डों का निर्लेपनाकाल। - इसी प्रकार यावत् अप्काय, तेजस्काय और वायुकाय की संचिट्ठणा जाननी चाहिए। वनस्पतिकाय की संचिट्ठणा अनन्तकाल है यावत् आवलिका के असंख्यातवें भाग में जितने समय हैं, उतने पुद्गलपरावर्तकाल तक। त्रसकाय की कायस्थिति (संचिट्ठणा) जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट संख्यातवर्ष अधिक दो हजार सागरोपम है। छहों अपर्याप्तों की कायस्थिति जघन्य भी अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त है। पर्याप्तों में पृथ्वीकाय की उत्कृष्ट कायस्थिति संख्यात हजार वर्ष है। यही अप्काय, वायुकाय और वनस्पतिकाय पर्याप्तों की है। तेजस्काय पर्याप्तक की कायस्थिति संख्यात रातदिन की है, त्रसकाय पर्याप्त की कायस्थिति साधिक सागरोपमशतपृथक्त्व है। भगवन् ! पृथ्वीकाय का अन्तर कितना है? गौतम! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से वनस्पतिकाल है। इसी प्रकार अप्काय, तेजस्काय और वायुकाय का अन्तर वनस्पतिकाल है। त्रसकायिकों का अन्तर भी वनस्पतिकाल है। वनस्पतिकाय का अन्तर पृथ्वीकायिक कालप्रमाण (असंख्येय काल) है। इसी प्रकार अपर्याप्तकों का अन्तरकाल वनस्पतिकाल है । अपर्याप्त वनस्पति का अन्तर पृथ्वीकाल है। पर्याप्तकों का अन्तर वनस्पतिकाल है। पर्याप्त वनस्पति का अन्तर पृथ्वीकाल है। Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षड्विधाख्या पंचम प्रतिपत्ति ] [ १३१ विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में पृथ्वीकायिक यावत् त्रसकाय की कायस्थिति (संचिट्ठणा) और अन्तर का निरूपण किया गया है । संचिट्ठणा या कायस्थिति का अर्थ है कि वह जीव उस रूप में लगातार जितने समय तक रह सकता है और अन्तर का अर्थ है कि वह जीव उस रूप से निकल कर फिर जितने समय के बाद फिर उस रूप में आता है । प्रस्तुत सूत्र में इन दो द्वारों का निरूपण है । प्रश्न और उत्तर के रूप में जो कायस्थिति और अन्तर बताया है, वह पाठसिद्ध ही है । केवल उसमें आये हुए असंख्येयकाल और अनन्तकाल का स्पष्टीकरण आवश्यक है । असंख्येयकाल -- असंख्येयकाल का निरूपण दो प्रकार से किया गया है-काल और क्षेत्र से । असंख्यात उत्सर्पिणी और असंख्यात अवसर्पिणी प्रमाण काल को असंख्येयकाल कहते हैं । असंख्यात लोक-प्रमाण आकाशखण्डों में से प्रतिसमय एक-एक प्रदेश का अपहार करने पर जितने समय में वे आकाशखण्ड निर्लेपित (खाली) हो जाएं, उस समय को क्षेत्रापेक्षया असंख्येयकाल कहते हैं । अनन्तकाल -- यह निरूपण भी काल और क्षेत्र से किया गया है । अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी प्रमाण काल अनन्तकाल है । यह कालमार्गणा की दृष्टि से है । क्षेत्रमार्गणा की दृष्टि से अनन्तानन्त लोकालोकाकाशखण्डों में से प्रतिसमय एक-एक प्रदेश का अपहार करने पर जितने काल में वे निर्लेप हो जायें, उस काल को अनन्तकाल समझना चाहिए। इसी अनन्तकाल को पुद्गलपरावर्त द्वारा कहा जाये तो असंख्येय पुद्गलपरावर्तरूप काल अनन्तकाल है । इन पुद्गलपरावर्तों की संख्या उतनी है, जितनी आवलिका के असंख्येय भाग में समयों की संख्या है । प्रस्तुत पाठ में अन्तरद्वार में बताये हुए वनस्पतिकाल से तात्पर्य है अनन्तकाल और पृथ्वीकाय से तात्पर्य है - असंख्यकाल । अल्पबहुत्वद्वार २१३. अप्पाबहुयं-सव्वत्थोवा तसकाइया, तेउक्काइया असंख्येज्जगुणा, पुढविकाइया । विसेसाहिया, आउकाइया विसेसाहिया, वाउक्काइया विसेसाहिया, वणस्सइकाइया अनंतगुणा । एवं अपज्जत्तगावि पज्जत्तगावि । एएसि णं भंते! पुढविकाइयाणं पज्जत्तगाण अपज्जतगाण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा एवं जाव विसेसाहिया ? गोयमा ! सव्वत्थोवा पुढविकाइया अपज्जत्तगा, पुढविकाइया पज्जत्तगा संखेज्जगुणा । एएसि णं आउकाइयाणं? सव्वत्थोवा आउक्काइया अपज्जत्तगा, पज्जत्तगा संखेज्जगुणा जाव वणस्सइकाइयावि । सव्वत्थोवा तसकाइया पज्जत्तगा, तसकाइया अपज्जत्तगा असंखेज्जगुणा । एएसि णं भंते! पुढविकाइयाणं जाव तसकाइयाणं पज्जत्तग- अपज्जत्तगाण य करे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? सव्वत्थोवा तसकाइया पज्जत्तगा, Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२] [जीवाजीवाभिगमसूत्र तसकाइया अपज्जत्तगा असंखेज्जगुणा, तेउकाइया अपजत्ता असंखेज्जगुणा, पुढविक्काइया आउक्काइया वाउकाइया अपज्जत्तगा विसेसाहिया, तेउक्काइया पज्जत्तगा संखेज्जगुणा, पुढवि-आउ-वाउ-पज्जत्तगा विसेसाहिया, वणस्सइकाइया अपज्जत्तगा अणंतगुणा, सकाइया अपज्जत्तगा विसेसाहिया वणस्सइकाइया पज्जत्तगा संखेज्जगुणा, सकाइया पज्जत्तगा विसेसाहिया। २१३. अल्पबहुत्व--सबसे थोड़े त्रसकायिक, उनसे तेजस्कायिक असंख्येयगुण, उनसे पृथ्वीकायिक विशेषाधिक, उनसे अप्कायिक विशेषाधिक, उनसे वायुकायिक विशेषाधिक, उनसे वनस्पतिकायिक अनन्तगुण। अपर्याप्त पृथ्वीकायादि का अल्पबहुत्व भी उक्त प्रकार से हैं । पर्याप्त पृथ्वीकायादि का अल्पबहुत्व भी उक्त प्रकार ही है। भगवन्! पृथ्वीकाय के पर्याप्तों और अपर्याप्तों में कौन किससे अल्प, बहुत, सम या विशेषाधिक है? गौतम! सबसे थोड़े पृथ्वीकायिक अपर्याप्त, उनसे पृथ्वीकायिक पर्याप्त संख्यातगुण । इसी तरह सबसे थोड़े अप्कायिक अपर्याप्तक, अप्कायिक पर्याप्तक संख्यातगुण। इसी प्रकार वनस्पतिकायिक पर्यन्त कहना चाहिए। त्रसकायिक में सबसे थोड़े पर्याप्त त्रसकायिक, उनसे अपर्याप्त त्रसकायिक असंख्येयगुण हैं। भगवन् ! इन पृथ्वीकायिकों यावत् त्रसकायिकों के पर्याप्तों और अपर्याप्तों में समुदित रूप में कौन किससे अल्प, बहुत, सम या विशेषाधिक हैं? गौतम! सबसे थोड़े त्रसकायिक पर्याप्तक, उनसे त्रसकायिक अपर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे तेजस्कायिक अपर्याप्त असंख्येयगुण, पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, वायुकायिक अपर्याप्त विशेषाधिक, उनसे तेजस्कायिक पर्याप्त संख्येयगुण, उनसे पृथ्वी-अप्-वायुकाय पर्याप्तक विशेषाधिक, उनसे वनस्पतिकायिक अपर्याप्त अनन्तगुण, उनसे सकायिक अपर्याप्तक विशेषाधिक, उनसे वनस्पतिकायिक पर्याप्तक संख्येयगुण, उनसे सकायिक पर्याप्तक विशेषाधिक है। विवेचन-प्रथम अल्पबहुत्व में सामान्य से छह काय का कथन है। उसमें सबसे थोड़े त्रसकायिक हैं, क्योंकि द्वीन्द्रियादि त्रसकाय अन्य कायों की अपेक्षा अल्प हैं। उनसे तेजस्कायिक असंख्येयगुण हैं, क्योंकि वे असंख्येय लोकाकाशप्रदेशप्रमाण हैं। उनसे पृथ्वीकायिक विशेषाधिक हैं, क्योंकि वे प्रभूतासंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाण हैं, उनसे अप्कायिक विशेषाधिक हैं, क्योंकि वे प्रभूततरासंख्येयभाग लोकाकाशप्रदेश-राशि-प्रमाण है। उनसे वायुकायिक विशेषाधिक हैं, क्योंकि वे प्रभूततमासंख्येयलो -काकाशप्रदेश-राशि के बराबर हैं। उनसे वनस्पतिकायिक अनन्तगुण हैं, क्योंकि वे अनन्त लोकाकाप्रदेशराशि तुल्य हैं। द्वितीय अल्पबहुत्व उनके अपर्याप्त को लेकर कहा गया है। वह उक्त क्रमानुसार ही है। इनके पर्याप्तकों का अल्पबहुत्व भी उक्त क्रमानुसार ही जानना चाहिए। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षड्विधाख्या पंचम प्रतिपत्ति] [१३३ तृतीय अल्पबहुत्व पृथ्वीकायादि के अलग-अलग पर्याप्तों-अपर्याप्तों को लेकर कहा गया है। इसमें सबसे थोड़े पृथ्वीकायिक अपर्याप्त हैं, उनसे पर्याप्त संख्येयगुण हैं । पृथ्वीकायिकों में सूक्ष्मजीव बहुत हैं, क्योंकि वे सकल लोकव्यापी हैं, उनमें पर्याप्त संख्येयगुण है। इसी तरह अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय और वनस्पतिकाय के सूत्र समझने चाहिए। त्रसकायिकों में सबसे थोड़े पर्याप्त त्रसकायिक हैं और अपर्याप्तक त्रसकायिक असंख्येयगुण हैं, क्योंकि पर्याप्त त्रसकायिक प्रतर के अंगुल के संख्येयभागखण्डप्रमाण हैं। चौथे अल्पबहुत्व में पृथ्वीकायादिकों का पर्याप्त-अपर्याप्तरूप से समुदित अल्पबहुत्व बताया गया है। वह इस प्रकार है-सबसे थोड़े त्रसकायिक पर्याप्त, उनसे त्रसकायिक अपर्याप्त असंख्येयगुण हैं, कारण पहले कहा जा चुका है। उनसे तेजस्कायिक अपर्याप्त असंख्येयगुण हैं, क्योंकि वे असंख्येय लोकाकाशप्रदेशप्रमाण हैं। उनसे पृथ्वी, अप, वायु के अपर्याप्तक क्रम से विशेषाधिक हैं, क्योंकि वे प्रभूत-प्रभूततर-प्रभूततम असंख्येय लोकाकाशप्रदेश-राशि प्रमाण हैं । उनसे तेजस्कायिक पर्याप्त संख्येयगुण हैं, क्योंकि सूक्ष्मों में अपर्याप्तों से पर्याप्त संख्येयगुण हैं। उनसे पृथ्वी, अप्, वायु के पर्याप्त जीव क्रम से विशेषाधिक है। उनसे वनस्पतिकायिक अपर्याप्त अनन्तगुण हैं, क्योंकि वे अनन्त लोकाकाशप्रदेशराशिप्रमाण हैं। उनसे वनस्पतिकायिक पर्याप्त संख्येयगुण हैं, क्योंकि सूक्ष्मों में अपर्याप्तकों से पर्याप्त संख्येयगुण हैं । सूक्ष्म जीव सर्व बहु हैं, उनकी अपेक्षा से यह अल्पबहुत्व है। २१४. सुहुमस्स णं भंते! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता? गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणवि अंतोमुहुत्तं । एवं जाव सुहमणिओयस्स। एवं अपज्जत्तगाणवि पज्जत्तगाणवि जहण्णेणवि उक्कोसेणवि अंतोमुहुत्तं। २१४. भगवन् ! सूक्ष्म जीवों की स्थिति कितनी है? गौतम! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से भी अन्तर्मुहूर्त। इसी प्रकार सूक्ष्मनिगोदपर्यन्त कहना चाहिए। इस प्रकार सूक्ष्मों के पर्याप्त और अपर्याप्तकों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त प्रमाण ही है। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में सूक्ष्म-सामान्य की स्थिति बताई गई है। सूक्ष्म जीव दो प्रकार के हैंनिगोदरूप और अनिगोदरूप। दोनों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। जघन्य अन्तर्मुहूर्त से उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त विशेषाधिक समझना चाहिए, अन्यथा उत्कृष्ट कहने का कोई अर्थ नहीं रह जाता है। इस प्रकार सूक्ष्मपृथ्वीकाय, सूक्ष्म अप्काय, सूक्ष्म तेजस्काय, सूक्ष्म वायुकाय, सूक्ष्म वनस्पतिकाय और सूक्ष्म निगोद संबंधी छह सूत्र कहने चाहिए। ___ यहां यह शंका की जा सकती है कि सूक्ष्म वनस्पति निगोद ही हैं; सूक्ष्म वनस्पति से उसका भी बोध हो जाता है, तो फिर अलग से निगोदसूत्र क्यों कहा गया है? इसका समाधान यह है-सूक्ष्म वनस्पति तो जीव रूप है और सूक्ष्म निगोद अनन्त जीवों के आधारभूत शरीर रूप है। अतएव भिन्न सूत्र की सार्थकता है। कहा गया है-"यह सारा लोक सूक्ष्म निगोदों से अंजनचूर्ण से पूर्ण समुद्गक (पेटी) की तरह सब ओर से ठसाठस भरा हुआ है। निगोदों से परिपूर्ण इस लोक में असंख्येय निगोद वृत्ताकार Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४] [ जीवाजीवाभिगमसूत्र और वृहत्प्रमाण होने से "गोलक" कहे जाते हैं । निगोद का अर्थ है अनन्तजीवों का एक शरीर । ऐसे असंख्येय गोलक हैं और एक-एक गोलक में असंख्येय निगोद हैं और एक-एक निगोद में अनन्त जीव हैं ।" एक निगोद में जो अनन्त जीव हैं उनका असंख्यातवां भाग प्रतिसमय उसमें से निकलता है और दूसरा असंख्यातवां भाग वहां उत्पन्न होता है। प्रत्येक समय यह उद्वर्तन और उत्पत्ति चलती रहती है। जैसे एक निगोद में यह उद्वर्तन और उपपात का क्रम चलता रहता है, वैसे ही सवलोकव्यापी निगोदों में यह उद्वर्तन और उपपात क्रिया प्रतिसमय चलती रहती है । अतएव सब निगोदों और निगोद जीवों की स्थिति अन्तर्मुहूर्त मात्र कही है। अत: सब निगोद प्रतिसमय उद्वर्तन एवं उपपात द्वारा अन्तर्मुहूर्त मात्र समय में परिवर्तित हो जाते हैं, लेकिन वे शून्य नहीं होते। केवल पुराने निकलते हैं और नये उत्पन्न होते हैं । इसी प्रकार सात सूत्र अपर्याप्त सूक्ष्मों के और सात सूत्र पर्याप्त सूक्ष्मों के कहने चाहिए। सर्वत्र जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त मात्र ही है । २१५. सुहुमे णं भंते! सुहुमेत्ति कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं असंखेज्जकालं जाव असंखेज्जा लोया । सव्वेसिं पुढविकालो जाव सुहुमणिओयस्स पुढविकालो | अपज्जत्तगाणं सव्वेसिं जहण्णेणवि उक्कोसेणवि अंतोमुहुत्तं; एवं पज्जत्तगाणवि सव्वेसिं जहणणेणवि उक्कोसेणवि अंतोमुहुत्तं । २१५. भगवन्! सूक्ष्म, सूक्ष्मरूप में कितने काल तक रहता है? गौतम ! जघन्य अन्तमुहूर्त तक और उत्कृष्ट असंख्यातकाल तक रहता है । यह असंख्यातकाल असंख्येय उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी रूप है तथा असंख्येय लोकाकाश के प्रदेशों के अपहारकाल के तुल्य है । इसी तरह सूक्ष्म पृथ्वीकाय अप्काय तेजस्काय वायुकाय वनस्पतिकाय की संचिट्ठणा का काल पृथ्वीकाल अर्थात् असंख्येयकाल है यावत् सूक्ष्म- निगोद की कायस्थिति भी पृथ्वीकाल है । सब अपर्याप्त सूक्ष्मों की कायस्थिति जघन्य और उत्कृष्ट अन्तमुहूर्त प्रमाण ही है । २१६. सुहुमस्स णं भंते! केवइयं कालं अंतरं होइ ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं; कालओ असंखेज्जाओ उस्सप्पिणी-ओसप्पिणीओ, खेत्तओ अंगुलस्स असंखेज्जइभागो । सुहुमवणस्सइकाइयस्स सुहुमणिगोदस्सवि जाव असंखेज्जइ १. गोला य असंखेज्जा, असंखनिगोदो गोलओ भणिओ । एक्किक्कंमि निगोए अनंत जीवा मुणेयव्वा ॥१॥ एगो असंखभागो वट्ट उव्वट्टणोववायम्मि । एग णिगोदे णिच्चं एवं सेसेसु वि स एव ॥२॥ अंतमुत्तमेत्तं ठिई निगोयाण जंति णिद्दिट्ठा । पल्लटंति निगोया तम्हा अंतोमुहुत्तेणं ॥३॥ -वृति Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षड्विधाख्या पंचम प्रतिपत्ति ] भागो । पुढविकाइयादीणं वणस्सइकालो। एवं अपज्जत्तगाणं पज्जत्तगाणवि । २१६. भगवन्! सूक्ष्म, सूक्ष्म से निकलने के बाद फिर कितने समय में सूक्ष्मरूप से पैदा होता है ? यह अन्तराल कितना है ? [ १३५ गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से असंख्येयकाल है । यह असंख्येयकाल असंख्यात उत्सर्पिणी- अवसर्पिणी काल रूप है तथा क्षेत्र से अंगुलासंख्येय भाग क्षेत्र में जितने आकाशप्रदेश हैं उन्हें प्रति समय एक-एक का अपहार करने पर जितने काल में वे निर्लेप हो जायें, वह काल असंख्येयकाल समझना चाहिए। (सूक्ष्म पृथ्वीकाय यावत् सूक्ष्म वायुकायिकों का अन्तर उत्कर्ष से वनस्पतिकाल-अनन्तकाल हैं, वनस्पति में जन्म लेने की अपेक्षा से ।) सूक्ष्म वनस्पतिकायिक और सूक्ष्म - निगोद का अन्तर असंख्येय काल ( पृथ्वीकाल) है। सूक्ष्म अपर्याप्तों और सूक्ष्म पर्याप्तों का अन्तर औधिकसूत्र के समान है । २१७. एवं अप्पबहुंग- सव्वत्थोवा सुहुमतेउकाइया, सुहुमपुढविकाइया विसेसाहिया, सुहुमआउ वाउ विसेसाहिया, सुहुमणिओया असंखेज्जगुणा, सुहुमवणस्सइकाइया अनंतगुणा, सुहुमा विसेसाहिया । एवं अपज्जत्तगाणं, पज्जत्तगाणं एवं चेव । एएसि णं भंते! सुहुमाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा? सव्वत्थोवा सुहुमा अपज्जत्तगा, संखेज्जगुणा पज्जत्तगा । एवं जाव सुहुमणिगोया । एएसि णं भंते! सुहुमाणं सुहुमपुढविकाइयाणं जाव सुहु मणिओयाण य पज्जत्तापज्जत्ताणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा. । गोयमा! सव्वत्थोवा सुहुमतेउकाइया अपज्जत्तगा, सुहुमपुढविकाइया अपज्जत्तगा विसेसाहिया, सुहुमआउकाइया अपज्जत्ता विसेसाहिया, सुहुमवाउकाइया अपज्जत्ता विसेसाहिया, सुहुमतेउक्काइया पज्जत्तगा संखेज्जगुणा, सुहुमपुढवि - आउ-वाउपज्जत्तगा विसेसाहिया, सुहुमणिओया अपज्जत्तगा असंखेज्जगुणा, सुहुमणिओया पज्जत्तगा संखेज्जगुणा, सुहुमवणस्सइकाइया अपज्जत्तगा अनंतगुणा, सुहुमा अपज्जता विसेसाहिया, सुहुमवणस्सइकाइया पज्जत्तगा संखेज्जगुणा, सुहुमा पज्जत्ता विसेसाहिया । २१७. अल्पबहुत्वद्वार इस प्रकार है - सबसे थोड़े सूक्ष्म तेजस्कायिक, सूक्ष्म पृथ्वीकायिक विशेषाधिक, सूक्ष्म अप्कायिक, सूक्ष्म वायुकायिक क्रमशः विशेषाधिक, सूक्ष्म-निगोद असंख्येयगुण, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अनन्तगुण और सूक्ष्म विशेषाधिक हैं । सूक्ष्म अपर्याप्तों और सूक्ष्म पर्याप्तों का अल्पबहुत्व भी इसी क्रम से है। भगवन् ! सूक्ष्म पर्याप्तों और सूक्ष्म अपर्याप्तों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं? गौतम! सबसे थोड़े सूक्ष्म अपर्याप्तक हैं, सूक्ष्म पर्याप्तक उनसे संख्येयगुण हैं । इसी प्रकार सूक्ष्म 5 Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६] [ जीवाजीवाभिगमसूत्र निगोद पर्यन्त कहना चाहिए। भगवन् ! सूक्ष्मों में सूक्ष्मपृथ्वीकायिक यावत् सूक्ष्म-निगोदों में पर्याप्तों और अपर्याप्तों में समुदित अल्पबहुत्व का क्रम क्या है? गौतम! सबसे थोड़े सूक्ष्म तेजस्काय अपर्याप्तक, उनसे सूक्ष्म पृथ्वीकायिक अपर्याप्त विशेषाधिक, उनसे सक्ष्म अप्कायिक अपर्याप्त विशेषाधिक. उनसे सक्ष्म वायकायिक अपर्याप्त विशेषाधिक. उनसे सूक्ष्म तेजस्कायिक पर्याप्त संखेयगुण, उनसे सूक्ष्म पृथ्वी-अप्-वायुकायिक पर्याप्त क्रमशः विशेषाधिक, उनसे सूक्ष्मनिगोद अपर्याप्तक असंखेयगुण, उनसे सूक्ष्मनिगोद पर्याप्तक संखेयगुण, उनसे सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अपर्याप्तक अनन्तगुण, उनसे सूक्ष्म अपर्याप्त विशेषाधिक, उनसे सूक्ष्म वनस्पति पर्याप्तक संखेयगुण, उनसे सूक्ष्म पर्याप्त विशेषाधिक हैं। बादर जीव निरूपण २१८. बायरस्स णं भंते! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता? गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। एवं बायरतसकाइयस्सवि। बायरपुढविकाइयस्स बावीसं वास सहस्साइं, वायरआउस्स सत्त वाससहस्सं, बायरते उस्स तिण्णिराइंदिया, बायरवाउस्स तिणि वाससहस्साई, वायरवणस्सइकाइयस्स दसवाससहस्साइं। एवं पत्तेयसरीरबायरस्सवि।णिओदस्स जहन्नेणवि उक्कोसेणवि अंतोमुहुत्तं । एवं बायरणिगोदस्सवि, अपज्जत्तगाणं सव्वेसिं अंतोमुहुत्तं, पज्जत्तगाणं उवकोसिया ठिई अंतोमुहुत्तूणा कायव्वा सव्वेसिं। २१८. भगवन् ! बादर की स्थिति कितनी कही गई है? .. गौतम! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की स्थिति है। बादर त्रसकाय की भी यही स्थिति है। बादर पृथ्वीकाय की बावीस हजार वर्ष की, बादर अप्कायिकों की सात हजार वर्ष की, बादर तेजस्काय की तीन अहोरात्र की, बादर वायुकाय की तीन हजार वर्ष की और बादर वनस्पति की दस हजार वर्ष की उत्कृष्ट स्थिति है। इसी तरह प्रत्येक शरीर बादर की भी यही स्थिति है। निगोद की जघन्य से भी और उत्कृष्ट से भी अन्तर्मुहूर्त की ही स्थिति है। बादर निगोद की भी यही स्थिति है। सब अपर्याप्त बादरों की स्थिति अन्तर्मुहूर्त है और सब पर्याप्तों की उत्कृष्ट स्थिति उनकी कुल स्थिति में से अन्तर्मुहूर्त कम करके कहना चाहिए। बादर की कायस्थिति २१९. बायरे णं भंते! बायरेत्ति कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं असंखेज्जं काल-असंखेन्जाओ उस्सप्पिणी Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षड्विधाख्या पंचम प्रतिपत्ति ] ओसप्पिणीओ कालओ, खेत्तओ अंगुलस्स असंखेज्जइभागो । बायरपुढविकाइय-आउ - तेउ - वाउ. पत्तेयसरीरबादरव्रणस्सइकाइयस्स बायर णिओदस्स (बादरवणस्सइस्स जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कासेणं असंखेज्जं कालं, असंखेज्जाओ उस्सप्पिणी-ओसप्पिणीओ कालओ, खेत्तओ अंगुलस्स असंखेज्जइभागो । [ १३७ पत्तेगसरीरबादरवणस्सइकाइयस्स बायरणिगोदस्स पुढवीव । बायरणियोदस्स णं जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं अणंतं कालं -अणंता उस्सप्पिणी - ओसप्पिणीओ कालओ खेत्तओ अड्डाइज्जा पोग्गलपरियट्टा । ) एतेसिं जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं सत्तरसागरोवम कोडाकोडीओ | संखातीयाओ समाओ अंगुल भागे तहा असंखेज्जा । ओहे य बायर तरु - अणुबंधो सेसओ वोच्छं ॥१ ॥ उस्सप्पिणि-ओसप्पिणी अड्डाइय पोग्गलाण परियट्ठा । उदधिसहस्सा खलु साधिया होतिं तसकाए ॥ २ ॥ अंतोमुहुत्तकालो होइ अपज्जत्तगाण सव्वेसिं । पज्जत्तबायरस्स य बायरतसकाइयस्सावि ॥ ३ ॥ एतेसिं ठिई सागरोवम सयपुहत्तसाइरे गं । उस संख इंदिया दुविहणिओदे मुहुत्तमद्धं तु । से साणं संखेज्जा वाससहस्सा य सव्वेसिं ॥४ ॥ २१९. भगवन्! बादर जीव, बादर के रूप में कितने काल तक रहता है? गौतम! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से असंख्यातकाल । यह असंख्यातकाल असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणियों के बराबर है तथा क्षेत्र से अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्र के आकाशप्रदेशों का प्रतिसमय एक-एक के मान से अपहार करने पर जितने समय में वे निर्लेप हो जाएं, उतने काल के बराबर हैं । बादर पृथ्वीकायिक, बादर अप्कायिक, बादर तेजस्कायिक, बादर वायुकायिक, प्रत्येक शरीर बादर वनस्पतिकायिक और बादर निदोग की जघन्य कायस्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से सत्तर कोडाकोडी सागरोपम की है । बादर वनस्पति की कायस्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट असंख्येयकाल है, जो कालमार्गणा से असंख्येय उत्सर्पिणी- अवसर्पिणी तुल्य है और क्षेत्रमार्गणा से अंगुलासंख्येयभाग के आकाशप्रदेशों का प्रतिसमय एक-एक के मान से अपहार करने पर लगने वाले काल के बराबर है । सामान्य निगोद की कायस्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल है । वह अनन्तकाल कालमार्गणा से अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी प्रमाण है और क्षेत्रमार्गणा से ढाई पुद्गल - परावर्त तुल्य है । बादर त्रसकायसूत्र में जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट संख्येयवर्ष अधिक दो हजार सागरोपम की कायस्थिि कहनी चाहिए । Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ जीवाजीवाभिगमसूत्र बादर अपर्याप्तों की कायस्थिति के दसों सूत्रों में जघन्य और उत्कृष्ट से सर्वत्र अन्तर्मुहूर्त कहना चाहिए । बादर पर्याप्त के औधिकसूत्र में कायस्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट साधिक सागरोपम शतपृथक्त्व है । (इसके बाद अवश्य बादर रहते हुए भी पर्याप्तलब्धि नहीं रहती ।) बादर पृथ्वीकायिक पर्याप्तसूत्र में जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट संख्यात हजार वर्ष कहने चाहिए। ( इसके बाद बादरत्व होते हुए भी पर्याप्तलब्धि नहीं रहती ।) इसी प्रकार अप्कायसूत्रों में भी कहना चाहिए। तेजस्कायसूत्र में जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट संख्यात अहोरात्र कहने चाहिए। वायुकायिक, सामान्य बादर - वनस्पति, प्रत्येक बादर वनस्पतिकाय के सूत्र बादर पर्याप्त पृथ्वीकायवत् ( जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट संख्यात हजार वर्ष ) कहने चाहिए । सामान्य निगोद - पर्याप्तसूत्र में जघन्य, उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त, बादर त्रसकायपर्याप्तसूत्र में जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट साधिक सागरोपम शतपृथक्त्व कहना चाहिए । ( इतनी स्थिति चारों गतियों में भ्रमण करने से घटित होती है) । ' अन्तरद्वार १३८] २२०. • अंतरं बायरस्स बायरवणस्सइस्स, णिओदस्स, बादरणिओदस्स एतेसिं चउण्हवि पुढविकालो जाव असंखेज्जा लोया, सेसाणं वणस्सइकालो । एवं पज्जत्तगाणं अपज्जत्तगाणवि अंतरं । ओहे य बायरतरु ओघनिगोदे बायरणिओए य । कालमसंखेज्जं अंतरं सेसाण वणस्सइकालो ॥१ ॥ २२०. औधिक बादर, बादर वनस्पति, निगोद और बादर निगोद, इन चारों का अन्तर पृथ्वीकाल है, अर्थात् असंख्यातकाल है । यह असंख्यातकाल असंख्येय उत्सर्पिणी- अवसर्पिणी के बराबर है (कालमार्गणा से) तथा क्षेत्रमार्गणा से असंख्येय लोकाकाश के प्रदेशों का प्रतिसमय एक-एक के मान से अपहार करने पर जितने समय में वे निर्लिप्त हो जायें, उतना कालप्रमाण जानना चाहिए। (सूक्ष्म की जो कायस्थिति है, वही बादर का अन्तर जाना चाहिए ।) शेष बादर पृथ्वीकायिक, बादर अप्कायिक, बादर तेजस्कायिक, बादर वायुकायिक, प्रत्येक बादर वनस्पतिकायिक और बादर त्रसकायिक- इन छहों का अन्तर वनस्पतिकाल जानना चाहिए । - इसी तरह अपर्याप्तक और पर्याप्तक संबंधी दस-दस सूत्र भी ऊपर की तरह कहने चाहिए । यही बात गाथा में कही गई है औधिक, बादर वनस्पति, सामान्य निगोद और बादर निगोद का अंतर संख्येयकाल है और शेष का अन्तर वनस्पतिकाल - प्रमाण है । अल्पबहुत्वद्वार २२१. (अ) ( १ ) अप्पाबहुयं सव्वत्थोवा बायरतसकाइया, बायर उक्काइया १. सूत्रोक्त गाथाएं सक्षिप्त होने से उनके भावों को टीकानुसार स्पष्ट किया गया है। Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षड्विधाख्या पंचम प्रतिपत्ति] [१३९ असंखेज्जगुणा, पत्ते यसरीरबादरवणस्सइकाइया असंखेज्जगुणा, बायरनिगोया असंखेज्जगुणा, बायरपुढविकाइया असंखेज्जगुणा, बायरआउ-वाउ असंखेज्जगुणा, बायरवणस्सइकाइया अणंतगुणा, बायरा विसेसहिया। (२) एवं अपज्जत्तगाणवि। (३) पज्जत्तगाणं सव्वत्थोवा बायरतेउक्काइया, बायरतसकाइया असंखेज्गुणा, पत्तेयसरीर-बायरा असंखेज्जगुणा, सेसा तहेव जाव बादरा विसेसाहिया। (४) एतेसि णं भंते! बायराणं पज्जत्तापज्जत्ताणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? सव्वत्थोवा बायरा पज्जत्ता, बायरा अपज्जत्तगा असंखेज्जगुणा एवं सव्वे जाव बायरतसकाइया। (५) एएसि णं भंते! बायराणं बायरपुढविकाइयाणं जाण बायरतसकाइयाण य पज्जत्तापज्जत्ताणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा०? सव्वत्थोवा बायरतेउक्काइया पज्जत्तगा, बायरतसकाइया अपज्जत्तगा असंखेज्जगुणा, बायरतसकाइया अपज्जत्तगा असंखेज्जगुणा, पत्तेयसरीरबायरवणस्सइकाइया पज्जत्तगा असंखेज्जगुणा, बायरणिओया पज्जत्तगा असंखेज्जगुणा, पुढवि-आउ-वाउ-पज्जत्तगा असंखेज्जगुणा, बायरतेउ अपजजत्तगा असंखेज्जगुणा, पत्तेयसरीरवायरवणस्सइ अपज्जत्ता असंखेज्जगुण, बायरा णिओदा अपज्जत्तगा असंखेजगुणा, बायरपुढवि-आउ-वाउ अपज्जत्तगा असंखेज्जगुणा, बायरवणस्सइ अपज्जत्तगा अणंतगुणा, बादरपज्जत्तगा विसेसाहिया, बायरवणस्सइ अपज्जत्तगा असंखेज्जगुणा, बायरा अपज्जत्तगा विसेसाहिया, बायरा पज्जत्ता विसेसाहिया। २२१. (अ) (१) प्रथम औधिक अल्पबहुत्व सबसे थोड़े बादर त्रसकाय, उनसे बादर तेजस्काय असंख्येयगुण, उनसे प्रत्येकशरीर बादर वनस्पतिकाय असंख्येयगुण, उनसे बादर निगोद असंखेयगुण, उनसे बादर पृथ्वीकाय असंखेयगुण, उनसे बादर अपकाय, बादर वायुकाल क्रमशः असंखेयगुण, उनसे बादर वनस्पतिकायिक अनन्तगुण, उनसे बादर विशेषाधिक। (२) अपर्याप्त बादरों का अल्पबहुत्व औषिकसूत्र के अनुसार ही जानना चाहिए-जैसे सबसे थोड़े बादर त्रसकायिक अपर्याप्त, उनसे बादर तेजस्कायिक अपर्याप्त असंख्येयगुण इत्यादि औधिक क्रम। (३) पर्याप्त बादरों का अल्पबहुत्वसबसे थोड़े बादर तेजस्कायिक पर्याप्त, उनसे बादर त्रसकायिक पर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४०] [जीवाजीवाभिगमसूत्र - बादर प्रत्येकशरीर वनस्पतिकायिक पर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादर निगोद पर्याप्तक असंख्येयगुण, उनसे बादर पृथ्वीकायिक पर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादर अप्कायिक पर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादर वायुकाय पर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्त अनन्तगुण, उनसे बादर पर्याप्तक विशेषाधिक। (४) प्रत्येक के बादर पर्याप्त-अपर्याप्तकों का अल्पबहुत्व (सब जगह) पर्याप्त बादर थोड़े हैं और बादर अपर्याप्तक असंख्येयगुण हैं, क्योंकि एक बादर पर्याप्त की निश्रा में असंख्येय बादर अपर्याप्त उत्पन्न होते हैं। (सब सूत्रों का कथन बादर त्रसकायिकों की तरह हैं।) (५) सबका समुदित अल्पबहुत्व भगवन् ! बादरों में-बादर पृथ्वीकाय यावत् बादर त्रसकाय के पर्याप्तों और अपर्याप्तों में कौन किससे अल्प यावत् विशेषाधिक है? गौतम! सबसे थोड़े बादर तेजस्कायिक पर्याप्तक, उनसे बादर त्रसकायिक पर्याप्तक असंख्येयगुण, उनसे बादर त्रसकायिक अपर्याप्त असंख्यातगुण, उनसे प्रत्येकशरीर बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादर निगोद पर्याप्तक असंखेयगुण, उनसे पृथ्वी-अप-वायुकाय पर्याप्तक क्रमशः असंख्यातगुण, उनसे बादर तेजस्काय अपर्याप्तक असंखेयगुण, उनसे प्रत्येकशरीर बादर वनस्पति अपर्याप्त असंखेयगुण, उनसे बादर निगोद अपर्याप्तक असंखेयगुण, उनसे बादर पृथ्वी-अप्-वायुकाय अपर्याप्तक असंखेयगुण, उनसे बादर वनस्पति पर्याप्तक अनन्तगुण, उनसे बादर पर्याप्तक विशेषाधिक, उनसे बादर वनस्पति अपर्याप्त असंख्यगुण, उनसे बादर अपर्याप्त विशेषाधिक, उनसे बादर पर्याप्त विशेषाधिक हैं। विवेचन-सर्वप्रथम षट्काय का औधिक अल्पबहुत्व बताया है। वह इस प्रकार है- सबसे थोड़े बादर त्रसकायिक हैं, क्योंकि द्वीन्द्रिय आदि ही बादर त्रस हैं और वे शेष कायों की अपेक्षा अल्प हैं। उनसे बादर तेजस्कायिक असंख्येयगुण हैं, क्योंकि वे असंख्येय लोकाकाशप्रदेशप्रमाण हैं। उनसे प्रत्येकशरीर बादर वनस्पतिकायिक असंख्येयगुण हैं, क्योंकि इनके स्थान असंख्येयगुण हैं। बादर तेज तो मनुष्यक्षेत्र में ही है, जबकि बादर वनस्पतिकाय तीनों लोकों में है। अतः क्षेत्र के असंख्येयगुण होने से बादर तेजस्कायिकों से प्रत्येकशरीर बादर वनस्पतिकायिक असंख्येयगुण हैं। उनसे बादर निगोद १.तथा चोक्तं प्रज्ञापनायां द्वितीय स्थानाख्ये पदे--अंतोमणुस्सखेत्ते अड्ढाइज्जेसु दीवसमुद्देसु निव्वाघाएणं पन्नरससु कम्मभूमिसु, वाघाएणं पंचसु महाविदेहेसु एत्थ णं बायरतेउकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता, तथा जत्थेव बायरतेउक्काइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता तत्थेव अपज्जत्ताणं बायरतेउकाइयाणं ठाणा पण्णत्ता। २. कहिं णं भंते! बादरवणस्सइकाउयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता? गोयमा! सटाणेणं सत्तसु घणोदहीसु सत्तसु घणोदधिवलएस, (शेष अगले पेज पर) Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षड्विधाख्या पंचम प्रतिपत्ति] [१४१ असंख्येयगुण है, क्योंकि अत्यन्त सूक्ष्म अवगाहना होने से तथा प्रायः जल में सर्वत्र होने से--पनक, सेवाल आदि जल में अवश्यंभावी है, अतः असंख्येयगुण घटित होते हैं। बादर निगोद से बादर पृथ्वीकायिक असंख्येयगुण हैं, क्योंकि वे आठों पृथ्वियों, सब विमानों, सब भवनों और पर्वतादि में है। उनसे बादर अप्कायिक असंख्येयगुण हैं, क्योंकि समुद्रों मेंजल की प्रचुरता है। उनसे बादर वायुकायिक असंख्येयगुण हैं, क्योंकि पोलारों में भी वायु संभव है। उनसे बादर वनस्पतिकायिक अनन्तगुण हैं, क्योंकि प्रत्येक बादर निगोद में अनन्त जीव हैं। उनसे सामान्य बादर विशेषाधिक हैं, क्योंकि बादर त्रसकायिक आदि का भी उनमें समावेश होता है। (२) दूसरा अल्पबहुत्व इन षट्कायों के अपर्याप्तकों के सम्बन्ध में है। सबसे थोड़े बादर त्रसकायिक अपर्याप्त (युक्ति पहले बता दी है), उनसे बादर तेजस्कायिक अपर्याप्त असंख्येयगुण हैं, क्योंकि वे असंख्येय लोकाकाशप्रमाण हैं । इस तरह प्रागुक्तक्रम से ही अल्पबहुत्व समझ लेना चाहिए। ___(३) तीसरा अल्पबहुत्व षट्कायों के पर्याप्तों से संबंधित है। सबसे थोड़े बादर तेजस्कायिक हैं, क्योंकि ये आवलिका के समयों के वर्ग को कुछ समय न्यून आवलिका समयों से गुणित करने पर जितने समय होते हैं, उनके बराबर हैं। उनसे बादर त्रसकायिक पर्याप्त असंख्येयगुण हैं, क्योंकि वे प्रतर में अंगुल के संख्येयभागमात्र जितने खण्ड होते हैं, उनके बराबर हैं, उनसे प्रत्येकशरीरी वनस्पतिकायिक पर्याप्त असंख्येयगुण हैं, क्योंकि वे प्रतर में अंगुल के असंख्येयभागमात्र जितने खण्ड होते हैं, उनके तुल्य हैं। उनसे बादरनिगोद पर्याप्तक असंख्येगुण हैं, क्योंकि वे अत्यन्त सूक्ष्म अवगाहना वाले तथा जलाशयों में सर्वत्र होते है। उनसे बादर पृथ्वीकायिक पर्याप्त असंख्येयगुणहैं, क्योंकि अतिप्रभूत संख्येयप्रतरांगुलासंख्येयभाग-खण्डप्रमाण है। उनसे बादर अप्कायिक पर्याप्त असंख्येयगुण हैं, क्योंकि वे अतिप्रभूततरासंख्येयप्रतरांगुलासंख्येयभागप्रमाण हैं। उनसे बादर वायुकायिक पर्याप्त असंख्येयगुण हैं ,क्योंकि घनीकृत लोक के असंख्येय प्रतरों के संख्यातवें भागवर्ती क्षेत्र के आकाशप्रदेशों के बराबर हैं। उनसे बादर वनस्पति पर्याप्त अनन्तगुणहै, क्योंकि प्रति बादरनिगोद में अनन्तजीव है। उनसे सामान्य बादर पर्याप्तक विशेषाधिक हैं, क्योंकि बादर तेजस्कायिक आदि सब पर्याप्तों का इनमें समावेश है। (४) चौथा अल्पबहुत्व इनके प्रत्येक के पर्याप्तों और अपर्याप्तों को लेकर कहा गया है। सर्वत्र पर्याप्तों से अपर्याप्त असंख्येयगुण कहना चाहिए। बादर पृथ्वीकाय.से लेकर बादर त्रसकाय तक सर्वत्र अपर्याप्तों से पर्याप्त असंख्येयुण हैं, क्योंकि एक बादरपर्याप्त की निश्रा में असंख्येय बादर-अपर्याप्त पैदा होते हैं। (पृ. १४० का शेष) अहोलोए पायालेसु, भवणपत्थडेसु उड्ढलोए कप्पेसु विमाणावलियासु विमाणपत्थेसु तिरियलोए अगडेसु तलाएसुनदीसु दहेसु वावीसु पुक्खरिणीसुगुंजालियासु सरेसु सरपंतियासु उज्झरेसु चिल्ललेसु पल्ललेसु वप्पिणेसुदीवेसु समुद्देसु, सव्वेसु चेव जलासएसु जलढाणेसु एत्थणं बायरवणसइकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा पणत्ता। तथा जत्थेव बायरवणस्सइकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता तत्थेव बायरवणस्सइकाइयाणं अपज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता। __ -प्रज्ञापना स्थानपद १."पज्जत्तगनिस्साए अपज्जत्तगा वक्कमंति, जत्थ एगो तत्थ णियमा असंखेज्जा" इति वचनात्। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२] [जीवाजीवाभिगमसूत्र (५) पांचवां अल्पबहुत्व छह कायों के पर्याप्त और अपर्याप्तों का समुदित रूप से कहा गया है। वह निम्न है___ सबसे थोड़े बादर तेजस्कायिक पर्याप्त, उनसे बादर त्रसकायिक पर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादर प्रत्येकवनस्पतिकायिक पर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादर निगोद पर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादर पृथ्वीकायिक पर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादर अप्कायिक पर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादर वायुकायिक पर्याप्त असंख्येयगुण । (उक्त पदों की युक्ति पूर्ववत् जाननी चाहिए।) उनसे बादर तेजस्कायिक अपर्याप्त असंख्येयगुण हैं, क्योंकि बादर वायुकायिक पर्याप्त असंख्येयलोकाकाशप्रदेश के आकाशप्रदेशों के तुल्य हैं, किन्तु बादर तेजस्कायिक अपर्याप्त असंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाण हैं । असंख्यात के असंख्यात भेद होने से यह असंख्यात पूर्व के असंख्यात से असंख्येयगुण जानना चाहिए। बादर तेजस्कायिक अपर्याप्त से प्रत्येक बादर वनस्पतिकायिक, बादर निगोद, बादर पृथ्वीकायिक, बादर अप्कायिक, बादर वायुकायिक अपर्याप्त यथोत्तर असंख्येयगुण कहने चाहिए। बादर वायुकायिक अपर्याप्तों से बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्त अनन्तगुण हैं, क्योंकि एक-एक बादर निगोद में अनन्त जीव हैं। उनसे सामान्य बादर पर्याप्त विशेषाधिक हैं, क्योंकि बादर तेजस्कायिक आदि पर्याप्तों का उनमें प्रक्षेप होता है। उनसे बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्त असंख्येयगुण हैं, क्योंकि एक-एक पर्याप्त बादर वनस्पतिकायिक निगोद की निश्रा में असंख्येय अपर्याप्त बादर वनस्पतिकायिक निगोद उत्पन्न होते हैं। उनसे सामान्य बादर अपर्याप्त विशेषाधिक हैं, क्योंकि उनमें बादर तेजस्कायिक आदि अपर्याप्तों का प्रक्षेप है। उनसे पर्याप्तअपर्याप्त विशेषण रहित सामान्य बादर विशेषाधिक हैं, क्योंकि इनमें सब बादर पर्याप्त-अपर्याप्तों का समावेश हो जाता है। इस प्रकार बादर को लेकर पांच अल्पबहुत्व कहे हैं। सूक्ष्म-बादरों के समुदित अल्पबहुत्व २२१ (आ) (१) एएसि णं भंते! सुहुमाणं सुहमपुढविकाइयाणं जाव सुहुमणिगोयाणं बायराणं बादरपुढविकाइयाणं जाव बादरतसकाइयाण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा.? गोयमा! सव्वत्थोवा बायरतसकाइया, बायरते उक्काइया असंखेज्जगुणा, पत्तेयसरीरबायरवणस्सइकाइया असंखेज्जगुणा तहेव जाव बायरवाउकाइया असंखेज्जगुणा, सुहुमतेउक्काइया असंखेज्जगुणा, सुहुमपुढविकाइया विसेसाहिया, सुहुम आउ० सुहुम वाउ० विसेसाहिया, सुहुमनिगोया असंखेज्जगुणा, बायरवणस्सइकाइया अणंतगुणा, बायरा विसेसाहिया, सुहुमवणस्सकाइया असंखेज्जगुणा, सुहुमा विसेसाहिया। (२-३ ) एवं अपज्जत्तगााव पज्जत्तगा।व, णवार सम्पत्योपा पाप ..... बायरतसकाइया पज्जत्ता असंखेज्जगुणा, पत्तेयसरीरबादरवणस्सइकाइया पज्जत्ता असंखेज्जगुणा, सेसं तहेव जाव सुहुमपज्जत्ता विसेसाहिया। Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षड्विधाख्या पंचम प्रतिपत्ति ] [ १४३ (४) एएसि णं भंते! सुहुमाणं बादराण य पज्जत्ताणं अपज्जताणं य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा. ? गोयमा! सव्वत्थोवा बायरा पज्जत्ता, बायरा अपज्जत्ता असंखेज्जगुणा, सव्वत्थोवा सुहुमा अपज्जत्ता, सुहुमपज्जत्ता संखेज्जगुणा। एवं सुहुमपुढवि बायरपुढवि जाव सुहुमणिगोदा बायरनिगोया, नवरं पत्तेयसरीरवणस्सइकाइया सव्वत्थोवा पज्जत्ता अपज्जत्ता, असंखेज्जगुणा । एवं बायरतसकाइयावि । (५) सव्वेसिं पज्जत्तापज्जत्तगाणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वाव विसेसाहियां वा? 1 गोयमा ! सव्वत्थोवा वायरते उक्काइया पज्जत्ता, बायरतसकाइया पज्जत्तगा असंखेज्जगुणा, ते चेव अपज्जत्तगा असंखेज्जगुणा, पत्तेयसरीरबायरवणस्सइ अपज्जत्तगा असंखेज्जगुणा, बायरणिओया पज्जत्ता असंखेज्ज०, बायरपुढवि० असंखे०, आउ-वाउ पज्जत्ता असंखेज्जगुणा, वायरतेउकाइया अपज्जत्ता असंखे० पत्तेयसरीर० असंखे ० वायरणिगोयपज्जत्ता असं० वायरपुढवि० आउ वाउ - काइया अपज्जत्तगा असंखेज्जगुणा, सुहुमतउक्काइया अपज्जत्तगा असं० सुहुमपुढवि० आउ वाउ - अपज्जत्ता विसेसाहिया, सुहुमतेउकाइयपज्जत्तगा संखेज्जगुणा, सुहुमपुढवि - आउ वाउपज्जत्तगा विसेसाहिया, सहुमणिगोया अपज्जंत्तगा असंखेज्जगुणा, सहुमणिगोया पज्जत्तगा असंखेज्जगुणा, वायरवणस्सइकाइया पज्जत्तगा, अनंतगुणा, बायरा पज्जत्तगा विसेसाहिया, बायरवणस्सइ अपज्जत्ता असंखेज्जगुणा, बायरा अपज्जत्ता विसेसाहिया, बायरा विसेसाहिया, सुहुमवणस्सइकाइया अपज्जत्तगा असंखेज्जगुणा, सुहुमा अपज्जत्ता विसेसाहिया, सुहुमवणस्सइकाइया पज्जत्ता संखेज्जगुणा, सुहुमा पज्जत्तगा विसेसाहिया, सुहुमा विसेसाहिया । २२१. (आ) स्पष्टता के लिए और पुनरावृत्ति को टालने के लिए प्रस्तुत पाठ का अर्थ विवेचनायुक्त दिया जाता है । प्रस्तुत पाठ में सूक्ष्मों और बादरों के समदित पांच अल्पबहुत्व कहे गये हैं । वे इस प्रकार (१) प्रथम अल्पबहुत्व -- भगवन् ! सूक्ष्मों में सूक्ष्म पृथ्वीकायिक यावत् सूक्ष्म निगोदों में तथा बादरों में- बादर पृथ्वीकायिक यावत् बादर त्रसकायिकों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक है ? गौतम! सबसे थोड़े बादर त्रसायिक हैं, उनसे बादर तेजस्कायिक असंख्येयगुण हैं, उनसे प्रत्येकशरीर बादर वनस्पतिकायिक असंख्येयगुण हैं, उनसे बादर निगोद असंख्येयगुण हैं, उनसे बादर पृथ्वीकाय असंख्येयगुण हैं, उनसे बादर अप्काय बादर वायुकाय क्रमशः असंख्येगुण हैं, उन बादर वायुकाय से सूक्ष्म तेजस्काय असंख्येयगुण हैं, उनसे सुक्ष्म पृथ्वीकाय विशेषाधिक हैं, उनसे सूक्ष्म Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४] [जीवाजीवाभिगमसूत्र अप्काय, सूक्ष्म वायुकाय विशेषाधिक हैं, उनसे सूक्ष्मनिगोद असंख्यातगुण हैं, उन सूक्ष्मनिगोद से बादरवनस्पति कायिक अनन्तगुण हैं, उनसे बादर विशेषाधिक हैं, उनसे सूक्ष्म वनस्पतिकायिक असंख्येयगुण हैं, उनसे (सामान्य) सूक्ष्म विशेषाधिक हैं। (२) द्वितीय अल्पबहुत्व इनके ही अपर्याप्तकों को लेकर है। वह इस प्रकार है-- सबसे थोड़े बादर त्रसकायिक अपर्याप्त, उनसे बादर तेजस्कायिक अपर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादर निगोद अपर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादर पृथ्वीकायिक अपर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादरं अप्कायिक अपर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादर वायुकायिक अपर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादर पृथ्वीकायिक अपर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादर अप्कायिक अपर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे सूक्ष्म तेजस्कायिक अपर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे सुक्ष्म पृथ्वीकायिक अपर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे सूक्ष्म अप्कायिक अपर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे सूक्ष्मनिगोद अपर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्त अनन्तगुण, उनसे सामान्य बादर अपर्याप्त विशेषाधिक, उनसे सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अपर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे सामान्य सूक्ष्म अपर्याप्त विशेषाधिक हैं। (३) तीसरा अल्पबहुत्व इनके ही पर्याप्तकों को लेकर कहा गया है। वह इस प्रकार है सबसे थोड़े बादर तेजस्कायिक पर्याप्त, उनसे बादर त्रसकायिक पर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादर प्रत्येक वनस्पतिकायिक पर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादर निगोद पर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादर पृथ्वीकायिक पर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादर अप्कायिक पर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादर वायुकायिक पर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे सूक्ष्म तेजस्कायिक पर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे सूक्ष्म पृथ्वीकायिक पर्याप्त . असंख्ययेयगुण, उनसे सूक्ष्म अप्कायिक पर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे सूक्ष्म वायुकायिक पर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे सूक्ष्मनिगोद पर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्त अनन्तगुण, उनसे सामान्य बादर पर्याप्त विशेषाधिक, उनसे सूक्ष्म वनस्पतिकायिक पर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे सामान्य सूक्ष्म पर्याप्त विशेषाधिक है। (४) चौथा अल्पबहुत्व इन प्रत्येक के पर्याप्त और अपर्याप्तों के सम्बन्ध में है। वह इस प्रकार है सबसे थोड़े बादर पर्याप्त हैं, क्योंकि ये परिमित क्षेत्रवर्ती हैं। उनसे बादर अपर्याप्त असंख्येयगुणर हैं, क्योंकि प्रत्येक बादर पर्याप्त की निश्रा में असंख्येय बादर अपर्याप्त उत्पन्न होते हैं। उनसे सूक्ष्म अपर्याप्त असंख्येयगुण हैं, क्योंकि वे सर्वलोकव्यापी होने से उनका क्षेत्र असंख्येयगुण है। उनसे सूक्ष्म पर्याप्त संख्येयगुण हैं, क्योंकि चिरकाल-स्थायी होने से ये सदैव संख्येयगुण प्राप्त होते हैं। सब संख्या में यहां सात सूत्र हैं-१. सामान्य से सूक्ष्म-बादर पर्याप्त-अपर्याप्त विषयक, २. सूक्ष्मबादर पृथ्वीकायिक पर्याप्तापर्याप्तविषयक, ३. सूक्ष्म-बादर अप्कायिक पर्याप्तापर्याप्त विषयक, ४. सूक्ष्म-बादर तेजस्कायिक पर्याप्तापर्याप्त विषयक, ५. सूक्ष्म-बादर वायुकायिक पर्याप्तापर्याप्त विषयक, ६. सूक्ष्म-बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्तापर्याप्त विषयक और ७. सूक्ष्म-बादर निगोद पर्याप्तापर्याप्त विषयक। Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षड्विधाख्या पंचम प्रतिपत्ति ] [१४५ सूक्ष्मों में अपर्याप्त थोड़े और पर्याप्त संख्येयगुण हैं और बादरों में पर्याप्त थोड़े और अपर्याप्त असंख्यातगुण हैं। (५) पांचवां अल्पबहुत्व इन सबका समुदित रूप में कहा गया है। वह इस प्रकार है सबसे थोड़े बादर तेजस्कायिक पर्याप्त, उनसे बादर त्रसकायिक पर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादर त्रसकायिक अपर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे प्रत्येक शरीर बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादरनिगोद पर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादर पृथ्वीकायिक पर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादर अप्कायिक पर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादर वायुकायिक पर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादर तेजस्कायिक अपर्याप्त असंख्ययेयगुण, उनसे प्रत्येकशरीर बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादरनिगोद अपर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादर पृथ्वीकायिक अपर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादर अप्कायिक अपर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादर वायुकायिक अपर्याप्त असंख्ययेयगुण, उनसे सूक्ष्म तेजस्कायिक अपर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे सूक्ष्म पृथ्वीकायिक अपर्याप्त विशेषाधिक, उनसे सूक्ष्म अप्कायिक विशेषाधिक, उनसे सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्त विशेषाधिक, उनसे सूक्ष्म तेजस्कायिक अपर्याप्त संख्येयगुण, उनसे सूक्ष्म पृथ्वीकायिक अपर्याप्त विशेषाधिक, उनसे सूक्ष्म अपकायिक अपर्याप्त विशेषाधिक. उनसे सक्ष्म वायकायिक पर्याप्त विशेषाधिक, उनसे सक्ष्मनिगोद अपर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे सूक्ष्मनिगोद पर्याप्त संख्येयगुण। ' (ये बादर पर्याप्त तेजस्काय से लेकर पर्याप्त निगोद तक के जीव यद्यपि अन्यत्र समान रूप से असंख्येय लोकाकाश के प्रदेश प्रमाण कहे हैं, तथापि असंख्यात के असंख्यात भेद होने से यहां जो कहीं असंख्येयगुण, संख्येयगुण और विशेषाधिक कहे हैं, उनमें कोई विरोध नही समझना चाहिए।) उन पर्याप्त सूक्ष्म निगोदों से बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्त अनन्तगुण है। उनसे सामान्य बादर पर्याप्त विशेषाधिक हैं, उनसे बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्त असंख्येयगुण हैं, उनसे सामान्य बादर अपर्याप्त विशेषाधिक हैं, उनसे सामान्यतः बादर विशेषाधिक हैं, उनसे सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अपर्याप्त असंख्येयगुण हैं, उनसे सामान्य सूक्ष्म अपर्याप्त विशेषाधिक हैं, उनसे सूक्ष्म वनस्पतिकायिक पर्याप्त संख्येयगुण हैं, उनसे सामान्य सूक्ष्म पर्याप्तक विशेषाधिक हैं, उनसे सामान्य पर्याप्त-अपर्याप्त विशेषणरहित सूक्ष्म विशेषाधिक हैं। निगोद की वक्तव्यता ___२२२. कतिविहा णं भंते! णिओया? गोयमा! दुविहा णिओया पण्णत्ता, तं जहाणिओया य णिओदजीवा य। णिओया णं भंते! कतिविहा पण्णत्ता? गोयमा! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-सुहुमणिओदा य बादरणिओदा य। सुहुमणिओया णं भंते! कतिविहा पण्णत्ता? गोयमा! दुविहा पण्णत्ता, तं जहापज्जत्तगा य अपज्जत्तगा य। बायरणिओयावि दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-पज्जत्ता य अपज्जत्ता य। णिओदजीवा णं भंते! कतिविहा पण्णत्ता? गोयमा! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ ] [ जीवाजीवाभिगमसूत्र तं जहा सुहुमणिगोदजीवा य बादरणिगोदजीवा य । सुहुमणिगोदजीवा दुविहा पण्णत्ता, पज्जत्तगा य अपज्जत्तगा य । बायरणिगोदजीवा दुविहा पण्णत्ता, तं जहा- पज्जत्तगा य अपज्जत्तगा य । २२२. भगवन्! निगोद कितने प्रकार के है ? गौतम ! निगोद दो प्रकार के हैं--निगोद और निगोदजीव ! भगवन् ! निगोद कितने प्रकार है? गौतम! दो प्रकार के हैं--सुक्ष्मनिगोद और बादरनिगाद ! भगवन! सूक्ष्मनिगोद कितने प्रकार हैं? गौतम! दो प्रकार के हैं - पर्याप्त और अपर्याप्त भगवन् ! निगोदजीव कितने प्रकार के हैं? गौतम! दो प्रकार के हैं- सूक्ष्मनिगोदजीव और बादरनिगोदजीव । सूक्ष्मनिगादेजीव दो प्रकार के हैं - पर्याप्तक और अपर्याप्तक बादरनिगोदजीव भी दो प्रकार के है- पर्याप्तक और अपर्याप्तक विवेचन - निगोद जैनसिद्धान्त का पारिभाषिक शब्द है, जिसका अर्थ है अनन्त जीवों का आधार अथवा आश्रय । वैसे सामान्यतया निगोद सूक्ष्म और साधारण वनस्पति रूप है, तथापि इसकी अलग-सी पहचान है । इसलिए इसके दो प्रकार कहे गये हैं - निगोद और निगोदजीव । निगोद अनन्त जीवों का आधारभूत शरीर है और निगोदजीव एक ही औदारिकशरीर में रहे हुए भिन्न-भिन्न तैजस- कार्मणशरीर वाले अनन्त जीवात्मक हैं।' आगम में कहा है - यह सारा लोक सूक्ष्मनिगोदों से अंजनचूर्ण से परिपूर्ण समुद्गक की तरह ठसाठस भरा हुआ । निगोदों से परिपूर्ण इस लोक में असंख्येय निगोद वृत्ताकार और बृहत्प्रमाण होने से "गोलक" कहे जाते । एसे असंख्येय गोले हैं और एक-एक गोले में असंख्येय निगोद हैं और एक-एक निगोद में अनन्त जीव हैं । निगोद और निगोदजीव दोनों दो-दो प्रकार के हैं - सूक्ष्मनिगोद और बादरनिगोद । सूक्ष्मनिगोद सारे लोक में रहे हुए हैं और बादरनिगोद मूल, कंद आदि रूप हैं। ये दोनों सूक्ष्म और बादर निगोदजीव दोदो प्रकार के हैं - पर्याप्त और अपर्याप्त । - २२३. णिगोदा णं भंते! दव्वट्ट्याए किं संखेज्जा असंखेज्जा अनंता ? गोयमा ! णो संखेज्जा, असंखेज्जा, णो अनंता । एवं पज्जत्तगावि अपज्जत्तगावि । सुहुमणिगोदा णं भंते! दव्वट्ट्याए किं संखेज्जा असंखेज्जा अनंता ? गोयमा ! णो संखेज्जा, असंखेज्जा, णो अनंता । एवं पज्जत्तगावि अपज्जत्तगावि । एवं बायरावि पज्जत्तगावि अपज्जत्तगावि णो संखेज्जा, असंखेज्जा, णो अनंता । णिओदजीवा णं भंते! दव्वट्ट्याए किं संखेज्जा, असंखेज्जा अणंता ? गोयमो ! णो संखेज्जा, असंखेज्जा, णो अनंता । एवं पज्जत्तगावि अपज्जत्तगावि । एवं सुहुमणिगोदजीवावि पज्जत्तगावि अपज्जत्तगावि । बायरणिगोदजीवावि पज्जत्तगावि अपज्जत्तगावि । १. तत्र निगोदा जीवाश्रयविशेषा, निगोदजीवा विभिन्न तेजसकार्मणाजीवा एव । Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षड्विधाख्या पंचम प्रतिपत्ति ] [ १४७ णिगोदा णं भंते! पदेसट्टयाए किं संखेज्जा० पुच्छा ? गोयमो ! नो संखेज्जा, नो असंखेज्जा, अणंता। एवं पज्जत्तगावि अपज्जत्तगावि । एवं सुहुमणिगोदावि पज्जत्तगावि अपज्जत्तगावि । पएसट्टयाए सव्वेअन्नता एवं बायरनिगोदावि पज्जत्तगावि अपज्जत्तगावि । पसट्टयाए सव्वे अनंता । एवं णिओदजीवा नवविहावि पएसट्टयाए सव्वे अनंता । २२३. भगवन् ! निगोद द्रव्य की अपेक्षा क्या संख्यात असंख्यात हैं या अनन्त हैं? 2 गौतम! संख्यात नहीं हैं, असंख्यात हैं, अनन्त नहीं हैं। इसी प्रकार इनके पर्याप्त और अपर्याप्त सूत्र भी कहने चाहिए। भगवन् ! सूक्ष्मनिगोद द्रव्य की अपेक्षा संख्यात हैं, असंख्यात या अनन्त है ? गौतम! संख्यात नहीं, असंख्यात हैं, अनन्त नहीं। इसी तरह पर्याप्त विषयक सूत्र तथा अपर्याप्त विषयक सूत्र भी कहने चाहिए । इसी प्रकार बादरनिगोद के विषय में भी कहना चाहिए। उनके पर्याप्त विषयक सूत्र तथा अपर्याप्त विषयक सूत्र भी इसी तरह कहने चाहिए । भगवन् ! निगोदजीव द्रव्य की अपेक्षा संख्यात हैं, असंख्यात हैं या अनन्त हैं ? गौतम! संख्यात नहीं, असंख्यात नहीं, अनन्त हैं । इसी तरह इसके पर्याप्तसूत्र भी जानने चाहिए । इसी प्रकार सूक्ष्मनिगोदजीव, इनके पर्याप्त और अपर्याप्तसूत्र तथा बादरनिगोदजीव और उनके पर्याप्त और अपर्याप्तसूत्र भी कहने चाहिए। (ये द्रव्य की अपेक्षा से ९ निगोद के तथा ९ निगोदजीव के कुल अठारह सूत्र हुए ।) भगवन् ! प्रदेश की अपेक्षा निगोद संख्यात हैं, असख्यात है या अनन्त है ? गौतम! संख्यात नहीं, असंख्यात नहीं, किन्तु अनन्त हैं। इसी प्रकार पर्याप्तसूत्र और अपर्याप्तसूत्र भी कहने चाहिए। इसी प्रकार सूक्ष्मनिगोद और उनके पर्याप्त तथा अपर्याप्त सूत्र कहने चाहिए। ये सब प्रदेश की अपेक्षा अनन्त हैं । इसी प्रकार बादरनिगोद के और उनके पर्याप्त तथा अपर्याप्त सूत्र कहने चाहिए। ये सब प्रदेश की अपेक्षा अनन्त हैं । इसी प्रकार निगोदजीवों के प्रदेशों की अपेक्षा से नो ही सूत्रों में अनन्त कहना चाहिए । विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में निगोद और निगोदजीवों की संख्या के विषय में जिज्ञासा और उत्तर है । जिज्ञासा प्रकट की गई हैं कि निगोद संख्यात हैं, असंख्यात हैं या अनन्त है ? इन प्रश्नों के उत्तर दो अपेक्षाओं से हैं - द्रव्य की अपेक्षा और प्रदेश की अपेक्षा से । द्रव्य की अपेक्षा से निगोद संख्येय नही हैं, क्योंकि अंगुलासंख्येयभाग अवगाहना वाले निगोद सारे लोक में व्याप्त हैं। वे असंख्यात हैं, क्योंकि Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८] [जीवाजीवाभिगमसूत्र असंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाण हैं । वे अनन्त नहीं हैं, क्योंकि केवलज्ञानियों ने उन्हें अनन्त नहीं जाना है। सामान्यनिगोद, अपर्याप्त सामान्यनिगोद और पर्याप्त सामान्यनिगोद संबंधी तीन सूत्र इसी तरह जानने चाहिए। इसी प्रकार सूक्ष्मनिगोद के तीन सूत्र और बादरनिगोद के भी तीन सूत्र-कुल नौ सूत्र कहे गये हैं। निगोदजीव द्रव्य की अपेक्षा से संख्यात नहीं हैं, असंख्यात नहीं है किन्तु अनन्त हैं। प्रतिनिगोद में अनन्तजीव होने से निगोदजीव द्रव्यापेक्षया अनन्त हैं। इसी तरह इनके अपर्याप्तसूत्र और पर्याप्तसूत्र में भी अनन्त कहना चाहिए। इसी प्रकार सूक्ष्मनिगोदजीव और उनके अपर्याप्त और पर्याप्त विषयक तीनों सूत्रों में भी अनन्त कहना चहिए। इसी प्रकार बादरनिगोदजीव और उनके अपर्याप्त और पर्याप्त विषयक तीन सूत्रों में भी अनन्त कहने चहिए। उक्त वर्णन द्रव्य की अपेक्षा से हुआ। प्रदेशों की अपेक्षा से निगाद और निगोदजीवों के सामान्य तथा अपर्याप्त और पर्याप्त तथा सूक्ष्म और बादर सब अठारह ही सूत्रों में अनन्त कहना चाहिए। क्योंकि प्रत्येक निगोद में अनन्त प्रदेश होते हैं। ये अठारह सूत्र इस प्रकार कहे हैं निगोद ९ तथा निगोदजीवों के ९, कुल १८ हुए। निगोदके ९ सूत्र-निगोदसामान्य, निगोद-अपर्याप्त, निगोद-पर्याप्त; सूक्ष्मनिगोदसामान्य, सूक्ष्मनिगोद अपर्याप्त, सूक्ष्मनिगोद पर्याप्त; बादरनिगोदसामान्य, बादरनिगोद अपर्याप्त और बादरनिगोद पर्याप्त। निगोदजीव के ९ सूत्र-निगोदजीवसामान्य, निगोदजीव अपर्याप्त और निगोदजीव पर्याप्त । सूक्ष्मनिगोदजीव सामान्य और इनके पर्याप्तक और अपर्याप्तक। बादरनिगोदजीव और इनके अपर्याप्त और पर्याप्त। कुल अठारह सूत्र प्रदेशापेक्षया हैं। निगोदों का अल्पबहुत्व __२२४. (अ) एएसि णं भंते! णिगोदाणं सुहुमाणं बायराणं पजत्तयाणं अपजत्तगाणं दव्वट्ठयाए पएसट्ठयाए दव्वपएसट्ठयाए कयरे कयरेहिंतो अप्या वा बहुया वा तुला वा विसेसाहिया वा? ___गोयमा! सव्वत्थोवा बायरणिगोदा पज्जत्तगा दव्यठ्ठयाए, बादरनिगोदा अपजत्तगा दव्वट्ठयाए असंखेज्जगुणा, सुहुमनिगोदा अपज्जत्तगा दव्वठ्ठयाए असंखेजगुणा, सुहुमनिगोदा पज्जत्तगा दव्वट्ठयाए संखेजगुणा, एवं पएसट्ठयाएवि। दव्वपएसठ्ठयाए-सव्वत्थोवा बायरणिगोदा पज्जत्ता दव्वट्ठयासए जाव सुहमणिओदा पजत्ता दव्वट्ठयाए संखेजगुणा।सुहुमणिगोदेहित्तो पजतएहिंतो दव्वट्ठयाए बायरनिगोदा पज्जत्ता पएसठ्ठया अणंतगुणा, बायरणिओदा अपज्जत्ता पएसठ्ठयाए असंखेजगुणा जाव Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षड्विधाख्या पंचम प्रतिपत्ति] [१४९ सुहुमणिओया पजत्ता पएसट्ठयाए संखेजगुणा। एवं णिगोदजीवावि। णवरिं संकमए जाव सुहुमणिओयजीवेहिंतो पजत्तएहितो दव्वट्ठयाए बायरणिओदजीवा पज्जत्ता पदेसट्ठयाए असंखेज्जगुणा, सेसं तहेव जाव सुहुमणिओदजीवा पज्जत्ता पएसट्टयाए संखेजगुणा। २२४. (अ) भगवन् ! इन सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त और अपर्याप्त निगोदों में द्रव्य की अपेक्षा, प्रदेश की अपेक्षा तथा द्रव्य-प्रदेश की अपेक्षा से कौन किससे कम, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक है? गौतम! द्रव्य की अपेक्षा से-सबसे थोड़े बादरनिगोद (मूल-कन्दादिगत) पर्याप्तक हैं (क्योंकि ये प्रतिनियत क्षेत्रवर्ती हैं।) उनसे बादरनिगोद अपर्याप्तक असंख्येयगुण हैं (क्योंकि प्रत्येक बादरनिगोद की निश्रा में असंख्येय अपर्याप्त बादरनिगोद उत्पन्न होते हैं।) उनसे सूक्ष्मनिगोद अपर्याप्तक असंख्येय-गुण हैं, (क्योंकि लोकव्यापी होने से क्षेत्र असंख्येयगुण है।), उनसे सूक्ष्मनिगोद पर्याप्त संख्येयगुण हैं (क्योंकि सूक्ष्मों में अपर्याप्तों से पर्याप्त संख्येयगुण हैं।) प्रदेश की अपेक्षा से-ऊपर कहा हुआ क्रम ही जानना चाहिए। यथा-सबसे थोड़े बादरनिगोद पर्याप्त, उनसे बादरनिगोद अपर्याप्त असंख्यातगुण, उनसे सूक्ष्मनिगोद अपर्याप्त असंख्येयगुण और उनसे सूक्ष्मनिगोद पर्याप्त संख्येयगुण हैं। __द्रव्य-प्रदेश की अपेक्षा से-सबसे थोड़े बादरनिगोद पर्याप्त द्रव्यापेक्षया, उनसे बादर निगोद अपर्याप्त असंख्येयगुण द्रव्यापेक्षया, उनसे सूक्ष्मनिगोद अपर्याप्त असंख्येयगुण द्रव्यापेक्षया, उनसे सूक्ष्मनिगोद पर्याप्त संख्येयगुण द्रव्यापेक्षया, उनसे बादरनिगोद पर्याप्त अनन्तगण प्रदेशापेक्षया. उनसे बादरनिगोद अपर्याप्त असंख्येयगुण प्रदेशापेक्षया, उनसे सूक्ष्मनिगोद अपर्याप्त असंख्येयगुण प्रदेशापेक्षया, उनसे सूक्ष्मनिगोद पर्याप्त संख्येयगुण प्रदेशापेक्षया। निगोदजीवों का अल्पबहुत्व-द्रव्य की अपेक्षा-सबसे थोड़े बादरनिगोदजीव पर्याप्त, उनसे बादरनिगोदजीव अपर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे सूक्ष्मनिगोदजीव अपर्याप्तक असंख्येयगुण, उनसे सूक्ष्मनिगोदजीव पर्याप्त संख्येयगुण हैं। प्रदेशापेक्षया-सबसे थोड़े बादरनिगोदजीव पर्याप्तक, उनसे बादरनिगोदजीव अपर्याप्तक असंख्येयगुण, उनसे सूक्ष्मनिगोदजीव अपर्याप्तक असंख्येयगुण, उनसे सूक्ष्मनिगोदजीव पर्याप्तक संख्येयगुण। द्रव्य-प्रदेशापेक्षया-सबसे थोड़े बादरनिगोदजीव पर्याप्त द्रव्यापेक्षया, उनसे बादरनिगोदजीव अपर्याप्त असंख्यातगुण द्रव्यापेक्षया, उनसे सूक्ष्मनिगोदजीव अपर्याप्त असंख्यगुण द्रव्यापेक्षया, उनसे सूक्ष्मनिगोदजीव पर्याप्त संख्येयगुण द्रव्यापेक्षया, उनसे बादरनिगोदजीव पर्याप्त असंख्येयगुण प्रदेशापेक्षया, उनसे बादरनिगोदजीव अपर्याप्त असंख्येयगुण प्रदेशापेक्षया, उनसे सूक्ष्मनिगोदजीव अपर्याप्त असंख्येयगुण प्रदेशापेक्षया, उनसे सूक्ष्मनिगोदजीव पर्याप्त संख्येयगुण प्रदेशापेक्षया। २२४. (आ) एएसि णं भंते! णिगोदाणं सुहुमाणं बायराणं पज्जत्ताणं अपज्जत्ताणं णिओयजीवाणं सुहुमाणं बायराणं पजत्तगाणं अपजत्तगाण दव्वट्ठयाए, पएसट्ठयाए Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५०] [जीवाजीवाभिगमसूत्र दव्वपएसट्ठयाए कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा बायरणिओदा पजत्ता दव्वट्ठयाए, बायरणिगोदा अपजत्ता दव्वट्ठयाए असंखेजगुणा, सुहुमणिगोदा अपज्जत्ता दव्वट्ठयाए असंखेजगुणा, सुहुमणिगोदा पजत्ता दव्वट्ठयाए संखेजगुणा। सुहुमणिगोदेहितो पजतेहिंतो बायरणिओदजीवा पजत्ता दव्वट्ठयाए अणंतगुणा, बायरणिओदजीवा अपज्जत्ता दव्वट्ठयाए असंखेजगुणा, सुहुमणिओदजीवा अपज्जत्ता दव्वट्ठयाए असंखेजगुणा, सुहमणिओदजीवा पजत्ता दव्वट्ठयाए संखेजगुणा। पएसट्ठयाए सव्वत्थोवा बायरणिगोदजीवा पजत्ता, पएसट्ठयाए बायरणिगोदा अपजत्तगा असंखेजगुणा, सुहुमणिओयजीवा अपजत्तगा पएसट्ठयाए असंखेजगुणा, सुहूमणिओयजीवा पज्जत्ता पएसट्ठयाए संखेजगुणा, सुहुमणिओदजीवेहिंतो पएसट्ठयाए बायरणिगोदा पज्जत्ता पएसट्टयाए अणंतगुणा, बायरणिओया अपज्जत्ता पएसट्टयाए असंखेजगुणा जांव सुहुमणिओदा पज्जत्ता पएसट्ठयासए संखेजगुणा। दव्वट्ठ-पएसट्ठयाए-सव्वत्थोवा बायरणिओया पजत्ता दव्वट्ठयाए, बायरणिओदा अपज्जत्ता दव्वट्ठयाए असंखेज्जगुणा जाव सुहुमणिगोदा पज्जत्ता दव्वट्ठयाए संखेज्जगुणा, सुहुमणिगोदेहितो दव्वट्ठयाए बायरणिगोदजीवा पज्जत्ता दव्वट्ठयाए अणंतगुणा, सेसा तहेव जाव सुहुमणिओदजीवा पज्जत्तगा दव्वट्ठयाए संखेजगुणा, सुहुमणिओदजीवेहिं तो पज्जत्तएहिंतो दव्वट्ठयाए बायरणिओयजीवा पजत्तगा पदेसट्ठयाए असंखेजगुणा, सेसा तहेव जाव सुहुमणिओदा पज्जत्ता पएसट्टयाए संखेजगुणा। से त्तं छव्विहा संसारसमावण्णगा। २२४. (आ) भगवन् ! इन सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त और अपर्याप्त निगोदों में और सूक्ष्म, बादर पर्याप्त और अपर्याप्त निगोदजीवों में द्रव्ययापेक्षया, प्रदेशापेक्षया और द्रव्य-प्रदेशापेक्षया कौन किससे कम, अधिक, तुल्य और विशेषाधिक है? गौतम! सब से कम बादरनिगोद पर्याप्त द्रव्यापेक्षया, उनसे बादरनिगोद अपर्याप्त असंख्येयगुण द्रव्यापेक्षया, उनसे सूक्ष्मनिगोद अपर्याप्त असंख्येयगुण द्रव्यापेक्षया, उनसे सूक्ष्मनिगोद पर्याप्त संख्येयगुण द्रव्यापेक्षया, उनसे बादरनिगोद जीव पर्याप्त अनन्तगुण द्रव्यापेक्षया, उनसे बादरनिगोद जीव अपर्याप्त असंख्येयगुण द्रव्यापेक्षया, उनसे सूक्ष्मनिगोदजीव अपर्याप्त असंख्येयगुण द्रव्यापेक्षया, उनसे सूक्ष्मनिगोद जीव पर्याप्त संख्येयगुण द्रव्यापेक्षया। __ प्रदेशों की अपेक्षा-सबसे थोड़े बादरनिगोदजीव पर्याप्तक, उनसे बादरनिगोद अपर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे सूक्ष्मनिगोदजीव अपर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे सूक्ष्मनिगोदजीव पर्याप्त संख्येयगुण, उनसे बादरनिगोद पर्याप्त अनन्तगुण, उनसे बादरनिगोद अपर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे सूक्ष्मनिगोद Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१५१ षड्विधाख्या पंचम प्रतिपत्ति] अपर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे सूक्ष्मनिगोद पर्याप्त संख्येयगुण। द्रव्यार्थ-प्रदेशार्थ की अपेक्षा-सबसे थोड़े बादरनिगोद पर्याप्त द्रव्यार्थतया, उनसे बादरनिगोद अपर्याप्त असंख्येयगुण द्रव्यार्थतया, उनसे सूक्ष्मनिगोद अपर्याप्त असंख्येयगुण द्रव्यार्थतया, उनसे सूक्ष्मनिगोद पर्याप्त संख्येयगुण द्रव्यार्थतया, उनसे बादरनिगोदजीव पर्याप्त अनन्तगुण द्रव्यार्थतया, उनसे बादरनिगोदजीव अपर्याप्त असंख्येयगुण द्रव्यार्थतया, उनसे सूक्ष्मनिगोदजीव अपर्याप्त असंख्येयगुण द्रव्यार्थतया, उनसे सूक्ष्मनिगोदजीव पर्याप्त संख्येयगुण द्रव्यार्थतया, उनसे बादरनिगोदजीव पर्याप्त असंख्येयगुण प्रदेशार्थतया, उनसे बादरनिगोदजीव अपर्याप्त असंख्येयगुण प्रदेशार्थतया, उनसे सूक्ष्मनिगोदजीव अपर्याप्त असंख्येयगुण प्रदेशार्थतया, उनसे सूक्ष्मनिगोदजीव पर्याप्त संख्येयगुण प्रदेशार्थतया, उनसे बादरनिगोद पर्याप्त अनंतगुण प्रदेशार्थतया, उनसे बादरनिगोद अपर्याप्त असंख्येयगुण प्रदेशार्थतया, उनसे सूक्ष्मनिगोद अपर्याप्त असंख्येयगुण प्रदेशार्थतया, उनसे सूक्ष्मनिगोद पर्याप्त संख्येयगुण प्रदेशार्थतया। उक्त रीति से निगोद और निगोदजीवों का सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त और अपर्याप्त का अल्पबहुत्व द्रव्यापेक्षा, प्रदेशापेक्षया और द्रव्य-प्रदेशापेक्षया बताया गया है। इस प्रकार छह प्रकार के संसारसमापनकों की पंचमी प्रतिपत्ति पूर्ण हुई। ★★★★★★ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तविधाख्या षष्ठ प्रतिपत्ति २२५. तत्थ णं जेते एवमाहंसु-'सत्तविहा संसारसमावण्णगा जीवा' ते एवमाहंसु, तं जहा-नेरइया तिरिक्खा तिरिक्खजोणिणीओ मणुस्सा मणुस्सीओ देवा देवीओ। नेरइयस्स ठिई जहण्णेणं दसवाससहस्साई, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई। तिरिक्खजोणियस्स जहणणेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाइं, एवं तिरिक्खजोणिणीएवि, मणुस्साणवि, मणुस्सीणवि। देवाणं ठिई जहा णेरइयाणं, देवीणं जहण्णेणं दसवाससहस्साइं, उक्कोसेणं पणपन्नपलिओवमाइं। नेरइय-देव-देवीणं जाचेव ठिई साचेव संचिट्ठणा। तिरिक्खजोणियाणं जहन्त्रेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं अणंतकाल, तिरिक्खजोणिणीणं जहन्नेण अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं तिन्नि पलिओवमाइं पुव्वकोडिपुहुत्तमब्भहियाई। एवं मणुस्सस्स मणुस्सीएवि। णेरइयस्स अंतरं जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं वणस्सइकालो। एवं सव्वाणं तिरिक्खजोणियवज्जाणं।तिरिक्खजोणियाणं जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं सागरोवमसयपुहुत्तं सातिरेगं। अप्पाबहुयं-सव्वत्थोवाओ मणुस्सीओ, मणुस्सा असंखेजगुणा, नेरइया असंखेजगुणा, तिरिक्खजोणिणीओ असंखेजगुणाओ, देवा असंखेजगुणा, देवीओ संखेज्जगुणाओ, तिरिक्खजोणिया अणंतगुणा। . सेत्तं सत्तविहा संसारसमावण्णगा जीवा। २२५. जो ऐसा कहते हैं कि संसारसमापन्नकजीव सात प्रकार के हैं, उनके अनुसार वे सात प्रकार ये हैं-नैरयिक, तिर्यंच, तिरश्ची (तिर्यक्स्त्री ), मनुष्य, मानुषी, देव और देवी। नैरियक की स्थिति जघन्य दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की है। तिर्यक्योनिक की जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तीन पल्योपम है। तिर्यक्स्त्री , मनुष्य और मनुष्यस्त्री की भी यही स्थिति है। देवों की स्थिति नैरयिक की तरह जानना चाहिये और देवियों की स्थिति जघन्य दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट पचपन पल्योपम है। . नैरयिक और देवों की तथा देवियों की जो भवस्थिति है, वही उनकी संचिट्ठणा (कायस्थिति) है। तिर्यंचों की जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट अनन्तकाल है। तिर्यस्त्रियों की संचिट्ठणा जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटिपृथकत्व अधिक तीन पल्योपम है। इसी प्रकार मनुष्यों और मनुष्यस्त्रियों की भी Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तविधाख्या षष्ठ प्रतिपत्ति ] संचिट्ठणा जाननी चाहिए । नैरयिकों का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल (अनन्तकाल ) है । तिर्यक्योनिकों को छोड़कर सबका अन्तर उक्त प्रमाण ही कहना चाहिए । तिर्यक्योनिकों का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट साधिक सागरोपमशतपृथक्त्व है। [ १५३ अल्पबहुत्व-सबसे थोड़ी मानुषी स्त्रियाँ, उनसे मनुष्य असंख्यातगुण, उनसे नैरयिक असंख्येयगुण, उनसे तिर्यक् स्त्रियाँ असंख्येयगुण, उनसे देव असंख्येयगुण, उनसे देवियां संख्यातगुण और उनसे तिर्यक्योनिक अनन्तगुण हैं । यह सप्तविधि संसारसमापन्नक प्रतिपत्ति समाप्त हुई । विवेचन - सप्तविधप्रतिपत्ति के अनुसार संसारसमापन्नक जीव सात प्रकार के हैं- नैरयिक, तिर्यक्योनिक, तिर्यक्स्त्रयाँ, मनुष्य, मानुषी स्त्रियाँ, देव और देवियां । इन सातों की स्थिति, संचिट्ठणा, अन्तर और अल्पबहुत्व इस सूत्र में प्रतिपादित है । स्थिति - नैरकि कीस्थिति जघन्य दसहजार वर्ष और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की है । तिर्यक्योनिक, तिर्यक्योनिकस्त्रियां, मनुष्य और मनुष्यस्त्रियां, इनकी जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तीन पल्योपम है । देवों की स्थिति जघन्य दसहजार वर्ष और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम है । देवियों की स्थिति जघन्य दसहजार वर्ष और उत्कृष्ट पचपन पल्योपम की है। यह स्थिति अपरिगृहिता ईशानदेवियों की अपेक्षा से है । संचिट्टणा - नैरयिकों की, देवों की और देवियों की जो भवस्थिति है, वही उनकी संचिट्ठणाकायस्थिति जाननी चाहिए। क्योंकि नैरयिक और देव मरकर अनन्तरभव में नैरयिक या देव नहीं होते । तिर्यक्योनिकों की संचिट्ठणा जघन्य अन्तर्मुहूर्त ( इतने समय बाद अन्यत्र उत्पन्न होना संभव है) और उत्कृष्ट अनन्तकाल है। वह अनन्तकाल अनन्त उत्सर्पिणी - अवसर्पिणीप्रमाण (कालमार्गणा की अपेक्षा से) है तथा क्षेत्रमार्गणा की अपेक्षा असंख्येय लोकाकाशप्रदेशों को प्रतिसमय एक-एक के अपहार करने पर जितने समय में वे खाली हों उतनाकाल समझना चाहिए तथा असंख्येय- पुद्गलपरावर्तप्रमाण वह अनन्तकाल है। आवलिका के असंख्येयभाग में जितने समय हैं उतने वे पुदगलपरावर्त जानना चाहिए । तिर्यंचस्त्रियों की संचिट्ठणा (कायस्थिति) जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम है । निरन्तर पूर्वकोटि आयुष्यवालें सात भव और आठवें भव में देवकूरू आदि में उत्पन्न होने की अपेक्षा से है। मनुष्य और मनुष्यस्त्री सम्बन्धी कार्यस्थिति भी यही समझनी चाहिए। अन्तर- नैरयिक का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त है। यह नरक से निकल कर तिर्यग् या मनुष्य गर्भ में अशुभ अध्यवसाय से मरकर नकर में उत्पन्न होने की अपेक्षा से समझना चाहिए। उत्कर्ष से अनन्तकाल है । यह अनन्तकाल वनस्पतिकाल समझना चाहिए। नरक से निकलकर अनन्तकाल वनस्पति में रहकर फिर नरक में उत्पन्न होने की अपेक्षा है । तिर्यक्योनिक का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कर्ष से साधिक सागरोपमशतपृथक्त्व (दो Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४] [ जीवाजीवाभिगमसूत्र सौ से लेकर नौ सौ सागरोपम) है । तिर्यक्योनिकी, मनुष्य, मानुषी तथा देव, देवी सूत्र में जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल का अन्तर है । अल्पबहुत्व - सबसे थोड़ी मनुष्यस्त्रियां है, क्योंकि वे कतिपय कोटिकोटिप्रमाण हैं। उनसे मनुष्य असंख्येयगुण हैं, क्योंकि सम्मूर्छिम मनुष्य श्रेणी के असंख्येयप्रदेशराशिप्रमाण हैं। उनसे तिर्यंचस्त्रियां असंख्येयगुण हैं, क्योंकि महादण्डक में जलचर तिर्यक्योनिकियों से वान - व्यन्तर- ज्योतिष्क देव भी संख्येयगुण कह गये हैं। उनसे देवियां असंख्येयगुण हैं, क्योंकि वे देवों से बत्तीस गुण हैं। उनसे तिर्यंच अनन्तगुण हैं, क्योंकि वनस्पतिजीव अनन्त हैं । ॥ इति षष्ठ प्रतिपत्ति ॥ ****** १. " बत्तीसगुणा बत्तीसरूव-अहियाओ होंति देवाणं देवीओ" इति वचनात् । Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टविधाख्या सप्तम प्रतिपत्ति २२६. तत्थ णं जेते एवमाहंसु - 'अट्ठविहा संसारसमावण्णगा जीवा' ते एवमाहंसुपढमसमयनेरइया, अपढमसमयनेरइया, पढमसमयतिरिक्खजोणिया, अपढमसमयतिरिक्ख - जोणिया, पढमसमयमणुस्सा, अपढमसमयमणुस्सा, पढमसमयदेवा, अपढमसमयदेवा । पढमसमयनेरइयस्स णं भंते! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता? गोयमा ! जहन्नेणं एक्वं समयं, उक्कोसेणं एक्वं समयं । अपढमसमयनेरइयस्स जहन्त्रेणं दसवाससहस्साइं समय- उणाई उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं समय - उणाई । पढमसमयतिरिक्खजोणियस्स जहन्नेणं एक्कं समय, उक्कोसेणं एक्कं समयं । अपढमसमयतिरिक्खजोणियस्स जहन्नेणं खुड् डागं भवग्गहणं समय- उणं, उक्कोसेणं तिणिपलिओवमाइं समय - उणाई । एवं मणुस्साणवि जहा तिरिक्खजोणियाणं देवाणं जहा णेरइयाणं ठिई । रइय- देवाणं जा चेव ठिई सा चेव संचिट्ठणा दुविहाणवि । पढमसमयतिरिक्खजोणिए णं भंते । पढमसमयतिरिक्खजोणिएत्ति कालओ केवचिरं होई? गोयमा ! जहन्नेणं एक्कं समयं उक्कोसेणवि एवं समयं । अपढमसमयतिरिक्खजोणियस्स जहन्नेणं खुड्डागं भवग्गहणं समय-ऊणं, उक्कोसेणं वणस्सइकालो । पढमसमयमणुस्साणं जहन्नेणं उक्कोसेणं य एक्कं समयं । अपढमसमयमणुस्साणं जहन्नेणं खुड् डागं भवग्गहणं समय-ऊणं उक्को सेणं तिन्नि पलिओवमाइं पुव्वकोडिपुहुत्तमब्भहियाइं समय - ऊणाइं । २२६. जो आचार्यादि ऐसा कहते हैं कि संसारसमापन्नक जीव आठ प्रकार के हैं, उनके अनुसार ये आठ प्रकार इस तरह हैं - १. प्रथमसमयनैरयिक, २. अप्रथमसमयनैरयिक, ३. प्रथमसमयतिर्यग्योनिक, ४. अप्रथममसमयतिर्यग्योनिक, ५. प्रथमसमयमनुष्य, ६. अप्रथमसमयमनुष्य, ७. प्रथमसमयदेव और ८. अप्रथमसमयदेव । स्थिति- भगवन् ! प्रथमसमयनैरयिक की स्थिति कितनी है ? गौतम! जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट से भी एक समय । अप्रथमसमयनैरयिक की जघन्य स्थिति एक समय कम दस हजार वर्ष और उत्कर्ष से एक समय कम तेतीस सागरोपम की है। Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६] [जीवाजीवाभिगमसूत्र प्रथमसमयतिर्यग्योनिक की स्थिति जघन्य एक समय और उत्कृष्ट भी एक समय है। अप्रथमसमयतिर्यग्योनिक की जघन्य स्थिति एक समय कम क्षुल्लकभवग्रहण' है और उत्कृष्ट स्थिति एक समय कम तीन पल्योपम है। इसी प्रकार मनुष्यों की स्थिति तिर्यग्योनिकों के समान और देवों की स्थिति नैरयिको के समान कहनी चाहिए। नैरयिक और देवों की जो स्थिति है, वही दोनों प्रकार के (प्रथमसमय-अप्रथमसमय) नैरयिकों और देवों की कायस्थिति (संचिट्ठणा) है। ___ भगवन् ! प्रथमसमयतिर्यग्योनिक उसी रूप में कितने समय तक रह सकता है। गौतम! जघन्य एक समय और उत्कर्ष से भी एक समय तक रह सकता है। अप्रथमसमयतिर्यग्योनिक जघन्य से एक समय कम क्षुल्लकभव और उत्कृष्ट से वनस्पतिकाल तक रह सकता है। प्रथम समय मनुष्य जघन्य और उत्कृष्ट से एक समय तक और अप्रथमसमयमनुष्य जघन्य से एक समय कम क्षुल्लकभवग्रहण पर्यन्त और उत्कर्ष से एक समय कम पूर्वकोटिपृथकत्व अधिक तीन पल्योपम तक रह सकता है। २२७. अंतरं-पढमसमयणेरइयस्स जहन्नेणं दसवाससहस्साई अंतोमुहुत्तमब्भहियाई, उक्कोसेणं वणस्सइकालो। अपढमसमयणेरइयस्स जहणणेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं वणस्सइकालो। ___ पढमसमयतिरिक्खजोणिए जहण्णेणं दो खुड्डागभवग्गहणाइं समय-ऊणाई, उक्कोसेणं । वणसइकालो। अपढमसमयतिरिक्खजोणियस्स जहण्णेणं खुड्डागभवग्गहणं समयाहियं उक्कोसेणं सागरोवमसयपुहुत्तं सातिरेगं। पढमसमयमणुस्सस्स जहण्णेणं दो खुड्डाइं भवग्गहणाई समय-ऊणाई, उक्कोसेणं वणस्सइकालो। अपढमसमयमणुस्सस्स जहण्णेणं खुड्डागं भवग्गहणं समयाहिंय, उक्कोसेणं वणस्सइकालो। देवाणं जहा णेरइयाणं जहण्णेणं दसवाससहस्साइं अंतोमुहुत्तमब्भहियाई, उक्कोसेणं वणस्सइकालो। अपढमसमयदेवाणं जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं वणस्सइकालो। अप्पाबहुयं-एतेसि णं भंते! पढमसमयणेरइयाणं जाव पढमसमयदेवाण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा०? गोयमा! सव्वत्थोवा पढमसमयमणुस्सा, पढमसमयणेरइया असंखेजगुणा, पढमसमयदेवा असंखेजगुणा, पढमसमयतिरिक्खजोणिया असंखेजगुणा, अपढ मसमयनेरइयाणं जाव अपढ मसमयदेवाणं एवं चेव अप्पाबहु यं, णवरिं अपढमसमयतिरिक्खजोणिया अणंतगणा १.२५६. आवलिकाओं का क्षल्लकभव होता है। Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टविधाख्या सप्तम प्रतिपत्ति] [१५७ एतेसिं पढमसमयनेरइयाणं अपढमसमयणेरइयाणं य कयरे कयरेहिंतो अप्पा०? सव्वत्थोवा पढमसमयणेरइया, अपढमसमयनेरइया असंखेजगुणा। एवं सव्वे। पढमसमयणेरइयाणं जाव अपढमसमयदेवाण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा०? सव्वत्थोवा पढमसमयमणुस्सा, अपढमसमयमणुस्सा असंखेजगुणा, पढमसमयणेरइया असंखेजगुणा, पढ मसमयदेवा असंखेज्जगुणा, पढ मसमयतिरिक्खजोणिया असंखेज्जगुणा, अपढमसमयनेरइया असंखेजगुणा, अपढमसमयदेवा असंखेजगुणा, अपढमसमयतिरिक्खजोणिया अणंतगुणा। सेत्तं अट्टविहा संसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता। अट्ठविहपडिवत्ती समत्ता। २२७. अन्तरद्वार-प्रथमसमयनैरयिक का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त अधिक दस हजार वर्ष है, उत्कृष्ट अन्तर वनस्पतिकाल है। • अप्रथमसमयनैरयिक का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है। प्रथमसमयतिर्यक्योनिक का जघन्य अन्तर एक समय कम दो क्षुल्लकभवग्रहण और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है। . अप्रथमसमयतिर्यक्योनिक का जघन्य अन्तर समयाधिक एक क्षुल्लकभवग्रहण और उत्कृष्ट सागरोपमशतपृथक्त्व से कुछ अधिक है। प्रथमसमयमनुष्य का जघन्य अन्तर एक समय कम दो क्षुल्लकभव है, उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है। अप्रथमसमयमनुष्य का अन्तर जघन्य समयाधिक क्षुल्लकभव है और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है। देवों के सम्बन्ध में नैरयिकों की तरह कहना चाहिए। जैसे कि प्रथमसमयदेव का जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक दस हजार वर्ष और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल है। अप्रथमसमयदेव का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है। ___ अल्पबहुत्वद्वार-भगवन् ! प्रथमसमयनैरयिकों यावत् प्रथमसमयदेवों में कौन किससे कम, अधिक, तुल्य या विशेषाधिक है? गौतम! सबसे थोड़े प्रथमसमयमनुष्य, उनसे प्रथमयसमयनैरयिक असंख्येयगुण, उनसे प्रथमसमयदेव असंख्येयगुण, उनसे प्रथमसमयतिर्यक्योनिक असंख्येयगुण। अप्रथमसमयनैरयिकों यावत् अप्रथमसमयदेवों का अल्पबहुत्व उक्त क्रम से ही है, किन्तु अप्रथमसमयतिर्यक्योनिक अनन्तगुण कहने चाहिए। भगवन् ! प्रथमसमयनैरयिकों और अप्रमसमयनैरयिकों में कौन किससे अल्पादि हैं? गौतम! Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८] [जीवाजीवाभिगमसूत्र सबसे थोड़े प्रथमसमयनैरयिक, उनसे अप्रथमसमयनैरयिक असंख्येयगुण हैं। इसी प्रकार तिर्यक्योनिक, मनुष्य और देवों के प्रथमसमय और अप्रथमसमयों का अल्पबहुत्व कहना चाहिए। भगवन्! प्रथमसमयनैरयिकों यावत् अप्रथमसमयदेवों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक है? गौतम! सबसे थोड़े प्रथमसमयमनुष्य, उनसे अप्रथमसमयमनुष्य असंख्येयगुण, उनसे प्रथमसमयनैरयिक असंख्येयगुण, उनसे प्रथमसमयदेव असंख्येयगुण, उनसे प्रथमसमयतिर्यक् योनिक असंख्येयगुण, उनसे अप्रथमसमयदेव असंख्येयगुण, उनसे अप्रथमसमय तिर्यक्योनिक अनन्तगुण। इस प्रकार आठ तरह के संसारसमापन्नक जीवों का वर्णन हुआ। अष्टविधप्रतिपत्ति नामक सातवीं प्रतिपत्ति पूर्ण हुई। विवेचन-इस सप्तमप्रतिपत्ति में आठ प्रकार के संसारसमापन्नक जीवों का कथन है। नारक, तिर्यग्योनिक, मनुष्य और देव-इन चार के प्रथमसमय और अप्रथमसमय के रूप में दो-दो भेद किये गये, इस प्रकार आठ भेदों में सम्पूर्ण संसारसमापन्नक जीवों का समावेश किया है। __जो अपने जन्म के प्रथमसमय में वर्तमान हैं, वे प्रथमसमयनारक आदि हैं। प्रथमसमय को छोड़कर शेष सब समयों में जो वर्तमान हैं, वे अप्रथमसमयनारक आदि हैं। इन आठों भेदों को लेकर स्थिति, संचिट्ठणा, अन्तर और अल्पबहुत्व का विचार किया गया है। प्रथमसमयनैरयिक की जघन्य और उत्कृष्ट भवस्थिति एक समय की है, क्योंकि द्वितीय आदि समयों में वह प्रथमसमय वाला रहता। अप्रथमसमयनैरयिक की जघन्यस्थिति एक समय कम दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट एकसमय कम तेतीस सागरोपम की है। तिर्यग्योनिकों में प्रथमसमय वालों की जघन्य उत्कर्ष स्थिति एक समय की औरअप्रथमसमय वालों की जघन्य स्थिति एक समय कम क्षुल्लकभव और उत्कर्ष से एकसमय कम तीन पल्योपम है। इसी प्रकार मनुष्यों के विषय में तिर्यंचों के समान और देवों के सम्बन्ध में नारकों के समान भवस्थिति जाननी चाहिए। संचिट्ठणा-देवों और नारकों की जो भवस्थिति है, वही उनकी कायस्थिति (संचिट्ठणा) है, क्योंकि देव और नारक मरकर पुनः देव और नारक नहीं होते। प्रथमसमयतिर्यग्योनिकों की जघन्य संचिट्ठणा एकसमय की है और उत्कृष्ट से भी एक समय की है। क्योंकि तदनन्तर वह प्रथमसमय विशेषण वाला नहीं रहता। अप्रथमसमयतिर्यग्योनिक की जघन्य संचिट्ठणा एक समय कम क्षुल्लकभवग्रहण है, क्योंकि प्रथमसमय में वह अप्रथमसमय विशेषण वाला नहीं है, अतः वह प्रथमसमय कम करके कहा गया है। उत्कृष्ट से वनस्पतिकाल अर्थात् अनन्तकाल कहना चाहिए, जिसका स्पष्टीकरण पूर्व में कालमार्गणा और क्षेत्रमार्गणा से किया गया है। __ प्रथमसमयमनुष्यों की जघन्य, उत्कृष्ट संचिट्ठणा एकसमय की है और अप्रथमसमयमनुष्यों की जघन्य एकसमय कम क्षुल्लकभवग्रहण और उत्कृष्ट से पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम में एक Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टविधाख्या सप्तम प्रतिपत्ति] [१५९ समय कम संचिट्ठणा है। पूर्वकोटि आयुष्क वाले लगातार सात भव और आठवें भव में देवकुरू आदि में उत्पन्न होने की अपेक्षा से उक्त संचिठ्ठणाकाल जानना चाहिए। अन्तरद्वार-प्रथमसमयनैरयिक का अन्तर जघन्य से अन्तर्मुहूर्त अधिक दसहजार वर्ष है। यह दसहजार वर्ष की स्थिति वाले नैरयिक के नरक से निकलकर अन्तर्मुहूर्त कालपर्यन्त अन्यत्र रहकर फिर नरक में उत्पन्न होने की अपेक्षा से हे । उत्कर्ष से अनन्तकाल है, जो नरक से निकलने के पश्चात् वनस्पति में अनन्तकाल तक उत्पन्न होने के पश्चात् पुनः नरक में उत्पन्न होने की अपेक्षा से है। __अप्रथमसमयनैरयिक का जघन्य अन्तर समयाधिक अन्तर्मुहूर्त है। यह नरक से निकल कर तिर्यगर्भ में या मनुष्यगर्भ में अन्तर्मुहूर्त काल तक रहकर पुनः नरक में उत्पन्न होने की अपेक्षा से है। प्रथमसमय अधिक होने से समयाधिकता कही गई है। कहीं पर केवल अन्तर्मुहूर्त ही कहा गया है। इस कथन में प्रथम समय को भी अन्तर्मुहूर्त में ही सम्मिलित कर लिया गया है, अतः पृथक् नहीं कहा गया है। उत्कर्ष से अन्तर वनस्पतिकाल है। प्रथमसमयतिर्यक्योनिक में जघन्य अन्तर एकसमय कम दो क्षुल्लकभवग्रहण है। ये क्षुल्लक मनुष्यभव ग्रहण के व्यवधान से पुनः तिर्यंचों में उत्पन्न होने की अपेक्षा से हैं। एकभव तो प्रथम-समय कम तिर्यक्-क्षुल्लकभव और दूसरा सम्पूर्ण मनुष्य का क्षुल्लकभवग्रहण है। उत्कर्ष से वनस्पतिकाल है। उसके व्यतीत होने पर मनुष्यभव व्यवधान से पुनः प्रथमसमयतिर्यंच के रूप में उत्पन्न होने की अपेक्षा है। __ अप्रथमसमयतिर्यग्योनिक का जघन्य अन्तर समयाधिक क्षुल्लकभवग्रहण है। यह तिर्यक्योनिकक्षुलकभवग्रहण के चरम समय को अधिकृत अप्रथमसमय मानकर उसमें मरने के बाद मनुष्य का क्षुल्लकभवग्रहण और फिर तिर्यंच में उत्पन्न होने के प्रथम समय व्यतीत हो जाने की अपेक्षा जानना चाहिए। उत्कर्ष से साधिक सागरोपमशतपृथक्त्व है। देवादि भवों में इतने काल तक भ्रमण के पश्चात् पुनः तिर्यंच में उत्पन्न होने की अपेक्षा से है। मनुष्यों की वक्तव्यता तिर्यक्-वक्तव्यता के अनुसार ही है। केवल वहां व्यवधान तिर्यक्भव का कहना चाहिए। देवों का कथन नैरयिकों के समान ही है। अल्पबहुत्व-प्रथम अल्पबहुत्व प्रथमसमयनैरयिकों यावत् प्रथमसमयदेवों को लेकर कहा गया है जो इस प्रकार है सबसे थोड़े प्रथमसमयमनुष्य हैं। ये श्रेणी के असंख्येयभाग में रहे हुए आकाश-प्रदेशतुल्य हैं। उनसे प्रथमसमयनैरयिक असंख्येयगुण हैं, क्योंकि एक समय में ये अतिप्रभूत उत्पन्न हो सकते हैं। उनसे प्रथमसमयदेव असंख्येयगुण हैं-व्यन्तर ज्योतिष्कदेव एकसमय में अतिप्रभूततर उत्पन्न हो सकते हैं । उनसे प्रथमसमयतिर्यंच असंख्येयगुण हैं। यहां नरकादि तीन गतियों से आकर तिर्यंच के प्रथमसमय में वर्तमान हैं, वे ही प्रथमसमयतिर्यक हैं, शेष नहीं। अतः यद्यपि प्रतिनिगोद का असंख्येयभाग सदा विग्रहगति के प्रथमसमयवर्ती होता है, तो भी निगोदों के भी तिर्यक्त्व होने से वे प्रथमसमयतिर्यंच नहीं Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६०] [जीवाजीवाभिगमसूत्र हैं। वे इनसे संख्येयगुण ही हैं। दूसरा अल्पबहुत्व अप्रथमसमयनैरयिकों यावत् अप्रथमसमयदेवों को लेकर कहा गया है। वह इस प्रकार है सबसे थोड़े अप्रथमसमयमनुष्य हैं, क्योंकि ये श्रेणी के असंख्येयभागप्रमाण है। उनसे अप्रथमसमयनैरयिक असंख्येयगुण हैं, क्योंकि ये अंगुलमात्र क्षेत्र की प्रदेशराशि के प्रथमवर्गमूल में द्वितीयवर्गमूल का गुणा करने पर जितनी प्रदेशराशि होती है, उतनी श्रेणियों में जितने आकाशप्रदेश हैं, उनके बराबर वे हैं। उनसे अप्रथमसमयदेव असंख्येयंगुण हैं, क्योंकि व्यन्तर ज्योतिष्कदेव भी अतिप्रभूत हैं। उनसे अप्रथमसमय तिर्यंच अनन्तगुण हैं, क्योंकि वनस्पतिकाय अनन्त हैं। तीसरा अल्पबहुत्व प्रत्येक नैरयिकादिकों में प्रथमसमय और अप्रथमसमय को लेकर है। वह इस प्रकार है-सबसे थोड़े प्रथमसमयनैरयिक हैं, क्योंकि एक समय में संख्यातीत उत्पन्न होने पर भी स्तोक ही हैं। उनसे अप्रथमसमयनैरयिक असंख्येयगुण हैं, क्योंकि यह चिरकाल-स्थायी होने से अन्य-अन्य बहुत समयों में अतिप्रभूत उत्पन्न होते हैं। इस तरह तिर्यक्योनिक, मनुष्य और देवों में भी कहना चाहिए। विशेषता यह है कि तिर्यक्योनिकों में अप्रथमसमयतिर्यग्योनिक अनन्तगुण कहने चाहिए, क्योंकि वनस्पतिजीव अनन्त हैं। चौथा अल्पबहुत्व प्रथमसमय और अप्रथमसमय नारकादि का समुदितरूप में कहा गया है। सबसे थोड़े प्रथमसमयमनुष्य हैं, क्योंकि एक समय में संख्यातीत उत्पन्न होने पर भी स्तोक ही हैं। उनसे अप्रथमसमयमनुष्य असंख्येयगुण हैं, क्योंकि चिरकालस्थायी होने से वे अतिप्रभूत उपलब्ध होते हैं। उनसे प्रथमसमयनैरयिक असंख्येयगुण हैं, एक समय में अतिप्रभूत उत्पन्न होने से। उनसे प्रथमसमयदेव असंख्येयगुण हैं वयन्तर ज्योतिष्कों में प्रभूत उत्पन्न होने से। उनसे प्रथमसमयतिर्यग्योनिक असंख्येयगुण है, क्योंकि नारकादि तीनों गतियों से आकर जीवों की उत्पत्ति होती रहती है। उनसे अप्रथमसमयनैरयिक असंख्येयगुण हैं, क्योंकि वे अंगुलमात्रक्षेत्रप्रदेशराशि के प्रथम वर्गमूल में द्वितीय वर्गमूल का गुणा करने पर जो प्रदेशराशि होती है, उतनी श्रेणीयों में जितनी प्रदेशराशि है, उसके तुल्य हैं। उनसे अप्रथमसमयतिर्यग्योनिक अनन्तगुण हैं, क्योंकि वनस्पतिजीव अनन्त हैं। इस प्रकार अष्टविधसंसारसमापन्नकजीवों का कथन करने वाली सप्तम प्रतिपत्ति पूर्ण हुई। ॥ इति सप्तम प्रतिपत्ति ॥ XXXXXX Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवविधाख्या अष्टम प्रतिपत्ति २२८. तत्थ णं जेते एवमाहंसु-'णवविहा संसारसमावण्णगा जीवा' ते एवमाहंसुपुढविक्काइया, आउकाइया, तेउक्काइया, वाउक्काइया, वणस्सइकाइया, बेइंदिया, तेइंदिया, चरिंदिया, पंचिंदिया। ठिई सव्वेसिं भाणियव्वा। पुढवीक्काइयाणं संचिट्ठणा पुढविकालो जाव वाउक्काइयाणं। वणस्सइकाइयाणं वणस्सइकालो। वेइंदिया तेइंदिया चउरिंदिया संखेज कालं। पंचिंदियाणं सागरोवमसहस्सं साइरेगं। अंतरं सव्वेसिं अणंतकालं। वणस्सइकाइयाणं असंखेजकालं। अप्पावहुगं-सव्वत्थोवा पंचिंदिया, चउरिंदिया विसेसाहिया, तेइंदिया विसेसाहिया, बेइंदिया विसेसाहिया, तेउक्काइया असंखेजगुणा, पुढविकाइया आउकाइया वाउकाइया विसेसाहिया, वणस्सइकाइया अणंतगुणा। सेत्तं णवविधा संसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता। णवविहपडिवत्ति समत्ता। २२८. जो नौ प्रकार के संसारसमापन्नक जीवों का कथन करते हैं, वे ऐसा कहते हैं--१. पृथ्वीकायिक, २. अप्कायिक, ३. तेजस्कायिक, ४. वायुकायिक, ५. वनस्पतिकायिक, ६. द्वीन्द्रिय, ७. त्रीन्द्रिय, ८. चतुरिन्द्रिय और ९. पंचेन्द्रिय। सबकी स्थिति कहनी चाहिए। पृथ्वीकायिकों की संचिट्ठणा पृथ्वीकाल है, इसी तरह वायुकाय पर्यन्त कहना चाहिए। वनस्पतिकाय की संचिट्ठणा अनन्तकाल (वनस्पतिकाल) है। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय की संचिट्ठणा संख्येय काल है और पंचेन्द्रियों की संचिट्ठणा साधिक हजार सागरोपम है। सबका अन्तर अनन्तकाल है। केवल वनस्पतिकायिकों का अन्तर असंख्येयकाल है। अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े पंचेन्द्रिय हैं, उनसे चतुरिन्द्रिय विशेषाधिक हैं, उनसे त्रीन्द्रिय विशेषाधिक हैं, उनसे द्वीन्द्रिय विशेषाधिक हैं, उनसे तेजस्कायिक असंख्येयगुण हैं, उनसे पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, वायुकायिक क्रमशः विशेषाधिक हैं और उनसे वनस्पतिकायिक अनन्तगुण हैं। इस तरह नवविध संसारसमापन्नकों का कथन पूरा हुआ। नवविध प्रतिपत्ति नामक अष्टमी प्रतिपत्ति Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ जीवाजीवाभिगमसूत्र १६२] पूर्ण हुई। विवेचन - जो नौ प्रकार के ससारसमापन्नकों का प्रतिपादन करते हैं, उनके मन्तव्य के अनुसार वे नौ प्रकार हैं - १. पृथ्वीकायिक, २. अप्कायिक, ३. तेजस्कायिक, ४. वायुकायिक, ५. वनस्पतिकायिक, ६. द्वीन्द्रिय, ७. त्रीन्द्रिय, ८. चतुरिन्द्रिय और ९. पंचेन्द्रिय । स्थिति - इनकी स्थिति इस प्रकार है - सबकी जघन्यस्थिति अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्टस्थिति में पृथ्वीका की बावीस हजार वर्ष, अप्काय की सात हजार वर्ष, तेजस्काय की तीन अहरोत्र, वायुकायिक की तीन हजार वर्ष, वनस्पतिकायिकों की दस हजार वर्ष, द्वीन्द्रिय की बारह वर्ष, त्रीन्द्रिय की ४९ दिन, चतुरिन्द्रिय की छह मास और पंचेन्द्रिय की तेतीस सागरोपम हैं । संचिट्ठणा- इन सबकी जघन्य संचिट्ठणा (कायस्थिति) अन्तर्मुहूर्त है । उत्कर्ष से पृथ्वीकाय की असंख्येयकाल ( जिसमें असंख्येय उत्सर्पिणियां अवसर्पिणियां कालमार्गणा से समाविष्ट हैं तथा क्षेत्रमार्गणा से असंख्येय लोकाकाशों के प्रदेशों के अपहारकालप्रमाण काल समाविष्ट है ।) इसी तरह अप्कायिकों, तेजस्कायिकों और वायुकायिकों की भी यही संचिट्ठणा कहनी चाहिए। वनस्पतिकाय की संचिट्ठणा अनन्तकाल है । इस अनन्तकाल में अनन्त उत्सर्पिणियां अवसर्पिणियां समाविष्ट हैं तथा क्षेत्र से अनन्तलोकों के आकाशप्रदशों का अपहारकाल तथा असंख्येयपुद्गलपरावर्त समाविष्ट हैं । पुद्गलपरावर्तों का प्रमाण आवलिका के असंख्येयभागवर्ती समयों के बराबर है। द्वीन्द्रिय की संचिट्ठणा संख्येयकाल है। त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय की संचिट्ठणा भी संख्येयकाल है । पंचेन्द्रिय की संचिट्ठणा साधिक हजार सागरोपम है। अन्तरद्वार- पृथ्वीकायिक का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कर्ष अनन्तकाल है । अनन्तकाल का प्रमाण पूर्ववत् जानना चाहिए। पृथ्वीकाय से निकलकर वनस्पति में अनन्तकाल रहने के पश्चात् पुन: पृथ्वीकाय में उत्पन्न होने की अपेक्षा से है । इसी प्रकार अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रय और पंचेन्द्रियों का भी अन्तर जानना चाहिए । वनस्पतिकाय का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कर्ष से असंख्येयकाल है । यह असंख्येयकाल असंख्यात उत्सर्पिणी- अवसर्पिणी रूप आदि पूर्ववत् जानना चाहिए । अल्पबहुत्वद्वार - सबसे थोड़े पंचेन्द्रिय हैं। क्योंकि ये संख्येय योजन कोटी कोटी प्रमाण विष्कंभसूची से प्रतरासंख्येय भागवर्ती असंख्येय श्रेणीगत आकाशप्रदेशराशि के बराबर हैं। उनसे चतुरिन्द्रिय विशेषाधिक हैं, क्योंकि इनकी विष्कंभसूची प्रभूत संख्येययोजन कोटाकोटी प्रमाण है। उनसे त्रीन्द्रिय विशेषाधिक हैं, क्योंकि इनकी विष्कंभसूची प्रभूततर संख्येययोजन कोटाकोटी प्रमाण । उनसे द्वीन्द्रिय विशेषाधिक हैं, क्योंकि इनकी विष्कंभसूची प्रभुततर संख्येययोजन कोटीकोटी प्रमाण है। तेजस्कायिक असंख्येयगुण हैं, क्योंकि ये असंख्येय लोकाकाशप्रदेश प्रमाण हैं। उनसे पृथ्वीकायिक विशेषाधिक हैं, क्योंकि ये प्रभूतासंख्येय लोकाकाशप्रदेश प्रमाण हैं। उनसे पृथ्वीकायिक विशेषाधिक हैं, क्योंकि ये प्रभूतासंख्येय लोकाकाशप्रदेश प्रमाण हैं। उनसे अपकायिक विशेषाधिक हैं, क्योंकि प्रभूततरासंख्येय लोकाकाशप्रदेश प्रमाण हैं। उनसे वायुकायिक विशेषाधिक हैं, क्योंकि ये प्रभूततमासंख्येय लोकाकाशप्रदेश प्रमाण हैं। उनसे वनस्पतिकायिक अनन्तगुण हैं, क्योंकि ये अनन्त लोकाकाशप्रदेश प्रमाण हैं। ॥ इति नवविधप्रतिपत्तिरूपा अष्टमी प्रतिपत्ति ॥ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशविधाख्या नवम प्रतिपत्ति २२९. तत्थ णं जेते एवमाहंसु 'दसविहा संसारसमावण्णगा जीवा' ते एवमाहंसु, तं जहा १. पढमसमयएगिंदिया २. अपढमसमयएगिंदिया ३. पढमसमयबेइंदिया ४. अपढमसमयबेइंदिया ५. पढमसमयतेइंदिया ६. अपढमसमयतेइंदिया ७. पढमसमयचउरिंदिया .. ८.अपढमसमयचउरिंदिया ९. पढमसमयपंचिंदिया १०. अपढमसमय पंचिंदिया। पढमसमयएगिंदियस्स णं भंते! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता? गोयमा! जहण्णेणं एवं समयं, उक्कोसेणवि एक्कं समयं। अपढमसमयएगिंदियस्स जहण्णेणं खुड्डागं भवग्गहणं समय-ऊणं, उक्कोसेणं बावीसंवाससहस्साइं समय-ऊणाई। एवं सव्वेसिं पढमसमयिकाणं जहण्णेणं एक्को समओ, उक्कोसेणं एक्को समओ। अपढमसमयिकाणं जहण्णेणं खुड्डागं भवग्गहणं समय-ऊणं, उक्कोसेणं जा जस्स ठिई सा समय-ऊणा जाव पंचिंदियाणं तेत्तीसं सागरोवमाइं समय-ऊणाई। - संचिट् ठणा पढमसमइयस्स जहण्णेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं एवं समयं । अपढमसमयिकाणं जहण्णेणं खुड्डागं भवग्गं भग्गहणं समय-ऊणं, उक्कोसेणं एगिंदियाणं वणस्सइकालो। बेइंदिय-तेइंदिय-चउरिदियाणं संखेजकालं। पंचेंदियाणं सागरोवमसहस्सं सातिरेगं। __२२९. जो आचार्यादि दस प्रकार के संसारसमापनक जीवों का प्रतिपादन करते हैं, वे उन जीवों के दस प्रकार इस तरह कहते हैं १. प्रथमसमयएकेन्द्रिय २. अप्रथमसमयएकेन्द्रिय ३. प्रथमसमयद्वीन्द्रिय ४. अप्रथमसमयद्वीन्द्रिय ५. प्रथमसमयत्रीन्द्रिय ६. अप्रथमसमयत्रीन्द्रिय ७. प्रथमसमयचतुरिन्द्रिय ८. अप्रथमसमयचतुरिन्द्रिय ९. प्रथमसमयपंचेन्द्रिय १०. अप्रथमसमयपंचेन्द्रिय भगवन् ! प्रथमसमयएकेन्द्रिय की स्थिति कितनी है? गौतम! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट भी Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४] [जीवाजीवाभिगमसूत्र एक समय है। अप्रथमसमयएकेन्द्रिय की जघन्य एक समय कम क्षुल्लक-भवग्रहण और उत्कर्ष से भी एक समय कम बावीस हजार वर्ष । इस प्रकार सब प्रथमसमयिकों की जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से भी एक समय की स्थिति कहनी चाहिए। अप्रथमसमय वालों की स्थिति जघन्य से एक समय कम क्षुल्लकभव और उत्कर्ष से जिसकी जो स्थिति कही गई है, उसमें एक समय कम करके कथन करना चाहिए यावत् पंचेन्द्रिय की एकसमय कम तेतीस सागरोपम की स्थिति है। __ प्रथमसमयवालों की संचिट्ठणा (कायस्थिति) जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से भी एक समय है। अप्रथमसमयवालों की जघन्य से एक समय कम क्षुल्लकभवग्रहण और उत्कर्ष से एकेन्द्रियों की वनस्पतिकाल और द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रियों की संखेयकाल एवं पंचेन्द्रियों की साधिक हजार सागरोपम पर्यन्त संचिट्ठणा (कार्यस्थिति) है। २३०. पढमसमयएगिंदियाणं के वइयं अंतरं होइ? गोयमा! जहण्णणं दो खुड्डागभवग्गहणाइं समय-ऊणाई, उक्कोसेणं वणस्सइकालो।अपढमसमयएगिंदियाणं अंतर जह ण्णणं खुड्डागभवग्गहणं समयाहि यं, उक्कोसेणं दो सागरोवमसहस्साई संखेजवासमब्भहियाइं। सेसाणं सव्वेसिं पढमसमयिकाणं अंतरं जहण्णेणं खुड्डाई भवग्गहणाई समय-ऊणाइं, उक्कोसेणं वसणस्सइकालो। अपढमसमयिकाणं सेसाणं जहण्णेणं खड्डागं भवग्गहणं समयाहियं उक्कोसेणं वणस्सइकालो। पढमसमयाणं सव्वेसिं सव्वत्थोवा पढमसमयपंचेंदिया, पढमसमयचउरिंदिया । विसेसाहिया, पढमसमयतेइंदिया विसेसाहिसा, पढमसमयबेइंदिया विसेसाहिया, पढमसमयऐगिंदिया विसेसाहिया। एवं अपढमसमयिकावि णवरिं अपढमसमयएगिंदिया अणंतगुणा। दोण्हं अप्पबहुयं-सव्वत्थोवा पढमसमयएगिंदिया, अपढमसमयएगिंदियाणं अणंतगुणा। सेसाणं सव्वत्थोवा पढमसमयिका, अपढमसमयिका असंखेजगुणा। एएसि गं भंते! पढमसमयएगिंदियाणं अपढमसमयएगिंदियाणं जाव अपढमसमयपंचिंदियाण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा, बहुआ वा, तुल्ला वा, विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा पढमसमयपंचिंदिया, पढमसमयचउरिंदिया विसेसाहिया, पढमसमयतेइंदिया विसेसाहिया एवं हेट्ठामुहा जाव पढमसमयएगिंदिया विसेसाहिया, अपढमसमयपंचिदिंया असंखेजगुणा, अपढमसमयचउरिंदिया विसेसाहिया जाव अपढमसमयएगिंदिया अणंतगुणा। सेत्तं दसविहा संसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता। सेत्तं संसारसमावण्णगजीवाभिगमे। Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशविधाख्या नवम प्रतिपत्ति] [१६५ ___२३०. भगवन्! प्रथमसमयएकेन्द्रियों का अन्तर कितना होता है? गौतम! जघन्य से समय कम दो क्षुल्लकभवग्रहण और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है। अप्रथमसमयएकेन्द्रिय का जघन्य अन्तर एकसमय अधिक एक क्षुल्लकभव है और उत्कृर्ष से संख्यात वर्ष अधिक दो हजार सागरोपम है। शेष सब प्रथमसमयिकों का अन्तर जघन्य से एक समय कम दो क्षुल्लकभवग्रहण है और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल है। शेष अप्रथमसमयिकों का जघन्य अन्तर समयाधिक एक क्षुल्लकभवग्रहण है और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल है। सब प्रथमसमयिकों में सबसे थोड़े प्रथमसमय पंचेन्द्रिय हैं, उनसे प्रथमसमयचतुरिन्द्रिय विशेषाधिक हैं, उनसे प्रथम समयत्रीन्द्रिय विशेषाधिक हैं, उनसे प्रथमसमयद्वीन्द्रिय विशेषाधिक हैं और उनसे प्रथमसमयएकेन्द्रिय विशेषाधिक हैं। इसी प्रकार अप्रथमसमयिकों का अल्पबहुत्व भी जानना चाहिए। विशेषता यह है कि अप्रथमसमयएकेन्द्रिय अनन्तगुण है। दोनों का अल्पबहुत्व-सबसे थोड़े प्रथमसमयएकेन्द्रिय, उनसे अप्रथमसमयएकेन्द्रिय अनन्तगुण हैं। शेष में सबसे थोड़े प्रथमसमय वाले हैं और अप्रथमसमय वाले असंख्येयगुण हैं। भगवन! इन प्रथमसमयएकेन्द्रिय, अप्रथमसमयएकेन्द्रिय यावत् अप्रथमसमयपंचेन्द्रियों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक है? गौतम! सबसे थोड़े प्रथमसमयपंचेंन्द्रिय, उनसे प्रथमसमयचतुरिन्द्रिय विशेषाधिक, उनसे प्रथमसमयत्रीन्द्रिय विशेषाधिक, उनसे प्रथमसमयद्वीन्द्रिय विशेषाधिक, उनसे प्रथमसमयएकेन्द्रिय, विशेषाधिक, उनसे अप्रथमसमयपंचेन्द्रिय असंख्येयगुण, उनसे अप्रथमसमयचतुरिन्द्रिय विशेषाधिक, उनसे अप्रथमसमयत्रीन्द्रिय विशेषाधिक, उनसे अप्रथमसमयद्वीन्द्रिय विशेषाधिक, उनसे अप्रथमसमय एकेन्द्रिय अनन्तगुण हैं। - इस प्रकार दस प्रकार के संसारसमापनक जीवों का कथन पूर्ण हुआ। इस प्रकार संसारसमापन्नकजीवाभिगम का वर्णन पूरा हुआ। विवेचन-प्रस्तुत प्रतिपत्ति में संसारसमापन्नक जीवों के दस भेद कहे गये हैं, जो एकन्द्रिय से लगातार पंचेन्द्रियों के प्रथमसमय और अप्रथमसमय रूप में दो-दो भेद करने पर प्राप्त होते हैं। प्रथमसमयएकेन्द्रिय वे हैं जो एकेन्द्रियत्व के प्रथमसमय में वर्तमान हैं, शेष एकेन्द्रिय अप्रथमसमयएकेन्द्रिय हैं। इसी तरह द्वीन्द्रियादि के सम्बन्ध में भी जानना चाहिए। उक्त दसों की स्थिति, संचिट्ठणा, अन्तर और अल्पबहुत्व इस प्रतिपत्ति में प्रतिपादित है। स्थिति-प्रथमसमयएकेन्द्रिय की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति एक समय की हैं, क्योंकि दूसरे समयों में वह प्रथमसमय वाला नहीं रहता। इसी प्रकार प्रथमसमय वाले द्वीन्द्रियों आदि के विषय में भी समझ लेना चाहिए। अप्रथमसमयएकेन्द्रिय की स्थित जघन्य से एक समय कम क्षुल्लकभव (२५६ आवलिका-प्रमाण) है। एकसमय कम कहने का तात्पर्य यह है कि प्रथमसमय में वह अप्रथमसमय वाला नहीं है। उत्कर्ष में एक समय कम बावीस हजार वर्ष की स्थिति है। Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ जीवाजीवाभिगमसूत्र अप्रथमसमयद्वीन्द्रिय में जघन्यस्थिति समयकम क्षुल्लकभवग्रहण और उत्कृष्ट समयकम बारह वर्ष, अप्रथमसमयत्रीन्द्रियों की जघन्यस्थिति समय कम क्षुल्लकभव और उत्कृष्ट समयकम ४९ अहोरात्र है। अप्रथमसमयचतुरिन्द्रि की जघन्य स्थिति समयोन क्षुल्लकभव और उत्कृष्ट समयोन छहमास है । अप्रथमसमयपंचेन्द्रियों की जघन्य स्थिति समयोन क्षुल्लकभव और उत्कृष्ट समयोन तेतीस सागरोपम है । सर्वत्र समयोनता प्रथमसमय से हीन समझना चाहिए। १६६ ] संचिणा (कायस्थिति ) - प्रथमसमयएकेन्द्रिय उसी रूप में एक समय तक रहता है। इसके बाद प्रथमसमय वाला नहीं रहता। इसी तरह प्रथमसमयद्वीन्द्रियादि के विषय में भी समझना चाहिए । अप्रथमसमयएकेन्द्रिय जघन्य से एक समय कम क्षुल्लकभवग्रहण तक रहता है । फिर अन्यत्र कहीं उत्पन्न हो सकता है। उत्कर्ष से अनन्तकाल तक रहता है। अनन्तकाल का स्पष्टीकरण पूर्ववत् अनन्त अवसर्पिणी-उत्सर्पिणीकाल पर्यन्त आदि जानना चाहिए। I अप्रथमसमयद्वीन्द्रिय जघन्य समयोन क्षुल्लकभव, उत्कर्ष से संख्येकाल तक रहता है, फिर अवश्य अन्यत्र उत्पन्न होता है । इसी तरह अप्रथमसमयत्रीन्द्रिय- चतुरिन्द्रिय के लिए भी समझना चाहिए । अप्रथमसमयपंचेन्द्रिय जघन्य से समयोन क्षुल्लकभव और उत्कर्ष से अधिक हजार सागरोपम तक रहता है, क्योंकि देवादिभवों में लगातार परिभ्रमण करते हुए उत्कर्ष से इतने काल तक ही पंचेन्द्रिय के रूप रह सकता है। अन्तरद्वार-प्रथमसमयएकेन्द्रिय का अन्तर जघन्य से समयोन दो क्षुल्लकभव है। वे क्षुल्लकभव द्वीन्द्रियादि भवग्रहण के व्यवधान से पुनः एकेन्द्रिय में उत्पन्न होने की अपेक्षा से हैं। जैसे कि एक भव तो प्रथमसमय कम एकेन्द्रिय का क्षुल्लकभव और दूसरा भव द्वीन्द्रियादि का सम्पूर्ण क्षुल्लकभव इस तरह. समयोन दो क्षुल्लकभव जानने चाहिए। उत्कर्ष से वनस्पतिकाल - अनन्तकाल है, जिसका स्पष्टीकरण पूर्व में बताया जा चुका है । इतने काल तक वह अप्रथमसमय है, प्रथमसमय नहीं। क्योंकि द्वीन्द्रियादि में क्षुल्लकभव के रूप में रहकर फिर एकेन्द्रिय रूप में उत्पन्न होने पर प्रथमसमय में प्रथमसमयएकेन्द्रिय कहा जाता है । अत: उत्कृष्ट अन्तर वनस्पतिकाल कहा गया है। अप्रथमसमयएकेन्द्रिय का जघन्य अन्तर समयाधिक क्षुल्लकभवग्रहण है । उस एकेन्द्रियभवगत चरमसमय को अधिक अप्रथमसमय मानकर उसमें मरकर द्वीन्द्रियादि क्षुल्लकभवग्रहण का व्यवधान होने पर फिर एकेन्द्रिय रूप में उत्पन्न होने का प्रथमसमय बीत जाने पर प्राप्त होता है । इतने काल का अप्रथमसमएकेन्द्रिय का अन्तर प्राप्त होता है । उत्कर्ष से संख्येयवर्ष अधिक दो हजार सागरोपम का अन्तर हो सकता है । द्वीन्द्रियादि भवभ्रमण लगातार इतने काल तक ही सम्भव 1 प्रथमसमयद्वीन्द्रिय का जघन्य अन्तर समयोजन दो क्षुल्लकभवग्रहण है । एक तो प्रथमसमयहीन द्वीन्द्रिय का क्षुल्लकभव और दूसरा सम्पूर्ण एकेन्द्रिय-त्रीन्द्रियादि का कोई भी क्षुल्लकभवग्रहण है । इसी प्रकार प्रथमसमयत्रीन्द्रिय, प्रथमसमयचतुरिन्द्रिय और प्रथमसमयपंचेन्द्रियों का अन्तर भी जानना चाहिए । अप्रथमसमयद्वीन्द्रिय का जघन्य अन्तर समयाधिक क्षुल्लकभवग्रहण है । वह अन्यत्र क्षुल्लक | भव पर्यन्त रहकर पुन: द्वीन्द्रिय के रूप में उत्पन्न होने का प्रथमसमय बीत जाने पर प्राप्त होता है । उत्कर्ष से Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशविधाख्या नवम प्रतिपत्ति] [१६७ अनन्तकाल का अन्तर है। यह अनन्तकाल पूर्ववत् अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणियों का होता है आदि कथन करना चाहिए। द्वीन्द्रियभव से निकल कर इतने काल तक वनस्पति में रहकर पुनः द्वीन्द्रिय रूप में उत्पन्न होने से प्रथमसमय बीत जाने के पश्चात् यह अन्तर प्राप्त होता है। इसी तरह अप्रथमसमय त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय का जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर समझना चाहिए। अल्पबहुत्वद्वार-पहला अल्पबहुत्व प्रथमसमयिकों को लेकर कहा गया है। वह इस प्रकार है सबसे थोड़े प्रथमसमयपंचेन्द्रिय हैं, क्योंकि वे एक समय में थोड़े ही उत्पन्न होते हैं। उनसे प्रथमसमयचतुरिन्द्रिय विशेषाधिक हैं, क्योंकि वे एकसमय में प्रभूत उत्पन्न होते हैं। उनसे प्रथमसमयत्रीन्द्रिय विशेषाधिक हैं, क्योंकि वे एकसमय में प्रभूततर उत्पन्न होते हैं। उनसे प्रथमसमयद्वीन्द्रिय विशेषाधिक हैं, क्योंकि वे एक समय में में प्रभूततम उत्पन्न होते हैं। उनसे प्रथमसमयएकेन्द्रिय विशेषाधिक हैं। यहां जो द्वीन्द्रियादि से निकलकर एकेन्द्रिय रूप में उत्पन्न होते हैं और प्रथमसमय में वर्तमान हैं वे ही प्रथमसमयएकेन्द्रिय जानना चाहिए, अन्य नहीं। वे प्रथमसमयद्वीन्द्रियों से विशेषाधिक ही हैं, असंख्येय या अनन्तगुण नहीं। दूसरा अल्पबहुत्व अप्रथमसमयिकों का लेकर कहा गया है। वह इस प्रकार है. सबसे थोड़े अप्रथमसमयपंचेन्द्रिय, उनसे अप्रथमसमयचतुरिन्द्रिय विशेषाधिक, उनसे अप्रथमसमयत्रीन्द्रिय विशेषाधिक, उनसे अप्रथमसमयद्वीन्द्रिय विशेषाधिक, उनसे अप्रथमसमयएकेन्द्रिय अनन्तगुण हैं। तीसरा अल्पबहुत्व प्रत्येक एकेन्द्रियादि में प्रथमसमय वालों और अप्रथमसमय वालों की अपेक्षा से है। वह इस प्रकार है--सबसे थोड़े प्रथमसमयएकेन्द्रिय हैं, क्योंकि द्वीन्द्रियादि से आकर एक समय में थोड़े ही उत्पन्न होते है। उनसे अप्रथमसमयएकेन्द्रिय अनन्तगुण हैं, क्योंकि वनस्पतिकाल अनन्त है। द्वीन्द्रियों में सबसे थोड़े प्रथमसमयद्वीन्द्रिय है, उनसे अप्रथमसमयद्वीन्द्रिय अंख्येयगुण हैं, क्योंकि द्वीन्द्रिय सब संख्या से भी असंख्यात ही हैं। इसी प्रकार त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, और पंचेन्द्रियों में भी प्रथमसमय वाले कम हैं और अप्रथमसमय वाले असंख्यातगुण हैं। चौथा अल्पबहुत्व उक्त दस भेदों की अपेक्षा से कहा गया है। वह इस प्रकार है सबसे थोड़े प्रथमसमयपंचेन्द्रिय, उनसे प्रथमसमयचतुरिन्द्रिय विशेषाधिक, उनसे प्रथमसमयत्रीन्द्रिय विशेषाधिक, उनसे प्रथमसमयद्वीन्द्रिय विशेषाधिक, उनसे प्रथमसमयएकेन्द्रिय विशेषाधिक, उनसे अप्रथमसमयपंचेन्द्रिय असंख्ये यगुण, उनसे अप्रथमसमयचतुरिन्द्रिय विशेषाधिक, उनसे अप्रथमसमयत्रीन्द्रिय विशेषाधिक. उनसे अप्रथमसमयद्वीन्द्रिय विशेषाधिक, उनसे अप्रथमसमयएकेन्द्रिय अनन्तगुण हैं। ___ युक्ति स्पष्ट ही है। इस प्रकार दसविधि प्रतिपत्ति पूर्ण हुई। उसके पूर्ण होने से संसारसमापन्नक जीवाभिगम भी पूर्ण हुआ। Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वजीवाभिगम सर्वजीव-द्विविधवक्तव्यता संसारसमापन्नक जीवों की दस प्रकार की प्रतिपत्तियों का प्रतिपादन करने के पश्चात् अब सर्वजीवाभिगम का कथन किया जा रहा है। इस सर्वजीवाभिगम में संसारसमापन्नक और असंसारसमापनक-दोनों को लेकर प्रतिपादित किया है। २३१. से किं तं सव्वजीवाभिगमे? सव्वजीवेसु णं इमाओ णव पडिवत्तीओ एवमाहिजति। एगे एवमाहंसु-दुविहा सव्वजीवा पण्णत्ता जाव दसविहा सव्वजीवा पण्णत्ता। तत्थ णं जे ते एवमाहंसु-दुविहा सव्वजीवा पण्णत्ता, ते एवमाहंसु, तं जहा-सिद्धा य असिद्धा य। सिद्धे णं भंते! सिद्धेत्ति कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! साइ-अपजवसिए। असिद्धे णं भंते! असिद्धत्ति कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! असिद्धे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-अणाइए वा अपज्जवसिए, अणाइए वा सपज्जवसिए। सिद्धस्स णं भत्ते! केवइकालं अंतरं होइ? गोयमा! साइयस्स अपजवसियस्स णत्थि अंतरं। असिद्धे णं भंते! केवइयं अंतर होइ? गोयमा! अणाइयस्स अपज्जवसियस्स णत्थि अंतरं । अणाइयस्स सपज्जवसियस्स णत्थि अंतरं। एएसि णं भंते! सिद्धाणं असिद्धाण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा०? गोयमा! सव्वत्थोवा सिद्धा, असिद्धा अणंतगुणा। २३१. भगवन् ! सर्वजीवाभिगम क्या है? गौतम! सर्वजीवाभिगम में नौ प्रतियांत्तियां कही हैं। उनमें कोई ऐसा कहते हैं कि सब जीव दो प्रकार के हैं यावत् दस प्रकार के हैं । जो दो प्रकार के सब जीव कहते हैं, वे ऐसा कहते हैं, यथा-सिद्ध Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वजीवाभिगम] [१६९ और असिद्ध। भगवन् ! सिद्ध, सिद्ध के रूप में कितने समय तक रह सकता है? गौतम! सिद्ध सादिअपर्यवसित है, (अतः सदाकाल सिद्धरूप में रहता है।) भगवन् ! असिद्ध, असिद्ध के रूप में कितने समय तक रहता है? गौतम! असिद्ध जीव दो प्रकार के अनादि-अपर्यवसित और अनादि-सपर्यवसित। (अनादि-अपर्यवसित असिद्ध सदाकाल असिद्ध रहता है और अनादि-सपर्यवसित मुक्ति-प्राप्ति के पहले तक असद्धरूप में रहता है।) भगवन् ! सिद्ध का अन्तर कितना? गौतम! सादि-अपर्यवसित का अन्तर नही होता है। भगवन् ! असिद्ध का अंतर कितना होता है? गौतम! अनादि-अपर्यवसित असिद्ध का अंतर नहीं होता है। अनादि-सपर्यवसित का भी अंतर नहीं होता है। भगवन् ! इन सिद्धों और असिद्धों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं? गौतम! सबसे थोड़े सिद्ध उनसे असिद्ध अनन्तगुण हैं। विवेचन-जैसे संसारसमापन्नक जीवों के विषयों में नौ प्रकार की प्रतिपत्तियां कही गई हैं, वैसे ही सर्वजीव के विषय में भी नौ प्रतिपत्तियां कही गई हैं। सर्वजीव में संसारी और मुक्त, दोनों प्रकार के जीवों का समावेश होता है। अतएव इन कही जाने वाली नौ प्रतिपत्तियों में सब जीवों का समावेश होता है। वे नौ प्रतिपत्तियां इस प्रकार हैं (१) कोई कहते है कि सब जीव दो प्रकार के हैं, यथा-सिद्ध और असिद्ध । . (२) कोई कहते है कि सब जीव तीन प्रकार के हैं , यथा-सम्यग्दृष्टि , मिथ्यादृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि। (३) कोई कहते है कि सब जीव चार प्रकार के हैं, यथा-मनयोगी, वचनयोगी, काययोगी और अयोगी। .. (४) कोई कहते है कि सब जीव पांच प्रकार के हैं, यथा-नैरयिक, तिर्यंच, मनुष्य, देव और सिद्ध। (५) कोई कहते है कि सब जीव छह प्रकार के हैं, यथा-औदारिकशरीरी, वैक्रियशरीरी, आहारकशरीरी, तैजसशरीरी, कार्मणशरीरी और अशरीरी। (६) कोई कहते है कि सब जीव सात प्रकार के हैं, यथा-पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, त्रसकायिक और अकायिक। (७) कोई कहते है कि सब जीव आठ प्रकार के हैं, यथा-मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, केवलज्ञानी, मति-अज्ञानी, श्रुत-अज्ञानी और विभंगज्ञानी। Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० ] [ जीवाजीवाभिगमसूत्र (८) कोई कहते है कि सब जीव नौ प्रकार के हैं, यथा- एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रय, नैरयिक, तिर्यंच, मनुष्य, देव और सिद्ध । (९) कोई कहते है कि सब जीव दस प्रकार के हैं, यथा- पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय और अतीन्द्रिय । उक्त नौ प्रतिपत्तियों में से प्रत्येक में और भी विवक्षा से अन्य भेद भी किये गये हैं, जो यथास्थान कहे जायेंगे । जो ऐसा प्रतिपादन करते हैं कि सब जीव दो प्रकार के हैं, उनका मन्तव्य हैं कि सब जीवों का समावेश सिद्ध और असिद्ध इन दो भेदों में हो जाता है । जिन्होंने आठ प्रकार के बंधे हुए कर्मों को भस्मीकृत कर दिया है, वे सिद्ध हैं।' अर्थात् जो कर्मबंधनों से सर्वथा मुक्त हो चुके हैं, वे सिद्ध हैं । जो संसार के एवं कर्म के बन्धनों से मुक्त नहीं हुए हैं, वे असिद्ध हैं । सिद्ध सदा काल निजस्वरूप में रमण करते रहते हैं, अतः उनकी कालमर्यादारूप भवस्थिति नहीं कही गई है। उनकी कायस्थिति अर्थात् सिद्धत्व के रूप में उनकी स्थिति सदा काल रहती है। सिद्ध सादि - अपर्यवसित हैं । अर्थात् संसार से मुक्ति के समय सिद्धत्व की आदि है और सिद्धत्व की कभी च्युति न होने से अपर्यवसित हैं । असिद्ध दो प्रकार के हैं- अनादि- अपर्यवसित और अनादि सपर्यवसित। जो अभव्य होने से या तथाविध सामग्री के अभाव से कभी सिद्ध नहीं होगा, वह अनादि- अपर्यवसित असिद्ध है। जो सिद्धि को प्राप्त करेगा वह अनादि - सपर्यवसित है, अर्थात् अनादि संसार का अन्त करने वाला है। जब तक वह मुक्ति नहीं प्राप्त कर लेता, तब तक असिद्ध, असिद्ध के रूप में रहता है । 1 सिद्ध सिद्धत्व से च्युत होकर फिर सिद्ध नहीं बनते, अतएव उनमें अन्तर नहीं है । वे सादि और अपर्यवसित हैं, अतः अन्तर नहीं है। असिद्धों में जो अनादि- अपर्यवसित हैं, उनका असिद्धत्व कभी छूटेगा ही नहीं, अतः अन्तर नहीं है। जो अनादि सपर्यवसित हैं, उनका भी अन्तर नहीं हैं, क्योंकि मुक्ति से पुनः आना नहीं होता । अल्पबहुत्वद्वार में सिद्ध थोड़े है और असिद्ध अनन्तगुण हैं, क्योंकि निगोदजीव अतिप्रभूत हैं । २३२. अहवा दुविहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तं जहा सइंदिया चेव अणिंदिया चेव । सइंदिए णं भंते! सइंदिएत्ति कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! सइंदिए दुविहे पण्णत्ते, -अणाइए वा अपज्जवसिए, अणाइए वा सपज्जवसिए । अणिंदिए साइए वा अपज्जवसिए, दोहवि अंतरं णत्थि । सव्वत्थोवा अणिंदिया, सइंदिया अणंतगुणा । अहवा दुविहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तं जहा - सकाइया चेव अकाइया चेव । एवं चेव । एवं सजोगी चेव अजोगी चेव तहेव, १. सितं बद्धमष्टप्रकारं कर्म ध्मातं- भस्मीकृतं यैस्ते सिद्धाः । - वृतिः Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वजीवाभिगम ] [ १७१ ( एवं सल्लेस्सा चेव अलेस्सा चेव, ससरीरा चेव असरीरा चेव । ) संचिट्ठणं अंतरं अप्पाबहुयं जहा सइंदियाणं । अहवा दुविहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तं जहा - सवेदगा चेव अवेदगा चेव । सवेदए णं भंते! सवेदएत्ति कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! सवेदए तिविहे पण्णत्ते, तं जहा - अणाइए अपज्जवसिए, अणाइए सपज्जवसिए, साइए सपज्जवसिए । तत्थ णं जेसे साइए सपज्जवसिए से जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं अक्कोसेणं अनंतकालं जाव खेत्तओ अवड्ढं पोग्गलपरियट्टं देसूणं । अवेयर णं भंते! अवेयएत्ति कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! अवेयए दुविहे पण्णत्ते, जहा - साईए वा अपज्जवसिए, साइए वा सपज्जवसिए । तत्थ णं जेसे साइए सपज्जवसिए से जहणणेणं एक्वं समयं, उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं । सवेयगस्स णं भंते! केवइयं कालं अंतरं होइ ? अणादियस्स अपज्जवसियस्स णत्थि अंतरं । अणादियस्स सपज्जवसियस्स नत्थि अंतरं । सादियस्स सपज्जवसियस्स जहण्णेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं । अवेयगस्स णं भंते! केवइयं कालं अंतरं होइ ? साइयस्स अपज्जवसियस्स णत्थि अंतरं साइस सज्जवसियस्स जहन्त्रेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं अनंतकालं जाव अवड्ढं पोगपरियहं देणं । अप्पाबहुगं - सव्वत्थोवा अवेयगा, सवेयगा अनंतगुणा । एवं सकसाई चेव अकसाई चेव जहा सवेयगे तहेव भाणियव्वे । अहवा दुविहा सव्वजीवा - सलेसा य अलेसा य जहा असिद्धा सिद्धा । सव्वत्थोवा अलेसा, ससा अनंतगुणा । २३२. अथवा सब जीव दो प्रकार के हैं, यथा-सेन्द्रिय और अनिन्द्रिय । भगवन् ! सेन्द्रिय, सेन्द्रिय के रूप गौतम ! सेन्द्रिय के रूप में काल से काल से कितने समय तक रहता है ? कितने समय तक रहता है ? गौतम ! सेन्द्रिय जीव दो प्रकार के हैं- अनादि- अपर्यवसित और अनादि सपर्यवसित । अनिन्द्रिय में सादि-अपर्यवसित। दोनों में अन्तर नहीं है । सेन्द्रिय की वक्तव्यता असिद्ध की तरह और अनिन्द्रिय को वक्तव्यता सिद्ध की तरह कहनी चाहिए। अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े अनिन्द्रिय हैं और सेन्द्रिय अनन्तगुण हैं । अथवा दो प्रकार के सर्व जीव हैं - सकायिक और अकायिक । इसी तरह सयोगी और अयोगी (सलेश्य और अलेश्य, सशरीर और अशरीर)। इनकी संचिट्ठणा, अन्तर और अल्पबहुत्व सेन्द्रिय की तरह जानना चाहिए। अथवा सब जीव दो प्रकार के है- सवेदक और अवेदक । Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२] [जीवाजीवाभिगमसूत्र भगवन् ! सवेदक कितने समय तक सवेदक रहता है? गौतम! सवेदक तीन प्रकार के हैं , यथाअनादि-अपर्यवसित, अनादि-सपर्यवसित और सादि-सपर्यवसित। इनमें जो सादि-सपर्यवसित है, वह जघन्य से अनतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से अनन्तकाल तक रहता है यावत् वह अनन्तकाल क्षेत्र से देशोन अपार्धपुद्गलपरावर्त है। भगवन् ! अवेदक, अवेदक रूप में कितने काल तक रहता है? गौतम! अवेदक दो प्रकार के कहे गये है-सादि-अपर्यवसित और सादि-सपर्यवसित। इनमें जो सादि-सपर्यवसित है, वह जघन्य से एकसमय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक रहता है। भगवन् ! सवेदक का अन्तर कितने काल का है? गौतम! अनादि-अपर्यवसित का अन्तर नहीं होता। अनादि-सपर्यवसित का भी अन्तर नहीं होता। सादि-सपर्यवसित का अन्तर जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है। भगवन् ! अवेदक का अन्तर कितना है? गौतम! सादि-अपर्यवसित का अन्तर नहीं होता, सादिसपर्यवसित का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल है यावत् देशोन अपार्धपुद्गलपरावर्त। अल्पबहुत्व-सबसे थोड़े अवेदक हैं, उनसे सवेदक अनन्तगुण हैं। इसी प्रकार सकषायिक का भी कथन वैसा करना चाहिए जैसा सवेदक का किया है। अथवा दो प्रकार के सब जीव है-सलेश्य और अलेश्य। जैसा असिद्धों और सिद्धों का कथन किया, वैसा इनका भी कथन करना चाहिए यावत् सबसे थोड़े अलेश्य हैं, उनसे सलेश्य अनन्तगुण हैं। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में सर्वजीवाभिगम की द्विविध प्रतिपत्ति का अन्य-अन्य अपेक्षाओं से प्ररूपण किया गया है। पूर्वसूत्र में सिद्धत्व और असिद्धत्व को लेकर दो भेद किये थे। इस सूत्र में सेन्द्रिय-अनिन्द्रय, सकायिक-अकायिक, सयोगी-अयोगी, सलेश्य-अलेश्य, सवेदक-अवेदक और सकषाय-अकषाय को लेकर सर्वजीवाभिगम का द्वैविध्य बताया है। टीकाकार के अनुसार सयोगी-अयोगी के अनन्तर ही सलेश्य-अलेश्य और सशरीर-अशरीर का कथन हैं, जबकि मूलपाठ में सलेश्य-अलेश्य के विषय में अन्त में अलग सूत्र दिया गया है। ___ सर्वजीवों के इन दो-दो भेदों में उपाधि और अनोपाधिकृत भेद हैं। कर्मजन्य-उपाधि के कारण सेन्द्रिय, सकायिक, सयोगी, सलेश्य, सवेदक और सकषायिक संसारी जीव कहे गये हैं। जबकि कर्मजन्य उपाधि से रहित होने के कारण अनिन्द्रिय, अकायिक, अयोगी. अलेश्य और अकषायिक सिद्ध जीव कहे गये हैं। ___ सेन्द्रिय की कायस्थिति और अन्तर असिद्ध की वक्तव्यता के अनुसार और अनिन्द्रय की वक्तव्यता सिद्ध की वक्तव्यता के अनुसार कहनी चाहिए। वह इस प्रकार है भगवन् ! सेन्द्रिय के रूप में कितने काल तक रहता है? गौतम! सेन्द्रिय दो प्रकार के हैं-अनादिअपर्यवसित और अनादि-सपर्यवसित। अनिन्द्रय, अनिन्द्रिय के रूप में कितने समय तक रहता है? Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वजीवाभिगम] [१७३ गौतम! वह सादि-अपर्यवसित है। भगवन् ! सेन्द्रिय का काल से कितना अन्तर है? गौतम! अनादिअपर्यवसित का अन्तर नहीं है; अनादि-सपर्यवसित का भी अन्तर नहीं है। अनिन्द्रिय का अन्तर कितना है? गौतम! सादि-अपर्यवसित का अन्तर नहीं है? अल्पबहुत्व में अनिन्द्रिय थोड़े हैं और सेन्द्रिय अनन्तगुण हैं, क्योंकि सेन्द्रिय वनस्पतिजीव अनन्त हैं। इसी तरह की वक्तव्यता सकायिक-अकायिक, सयोगी-अयोगी, सलेश्य-अलेश्य और सशरीरअशरीर जीवों के विषय में भी कहनी चाहिए। अर्थात् इनकी संचिट्ठणा (कायस्थिति), अन्तर और अल्पबहुत्व सेन्द्रिय-अनिन्द्रिय की तरह ही है। सवेदक-अवेदक और सकषायिक-अकषाकिय के सम्बन्ध में विशेषता होने से पृथक् निरूपण है। वह इस प्रकार है__सवेदक की कायस्थिति बताते हुए कहा गया है कि सवेदक तीन प्रकार के है-१. अनादिअपर्यवसित २. अनादि-सपर्यवसित और ३. सादि-सपर्यवसित। उनमें अनादि-अपर्यवसित सवेदक या तो अभव्य जीव हैं या तथाविध सामग्री के अभाव से मुक्ति में न जाने वाले जीव हैं। क्योंकि कई भव्य जीव भी सिद्ध नहीं होते। अनादि-सपर्यवसित सवेदक वह भव्य जीव है, जो मुक्तिगामी है और जिसने पहले उपशम श्रेणी प्राप्त नहीं की है। सादि-सपर्यवसित सवेदक वह है जो भव्य मुक्तिगामी है और जिसने पहले उपशम श्रेणी प्राप्त की है। - इनमें उपशमश्रेणी को प्राप्त कर वेदोपशम के उत्तरकाल में अवेदकत्व का अनुभव कर श्रेणी समाप्ति पर भवक्षय से अपान्तराल में मरण होने से अथवा उपशमश्रेणी से गिरने पर पुनः वेदोदय हो जाने से सवेदक हो गया जीव सादि-सपर्यवसित सवेदक है। इस सादि-सपर्यवसित सवेदक की कायस्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त है। क्योंकि श्रेणी की समाप्ति पर सवेदक हो जाने के अन्तर्मुहूर्त बाद पुनः श्रेणी पर चढ़कर अवेदक हो सकता है। यहां शंका हो सकती है कि क्या एक जन्म में दो बार उपशम श्रेणी पर चढ़ा जा सकता है? समाधान करते हुए कहा गया है कि दो बाद उपशमश्रेणी हो सकती है, किन्तु एक जन्म में उपशमश्रेणी और क्षपकश्रेणी ये दोनों श्रेणियां नहीं हो सकती है।२ । सादि-सपर्यवसित सवेदक की उत्कृष्ट कायस्थिति अनन्तकाल है। यह अनन्तकाल, कालमार्गणा की अपेक्षा से अनन्त उत्सर्पिणी रूप है तथा क्षेत्रमार्गणा से देशोन अपार्द्धपुद्गलपरावर्त है । इतने काल के बाद पूर्वप्रतिपन्न उपशमश्रेणी वाला जीव आसन्नमुक्ति वाला होकर श्रेणी को प्राप्त कर अवेदक हो सकता अनादि-अपर्यवसित और अनादि-सपर्यवसित की संचिट्ठणा नहीं है। अवेदक के सम्बन्ध में प्रश्न किये जाने पर कहा गया है कि अवेदक दो प्रकार के हैं-सादि १. "भव्वाणि ण सिझंति कई।' इति वचनात्। २. तथा चाह मूलटीकाकार:--"'नैकस्मिन् जन्मनि उपशमश्रेणी: क्षपक श्रेणिश्च जायते, उपशमश्रेणिद्वयं तु भवत्येव।' Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४] [जीवाजीवाभिगमसूत्र अपर्यवसित (समयानन्तर) क्षीणवेद वाले और सादि-सपर्यवसित उपशान्तवेद वाले। जो सादि-सपर्यवसित अवेदक है उनकी संचिट्ठणा जघन्य एक समय, उपशमश्रेणी को प्राप्त कर वेदोपशमन के एक समय बाद मरण होने पर पुनः सवेदक होने की अपेक्षा से। उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त, क्योंकि उपशमश्रेणी का काल इतना ही है। इसके बाद पतन होने से नियमतः सवेदक होता है। __अनादि-अपर्यवसित सवेदक का अन्तर नहीं है, क्योंकि अपर्यवसित होने से उस भाव का कभी त्याग नहीं होता। अनादि-सपर्यवसित सवेदक का भी अन्तर नहीं होता, क्योंकि अनादि सपर्यवसित अपान्तराल में उपशम श्रेणी न करके भावी क्षीणवेदी होता है। क्षीणवेदी के पुनः सवेदक होने की सम्भावना नहीं हैं, क्योंकि उसमें प्रतिपात नहीं होता। सादि-सपर्यवसित सवेदक का अन्तर जघन्य एक समय है, क्योंकि दूसरी बार उपशमश्रेणी प्रतिपन्न का वेदोपशमन के अनन्तर समय में किसी का मरण सम्भव है। उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि दूसरी बार उपशमश्रेणी प्रतिपन्न का वेदोपशमन होने पर श्रेणी का अन्तर्मुहूर्त काल समाप्त होने पर पुनः सवेदकत्व संभव है। __ अवेदकसूत्र में सादि-अपर्यवसित अवेदक का अन्तर नहीं है, क्योंकि क्षीणवेद वाला जीव पुनः सवेदक नहीं होता। सादि-सपर्यवसित अवेदक का अन्तर जघन्य से अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि उपशमश्रेणी की समाप्ति पर सवेदक होने पर पुनः अन्तर्मुहूर्त में दूसरी बार उपशमश्रेणी पर चढ़कर अवेदकत्व स्थिति हो सकती है। उत्कर्ष से अन्तर अनन्तकाल है। वह अनन्तकाल अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी रूप है तथा क्षेत्र से अपार्धपुद्गलपरावर्त है, क्योंकि एक बार उपशमश्रेणी प्राप्त कर वहां अवेदक होकर श्रेणी समाप्ति पर पुनः सवेदक होने की स्थिति में इतने काल के अनन्तर पुनः श्रेणी को प्राप्त कर अवेदक हो सकता है। इनका अल्पबहुत्व पूर्ववत् जानना चाहिये, अर्थात् अवेदक थोड़े और सवेदक अनन्तगुण हैं, वनस्पतिजीवों की अनन्तता की अपेक्षा से। सकषायिक और अकषायिक जीवों के विषय में यही सवेदक और अवेदक की वक्तव्यता कहनी चाहिए। २३३. अहवा दुविहा सव्वजीवा पण्णत्ता-वाणी चेव अण्णाणी चेव। णाणी णं भंते! कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! णाणी दुविहे पण्णत्ते-साईए वा अपजवसिए साईए वा सपजवसिए। तत्थ णं जेसे साईए सपज्जवसिए से जहणणेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं छावट्टिसागरोवमाइं साइरेगाई। अण्णाणी जहा सवेदया। णाणिस्स अंतरं जहण्णेणं अंतोमुहूत्तं, उक्कोसेणं अणंतं कालं अवडं पोग्गलपरियट्टे देसूणं । अण्णाणियस्स दोण्हवि आइल्लाणं णत्थि अंतरं, साइयस्स सपजवसियस्स जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं छावट्ठिसागरोवमाइं साइरेगाई। अप्पाबहुयं-सव्वत्थोवा णाणी, अण्णाणी अणंतगुणा। अहवा दुविहा सव्वजीवा पण्णत्ता-सागारोवउत्ता य अणागारोवउत्ता य। संचिट्ठणा Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वजीवाभिगम ] [ १७५ अंतरं य जहण्णेणं उक्कोसेणवि अंतोमुहुत्तं । अप्पाबहुयं सव्वत्थोवा अणागारोवउत्ता, सागारोवउत्ता संखेज्जगुणा । २३३. अथवा सब जीव दो प्रकार के है - ज्ञानी और अज्ञानी । भगवन् ! ज्ञानी, ज्ञानीरूप में कितने काल तक रहता है ? गौतम! ज्ञानी दो प्रकार के हैं - सादि- अपर्यवसित और सादि-सपर्यवसित। इनमें जो सादिसपर्यवसित हैं वे जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट साधिक छियासठ सागरोपम तक रह सकते हैं । अज्ञानी के लिए वही वक्तव्यता है जो पूर्वोक्त सवेदक की है। 1 ज्ञानी का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल, जो देशोन अपार्धपुद्गलपरावर्त रूप है । आदि के दो अज्ञानी - अनादि- अपर्यवसित और अनादि - सपर्यवसित अज्ञानी का अन्तर नही है । सादि - सपर्यवसित अज्ञानी का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट साधिक छियासठ सागरोपम है। अल्पबहुत्वं में सबसे थोड़े ज्ञानी, उनसे अज्ञानी अनन्तगुण हैं । अथवा दो प्रकार के सब जीव है - साकार - उपयोग वाले और अनाकार - उपयोग वाले। इनकी संचिट्ठणा और अन्तर जघन्य और उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्त है । अल्पबहुत्व में अनाकार - उपयोग वाले थोड़े हैं, उनसे साकार - उपयोग वाले संख्येयगुण है । विवेचन - ज्ञानी और अज्ञानी की अपेक्षा से सब जीवों का द्वैविध्य इस सूत्र में कहा गया है। ज्ञानी से यहां सम्यग्ज्ञानी अर्थ अभिप्रेत है और अज्ञानी से मिथ्याज्ञानी अर्थ समझना चाहिए। ज्ञानी दो प्रकार के हैं - सादि - अपर्यवसित और सादि- सपर्यवसित । केवली सादि- अपर्यवसित हैं, क्योंकि केवलज्ञान सादि-अनन्त । मतिज्ञानी आदि - सपर्यवसित हैं, क्योंकि मतिज्ञान आदि छाद्मस्थिक होने से सादिसान्त हैं। इनमें जो सादि - सपर्यवसित ज्ञानी है, वह जघन्य से अन्तर्मुहूर्त काल तक और उत्कृष्ट से छियासठ सागरोपम तक रहता । सम्यक्त्व की जघन्यस्थिति अन्तर्मुहूर्त है इस अपेक्षा में सम्यक्त्वधारी ज्ञानी की जघन्यस्थिति अन्तर्मुहूर्त बतायी है । सम्यग्दर्शन का उत्कृष्ट काल छियासठ सागरोपम से कुछ अधिक है, अतः ज्ञानी की उत्कृष्ट संचिट्ठणा छियासठ सागरोपम से कुछ अधिक बताई है। यह स्थिति सम्यक्त्व से गिरे बिना विजयादि में जाने की अपेक्षा से है । जैसा कि भाष्य में कहा है कि दो बार विजयादि विमान में अथवा तीन बार अच्युत देवलोक में जाने से छियासठ सागरोपम काल और मनुष्य के भवों का काल साधिक से गिनने से उक्त स्थिति बनती है । अज्ञानी की संचिट्ठणा बताते हुए कहा गया है कि अज्ञानी तीन प्रकार के हैं - अनादि - अपर्यवसित, अनादि-सपर्यवसित और सादि-सपर्यवसित। अनादि - अपर्यवसित अज्ञानी वह है जो कभी मोक्ष में नही जायेगा। अनादि-सपर्यवसित अज्ञानी वह है जो अनादि - मिथ्यादृष्टि सम्यक्त्व पाकर और उससे अप्रतिपतित १. " सम्यग्दृष्टेर्ज्ञानं मिथ्यादृष्टेर्विपर्यासः" इति वचनात् । २. दो वारे विजयाइसु गयस्स तिन्निऽअच्चुए अहव ताई । अरे गं नरभवियं नाणा जीवाण सव्वद्धा ॥ - भाष्यगाथा Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६] [जीवाजीवाभिगमसूत्र होकर क्षपक श्रेणी को प्राप्त करेगा। सादि-सपर्यवसित अज्ञानी वह है जो सम्यग्दृष्टि बनकर मिथ्यादृष्टि बन गया हो। ऐसा अज्ञानी जघन्य से अन्तर्मुहूर्तकाल उसमें रहकर फिर सम्यग्दृष्टि बन सकता है, इस अपेक्षा से उसकी संचिट्ठणा जघन्य अन्तर्मुहूर्त कही है और उत्कर्ष से अनन्तकाल है, जो अनन्त उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी रूप है तथा क्षेत्र से देशोन अपार्धपुद्गलपरावर्त है। ___अन्तरद्वार-सादि-अपर्यवसित ज्ञानीका अन्तर नहीं होता, क्योंकि अपर्यवसित होने से वह कभी उस रूप का त्याग नहीं करता। सादि-सपर्यवसित ज्ञानी का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त है। इतने काल तक मिथ्यादर्शन में रहकर फिर ज्ञानी हो सकता है। उत्कर्ष से अनन्तकाल (अनन्त उत्सर्पिणीअवसर्पिणी रूप) है, जो क्षेत्र से देशोन अपार्धपुद्गलपरावर्त रूप है। क्योंकि सम्यग्दृष्टि, सम्यक्त्व से गिरकर इतने काल तक मिथ्यात्व का अनुभव करके अवश्य ही फिर सम्यक्त्व पाता है। अज्ञानी का अन्तर बताते हुए कहा है कि अनादि-अपर्यवसित अज्ञानीका अन्तर नहीं है, क्योंकि वह अपर्यवसित होने से उस भाव का त्याग नहीं करता। अनादि-सपर्यवसित अज्ञानी का भी अन्तर नहीं हैं, क्योंकि केवलज्ञान प्राप्त करने पर वह जाता नहीं है। सादि-सपर्यवसित अज्ञानी का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि जघन्य सम्यग्दर्शन का काल इतना ही है। उत्कर्ष से साधिक छियासठ सागरोपम का अन्तर है, क्योंकि सम्यग्दर्शन से गिरने के बाद इतने काल तक अज्ञानी रह सकता है। अल्पबहुत्व सूत्र स्पष्ट ही है । ज्ञानियों से अज्ञानी अनन्तगुण हैं । अज्ञानी वनस्पतिजीव अनन्त हैं। अथवा सब जीवों के दो भेद उपयोग को लेकर किये गये हैं। दो प्रकार के उपयोग हैं-साकारउपयोग और अनाकार-उपयोग। उपयोग की द्विरूपता के कारण सब जीव भी दो प्रकार के हैं-साकारउपयोग वाले और अनाकार-उपयोग वाले। ___ इन दोनों की संचिट्ठणा और अन्तर जघन्य और उत्कृष्ट दोनों अपेक्षा से अन्तर्मुहूर्त है। यहां टीकाकार लिखते हैं कि सूत्रगति विचित्र होने से यहां सब जीवों से तात्पर्य छद्मस्थ ही लेने चाहिए, केवली नहीं। क्योंकि केवलियों का साकार-अनाकार उपयोग एक सामयिक होने से कायस्थिति और अन्तरद्वार में एक सामयिक भी कहा जाना चाहिए, जो नहीं कहा गया है। वह "अन्तर्मुहूर्त" ही कहा गया है, जो छद्मस्थों में होता है। अल्पबहुत्वद्वार में सबसे थोड़े अनाकार-उपयोग वाले हैं, क्योंकि अनाकार-उपयोग का काल अल्प होने से पृच्छा के समय वे अल्प ही प्राप्त होते हैं। साकार-उपयोग वाले उनसे संख्येयगुण हैं, क्योंकि अनाकार-उपयोग के काल से साकार-उपयोग का काल संख्येयगुण है। २३४. अहवा दुविहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तं जहा-आहारगा चेव अणाहारगा चेव। आहारए णं भंते! जाव केवचिरं होइ ? गोयमा! आहारए दुविहे पण्णत्ते, तं जहाछउमत्थआहारए य केवलिआहारए य। छउमत्थआहारए णं जाव केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहण्णेणं खुड्डागं भवग्गहणं दुसमयऊणं उक्कोसेणं असंखेज्जकालं जाव कालओ० खेत्तओ अंगुलस्स असंखेज्जइभागं। केवलिआहारए णं जाव केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वजीवाभिगम] [१७७ अंतोमुहुतं उक्कोसेणं देसूणा पुव्वकोडी। अणाहारए णं भंते ! केवचिरं होइ ? गोयमा ! अणाहारए दुविहे पण्णत्ते, तं जहाछउमत्थअणाहारए य केवलिअणाहारए य। छउमत्थअणाहारए णं जाव केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहण्णेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं दो समया। के वलिअणाहारए दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-सिद्धके वलिअणाहारए य भवत्थकेवलिअणाहारए य। सिद्धकेवलिअणाहारए णं भंते ! कालओ केवचिरं होइ? साइए अपज्जवसिए।भवत्थकेवलिअणाहाराए णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते? भवत्थकेवलिअणाहाराए दुविहे पण्णत्ते, सजोगिभवत्थकेवलिअणाहारए य अजोगिभवत्थकेवलिअणाहारए य। __ सजोगिभवत्थके वलिअणाहारए णं भंते ! कालओ के वचिरं होइ ? अजहण्णमणुक्कोसेणं तिण्णि समया। अजोगीभवत्थकेवली० ? जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं। ___ छउमत्थआहारगस्स केवइयं कालं अंतरं? गोयमा ! जहण्णेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं दो समया। __ केवलिआहारगस्स अंतरं अजहण्णमणुक्कोसेणं तिण्णि समया। छउमत्थअणाहारगस्स अंतरं जहन्नेणं खुड्डागभवग्गहणं दुसमयऊणं उक्कोसेणं असंखेन्जकालं जाव अंगुलस्य असंखेज्जइभागं। सिद्धकेवलिअणाहारगस्स साइयस्स अपज्जवसियस्स णत्थि अंतरं। ___ सजोगिभवत्थके वलिअणाहारगस्स जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेण वि। अजोगिभवत्थकेवलिअणाहारगस्स णत्थि अंतरं। एएसि णं भंते ? आहारगाणं अणाहारगाण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा. गोयमा ! सव्वत्थोवा अणाहारगा, आहारगा असंखेज्जगुणा। २३४. अथवा सर्व जीव दो प्रकार के हैं-आहारक और अनाहारक। भगवन्! आहारक, आहारक के रूप में कितने समय तक रहता है? गौतम! आहारक दो प्रकार के हैं-छद्मस्थ-आहारक और केवलि-आहारक। भगवन् ! छद्मस्थ-आहारक, आहारक के रूप में कितने काल तक रहता है? गौतम! जघन्य दो समय कम क्षुल्लकभव और उत्कृष्ट से असंख्येय काल तक यावत् क्षेत्र की अपेक्षा अंगुल का असंख्यातवां भाग। केवलि-आहारक यावत् काल में कितने समय तक रहता है? Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ ] गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से देशोन पूर्वकोटि । भगवन्! अनाहारक यावत् काल से कितने समय तक रहता है ? गौतम! अनाहारक दो प्रकार के हैं - छद्मस्थ- अनाहारक और केवलि - अनाहारक । [ जीवाजीवाभिगमसूत्र भगवन्! छद्मस्थ-अनाहारक उसी रूप में कितने काल तक रहता है ? गौतम ! जघन्य से एक समय, उत्कृष्ट दो समय तक । केवलि - अनाहारक दो प्रकार के हैसिद्धकेवलि-अनाहारक और भवस्थकेवलि-अनाहारक । भगवन् ! सिद्धकेवलि - अनाहारक उसी रूप में कितने समय तक रहता है ? गौतम ! वह सादि - अपर्यवसित है । भगवन्! भवस्थकेवलि- अनाहारक कितने प्रकार के है ? गौतम ! दो प्रकार के हैं-सयोगिभवस्थकेवलि-अनाहारक और अयोगि-भवस्थकेवलिअनाहारक । भगवन्! सयोगिभवस्थकेवलि - अनाहारक उसी रूप में कितने समय तक रहता है ? जघन्य उत्कृष्ट रहित तीन समय तक । अयोगिभवस्थकेवलि - अनाहारक जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से भी अन्तर्मुहूर्त। भगवन् ! छद्मस्थ आहारक का अन्तर कितना कहा गया है ? गौतम ! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट दो समय । केवलि - आहारक का अन्तर जघन्यउत्कृष्ट रहित तीन समय। अनाहारक का अंतर जघन्य दो समय कम क्षुल्लकभवग्रहण और उत्कृर्ष से असंख्यात काल यावत् अंगुल का असंख्यात भाग । सिद्धकेवलि-अनाहारक सादि - अपर्यवसित है अतः अन्तर नहीं है । सयोगिभवस्थकेवलिअनाहारक का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट से भी यही है । अयोगिभवस्थकेवलि - अनाहारक का अन्तर नहीं है । भगवन! इन आहारकों और अनाहारकों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक है? गौतम ! सबसे थोड़े अनाहारक हैं, उनसे आहारक असंख्येयगुण हैं । विवेचन आहारक और अनाहारक को लेकर प्रस्तुत सूत्र में सर्व जीवों के दो प्रकार बताये हैं । विग्रहगतिसमापन्न, केवलिसमुद्घात वाले केवली, अयोगी केवली और सिद्ध-ये ही अनाहारक हैं, शेष जीव आहारक है ।' कायस्थिति- आहारक जीव दो प्रकार के हैं - छद्मस्थ आहारक और केवलि आहारक। छद्मस्थआहारक की जघन्य कायस्थिति दो समय कम क्षुल्लकभवग्रहण है । यह विग्रहगति से आकर क्षुल्लकभव १. विग्गहगइमावन्ना केवलिणो समुहया अजोगी या । सिद्धा य अणाहारा, सेसा आहारगा जीवा ॥ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वजीवाभिगम ] में उत्पन्न होने की अपेक्षा से है । लोकनिष्कुट आदि में उत्पन्न होने की स्थिति में चार समय की या पांच समय की भी विग्रहगति होती है, परन्तु बाहुल्य से तीन समय की विग्रहगति होती है । उसी को लेकर यह सूत्र कहा गया है। अन्य पूर्वाचार्यों ने भी यही कहा । जैसा कि तत्त्वार्थसूत्र में " एकं द्वौ वा अनाहारकाः" कहा है।' तीन समय की विग्रहगति में से दो समय अनाहारकत्व के हैं। उन दो समयों को छोड़कर शेष क्षुल्लकभव तक जघन्य रूप से आहारक रह सकता है। उत्कर्ष से असंख्यातकाल तक आहारक रह सकता है । यह असंख्येकाल कालमार्गणा से असंख्येय उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी प्रमाण है और क्षेत्रमार्गणा की अपेक्षा अंगुलासंख्येय भाग है। अर्थात् अंगुलमात्र के असंख्येयभाग में जितने आकाश-प्रदेश हैं, उनका प्रतिसमय एक-एक अपहार करने पर जितने काल में वे निर्लेप होते हैं, उतनी उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी रूप हैं । इतने काल तक जीव अविग्रह रूप से उत्पन्न हो सकता है और अविग्रह से उत्पत्ति में सतत आहारकत्व होता है। [ १७९ केवली - आहारक की जघन्य कायस्थिति अन्तर्मुहूर्त है । यह अन्तकृतकेवली की अपेक्षा से है । उत्कर्ष से देशोनपूर्वकोटि है। यह पूर्वकोटि आयु वाले को नौ वर्ष की वय में केवलज्ञान उत्पन्न होने की अपेक्षा से है । अनाहारक दो प्रकार के हैं- छद्मस्थ - अनाहारक और केवली - अनाहारक। छद्मस्थ-अनाहारक जघन्य से एक समय तक अनाहारक रह सकता है । यह दो समय की विग्रहगति की अपेक्षा से है । उत्कर्ष से दो समय अनाहारक रह सकता है। यह तीन समय की विग्रहगति की अपेक्षा से है। चूर्णिकार ने कहा है कि यद्यपि भगवति में चार समय तक अनाहारकत्व कहा है, तथापि वह कादाचित्क होने से यहां उसे स्वीकार न कर बाहुल्य को प्रधानता दी गई है । बाहुल्य से दो समय तक अनाहारक रह सकता है । केवली - अनाहारक दो प्रकार के हैं- भवस्थकेवली - अनाहारक और सिद्धकेवली - अनाहारक । सिद्धकेवली - अनाहारक सादि-अपर्यवसित । सिद्धों के सादि- अपर्यवसित होने से उनका अनाहारकत्व भी सादि - अपर्यवसित है । भवस्थकेवली-अनाहारक दो प्रकार के हैं-संयोगिभवस्थकेवली - अनाहारक और अयोगिभवस्थकेवली-अनाहारक । अयोगिभवस्थकेवली - अनाहारक जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से भी अन्तर्मुहूर्त तक अनाहारक रह सकता है। अयोगित्व शैलेशी - अवस्था में होता हैं । उसमें नियम से वह अनाहारक ही होता है, क्योंकि औदारिककाययोग उस समय नहीं रहता । शैलेशी - अवस्था का कालमान जघन्य से भी अन्तर्मुहूर्त है और उत्कर्ष से भी अन्तर्मुहूर्त ही है । परन्तु जघन्यपद से उत्कृष्टपद अधिक जानना चाहिए, अन्यथा उभयपद देने की आवश्यकता नहीं थी । १. " एकै द्वौ वा अनाहारका :- " तत्त्वार्थ. अ. २, सू. ३१ २. यद्यपि भगवत्यां चतु:सामयिकोऽनाहारकः उक्तस्तथापि नांगीक्रियते, कदाचित्कोऽसो भावो येन, बाहुल्यमेवाङ्गीक्रियते; बाहुल्याच्च समयद्वयमेवेति । -वृत्तिः Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८०] __ [जीवाजीवाभिगमसूत्र सयोगिभवस्थकेवली-अनाहारक जघन्य और उत्कर्ष के भेद बिना तीन समय तक रह सकता है। यह अष्ट-सामयिक केवलीसमुद्घात की अवस्था में तीसरे, चौथे और पांचवे समय में केवल कार्मणकाययोग ही होता है। अतः उन तीन समयों में वह नियम से अनाहारक होता है।' अन्तरद्वार-छद्मस्थ-आहारक का अन्तर जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से दो समय है। जितना काल जघन्य और उत्कर्ष से छद्मस्थ-अनाहारक का है, उतना ही काल छद्मस्थ-आहारक का अन्तरकाल है। वह काल जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से दो समय अनाहारकत्व का है। अतः छद्म-आहारकत्व का अन्तर जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से दो समय कहा है। केवली-आहारक का अन्तर अजधन्योत्कर्ष से तीन समय का है। केवली-आहारक सयोगीभवस्थकेवली होता है। उसका अनाहारकत्व तीन समय का ही है जो पहले बताया जा चुका है। केवली-आहारक का अन्तर यही तीन समय का है। छद्मस्थ-अनाहारक का अन्तर जघन्य से दो समय कम क्षुल्लकभव है और उत्कर्ष से असंख्येकाल यावत् अंगुल का असंख्येय भाग है । इसकी स्पष्टता पहले की जा चुकी है। जितना छद्म का आहारकाल है, उतना ही छद्मस्थ-अनाहारक का अन्तर है। सिद्धकेवली-अनाहारक सादि-अपर्यवसित होने से अंतर नहीं है। सयोगिभवस्थकेवलि-अनाहारक का अन्तर जघन्य से भी अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट से भी अन्तर्मुहूर्त है। क्योंकि केवलि-समुद्घात करने के अनन्तर अन्तर्मुहूर्त में ही शैलेशी-अवस्था हो जाती है। यहां भी जघन्यपद से उत्कृष्टपद विशेषाधिक समझना चाहिए। अयोगिभवस्थकेवली-अनाहारक का अन्तर नहीं है। क्योंकि अयोगी-अवस्था में सब अनाहारक ही होते हैं । सिद्धों में भी सादि-अपर्यवसित होने से अनाहारक का अन्तर नहीं है। ___ अल्पबहुत्वद्वार-सबसे थोड़े अनाहारक हैं, क्योंकि सिद्ध, विग्रहगतिसमापन्नक, समुद्घातगतकेवली और अयोगीकेवली और अयोगीकेवली ही अनाहारक हैं। उनसे आहारक असंख्येयगुण हैं। __यहाँ शंका हो सकती है कि सिद्धों से वनस्पतिजीव अनन्तगुण हैं और वे प्रायः आहारक हैं तो अनन्तगुण क्यों नहीं कहा गया है? समाधन यह है कि प्रतिनिगोद का असंख्येयभाग प्रतिसमय सदा विग्रहगतिमें होता है और विग्रहगति में जीव अनाहारक होते हैं। इसलिए आहारक असंख्येयगुण ही घटित होते हैं, अनन्तगुण नहीं। ___ यहां वृत्ति में क्षुल्लक भव के विषय में जानकारी दी गई है। वह उपयोगी होने से यहां भी दी जा रही है। क्षुलकभव-क्षुल्लक का अर्थ लघु या स्तोक है। सबसे छोटे भव (लघु आयु का संवेदनकाल) का ग्रहण क्षुल्लकभवग्रहण है। आवलिकाओं के मान से वह दो सौ छप्पन आवलिका का होता है। एक १. कार्मणशरीरयोगी चतुर्थके पंचमे तृतीये च। समयत्रयेऽपि तस्माद् भवत्यनाहारको नियम त्॥ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वजीवाभिगम] [१८१ श्वासोच्छ्वास में कुछ अधिक सत्रह क्षुल्लकभव होते हैं। एक मुहूर्त में पैंसठ हजार पांच सौ छत्तीस (६५५३६) क्षुल्लकभव होते है। एक मुहूर्त में तीन हजार सात सौ तिहत्तर (३७७३) आनप्राण (श्वासोच्छ्वास) होते है। त्रैराशिक से एक उच्छ्वास में सत्रह क्षुल्लकभव प्राप्त होते है । पैंसठ हजार पांच सौ छत्तीस में तीन हजार सात सौ तिहत्तर का भाग देने से एक उच्छ्वास में भवों की संख्या प्राप्त होती है। उक्त भाग देने से १७ भव और १३९४ शेष बचता है, जिसकी आवलिकाएं कुछ अधिक ९४ होती है। ___ यदि हम एक आनप्राण में आवलिकाओं की संख्या जानना चाहते है तो २५६ में १७ का गुणा करके उसमें ऊपर की ९४ आवलिकाएं मिलानी चाहिए, तो ४४४६ आवलिकाएं होती हैं। यदि एक मुहूर्त में आवलिकाओं की संख्या जानना चाहते हैं तो ४४४६ एक श्वासोच्छ्वास की आवलिकाओं को एक मुहूर्त के श्वासोच्छ्वास ३७७३ से गुणा करने से १,६७,७४,७५८ आवलिका होती हैं । इसमें साधिक की २४५८ आवलिकाएं मिलाने से १,६७,७७,२१६ आवलिकाएं एक मुहूर्त में होती हैं। अथवा मुहूर्त ६५५३६ क्षुल्लकभवों को एक भव की २५६ आवलिकाओं से गुणा करने पर एक मुहूर्त में आवलिकाओं की संख्या ज्ञात हो जाती है। इसलिए जो कहा जाता है कि एक उच्छ्वासनिःश्वास में संख्येय आवलिकाएं हैं, सो समीचीन ही है। २३५. अहवा दुविहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तं जहा-सभासगा य अभासगा य। ____ सभासएं णं भंते! सभासएत्ति कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा! जहण्णेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं । अभासए णं भंते! ०? गोयमा! अभासए दुविहे पण्णत्ते-साइए वा अपज्जवसिए, साइए वा सपजवसिए। तत्थ णं जेसे साइए सपजवसिए से जहण्णेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं अणंतकालं-अणंता उस्सप्पिणी-ओसप्पिणीओ वणस्सइकालो। भासगस्स णं भंते! केवइकालं अंतरं होई? गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं अणंतकालं वणस्सइकालो। अभासगस्स साइयस्स अपजवसियस्स णत्थि अंतरं। साइयसपज्जवसियस्स जहण्णेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं। अप्पाबहुयं-सव्वत्थोवा भासगा, अभासगा अणंतगुणा। अहवा दुविहा सव्वजीवा भासगा, अभासगा अणंतगुणा। १. पनाटि सहस्साई पंचेव सया हवंति छत्तीसा। खुडागभवग्गह णा हर्वति अंतो मुहु त्तम्मि ॥ २. तिन्नि सहस्सा सत्त च सयाइ तेवत्तरिं च ऊसासा। एस मुहुत्तो भणिओ, सव्वेहिं अणंतणांणीहिं॥ ३. एगा कोडी सत्तट्ठि लक्ख सत्ततरी सहस्सा य। दोयसया सोलहि या आवलिया मुहु त्तम्मि ॥ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२] [जीवाजीवाभिगमसूत्र ___ अहवा दुविहा सव्वजीवा ससरीरी य असरीरी य। असरीरी जहा सिद्धा। ससरीरी जहा असिद्धा। थोवा असरीरी, ससरीरी अणंतगुणा। २३५. अथवा सर्व जीव दो प्रकार के हैं-सभाषक और अभाषक। भगवन् ! सभाषक, सभाषक के रूप में कितने काल तक रहता है? गौतम! जघन्य से एक समय, उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्त । भंते ! अभाषक, अभाषक रूप में कितने समय रहता है? गौतम! अभाषक दो प्रकार के है-सादिअपर्यवसित और सादि-सपर्यवसित । इनमें जो सादि-सपर्यवसित अभाषक हैं, वह जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट में अनन्त काल तक अर्थात् अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणीकाल तक अर्थात् वनस्पतिकाल तक। भगवन् ! भाषक का अन्तर कितना है? गौतम! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से अनन्तकाल अर्थात् वनस्पतिकाल। सादि-अपर्यवसित अभाषक का अन्तर नहीं हैं। सादि-सपर्यवसित का अन्तर जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है। अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े भाषक हैं, अभाषक उनसे अनन्तगुण हैं। अथवा सब जीव दो प्रकार के हैं-सशरीरी और अशरीरी। अशरीरी की संचिट्ठणा आदि सिद्धों की तरह तथा सशरीरी की असिद्धों की तरह कहना चाहिए यावत् अशरीरी थोड़े हैं और सशरीरी अनन्तगुण हैं। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में भाषक और अभाषक की अपेक्षा से सब जीवों के दो भेद कहे गये हैं। जो बोल रहा है वह भाषक है और अन्य अभाषक है।' भाषक, भाषक के रूप में जघन्य एक समय रहता है। भाषा द्रव्य के ग्रहण समय में ही मरण हो जाने से या अन्य किसी कारण से भाषा-व्यापार से उपरत हो जाने से एक समय कहा गया है। उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त तक रहता है। इतने काल तक ही भाषा द्रव्य का निरन्तर ग्रहण और निसर्ग होता है। इसके बाद तथाविध जीवस्वभाव से वह अवश्य अभाषक हो जाता है। अभाषक दो प्रकार के हैं-सादि-अपर्यवसित और सादि-सपर्यवसित। सादि-अपर्यवसित सिद्ध हैं और सादि-सपर्यवसित पृथ्वीकाय आदि हैं। जो सादि-सपर्यवसित हैं, वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक अभाषक रहता है, इसके बाद पुनः भाषक हो जाता है। अथवा पृथ्वी आदि भव की जघन्य स्थिति इतने ही काल की है। उत्कर्ष से अभाषक, अभाषक रूप में वनस्पतिकाल पर्यन्त रहता है । वह वनस्पतिकाल अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी रूप है तथा क्षेत्रमार्गणा से अनन्त लोकाकाश के प्रदेशों का प्रतिसमय एक-एक के मान से अपहार करने पर उनके निर्लेप होने में जितना काल लगता है, उतना काल है; यह काल असंख्येय पुद्गलपरार्वत रूप है। इन पुद्गलपरावर्तों का प्रमाण आवलिका के असंख्येयभागवर्ती समयों के बराबर है। वनस्पति में इतने काल तक अभाषक रूप में रह सकता है। १.भाषमाणा भाषका इतरेऽभाषकाः। -वृत्ति Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वजीवाभिगम] [१८३ अन्तरद्वार-भाषक का अन्तर जघन्य अन्तमुहूर्त है और उत्कर्ष से अनन्तकाल-वनस्पतिकाल है। अभाषक रहने का जो काल है, वही भाषक का अन्तर है। सादि-अपर्यवसित अभाषक का अन्तर नहीं है। क्योंकि वह अपर्यवसित है। सादि-सपर्यवसित का अन्तर जघन्य एक समय और उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि भाषक का काल ही अभाषक का अन्तर है। भाषक का काल जघन्य एक समय और उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त ही है। अल्पबहुत्वसूत्र स्पष्ट ही है। सशरीरी और अशरीरी की वक्तव्यता सिद्ध और असिद्धवत् जाननी चाहिए। २३६. अथवा दुविहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तं जहा-चरिमा चेव अचरिमा चेव। चरिमे णं भत्ते! चरिमेत्ति कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! चरिमे अणाइए सपज्जवसिए। अचरिमे दुविहे पण्णत्ते-अणाइए वा अपजवसिए, साइए वा अपजवसिए। दोण्हंपि णत्थि अंतरं। ___ अप्पाबहुयं-सव्वत्थोवा अचरिमा, चरिमा अणंतुगा। (सेत्तं दुविहा सव्वजीवा पण्णत्ता।) . २३६. अथवा सर्व जीव दो प्रकार के हैं-चरम और अचरम। भगवन् ! चरम, चरमरूप में कितने काल तक रहता है? गौतम! चरम अनादि-सपर्यवसित है। अचरम दो प्रकार के हैं-अनादि-अपर्यवसित और सादिअपर्यवसित । दोनों का अन्तर नहीं है। अल्पबहुत्व में थोड़े अचरम हैं, उनसे चरम अनन्तगुण हैं । (यह सर्व जीवों की दो भेदरूप प्रतिपत्ति पूरी हुई।) विवेचन-चरम और अचरम के रूप में सर्व जीवों के दो भेद इस सूत्र में वर्णित हैं। चरम भव वाले भव्य विशेष जो सिद्ध होंगे, वे चरम कहलाते हैं । इनसे विपरीत अचरम कहलाते हैं । ये अचरम हैं अभव्य और सिद्ध। ___कायस्थितिसूत्र में चरम अनादि-सपर्यवसित हैं अन्यथा वह चरम नहीं कहा जा सकता। अचरमसूत्र में अचरम दो प्रकार के हैं-अनादि-अपर्यवसित और सादि-अपर्यवसित। अनादि-अपर्यवसित-अचरम अभव्य जीव है और सादि-अपर्यवसित-अचरम सिद्ध हैं। अन्तरद्वार में दोनों का अन्तर नहीं है। अनादि-सपर्यवसित-चरम का अन्तर नहीं है, क्योंकि चरमत्व के जाने पर पुनः चरमत्व सम्भव नहीं है। अचरम चाहे अनादि-अपर्यवसित हो, चाहे सादिअपर्यवसित हो, उसका अन्तर नहीं है, क्योंकि इनका चरमत्व होता ही नहीं। ___अल्पबहुत्वसूत्र में सबसे थोड़े अचरम हैं, क्योंकि अभव्य और सिद्ध ही अचरम हैं। उनसे चरम अनन्तगुण हैं। सामान्य भव की अपेक्षा से यह कथन समझना चाहिए, अन्यथा अनन्तगुण नहीं घट सकता। जैसा कि मूल टीकाकार ने कहा है-"चरम-अनन्तगुण हैं । सामान्य भव्यों की अपेक्षा से यह समझना चाहिए। सूत्रों का विषय-विभाग दुर्लक्ष्य है।" १. "चरमा अनन्तगुणाः, समान्यभव्यापेक्षमेतदिति भावनीयं, दुर्लक्ष्यः सूत्राणां विषयविभागः।" Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४] [ जीवाजीवाभिगमसूत्र इस प्रकार सर्व जीव सम्बन्धी द्विविध प्रतिपत्ति पूरी हुई। इसमें कही गई द्विविध वक्तव्यता को संग्रहीत करने वाली गाथा इस प्रकार है सिद्धसइंदियकाए जोए वेए कसायलेसा य । नाणुवओगाहारा भाससरीरी च चरमो य ॥ इसका अर्थ स्पष्ट ही है । सर्वजीव - त्रिविध-वक्तव्यता २३७. तत्थ णं जेते एवमाहंसु तिविहा सव्वजीवा पण्णत्ता, ते एवमाहंसु तं जहासम्मदिट्ठी, मिच्छादिट्ठी, सम्मामिच्छादिट्ठी | सम्मदिट्ठी णं भंते! कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! सम्मदिट्ठी दुविहे पण्णत्ते, तं जहा - साइए वा अपज्जवसिए, साइए वा सपज्जवसिए । तत्थ जेते साइए सपज्जवसिए, से जहनेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं छावट्ठिं सागरोवमाई साइरेगाई । मिच्छादिट्ठी तिविहे - साइए वा सपज्जवसिए अणाइए वा अपज्जवसिए, अणाइए वा सपज्जवसिए । तत्थ जेते साइए - सपज्जवसिए से जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं अनंतकालं जाव अवड्ढं पोग्गलपरियट्टं देसूणं । सम्मामिच्छादिट्ठी जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणवि अंतोमुहुत्तं । सम्मदिट्ठिस्स अंतरं साइयस्स अपज्जवसियस्स णत्थि अंतरं । साइयस्स सपज्जवसियस्स जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसणं अणंतकालं जाव अवड्ढं पोग्गलपरियहं । मिच्छादिट्ठिस्स अणाइयस्स अपज्जवसियस्स णत्थि अंतरं, अणाइयस्स सपज्जवसियस्स णत्थि अंतरं, साइयस्स सपज्जवसियस्स जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसणं छावट्ठि सागरोवमाई साइरे गाई । सम्मामिच्छादिट्ठिस्स जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं अनंतं कालं जाव अवड्ढं पोग्गलपरियट्टं देसूणं । अप्पाबहुयं सव्वत्थोवा सम्मामिच्छादिट्ठी, सम्पदिट्ठी अणंतगुणा, मिच्छादिट्ठी अनंतगुणा । २३७. जो ऐसा कहते हैं कि सर्व जीव तीन प्रकार हैं, उनका मंतव्य इस प्रकार है - यथा सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि | भगवन् ! सम्यग्दृष्टि काल से सम्यग्दृष्टि कब तक रह सकता है ? गौतम! सम्यग्दृष्टि दो प्रकार के हैं - सादि-अपर्यवसित और सादि सपर्यवसित। जो सादि-सपर्यवसित सम्यग्दृष्टि हैं, वे जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से साधिक छियासठ सागरोपम तक रह सकते हैं। मिथ्यादृष्टि तीन प्रकार के हैं - सादि- सपर्यवसित, अनादि- अपर्यवसित और अनादि सपर्यवसित Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वजीवाभिगम] [१८५ इनमें जो सादि-सपर्यवसित हैं वे जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से अनन्तकाल तक जो यावत् देशोन अपार्धपुद्गलपरावर्त रूप है, मिथ्यादृष्टि रूप से रह सकते हैं। सम्यग्मिथ्यादृष्टि(मिश्रदृष्टि) जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से भी अन्तर्मुहूर्त तक रह सकता है। सम्यग्दृष्टि के अन्तरद्वार में सादि-अपर्यवसित का अंतर नहीं है, सादि-सपर्यवसित का जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल है, जो यावत् अपार्धपुद्गलपरावर्त रूप है। ___ अनादि-अपर्यवसित मिथ्यादृष्टि का अन्तर नहीं है, अनादि-सपर्यवसित मिथ्यादृष्टि का भी अन्तर नहीं है, सादि-सपर्यवसित का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहर्त और उत्कृष्ट साधिक छियासठ सागरोपम है। ___ सम्यग्मिथ्यादृष्टि का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल है, जो देशोन अपार्धपद्गलपरावर्त रूप है। अल्पबहुत्वद्वार में सबसे थोड़े सम्यग्मिथ्यादृष्टि हैं, उनसे सम्यग्दृष्टि अनन्तगुण हैं और उनसे मिथ्यादृष्टि अनन्तगुण हैं। विवेचन-सर्व जीव तीन प्रकार के हैं-सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि । इनका स्वरूप पहले बताया जा चुका है। यहां इनकी कायस्थिति (संचिट्ठणा), अन्तर और अल्पबहुत्व को लेकर विवेचना की गई है। कायस्थिति-सम्यग्दृष्टि दो प्रकार के हैं-सादि-अपर्यवसित (क्षायिक सम्यग्दृष्टि) और सादिसपर्यवसित (क्षायोपशमिक आदि सम्यग्दर्शनी)। इनमें जो सादि-सपर्यवसित सम्यग्दृष्टि हैं, उनकी संचिट्ठणा (कायस्थिति) जघन्य से अन्तर्मुहूर्त हैं, क्योंकि विचित्र कर्मपरिणाम होने से इतने काल के पश्चात् कोई जीव मिथ्यात्व में चला जा सकता है। उत्कर्ष से छियासठ सागरोपम तक वह रह सकता है। इसके बाद नियम से क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन नहीं रहता। मिथ्यादृष्टि तीन प्रकार के हैं-अनादि-अपर्यवसित, अनादि-सपर्यवसित और सादि-सपर्यवसित। इनमें जो सादि-सपर्यवसित है वह जघन्य से अन्तर्मुहूतं तक रहता है। इतने काल के बाद कोई जीव पुनः सम्यग्दर्शन पा सकता है। उत्कर्ष से अनन्तकाल तक रह सकता है। यह अन्तकला कालमार्गण से अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी रूप है और क्षेत्रमार्गणा से देशोन अपार्धपुद्गलपरावर्त है, क्योंकि जिसने पहले एक बार भी सम्यकत्व पा लिया हो, वह इतने काल के बाद पुनः अवश्य सम्यग्दर्शन पा लेता है। पर्व सम्यकत्व के प्रभाव से उसने संसार को परित्त कर लिया होता है। ___सम्यग्मिथ्यादृष्टि उस रूप में जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से भी अन्तर्मुहूर्त काल तक रहता है, क्योंकि स्वभावतः मिश्रदृष्टि का इतना ही कालप्रमाण है। केवल जघन्य से उत्कृष्ट पद अधिक है। अन्तरद्वार-सादि-अपर्यवसित सम्यग्दृष्टि का अन्तर नहीं हैं, क्योंकि वह अपर्यवसित है। सादिसपर्यवसित सम्यग्दृष्टि का अन्तर जघन्य से अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि सम्यकत्व से गिरकर कोई जीव अन्तर्मुहूर्त काल में पुनः सम्यक्त्व पा लेता है। उत्कर्ष से उसका अन्तर अनन्तकाल अर्थात् अपार्धपुद्गलपरावर्त है। Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६] [जीवाजीवाभिगमसूत्र ___ अनादि-अपर्यवसित मिथ्यादृष्टि का अन्तर नहीं हैं, क्योंकि उसका मिथ्यात्व छूटता ही नही है। अनादि-सपर्यवसित मिथ्यात्व का भी अन्तर नहीं है, क्योंकि छूटकर पुनः होने पर अनादित्व नहीं रहता है। सादि-सपर्यवसित मिथ्यादृष्टि का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट साधिक छियासठ सागरोपम है, क्योंकि सम्यग्दर्शन का काल ही मिथ्यादर्शन का प्रायः अन्तर है। सम्यग्दर्शन का जघन्य और उत्कर्ष काल इतना ही है। सम्यग्मिथ्यादृष्टि का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि सम्यग्मिथ्यादर्शन से गिरकर कोई, अन्तर्मुहूर्त में फिर सम्यग्मिथ्यादर्शन पा लेता है। उत्कर्ष से देशोन अपार्धपुद्गलपरावर्त का अन्तर है। यदि सम्यग्मिथ्यादर्शन से गिरकर फिर सम्यग्मिथ्यादर्शन का लाभ हो तो नियम से इतने काल के बाद होता ही हैं, अन्यथा मुक्ति होती है। अल्पबहुत्वद्वार-सबसे थोड़े सम्यग्मिथ्यादृष्टि हैं, क्योंकि तद्योग्य परिणाम थोड़े काल तक रहते हैं और पृच्छा के समय वे अल्प ही प्राप्त होते हैं। उनसे सम्यग्दृष्टि अनन्तगुण हैं, क्योंकि सिद्ध जीव भी सम्यग्दृष्टि हैं और वे अनन्त हैं। उनसे मिथ्यादृष्टि अनन्तगुण हैं, क्योंकि वनस्पतिजीव सिद्धों से भी अनन्तगुण हैं और वे मिथ्यादष्टि हैं। २३८. अहवा तिविहा सव्वजीवा पण्णत्ता-परित्ता अपरित्ता नोपरित्ता-नोअपरित्ता। परित्ते णं भंते! कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! परित्ते दुविहे पण्णत्ते-कायपरित्ते य संसारपरित्ते य। कायपरित्ते णं भंते! कालओ केवचिरं होई? गोयमा! जहन्नेणं अन्तोमुहुत्तं उक्कोसेण असंखेनं कालं जाव असंखेजा लोगा। संसारपरित्ते णं भंते! संसारपरित्तेत्ति कालओ केवचिरं होई? जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं अणंतं कालं जाव अवढे पोग्गलपरियटें देसूणं। अपरित्ते णं भंते? अपरित्ते दुविहे पण्णत्ते-कायअपरित्ते य संसारअपरित्ते य। कायअपरित्ते णं जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं अणंतं कालं-वणस्सइकालो। संसारापरित्ते दुविहे पण्णत्ते-अणाइए वा अपज्जवसिए, अणाइए वा सपजवसिए। णोपरित्ते-णोअपरित्ते साइए अपज्जवसिए। कायपरित्तस्स जहन्नेणं अंतरं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं वणस्सइकालो। संसारपरित्तस्स णत्थि अंतरं। कायपरित्तस्स जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं असंखिजं कालं पुढविकालो। संसारापरित्तस्स अणाइयस्स अपजवसियस्स णत्थि अंतरं।अणाइयस्स सपज्जवसियस्स नत्थि अंतरं। णोपरित्त-नो-अपरित्तस्सवि णत्थि अंतरं। अप्पाबहुयं-सव्वत्थोवा परित्ता, णोपरित्ता-नोअपरित्ता अणंतगुणा, अपरित्ता अणंतगुणा। Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वजीवाभिगम] [१८७ २३८. अथवा सर्व जीव तीन प्रकार के हैं-परित्त, अपरित्त और नोपरित्त-नोअपरित्त। भगवन् ! परित्त, परित्त के रूप में कितने काल तक रहता है? गौतम! परित्त दो प्रकार के हैंकायपरित्त और संसारपरित्त। भगवन् ! कायपरित्त, कायपरित्त के रूप में कितने काल तक रहता है? गौतम! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से असंख्येय काल तक यावत् असंख्येय लोक। भंते ! संसारपरित्त, संसारपरित्त के रूप में कितने काल तक रहता है? गौतम! जघन्य से अन्तर्मुहर्त और उत्कर्ष से अनन्तकाल जो यावत् देशोन अपार्धपुद्गलपरावर्तरूप है। भगवन् ! अपरित्त, अपरित्त के रूप में कितने काल तक रहता है? गौतम! अपरित्त दो प्रकार के हैं-काय-अपरित्त और संसार-अपरित्त। भगवन् ! काय-अपरित्त, काय-अपरित्त के रूप में कितने काल रहता है? गौतम! जघन्य से अंन्तर्मुहर्त और उत्कर्ष से अनन्तकाल अर्थात् वनस्पतिकाल तक रहता है। संसार-अपरित्त दो प्रकार के हैं -अनादि-अपर्यवसित और अनादि-सपर्यवसित। नौपरित्त- नोअपरित्त सादि-अपर्यवसित है। कायपरित्त का जघनय अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर वनस्पतिकाल है। संसारपरित्त का अन्तर नहीं है। काय-अपरित्त का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्येयकाल अर्थात् पृथ्वीकाल है। अनादि-अपर्यवसित संसारापरित्त का अंतर नहीं है। अनादि-सपर्यवसित संसारापरित्त का अन्तर नहीं है । अनादि-सपर्यवसित संसारापरित्त का भी अन्तर नहीं है। नोपरित्त-नोअपरित्त का भी अन्तर नहीं है । अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े परित्त है, नोपरित्त-नोअपरित्त अनन्तगुण हैं और अपरित्त अनन्तगुण हैं। विवेचन-अन्य विवक्षा से सर्व संसारी जीव तीन प्रकार के हैं-परित्त, अपरित्त और नोपरित्तनोअंपरित्त। परित्त का सामान्यतया अर्थ है सीमित। जिन्होंने संसार का तथा साधारण वनस्पतिकाय क सीमित कर दिया है, वे जीव परित्त कहलाते है। इससे विपरीत अपरित्त हैं तथा सिद्धजीव नोपरित्तनोअपरित्त हैं । इन तीनों प्रकार के जीवों की कायस्थिति, अन्तर और अल्पबहुत्व का विचार इस सूत्र में किया गया है। कायस्थिति-परित्त दो प्रकार के हैं -कायपरित्त और संसारपरित्त । कायपरित्त अर्थात् प्रत्येकशरीर। संसारपरित्त अर्थात् जिसका संसार-परिभ्रमणकाल अपार्धपुद्गलपरावर्त के अन्दर-अन्दर है। कायपरित्त जघन्य से अन्तर्मुहूर्त तक कायपरित्त रह सकता है। वह साधरणवनस्पति से परित्तों में अन्तर्मुहूर्त काल तक रहकर पुनः साधारण में चले जाने की अपेक्षा से है। उत्कर्ष से असंख्येयकाल तक रह सकता है। यह असंख्येयकाल असंख्येय उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी रूप है तथा क्षेत्र से असंख्येय लोकों के आकाशप्रदेशों का प्रतिसमय एक-एक के मान से अपहार करने पर जितने समय में वे निर्लेप हो जायें, उतने समय तक का है। अथवा यों कह सकते हैं कि पृथ्वीकाय आदि प्रत्येक-शरीरी का जितना संचिट्ठणकाल है, उतने काल तक रह सकता है। इसके पश्चात् नियम से साधारण रूप में पैदा होता है। Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८] [जीवाजीवाभिगमसूत्र संसारपरित्त जघन्य से अन्तर्मुहूर्त तक उसी रूप में रह सकता है। इसके बाद कोई अन्तकृत्केवली होकर मोक्ष में जा सकता है। उत्कर्ष से अनन्तकाल तक उसी रूप में रह सकता है। वह अनन्तकाल कालमार्गणा से अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी रूप होता है और क्षेत्र से अपार्धपदगलपरावर्त होता है। इसके बाद नियम से वह सिद्धि प्राप्त करता है। अन्यथा संसारपरित्तत्व का कोई मतलब नहीं रहता। अपरित्त दो प्रकार के हैं -काय-अपरित्त और संसार-अपरित्त। काय-अपरित्त साधारण वनस्पति जीव हैं और संसार-अपरित्त कृष्णपाक्षिक जीव हैं। काय-अपरित्त जघन्य से अन्तर्मुहूर्त उसी रूप में रह सकता है, तदनन्तर किसी भी प्रत्येक शरीरी में जा सकता है। उत्कर्ष से वह अनन्तकाल तक उसी रूप में रह सकता है। यह अनन्तकाल वनस्पतिकाल हैं, जिसका स्पष्टीकरण पहले कालमार्गणा और क्षेत्रमार्गणा से किया जा चुका है। ___ संसार-अपरित्त दो प्रकार के हैं-अनादि-अपर्यवसित, जो कभी मोक्ष में नहीं जायेगा और अनादिसपर्यवसित (भव्य विशेष)। नोपरित्त-नोअपरित सिद्ध जीव है। वह सादि-अपर्यवसित है, क्योंकि वहां से प्रतिपात नहीं होता। अन्तरद्वार-काय-परित्त का अन्तर जघन्य से अन्तर्मुहूर्त है। साधारणों में अन्तर्मुहूर्त तक रहकर पुनः प्रत्येकशरीरी में आया जा सकता है। उत्कर्ष से अनन्तकाल पूर्वोक्त वनस्पतिकाल समझना चाहिए। उतने काल तक साधारण रूप में रह सकता है। संसार-अपरित्त का अन्तर नहीं हैं। क्योंकि संसार-परित्तत्व से छूटने पर पुनः संसार-परित्तत्व नहीं होता तथा मुक्त का प्रतिपात नहीं होता। काय-अपरित्त का अन्तर जघन्य से अन्तर्मुहूर्त है। प्रत्येक-शरीरों में अन्तर्मुहूर्त तक रहकर पुनः काय-अपरित्तों में आना संभव है। उत्कर्ष से असंख्येयकाल का अन्तर है। यह असंख्येयकाल पृथ्वी काल है। इसका स्पष्टीकरण कालमार्गणा और क्षेत्रमार्गणा से पहले किया जा चुका है। पृथ्वी आदि प्रत्येकशरीरी भवों में भ्रमणकाल उत्कर्ष से इतना ही है। संसार-अपरित्तो में जो अनादि-अपर्यवसित हैं, उनका अन्तर नहीं होता अपर्यवसित होने से और अनादि-सपर्यवसित का भी अन्तर नहीं होता, क्योंकि संसार-अपरित्तत्व के जाने पर पुनः संसारअपरित्तत्व संभव नहीं है। नोपरित्त-नोअपरित्त का भी अन्तर नहीं है, क्योंकि वे सादि-अपर्यवसित होते हैं। अल्पबहुत्वद्वार-सबसे थोड़े परित्त हैं, क्योंकि काय-परित्त और संसार-परित्त जीव थोड़े हैं। उनसे नोपरित्त-नोअपरित्त अनन्तगुण हैं, क्योंकि सिद्ध जीव अनन्त हैं। उनसे अपरित्त अनन्तगुण हैं, क्योंकि कृष्णपाक्षिक अतिप्रभूत हैं। २३९. अहवा तिविहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तं जहा-पज्जत्तगा, अपजत्तगा, नोपजत्तगानोअपजत्तगा। पज्जत्तगे णं भंते!०? जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं सागरोवमसयपुहुत्तं Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वजीवाभिगम] [१८९ साइरेगं। अपजत्तो णं भंते०.? जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं। नोपजत्तनोअपजत्तए साइए अपज्जवसिए। __पजत्तगस्स अंतरं जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं । अपजत्तगस्स जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं सागरोवमसयपुहुत्तं साइरेगं । तइयस्स णत्थि अंतरं। अप्पाबहुयं-सव्वत्थोवा नोपजत्तग-नोअपज्जत्तगा, अपजत्तगा अणंतगुणा, पजत्तगा संखिजगुणा। २३९. अथवा सब जीव तीन तरह के हैं-पर्याप्तक, अपर्याप्तक और नोपर्याप्तक-नोअपर्याप्तक। भगवन् ! पर्याप्तक, पर्याप्तक रूप में कितने समय तक रहता है? गौतम! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से साधिक सागरोपमशतपृथक्त्व (दो सौ से नौ सौ सागरोपम) तक रह सकता है। भगवन् ! अपर्याप्तक, अपर्याप्तक के रूप में कितने समय तक रह सकता है? गौतम! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कर्ष से भी अन्तर्मुहूर्त तक रह सकता है। नोपयार्पप्तक-नोअपर्याप्तक सादि-अपर्यवसित है। - भगवन् ! पर्याप्तक का अन्तर कितना है? गौतम! जघन्य अन्तर्मुहर्त और उत्कर्ष से भी अन्तर्मुहूर्त है। अपर्याप्तक का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट साधिक सागरोपशत-पृथक्त्व है। तृतीय नोपर्याप्तक-नोअपर्याप्तक का अन्तर नहीं है। अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े नोपर्याप्तक-नोअपर्याप्तक है, उनसे अपर्याप्तक अनन्तगुणहैं, उनसे पर्याप्तक संख्येयगुण हैं। विवेचन-पर्याप्तक की कायस्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त है। जो अपर्याप्तकों से पर्याप्तक में उत्पन्न होकर वहां अन्तर्मुहूर्त रहकर फिर अपर्याप्त में उत्पन्न होने की अपेक्षा से है। उत्कृष्ट कायस्थिति दो सौ से लेकर नौ सौ सागरोपम से कुछ अधिक है। इसके बाद नियम से अपर्याप्तक रूप में जन्म होता है। यह कथन लब्धि की अपेक्षा से है, अतः अपान्तराल में उपपात अपर्याप्तकत्व के होने पर भी कोई दोष नहीं है। अपर्याप्त की कायस्थिति जघन्य और उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है, क्योंकि अपर्याप्तलब्धि का इतना ही काल है। जघन्य से उत्कृष्ट पद अधिक है। नोपर्याप्तक-नोअपर्याप्तक सिद्ध हैं। वे सादिअपर्यवसित हैं, अतः सदाकाल उसी रूप में रहते हैं। . ___ पर्याप्तक का अन्तर जघन्य और उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्त है। क्योंकि अपर्याप्तकाल ही पर्याप्तक का . अन्तर है। अपर्याप्तकाल जघन्य से और उत्कृर्ष से भी अन्तर्मुहूर्त ही है। अपर्याप्तक का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर साधिक सागरोपम-शतपृथक्त्व है। पर्याप्तक काल ही अपर्याप्तक अन्तर है और पर्याप्तकाल जघन्य से अन्तर्मुहुर्त और उत्कर्ष से साधिक सागरोपशमतपृथक्त्व ही है। नोपर्याप्त-नोअपर्याप्त का अन्तर नहीं है, क्योंकि वे सिद्ध हैं और वे अपर्यवसित हैं। अल्पबहुत्वद्वार में सबसे थोड़े नोपर्याप्तक-नोअपर्याप्तक हैं, क्योंकि सिद्ध जीव शेष जीवों की अपेक्षा Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९०] [जीवाजीवाभिगमसूत्र अल्प हैं। उनसे अपर्याप्तक अनन्तगुण हैं, क्योंकि निगोदजीवों में अपर्याप्तक अनन्तानन्त सदैव लभ्यमान हैं। उनसे पर्याप्तक संख्येयगुण हैं, क्योंकि सूक्षमों में ओघ से अपर्याप्तकों से पर्याप्तक संख्येयगुण हैं। २४०. अहवा तिविहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तं जहा-सुहुमा बायरा नोसुहुम-नोबायरा। सुहुमे णं भंते! सुहुमेत्ति कालओ केवचिरं होइ? जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं असंखिउजकालं पुढविकालो। बायरा जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं असंखिजकालं असंखिजाओ उस्सप्पिणी-ओसप्पिणीओ कालओ, खेत्तओ अंगुलस्स असंखेज्जइभागो। नोसुहम-नोबायरे साइए अपज्जवसिए। सुहमस्स अंतरं बायरकालो। बायरस्स अंतरं सुहुमकालो। तइयस्स नोसुहुम-नोबायरस्स अंतरं णत्थि । अप्पाबहुयं-सव्वत्थोवा नोसुहुम-नोबायरा, बायरा अणंतगुणा, सुहुमा असंखेजगुणा। २४०. अथवा सर्व जीव तीन प्रकार के हैं-सूक्ष्म, बादर और नोसूक्ष्म-नोबादर। भगवन् ! सूक्ष्म, सूक्ष्म के रूप में कितने समय तक रहता है। गौतम! जघन्य से अन्तर्महूर्त और उत्कर्ष से असंख्येयकाल अर्थात् पृथ्वीकाल तक रहता है। बादर, बादर के रूप में जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट असंख्येयकाल तक रहता है । यह असंख्येयकाल असंख्येय उत्सर्पिणी-अंवसर्पिणी रूप है कालमार्गणा से। क्षेत्रमार्गणा से अंगुल का असंख्येयभाग है। नोसूक्ष्म-नोबादर सादि-अपर्यवसित है। सूख्य का अन्तर बादरकाल है और बादर का अन्तर . सूक्ष्मकाल है। तीसरे नोसूक्ष्म-नोबादर का अन्तर नहीं है । अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े नोसूक्ष्म-नोबादर हैं, उनसे बादर अनन्तगुण हैं और उनसे सुक्ष्म असंख्येयगुण हैं। विवेचन-सूक्ष्म और बादर को लेकर तीन प्रकार के सर्व जीव कहे हैं-सूक्ष्म, बादर और नोसूक्ष्म-नोबादर। इन तीनों की कायस्थिति, अन्तर तथा अल्पबहुत्व इस सूत्र में बताया है। कायस्थिति-सूक्ष्म की कायस्थिति जघन्य से अन्तर्मुहूर्त है। इसके बाद पुनः बादरों में उत्पत्ति हो सकती है। उत्कर्ष से कायस्थिति असंख्येयकाल है। यह असंख्येयकाल असंख्येय उत्सर्पिणीअवसर्पिणी रूप है कालमार्गणा से, क्षेत्रमार्गणा से असंख्येय लोकाकाश के प्रदेशों के प्रति-समय एकएक के अपहारमान से निर्लेप होने के काल के बराबर है। यही पृथ्वीकाल कहा जाता है। बादर की कायस्थिति जघन्य से अन्तर्मुहूर्त है। इसके बाद कोई जीव पुनः सूक्ष्मों में चला जाता है। उत्कर्ष से असंख्येयकाल है। यह असंख्येयकाल असंख्येय उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी रूप है कालमार्गणा से, क्षेत्रमार्गणा से अंगुलासंख्येयभाग है। अर्थात् अंगुलमात्र क्षेत्र के असंख्येयभागवर्ती आकाश-प्रदेशों के प्रतिसमय एक-एक के मान से अपहार किये जाने पर निर्लेप होने के काल के बराबर है। इतने समय के बाद संसारी जीव सूक्ष्मों में नियमतः उत्पन्न होता है। नोसूक्ष्म-नोबादर सिद्ध जीव हैं, सादि-अपर्यवसित होने से सदा उसी रूप में बने रहते हैं। Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वजीवाभिगम ] [१९१ अन्तरद्वार - सुक्ष्म का अन्तर जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से असंख्येयकाल है । यह असंख्येयकाल अंगुलासंख्येयभाग है । बादरकाल इतना ही है । बादर का अन्तर जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से असंख्येयकाल है । यह असंख्येयकाल क्षेत्र से असंख्येय लोकप्रमाण है। सूख्मकाल इतना ही है। नोसूक्ष्म - नोबादर का अन्तर नहीं है, क्योंकि वह सादि - अपर्यवसित है। अपर्यवसित होने से अन्तर नहीं होता । अल्पबहुत्वद्वार - सबसे थोड़े नोसूक्ष्म- नोबादर हैं, क्योंकि सिद्धजीव अन्य जीवों की अपेक्षा अल्प हैं। उनसे बादर अनन्तगुण हैं, क्योंकि बादरनिगोद जीव सिद्धों से भी अनन्तगुण हैं, उनसे सूक्ष्म असंख्येयगुण हैं क्योंकि बादरनिगोदों से सूक्ष्मनिगोद असंख्यातगुण हैं । २४१. अहवा तिविहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तं जहा सण्णी, असण्णी, नोसण्णीनोअसण्णी । सणी णं भंते! कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं साग़रोवमसयपुहुत्तं साइरेगं । असण्णी जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं वणस्सइकालो । नोसण्णीनोअसण्णी साइए- अपज्जवसिए । सण्णिस्स अंतरं जहणणेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं वणस्सइकालो । असण्णिस्स अंतरं जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं सागरोवमसयपुहुत्तं साइरेगं, तइयस्स णत्थि अंतरं । अप्पाबहुयं सव्वत्थोवा सण्णी, नोसण्णी- नोअसण्णी अनंतगुणा, असण्णी अनंतगुण । २४१. अथवा सर्व जीव तीन प्रकार के हैं-संज्ञी, असंज्ञी, नोसंज्ञी - नोअसंज्ञी । भगवन् ! संज्ञी, संज्ञी रूप में कितने समय तक रहता है? गौतम! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से सागरोपमशतपृथक्त्व से कुछ अधिक समय तक रहता है । असंज्ञी जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल। नोसंज्ञी - नोअसंज्ञी सादि- अपर्यवसित है, अतः सदाकाल रहता है। 1 संज्ञी का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है । असंज्ञी का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट साधिक सागरोपमशतपृथक्त्व है। नोसंज्ञी - नोअसंज्ञी का अन्तर नहीं है। अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े संज्ञी हैं, उनसे नोसंज्ञी - नोअसंज्ञी अनन्तगुण हैं और उनसे असंज्ञी अनन्तगुण हैं । विवेचन - संज्ञी, असंज्ञी की विवक्षा से जीवों का त्रेविध्य इस सूत्र में बताकर उनकी संचिट्ठणा, अन्तर और अल्पबहुत्व का कथन किया गया है । कायस्थिति (संचिट्ठणा ) - संज्ञी जघन्य से अन्तर्मुहूर्त तक उसी रूप में रह सकता है। इसके Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२] [जीवाजीवाभिगमसूत्र बाद पुनः कोई असंज्ञियों में जा सकता है। उत्कर्ष से साधिक दो सौ सागरोपम से नौ सौ सागरोपम तक रह सकता है। इसके बाद संसारी जीव अवश्य असंज्ञी में उत्पन्न होता है। ___ असंज्ञी की कायस्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त है । इसके बाद वह पुनः संज्ञियों में उत्पन्न हो सकता है। उत्कर्ष से अनन्तकाल तक असंज्ञियों में रह सकता है। यह अनन्तकाल वनस्पतिकाल है। कालमार्गणा से अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी रूप है तथा क्षेत्रमार्गणा से अनन्तलोक तथा असंख्येय पुद्गलपरावर्त रूप है। उन पुद्गलपरावर्तों का प्रमाण आवलिका के असंख्येयभागवर्ती समयों के बराबर है। ___ नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी जीव सिद्ध हैं। वे सादि-अपर्यवसित हैं । अपर्यवसित होने से सदा उसी रूप में रहते हैं। अन्तरद्वार-संज्ञी का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त है और उत्कर्ष से अनन्तकाल है, जो वनस्पतिकाल तुल्य है। असंज्ञी का अवस्थानकाल जघन्य और उत्कर्ष से इतना ही है। असंज्ञी का अन्तर जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से साधिक सागरोपमशतपृथक्त्व है, क्योंकि संज्ञी का अवस्थानकाल जघन्य-उत्कर्ष से इतना ही है। ___नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी का अन्तर नहीं है, क्योंकि वे सादि-अपर्यवसित हैं। अपर्यवसित होने से अन्तर नहीं होता। अल्पबहुत्वद्वार-सबसे थोड़े संज्ञी हैं, क्योंकि देव, नारक और गर्भव्युत्क्रान्तिक तिर्यंच और मनुष्य ही संज्ञी हैं। उनसे नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी अनन्तगुण हैं, क्योंकि वनस्पति को छोड़कर शेष जीवों से सिद्ध अनन्तगुण हैं, उनसे असंज्ञी अनन्तगुण हैं, क्योंकि वनस्पतिजीव सिद्धों से अनन्तगुण हैं। २४२. अहवा सव्वजीवा तिविहा पण्णत्ता, तं जहा-भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, नोभवसिद्धिया-नोअभवसिद्धिया। अणाइया सपज्जवसिया भवसिद्धिया, अणाइया अपज्जवसिया अभवसिद्धिया, साइयअपज्जवसिया नोभवसिद्धिया-नोअभवसिद्धिया। तिण्हंपि नत्थि अंतरं। अप्पाबहुयंसव्वत्थोवा अभवसिद्धिया, णोभवसिद्धिया-णोअभवसिद्धिया अणंतगुणा, भवसिद्धिया अणंतगुणा। २४२. अथवा सर्व जीव तीन प्रकार के हैं-भवसिद्धिक, अभवसिद्धिक और नोभवसिद्धिकनोअभवसिद्धिक। भवसिद्धिक जीव अनादि-सपर्यवसित हैं। अभवसिद्धिक अनादि-अपर्यवसित हैं और उभयप्रतिषेधरूप सिद्ध जीव सादि-अपर्यवसित हैं। अतः तीनों का अन्तर नहीं है। अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े अभवसिद्धिक हैं, उभयप्रतिषेधरूप सिद्ध उनसे अनन्तगुण हैं और भवसिद्धिक उनसे अनन्तगुण हैं। विवेचन-भव्य-अभव्य को लेकर सर्वजीवों का त्रैविध्य यहां बताया है। जिनकी सिद्धि होने वाली है वे भव्य हैं, जिनकी सिद्धि कभी नहीं होगी, वे अभव्य हैं और जो भव्यत्व और अभव्यत्व के Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वजीवाभिगम ] विशेषण से रहित हैं, वे सिद्धजीव नोभव्य-नोअभव्य हैं । भवसिद्धिक जीव अनादि - सपर्यवसित हैं, अन्यथा वे भवसिद्धिक नहीं हो सकते। अभवसिद्धिक अनादि-अपर्यवसित हैं, अन्यथा वे अभवसिद्धिक नहीं हो सकते । नोभवसिद्धक-नोअभवसिद्धिक सादिअपर्यवसित हैं, क्योंकि सिद्धों का प्रतिपात नहीं होता । अतएवं इनकी अवधि न होने से कायस्थितिसम्बन्धि प्रश्न नहीं है तथा इन तीनों का अन्तर भी नहीं घटता है, क्योंकि भवसिद्धिकत्व जाने पर पुनः भवसिद्धिकत्व असंभव है । अभवसिद्धिक का भी अन्तर नहीं हैं, क्योंकि वह अपर्यवसित होने से कभी नहीं छूटता। सिद्ध भी सादि - अपर्यवसित होने से अन्तर नहीं है। अल्पबहुत्वद्वार में सबसे थोड़े अभव्य हैं, क्योंकि वे जघन्य युक्तानन्तक के तुल्य है । उभयप्रतिषेधरूप सिद्ध उनसे अनन्तगुण हैं, क्योंकि अभव्यों से सिद्ध अनन्तगुण हैं और उनसे भवसिद्धिक अनन्तगुण हैं, क्योंकि भव्य जीव सिद्धों से भी अनन्तगुण हैं । [ १९३ २४३. अहवा तिविहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तं जहा- तसा, थावरा, नोतसा-नोथावरा। तसे णं भंते! कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं दो सागरोवमसहस्साइं साइरेगाई । थावरस्स संचिट्ठणा वणस्सइकालो । गोतसा-नोथावरा साइअपज्जवसिया ।. तसस्स अंतरं वणस्सइकालो । थावरस्स अंतरं दो सागरोवमसहस्साइं साइरेगाई । णोतसथावरस्स णत्थि अंतरं । अप्पाबहुयं सव्वत्थोवा तसा, नोतसा - नोथावरा अनंतगुणा, थावरा अनंतगुणा । सेतं तिविधा सव्वजीवा पण्णत्ता । २४३. अथवा सर्व जीव तीन प्रकार के हैं- त्रस, स्थावर और नोत्रस - नोस्थावर । भगवन्! त्रस, त्रस के रूप में कितने काल तक रहता है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट साधिक दो हजार सागरोपम तक रह सकता है । स्थावर, स्थावर के रूप में वनस्पतिकाल पर्यन्त रह सकता है। नोत्रस-नोस्थावर सादि-अपर्यवसित हैं । त्रस का अन्तर वनस्पतिकाल है और स्थावर का अन्तर साधिक दो हजार सागरोपम है। नोत्रसनोस्थावर का अन्तर नहीं है । अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े त्रस हैं, उनसे नोत्रस - नोस्थावर (सिद्ध) अनन्तगुण है और उनसे स्थावर अनन्तगुण हैं । यह सर्व जीवों की त्रिविध प्रतिपत्ति पूर्ण हुई । (यह सूत्र वृत्ति में नहीं है । भवसिद्धिकादि सूत्र के बाद " से तं तिविहा सव्वजीवा पण्णत्ता" कहकर समाप्ति की गई है ।) सर्वजीव - चतुर्विध-वक्तव्यता २४४. तत्थ णं जेते एवमाहंसु चउव्विहा सव्वजीवा पण्णत्ता, ते एवमाहंसु, तं जहा Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ जीवाजीवाभिगमसूत्र १९४] मणजोगी, वइजोगी, कायजोगी, अजोगी । मणजोगी णं भंते! ० ? जहन्त्रेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं अंतोमुहत्तं । एवं वइजोगीवि । कायजोगी जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं वणस्सइकालो । अजोगी साइए अपज्जवसिए । मणजोगिस्स अंतरं जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं वणस्सइकालो। एवं वइजोगिस्सवि । कायजोगिस्स जहन्नेणं एक्वं समयं उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं । अयोगिस्स णत्थि अंतरं । अप्पाबहुयंसव्वत्थोवा मणजोगी, वड़जोगी असंखेज्जगुणा, अजोगी अनंतगुणा, कायजोगी अनंतगुणा । २४४. जो ऐसा कहते हैं कि सर्व जीव चार प्रकार के हैं, उनके कथनानुसार वे चार प्रकार ये हैंमनोयोगी, वचनयोगी, काययोगी और अयोगी । भगवन्! मनोयोगी, मनोयोगी रूप में कितने समय तक रहता है? गौतम! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक रहता है । वचनयोगी भी इतना ही रहता है। काययोगी जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से वनस्पतिकाल तक रहता है। अयोगी सादि- अपर्यवसित है । मनोयोगी का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है । वचनयोगी का भी अन्तर इतना ही है। काययोगी का जघन्य अन्तर एक समय का है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। अयोगी का अन्तर नहीं है । अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े मनोयोगी, उनसे वचनयोगी असंख्यातगुण, उनसे अयोगी अनन्तगुण और उनसे काययोगी अनन्तगुण हैं 1 विवेचन - योग - अयोग की अपेक्षा से यहां सर्व जीवों के चार भेद कहे गये हैं- मनोयोगी, वचनयोगी, काययोगी और अयोगी। इन चारों की संचिट्ठणा, अन्तर और अल्बहुत्व प्रस्तुत सूत्र में कहा गया है । संचिणा - मनोयोगी जघन्य से एक समय तक मनोयोगी रह सकता है। उसके बाद द्वितीय समय में मरण होजाने से या मनन से उपरत हो जाने की अपेक्षा से एक समय कहा गया है । जैसाकि पहले भाषक के विषय में कहा गया है। विशिष्ट मनोयोग पुद्गल - ग्रहण की अपेक्षा यह समझना चाहिए। उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त तक मनोयोगी रह सकता है । तथारूप जीवस्वभाव से इसके बाद वह नियम से उपरत हो जाता है । वचनयोगी से यहां मनोयोगरहित केवल वाग्योगवान द्वीन्द्रियादि अभिप्रेत हैं । वे जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त तक रह सकते हैं । यह भी विशिष्ट वाग्द्रव्यग्रहण की अपेक्षा से ही समझाना चाहिए। काययोगी से यहां तात्पर्य वाग्योग-मनोयोग से विकल एकेन्द्रियादि ही अभिप्रेत हैं । वे जघन्य से अन्तर्मुहूर्त उसी रूप में रहते हैं । द्वीन्द्रियादि से निकल कर पृथ्वी आदि में अन्तर्मुहूर्त रहकर फिर द्वन्द्रियों में गमन हो सकता है। उत्कर्ष से वनस्पतिकाल तक उस रूप में रहा जा सकता है । अयोगी सिद्ध हैं । वे सादि- अपर्यवसित हैं, अतः वे सदा उसी रूप में रहते हैं । Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वजीवाभिगम ] [१९५ अन्तरद्वार-मनोयोगी का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त है। इसके बाद पुनः विशिष्ट मनोयोग पुद्गलों का ग्रहण संभव है। उत्कर्ष से वनस्पतिकाल है । इतने काल तक वनस्पति में रहकर पुनः मनोयोगियों में आगमन संभव है 1 इसी तरह वाग्योगी का जघन्य और उत्कर्ष अन्तर भी जान लेना चाहिए । काययोगी का जघनय अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अंतर अन्तर्मुहूर्त कहा है । यह कथन औदारिककाययोग की अपेक्षा से कहा गया है। क्योंकि दो समय वाली अपान्तरालगति में एक समय का अन्तर है। उत्कर्ष से अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है । यह कथन परिपूर्ण औदारिकशरीरपर्याप्ति की परिसमाप्ति की अपेक्षा से है। वहां विग्रह समय लेकर औदारिकशरीरपर्याप्ति की समाप्ति तक अन्तर्मुहूर्त का अन्तर है। अतः उत्कर्ष से अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा गया है । वृत्तिकार ने इस कथन के समर्थन में चूर्णिकार के कथन को उद्धृत किया है। साथ ही वृत्तिकार ने कहा है कि ये सूत्र विचित्र अभिप्राय से कहे गये होने से दुर्लक्ष्य हैं, अतएव सम्यक् सम्प्रदाय से इन्हें समझा जाना चाहिए। वह सम्यक् सम्प्रदाय इसी रूप में है, अतएवं वह युक्तिसंगत है । सूत्राभिप्राय को समझे बिना अनुपपत्ति की उद्भावना नहीं करनी चाहिए। केवल सूत्रों की संगति करने में यत्न करना चाहिए ।" अल्पबहुत्वद्वार - सबसे थोड़े मनोयोगी हैं, क्योंकि देव, नारक, गर्भज तिर्यक् पंचेन्द्रिय और मनुष्य ही मनोयोगी हैं। उनसे वचनयोगी असंख्येयगुण हैं, क्योंकि द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय वाग्योगी हैं। उनसे अयोगी अनन्तगुण हैं, क्योंकि सिद्ध अनन्त हैं। उनसे काययोगी अनन्तगुण हैं, क्योंकि सिद्धों से वनस्पति जीव अनन्तगुण हैं । २४५. अहवा चडव्विहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तं जहा - इत्थिवेयगा पुरिसवेयगा नपुंसकवेयगा अवेयगा । इत्थवेयगाणं भंते! इत्थवेयएत्ति कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! (एगेण आएसेणं० ) पलियसयं दसुत्तरं अट्ठारस चोद्दस पलियपुहुत्तं समओ जहण्णेणं । पुरिसवेयस्स जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेण सागरोवमसयपुहुत्तं साइरेगं । नपुंसगवेयस्स जहन्नेणं एक्वं समयं उक्कोसेणं अणंतं कालं वणस्सइकालो । अवेयए दुविहे पण्णत्ते, साइए वा अपज्जवसिए, साइए वा सपज्जवसिए । से जहन्त्रेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं । इत्थिवेयस्स अंतरं जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेण वणस्सइकालो । पुरिसवेयस्स जहन्नेणं " १. न चैतत् स्वमनीषिका विजृम्भितं यत आह चूर्णिकृत् - " कायजोगिस्स जह एकं समयं, कहं ? एकसामयिकविग्रहगतस्य " उक्कोसं अंतोमुहुत्तं, विग्रहसमयादारभ्य औदारिकशरीरपर्याप्तकस्य यावदेवं अन्तर्मुहूर्तम् दृष्टव्यम् । सूत्राणि ह्यमूनि विचित्राभिप्रायतया दुर्लक्ष्याणीति सम्यक्सम्प्रदायादवसातव्यानि । सम्प्रदायश्च यथोक्तस्वरूपमिति न काचिदनुपपत्तिः । न च सूत्राभिप्रायमज्ञात्वा अनुपपत्तिरूपाभावनीया । Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६] [ जीवाजीवाभिगमसूत्र एगं समयं उक्कोसेणं वणस्सइकालो । नपुंसगवेयस्स जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं सागरोवमसयपुहुत्तं साइरेगं । अवेयगो जह हेट्ठा। अप्पाबहुयं - सव्वत्थोवा पुरिसवेदगा, इत्थवेदगा संखेज्जगुणा, अवेदगा अनंतगुणा, नपुसकवेदगा अणंतगुणा । २४५. अथवा सर्व जीव चार प्रकार के हैं - स्त्रीवेदक, पुरूषवेदक, नपुसंकवेदक और अवेदक । भगवन् ! स्त्रीवेदक, स्त्रीवेदक रूप में कितने समय तक रह सकता है? गौतम ! विभिन्न अपेक्षा से (पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक) एक सौ दस, एक सौ, अठारह, चौदह पल्योपम तक तथा पल्योपमपृथक्त्व रह सकता है । जघन्य से एक समय तक रह सकता है । पुरूषवेदक, पुरूषवेदक के रूप में जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट साधिक सागरोपमशतपृथक्त्व तक रह सकता है। नपुंसकवेदक जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अनन्तकाल तक रह सकता है । अवेदक दो प्रकार के है - सादि - अपर्यवसित और सादि सपर्यवसित । सादि-सपर्यवसित अवेदक जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक रह सकता है। स्त्रीवेदक का अन्तर जघन्य अन्र्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है । पुरूषवेदक का अन्तर जघन्य एक समय और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है । नपुंसकवेदक का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट साधिक सागरोपमशतपृथक्त्व है । अवेदक का जैसा पहले कहा गया है, अन्तर नहीं है। अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े पुरुषवेदक, उनसे स्त्रीवेदक संख्येयगुण, उनसे अवेदक अनन्तगुण और उनसे नपुंसकवेदक अनन्तगुण हैं । विवेचन - वेद की अपेक्षा से सर्व जीवों के चार प्रकार बताये हैं- स्त्रीवेदक, पुरूषवेदक; नपुसंकवेदक और अवेदक । इनकी संचिट्ठणा, अन्तर और अल्पबहुत्व यहां प्रतिपादित है । संचिट्ठणा- स्त्रीवेदक, स्त्रीवेदक के रूप में कितना रह सकता है ? इस प्रश्न में उत्तर में पांच अपेक्षाओं से पांच तरह का कालमान बताया गया है । यह विषय विस्तार से त्रिविध प्रतिपत्ति में पहले कहा जा चुका है, फिर भी संक्षेप में यहां दे रहे हैं । स्त्रीवेद की कायस्थिति एक अपेक्षा से जघन्य एक समय और उत्कृष्ट ११० पल्योपम की है । कोई स्त्री उपशम श्रेणी में वेदत्रय के उपशमन से अवेदकता का अनुभव करती हुई पुनः उस श्रेणी से पतित होती हुई कम-से-कम एक समय तक स्त्रीवेद के उदय भोगती है।द्वतीय समय में वह मरकर देवों में उत्पन्न हो जाती है, वहां उसको पुरूषवेद प्राप्त हो जाता है । अत: उसके स्त्रीवेद का काल एक समय का घटित होता है । कोई जीव पूर्वकोटि की आयुवाली मनुष्य या निर्यंच स्त्री के रूप में पांच या छह भवों तक उत्पन्न हो, फिर वह ईशानकल्प में पचपन पल्योपम प्रमाण की आयुवाली अपरिगृहीता देवी की पर्याय में उत्पन्न होवे, वहाँ से पुनः पूर्वकोटि आयुवाली मनुष्य या तिर्यंच स्त्री के रूप में उत्पन्न होकर दूसरी बार ईशान देवलोक में पचपन पल्योपम की आयुवाली अपरिगृहीता देवी में उत्पन्न हो, इस तरह पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक ११० पल्योपम तक वह जीव स्त्रीपर्याय में लगातार रह सकता है। दूसरी अपेक्षा से पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक सौ पल्योपम की कायस्थिति स्त्रीवेद की इस प्रकार घटित Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वजीवाभिगम] [१९७ होती है-कोई पूर्वकोटि आयुवाली स्त्री पांच छह बार तिर्यंच या मनुष्य स्त्री के भवों में उत्पन्न होकर सौधर्म देवलोक की ५०पल्योपम की उत्कृष्ट स्थिति वाली अपरिगृहीता देवी के रूप में उत्पन्न होकर पुनः मनुष्यतिर्यंच में उत्पन्न होकर दुबारा ५० पल्योपम की आयु वाली अपरिगृहीता देवी के रूप में उत्पन्न हो। इस तरह पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक सौ पल्योपम की स्त्रीवेद की कायस्थिति होती है। ____तीसरी अपेक्षा से पूर्व विशेषणों वाली स्त्री ईशान देवलोक में उत्कृष्ट स्थितिवाली परिगृहीता देवी के रूप में नौ पल्योपम तक रहकर मनुष्य या तिर्यंच में उसी तरह रहकर दुबारा ईशान देवलोक में नौ पल्योपम की स्थितिवाली परिगृहीता देवी बने, इस अपेक्षा से पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक १८ पल्योपम की स्थिति बनती है। चौथी अपेक्षा से पूर्वोक्त विशेषण वाली स्त्री सौधर्म देवलोक की सात पल्योपम की उत्कृष्ट स्थिति वाली परिगृहीता देवी के रूप में रहकर, मनुष्य या तिर्यंच का पूर्ववत् भव करके दुबारा सौधर्म देवलोक में उत्कृष्ट सात पल्योपम की स्थितिवाली परिगृहीता देवी बने,इस अपेक्षा से पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक १४ पल्योपम की कायस्थिति होती है। ___पांचवी अपेक्षा से स्त्रीवेद की कायस्थिति पूर्वकोटिपृथकत्व अधिक एक पल्योपम की है। वह इस प्रकार है-कोई जीव पूर्वकोटि की आयुवाली तिर्यंच या मनुष्य स्त्रियों में सात भव तक उत्पन्न होकर आठवें भव में देवकुरू आदिकों की तीन पल्योपम की स्थिति वाली स्त्रियों में उत्पन्न हो और वहां से मरकर सौधर्म देवलोक में जघन्यस्थिति वाली देवी के रूप में उत्पन्न हो, ऐसी स्थिति में पूर्वकोटिपृथक्त्वाधिक पल्योपमपृथक्त्व की कायस्थिति घटित होती है। ___पुरूषवेद की कायस्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट साधिक सागरोपमशतपृथक्त्व है। स्त्रीवेद आदि से निकलकर अन्तर्मुहूर्त काल पुरूषवेदक में रहकर पुनः स्त्रीवेद को प्राप्त करने की अपेक्षा से जघन्यकायस्थिति बनती है। देव, मनुष्य और तिर्यंच भवों में भ्रमण करने से पुरूषवेद की कायस्थिति उत्कृष्ट से साधिक सागरोपमशतपृथक्त्व होती है । इतने समय बाद पुरूषवेद का रूपान्तर होता ही है। ___ यहां शंका की जा सकती है कि जैसे स्त्रीवेद, नपुंसकवेद की जघन्य कायस्थिति एक समय की कही है। (उपशमश्रेणी में वेदोपशमन के पश्चात् एक समय तक स्त्रीवेद या नुपंसकवेद के अनुभवन को लेकर) वैसे पुरूषवेद की एक समय की कायस्थिति जघन्यरूप से क्यों नहीं कही गई है। समाधान में कहा गया है कि उपशमश्रेणी में जो मरता है, वह पुरूषवेद में ही उत्पन्न होता है, अन्य वेद में नहीं। अतः जन्मान्तर में भी सातत्य रूप से गमन की अपेक्षा एकसमयता घटित नहीं होती है। नपुंसकदेव की जघन्यस्थिति एक समय की है। स्त्रीवेद के अनुसार युक्ति कहनी चाहिए। उत्कर्ष . से वनस्पतिकाल पर्यन्त कायस्थिति है। __अवेदक दो प्रकार के हैं-सादि-अपर्यवसित (क्षीणवेद वाले) और सादि-सपर्यवसित (उपशान्तवेद वाले)। सादि-सपर्यवसित अवेदक की कायस्थिति जघन्य से एक समय है, क्योंकि द्वितीय समय में मरकर देवगति में पुरूषवेद सम्भव है। उत्कर्ष से अन्तर्मुहर्त की कायस्थिति है। तदनन्तर मरकर पुरूषवेद वाला हो जाता है या श्रेणी से गिरता हुआ जिस वेद से श्रेणी पर चढ़ा, उस वेद का उदय हो Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८] [जीवाजीवाभिगमसूत्र जाने से वह सवेदक हो जाता है। अन्तरद्वार-स्त्रीवेद का अन्तर जघन्य से अन्तर्मुहूर्त है। क्योंकि वेद का उपशमन होने पर पुनः अन्तर्मुहूर्त काल में वेद का उदय हो सकता है । अथवा स्त्रीपर्याय से निकलकर पुरूषवेद या नपुंसकवेद में अन्तर्मुहूर्त रहकर पुनः स्त्रीपर्याय में आया जा सकता है। उत्कर्ष से अन्तर वनस्पतिकाल है। पुरूषवेद का अन्तर जघन्य एक समय है। क्योंकि उपशमश्रेणी में पुरूषवेद का उपशमन होने पर एक समय के अनन्तर मरकर पुरूषत्व रूप में उत्पन्न होना सम्भव है। उत्कर्ष से वनस्पतिकाल अन्तर है। नपुंसकवेद का अन्तर जघन्य से अन्तर्मुहूर्त है। युक्ति स्त्रीवेद में कथित अन्तर की तरह जानना चाहिए। उत्कर्ष से साधिक सागरोपमशतपृथक्त्व का अन्तर है। इसके बाद संसारी जीव अवश्य नपुंसक रूप में उत्पन्न होता है। __ अवेदक में सादि-अपर्यवसित का अन्तर नहीं होता, अपर्यवसित होने से। सादि-सपर्यवसित अवेदक का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि अंतर्मुहूर्त के बाद पुनः श्रेणी का आरम्भ सम्भव है। उत्कर्ष से अनन्तकाल। यह अनन्तकाल कालमार्गणा से अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी रूप है तथा क्षेत्रमार्गणा से देशोन अपार्धपुद्गलपरावर्त है । इतने काल के पश्चात् जिसने पहले श्रेणी की है वह पुनः श्रेणी का आरम्भ करता ही है। अल्पबहुत्वद्वार-सबसे थोड़े पुरूषवेदक हैं, क्योंकि देव-मनुष्य-तिर्यंचगति में वे अल्प ही हैं। उनसे स्त्रीवेदक संख्यातगुण हैं । क्योंकि तिर्यंचगति में स्त्रियां पुरूषों से तिगुनी हैं, मनुष्यगति में सत्ताईस गुणी हैं और देवगति में बत्तीस गुणी हैं। उनसे अवेदक अनन्तगुण हैं, क्योंकि सिद्ध अनन्त हैं। उनसे. नपुंसकवेदक अनन्तगुण हैं, क्योंकि वनस्पतिजीव सिद्धों से अनन्तगुण हैं।। २४६. अहवा चउव्विहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तं जहा-चक्खुदंसणी अचक्खुदंसणी अवधिदसणी केवलदसणी। चक्खुदसंणी णं भंते! • ? जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं सागरोवमसहस्सं साइरेगं। अचक्खुदसंणी दुविहे पण्णत्ते-अणाइए वा अपज्जवसिए, अणाइए वा सपज्जवसिए। ओहिदसणी जहन्नेणं एवं समयं उक्कोसेणं दो छावट्ठिसागरोपमाणं साइरेगाओ। केवलदसणी साइए अपज्जवसिए। चक्खुदंसणिस्स अंतरं जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं वणस्सइकालो।अचक्खुदंसणिस्स दुविहस्स नत्थि अंतरं। ओहिदंसणिस्स जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं वणस्सइकालो। केवलदसणिस्स णत्थि अंतरं। अप्पाबहुयं-सव्वत्थोवा ओहिदसणी, चक्खुदंसणी असंखेजगुणा, केवलदसणी अणंतगुणा, अचक्खुदंसणी अणंतगुणा। Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १९९ सर्वजीवाभिगम ] २४६. अथवा सर्व जीव चार प्रकार के हैं - चक्षुर्दर्शनी, अचक्षुर्दर्शनी, अवधिदर्शनी और केवलदर्शनी । भगवन् ! चक्षुर्दर्शनी काल से लगातार कितने समय तक चक्षुर्दर्शनी रह सकता है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट साधिक एक हजार सागरोपम तक रह सकता है । अचक्षुर्दर्शनी दो प्रकार के हैं - अनादि - अपर्यवसित और अनादि सपर्यवसित । अवधिदर्शनी लगातार जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से साधिक दो छियासठ सागरोपम तक रह सकता है। केवलर्दर्शनी सादि - अपर्यवसित है । चक्षुर्दर्शनी का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है। दोनों प्रकार के अचक्षुर्दर्शनी का अन्तर नहीं है । अवधिदर्शनी का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष वनस्पतिकाल है । केवलदर्शनी का अन्तर नहीं है । अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े अवधिदर्शनी, उनसे चक्षुर्दर्शनी असंख्येयगुण हैं, उनसे केवलदर्शनी अनन्तगुण हैं और उनसे अचक्षुर्दर्शनी भी अनन्तगुण हैं । 'विवेचन - दर्शन को लेकर सब जीवों का चातुर्विध्य इस सूत्र में बताकर उनकी कायस्थिति, अन्तर और अल्पबहुत्व प्रतिपादित किया गया है। कायस्थिति - चक्षुर्दर्शनी, चक्षुर्दर्शनीरूप में जघन्य से अन्तर्मुहूर्त तक रह सकता है। अचक्षुर्दर्शनी से निकलकर चक्षुर्दर्शनी में अन्तर्मुहूर्त काल तक रहकर पुनः अचक्षुर्दर्शनी में जा सकता है । उत्कर्ष से साधिक एक हजार सागरोपम तक रह सकता है । अचक्षुर्दर्शनी दो प्रकार के हैं - अनादि- अपर्यवसित जो कभी सिद्धि प्राप्त नहीं करेगा और अनादिअपर्यवसित भव्य जीव जो सिद्धि प्राप्त करेगा । अनादि और अपर्यवसित की कालमर्यादा नहीं है । अवधिदर्शनी उसी रूप में जघन्य से एक समय तक रहता है । अवधिदर्शन प्राप्त करने के पश्चात् कोई एक समय में ही मरण को प्राप्त हो जाय अथवा मिथ्यात्व में जाने से या दुष्ट अध्यवसाय के कारण अवधि से प्रतिपात हो सकता है । उत्कर्ष से साधिक दो छियासठ (६६+६६) सागरोपम तक रह सकता है। इसकी युक्ति इस प्रकार है कोई विभंगज्ञानी तिर्यंच या मनुष्य नीचे सप्तम पृथ्वी में उत्पन्न हुआ। वहां तेतीस सागरोपम तक रहा । उद्वर्तनाकाल नजदीक आने पर सम्यक्त्व को पाकर पुनः उसे छोड़ देता है और विभंगज्ञान सहित पूर्वकोटि आयु वाले तिर्यंच में उत्पन्न हुआ और वहां से पुनः विभंगसहित ही अधः सप्तमी पृथ्वी में उत्पन्न हुआ और तेतीस सागरोपम तक स्थित रहा। उद्वर्तनाकाल में थोड़ी देर सम्यक्त्व पाकर दो बार सप्तम पृथ्वी में उत्पन्न होने तथा दो बार तिर्यंच में उत्पन्न होने से साधिक ६६ सागरोपम काल होता है । विग्रह में विभंग का प्रतिषेध होने से अविग्रह रूप से उत्पन्न होना कहना चाहिए ।" १. विभंगणाणी पंचेंदिय तिरिक्खजोणिया मणुया य आहारगा, नो अनाहारगा । Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २००] [जीवाजीवाभिगमसूत्र उक्त कथन में जो बीच-बीच में थोड़ी देर के लिए सम्यक्त्व होने की बात कही गई है, वह इसलिए कि विभंगज्ञान देशोन तेतीस सागरोपम पूर्वकोटि अधिक तक ही उत्कर्ष से रह सकता है। अतएव बीच में सम्यक्त्व का थोड़ी देर के लिए होना कहा गया है। उक्त रीति से साधिक एक ६६ सागरोपम तक रहने के बाद वह विभंगज्ञानी अपतित विभंग की स्थिति में ही मनुष्यत्व पाकर सम्यक्त्व पूर्वक संयम की आराधना करके विजयादि विमानों में दो बार उत्पन्न हो तो दूसरे ६६ सागरोपम तक अवधिदर्शनी रहा। अवधिदर्शन तो अवधिज्ञान और विभंगज्ञान में तुल्य ही होता है। इस अपेक्षा से अवधिदर्शनी दो छियासठ सागरोपम तक उस रूप में रह सकता है। केवलदर्शनी सादि-अपर्यवसित हैं, अतः कालमर्यादा नहीं है। अन्तरद्वार-चक्षुर्दर्शनी का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त है। इतने काल का अचक्षुर्दर्शन का व्यवधान होकर पुनः चक्षुर्दर्शनी हो सकता है। उत्कर्ष से अन्तर वनस्पतिकाल है। अनादि-अपर्यवसित अचक्षुर्दर्शन का अन्तर नहीं है। अनादि-सपर्यवसित का भी अंतर नहीं है। अचक्षुर्दर्शनित्व के चले जाने पर फिर अचक्षुर्दर्शनित्व नहीं होता; जिसके घातिकर्म क्षीण हो गये हों, उसका प्रतिपात नहीं होता। अवधिदर्शनी का जघन्य अन्तर एक समय का है। प्रतिपात के अनन्तर समय में ही पुनः उसका लाभ हो सकता है। कहीं-कहीं अन्तर्मुहूर्त ऐसा पाठ है। इतने व्यवधान के बाद पुन: उसकी प्राप्ति हो सकती है। उक्त पाठ निर्मूल नहीं हैं, क्योंकि मूल टीकाकार ने भी मतान्तर के रूप में उसका उल्लेख किया है। उत्कर्ष से अवधिदर्शनी का अन्तर वनस्पतिकाल है। इतने व्यवधान के बाद पुनः अवश्य अवधिदर्शन होता है। अनादि मिथ्यादृष्टि को भी होने में कोई विरोध नहीं है। ज्ञान तो सम्यक्त्व सहित ही होता हैं, किन्तु दर्शन, सम्यक्त्वसहित ही हो ऐसा नहीं है। केवलदर्शनी सादि-अपर्यवसित होने से अन्तर नहीं है। अल्पबहुत्वद्वार-अवधिदर्शनी सबसे थोड़े हैं, क्योंकि वह देव, नारक और कतिपय गर्भज तिर्यंच पंचेन्द्रिय और मनुष्य को ही होता है। उनसे चक्षुदर्शनी असंख्येयगुण हैं, क्योंकि सम्मूर्छिम तिर्यंच पंचेन्द्रिय और चतुरिन्द्रियों को भी वह होता है। उनसे केवलदर्शनी अनन्तगुण हैं, क्योंकि सिद्ध अनन्त हैं। उनसे अचक्षुर्दर्शनी अनन्तगुण हैं, क्योंकि एकेन्द्रियों के भी अचक्षुर्दर्शन होता है। २४७. अहवा चउव्विहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तं जहा-संजया असंजया संजयासंजया नोसंजया-नोअसंजया-नोसंजयासंजया। संजए णं भंते! ० ? जहन्नेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं देसूणा पुव्वकोडी। असंजया जहा अण्णाणी। संजयासंजए जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं देसूणा पुव्वकोडी। नोसंजयनोअसंजय-नोसंजयासंजए साइए अपजवसिए। संजयस्स संजयासंजयस्स दोहण्हवि अंतरं १."विभंगणाणी जहण्णेणं एवं समयं, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई देसूणाए पुव्वकोडिए अब्भहियाइं ति"। Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वजीवाभिगम] [२०१ जहण्णेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं अवड्ढे पोग्गलपरियट देसूणं असंजयस्स आदि दुवे णत्थि अंतरं। साइयस्स सपजवसियस्स जहन्नेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं देसूणा पुव्वकोडी।चउत्थगस्स णथि अंतरं। अप्पाबहुयं-सव्वत्थोवा संजया, संजयासंजया असंखेजगुणा, णोसंजय-णोअसंजयणोसंजयासंजया अणंतगुणा, असंजया अणंतगुणा। सेत्तं चउव्विहा सव्वजीवा पण्णत्ता। २४७. अथवा सर्व जीव चार प्रकार के हैं-संयत, असंयत, संयतासंयत और नोसंयत-नोअसंयतनोसंयतासंयत। भगवन् ! संयत, संयतरूप में कितने काल तक रहता है? गौतम! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि तक रहता है। असंयत का कथन अज्ञानी की तरह कहना। संयतासंयत जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि। नोसंयत-नोअसंयतनोसंयतासंयत सादि-अपर्यवसित है। • संयत और संयतासंयत का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशोन अपार्धपुद्गलपरावर्त है। असंयतों के तीन प्रकारों में से आदि के दो प्रकारों में अन्तर नहीं है। सादि-सपर्यवसित असंयत का अन्तर जघन्य एक समय और उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि है। चौथे नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत का अन्तर नहीं है। ___ अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े संयत हैं, उनसे संयतासंयत असंख्येयगुण हैं, उनसे नोसंयत-नोअसंयतनोसंयतासंयत अनन्तगुण हैं और उनसे असंयत अनन्तगुण हैं । इस प्रकार सर्व जीवों की चतुर्विध प्रतिपति पूरी हुई। विवेचन-संयत, असंयत को लेकर सर्व जीवों के चार प्रकार इस सूत्र में बताकर उनकी कायस्थिति, अन्तर तथा अल्पबहुत्व का विचार किया गया है। सर्व जीव चार प्रकार के हैं-१. संयत,, २. असंयत, ३. संयतासंयत और ४. नोसंयत-नोअसंयतनोसंयतासंयत। कायस्थिति-संयत, संयत के रूप में जघन्य एक समय तक रह सकता है। सर्वविरति परिणाम के अनन्तर समय में किसी का मरण भी हो सकता हैं, इस अपेक्षा से जघन्य एक समय कहा गया है। उत्कर्ष से देशोन पूर्वकोटि तक रह सकता है। ____ असंयत तीन प्रकार के हैं-अनादि-अपर्यवसित, अनादि-सपर्यवसित और सादि-सपर्यवसित । अनादि-अपर्यवसित असंयत वह है जो कभी संयम नहीं लेगा। अनादि-सपर्यवसित असंयत वह है जो संयम लेगा और उसी प्राप्त संयम से सिद्धि प्राप्त करेगा। सादि-सपर्यवसित असंयत वह है, जो सर्वविरति या देशविरति से परिभ्रष्ट हुआ है। आदि दो की अनादि और अपर्यवसित होने से कालमर्यादा नहीं है, सादि-सपर्यवसितअसंयत जघन्य से अन्तर्मुहूर्त तक Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२] [जीवाजीवाभिगमसूत्र रहता है। इसके बाद पुनः कोई संयत हो सकता है। उत्कर्ष से अनन्तकाल तक जो अनन्त उत्सर्पिणीअवसर्पिणी रूप (कालमार्गणा से) है और क्षेत्रमार्गणा से देशोन अपार्धपुद्गलपरावर्त रूप है। संयतासंयत की कायस्थिति जघन्य से अन्तर्मुहूर्त है। संयतासंयतत्व की प्राप्ति बहुत सारे भंगों से होती है, फिर भी उसका जघन्य से अन्तर्मुहूर्त तो है ही। उत्कर्ष से देशोन पूर्वकोटि है। बालकाल में उसका अभाव होने से देशोनता जाननी चाहिए। नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत सिद्ध हैं। वे सादि-अपर्यवसित हैं । सदा उस रूप में रहते हैं। अन्तरद्वार-संयत का अन्तर जघन्य से अन्तर्मुहूर्त है। इतने काल के असंयतत्व से पुनः कोई संयतत्व में आ सकता है। उत्कर्ष से अन्तर अनन्तकाल है, जो क्षेत्र से देशोन पुद्गलपरावर्त रूप है। जिसने पहले संयम पाया है, वह इतने काल के व्यवधान के बाद नियम से संयम लाभ करता है। अनादि-अपर्यवसित असंयत का अन्तर नहीं है। अनादि-सपर्यवसित असंयत का भी अन्तर नहीं है। सादि-सपर्यवसित असंयत का अन्तर जघन्य एक समय और उत्कर्ष से देशोन पूर्वकोटि है। असंयतत्व का व्यवधान रूप संयतकाल और संयतासंयतकाल उत्कर्ष से इतना ही है। संयतासंयत का अन्तर जघन्य से अन्तर्मुहूर्त है। क्योंकि उससे गिरकर कोई पुनः इतने काल में संयतासंयत हो सकता है। उत्कर्ष से संयत की तरह कहना चाहिए। नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत सिद्ध हैं । वे सादि-अपर्यवसित होने से अन्तर नहीं है। अपर्यवसित होने से सदा उस रूप में रहते हैं। अल्पबहुत्वद्वार-सबसे थोड़े संयत हैं, क्योंकि वे संख्येय कोटि-कोटि प्रमाण हैं । उनसे संयतासंयत असंख्येयगुण हैं, क्योंकि असंख्येय तिर्यंच देशविरति वाले हैं। उनसे त्रितयप्रतिषेध रूप सिद्ध अनन्तगुण हैं और उनसे असंयत अनन्तगुण हैं, क्योंकि सिद्धों से वनस्पतिजीव अनन्तगुण हैं। सर्वजीव-पञ्चविध-वक्तव्यता २४८. तत्थ जेते एवमाहंसु पंचविहा सव्वजीवा पण्णत्ता, ते एवमाहंसु, तं जहाकोहकसाई माणकसाई मायाकसाई लोभकसाई अकसाई। कोहकसाई माणकसाई मायाकसाई णं जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं। लोभकसाई जहन्नेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं अंतोमुहृत्तं । अकसाई दुविहे जहा हेट्ठा। कोहकसाई-माणकसाई-मायाकसाई णं अंतरं जहन्नेणं एवं समय उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं लोहकसाइस्स अंतरं जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं। अकसाई तहा जहा हेट्ठा। ____अप्पाबहुयं-अकसाइणो सव्वत्थोवा, माणकसाई तहा अणंतगुणा। कोहे माया लोभे विसेसहिया मुणेयव्वा। Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वजीवाभिगम] [२०३ २४८. जो ऐसा कहते हैं कि पांच प्रकार के सर्व जीव हैं, उनके अनुसार वे पांच भेद इस प्रकार हैं-क्रोधकषायी, मानकषायी, मायाकषायी, लोभकषायी और अकषायी। __क्रोधकषायी, मानकषायी, मायाकषायी जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से भी अन्तर्मुहूर्त तक उस रूप में रहते हैं। लोभकषायी जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक उस रूप में रह सकता है। अकषायी दो प्रकार के हैं (जैसा कि पहले कहा है) सादि-अपर्यवसित और सादि-सपर्यवसित। सादि-सपर्यवसित जघन्य एक समय, उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त तक उस रूप में रह सकता है। कोधकषायी, मानकषायी और मायाकषायी का अन्तर जघन्य एक समय और उत्कर्ष से अंतर्मुहूर्त है। लोभकषायी का अंतर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त है। अकषायी के विषय में जैसा पहले कहा गया है, वैसा ही समझना।। अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े अकषायी हैं, उनसे मानकषायी अनन्तगुण हैं, उनसे क्रोधकषायी, मायाकषायी और लोभकषायी क्रमशः विशेषाधिक जानना चाहिए। विवेचन-कषाय-अकषाय की विवक्षा से सर्व जीवों के पांच प्रकार इस तरह हैं-क्रोधकषायी, मानकषायी, मायाकषायी, लोभकषायी और अकषायी। इनकी कायस्थिति, अन्तर और अल्पबहुत्व इस प्रकार है कायस्थिति-क्रोधकषायी, मानकषायी और मायाकषायी की कायस्थिति जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से भी अन्तर्मुहूर्त है। क्योंकि कहा गया है कि क्रोधादि का उपयोगकाल अन्तर्मुहूर्त है।' लोभकषायी जघन्य से एक समय तक उस रूप में रहता है। यह कथन उपशमश्रेणी से गिरते समय लोभकषाय के उदय होने के प्रथम समय के अनन्तर समय में मरण हो जाने की अपेक्षा से है। मरण के समय किसी के क्रोधादि का उदय सम्भव है। क्रम से गिरना मरणाभाव की स्थिति में होता है, मरण में नहीं। उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त की कायस्थिति है। ___ अकषायी दो प्रकार के हैं-सादि-अपर्यवसित (केवली) और सादि-सपर्यवसित (उपशान्तकषाय)। सादि-सर्पयवसित अकषायी की कायस्थिति जघन्य से एक समय है, द्वितीय समय में मरण होने से क्रोधादि का उदय होने से सकषायत्व की प्राप्ति हो सकती है। उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि उपशान्तमोहगुणस्थान का काल इतना ही है। अन्य आचार्यों का कथन है कि जघन्य से भी अन्तर्मुहूर्त ही कहना चाहिए, क्योंकि ऐसा वृद्धप्रवाद है कि लोभोपशम के लिए प्रवृत्त का अन्तर्मुहूर्त से पहले मरण नहीं होता। यह कथन सूत्रकार के अभिप्राय से भी युक्त लगता है, क्योंकि उन्होंने आगे चलकर लोभकषायी की कायस्थिति जघन्य और उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त कही है। अन्तरद्वार-क्रोधकषायी का अन्तर जघन्य एक समय है, क्योंकि उपशमसमय के अनन्तर मरण १. क्रोधाधुपयोगकालो अन्तर्मुहूर्तमितिवचनात् । Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४] [जीवाजीवाभिगमसूत्र होने से पुनः किसी के उसका उदय हो सकता है, उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त है। इसी तरह मानकषायी और मायाकषायी का भी अन्तर कहना चाहिए। लोभकषायी का जघन्य से भी और उत्कर्ष से भी अन्तर्मुहूर्त का अन्तर है, केवल जघन्य से उत्कृष्ट बृहत्तर है। सादि-अपर्यवसित अकषायी का अन्तर नहीं है। सादि-सपर्यवसित अकषायी का अन्तर जघन्य से अन्तर्मुहूर्त है । इतने काल के बाद पुनः श्रेणीलाभ हो सकता है। उत्कर्ष से अनन्तकाल है, जो क्षेत्र से देशोन अपार्धपुद्गलपरावर्त है। पूर्व-अनुभूत अकषायित्व की इतने काल में पुनः नियम से प्राप्ति होती ही है। ____ अल्पबहुत्वद्वार-सबसे थोड़े अकषायी, क्योंकि सिद्ध ही अकषायी हैं। उनसे मानकषायी अनन्तगुण हैं, क्योंकि निगोद-जीव सिद्धों से अनन्तगुण हैं । उनसे क्रोधकषायी विशेषाधिक हैं, क्योंकि क्रोधकषाय का उदय चिरकालस्थायी है, उनसे मायाकषायी विशेषाधिक हैं, और उनसे लोभकषायी विशेषाधिक हैं, क्योंकि माया और लोभ का उदय चिरतरकाल स्थायी है। २४९. अहवा पंचविहा सव्वजीवा पण्णता, तं जहा-णेरइया तिरिक्खजोणिया मणुस्सा देवा सिद्धा। संचिट्ठणंतराणि जह हेट्ठा भणियाणि। ___ अप्पाबहुयं-सव्वत्थोवा मणुस्सा, णेरइया असंखेजगुणा, देवा असंखेजगुणा, सिद्धा अणंतगुणा, तिरिया अणंतगुणा। सेत्तं पंचविहा सव्वजीवा पण्णत्ता। २४९. अथवा सब जीव पांच प्रकार के हैं-नैरयिक, तिर्यक्योनिक, मनुष्य, देव और सिद्ध। . संचिट्ठणा और अन्तर पूर्ववत् कहना चाहिए। अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े मनुष्य, उनसे नैरयिक असंख्येयगुण, उनसे देव असंख्येयगुण, उनसे सिद्ध अनन्तगुण और उनसे तिर्यग्योनिक अनन्तगुण हैं। इनकी कायस्थिति, अन्तर और अल्पबहुत्व पहले कहा जा चुका है। इस तरह पंचविध सर्वजीवप्रतिपत्ति पूर्ण हुई। सर्वजीव-षड्विध-वक्तव्यता २५०. तत्थ णं जेते एवमाहंसु छव्विहा सव्वजीवा पण्णत्ता, ते एवमाहंसु, तं जहाआभिणिबोहियणाणी सुयणाणी ओहिणाणी मणपजवणाणी केवलणाणी अण्णाणी। आभिणिबोहियणाणी णं भंते! आभिणिबोहियणाणित्ति कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं छावष्टुिं सागरोवमाइं साइरेगाई, एवं सुयणाणीवि। ओहिणाणी णं भंते! ०? जहन्नेणं एवं समयं उक्कोसेणं छावट्ठि सागरोवमाइं साइरेगाई। मणपजवणाणी णं भंते! ०? जहन्नेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं देसूणा पुव्वकोडी। केवलणाणी णं भंते०! ? साइए अपज्जवसिए। Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वजीवाभिगम] [२०५ अण्णाणिणो तिविहा पण्णत्ता, तं जहा-अणाइए वा अपज्जवसिए, अणाइए वा सपज्जवसिए, साइए वा सपज्जवसिए। तत्थ साइए सपज्जवसिए जहनेणं अंतो० उक्को० अणंतकालं अवड्ढे पुग्गलपरिय देसूणं। अंतरं-आभिणिबोहियणाणिस्स जह० अंतो०, उक्को० अणंतं कालं अवई पुग्गलपरियटै देसूणं। एवं सुयणाणिस्स ओहिणाणिस्स मणपजवणाणिस्स अंतरं। केवलणाणिणो णत्थि अंतरं।अण्णाणिस्स साइयपज्जवसियस्स जह० अंतो०, उक्को० छावहिँ सागरोवमाइं साइरेगाई। __ अप्पाबहु यं-सव्वत्थोवा मणपजवणाणिणो, ओहिणाणिणो असंखेजगुणा, आभिणिबोहियणाणिणो सुयणाणिणो विसेसाहिया सट्ठाणे दोवि तुल्ला, केवलणाणिणो अणंतगुणा, अण्णाणिणो अणंतगुणा। __ अहवा छव्विहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तं जहा-एगिंदिया बेंदिया तेंदिया चउरिंदिया पंचेंदिया अणिंदिया। संचिट्ठणा तहा हेट्ठा। अप्पाबहुयं-सव्वत्थोवा पंचेंदिया, चउरिंदिया विसेसाहिया, तेइंदिया विसेसाहिया, बेइंदिया विसेसाहिया, अणिंदिया अणंतगुणा, एगिंदिया अणंतगुणा। २५०. जो ऐसा कहते हैं कि सब जीव छह प्रकार के हैं, उनका प्रतिपादन ऐसा हैं-सब जीव छह प्रकार के हैं, यथा-आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्यायज्ञानी, केवल-ज्ञानी और अज्ञानी। भगवन् ! आभिनिबोधिकज्ञानी, आभिनिबोधिकज्ञानी के रूप में कितने समय तक लगातार रह सकता है? गौतम! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से साधिक छियासठ सागरोपम तक रह सकता है। इसी प्रकार श्रुतज्ञानी के लिए भी समझना चाहिए। ___ अवधिज्ञानी उसी रूप में कितने समय तक लगातार रह सकता है? गौतम! जघन्य एक समय और उत्कर्ष से साधिक छियासठ सागरोपम तक रह सकता है। - भगवन् ! मनःपर्यायज्ञानी उसी रूप में कितने समय तक रह सकता है? गौतम! जघन्य एक समय और उत्कर्ष से देशोन पर्वकोटि तक रह सकता है। ____ भगवन् ! केवलज्ञानी उसी रूप में कितने समय तक रहता है? गौतम! केवलज्ञानी सादि-अपर्यवसित अज्ञानी तीन तरह के हैं-१. अनादि-अपर्यवसित, २. अनादि-सपर्यवसित और ३. सादि-सपर्यवसित। इनमें जो सादि-सपर्यवसित है, वह जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से अनन्तकाल तक जो देशोन अपार्धपुद्गलपरावर्त रूप है। आभिनिबोधिकज्ञानी का अन्तर जघन्य अंतर्मुहूर्त और उत्कर्ष से अनन्तकाल, जो देशोन Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ ] [ जीवाजीवाभिगमसूत्र अपार्धपुद्गलपरावर्त रूप है। इसी प्रकार श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी और मनःपर्यायज्ञानी का अन्तर कहना चाहिए। केवलज्ञानी का अन्तर नहीं है । सादि-सपर्यवसित अज्ञानी का अन्तर जघन्य अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट साधिक छियासठ सागरोपम है। अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े मनःपर्यायज्ञानी हैं, उनसे अवधिज्ञानी असंख्येयगुण हैं, उनसे आभिनिबोधिकज्ञानी और श्रुतज्ञानी विशेषाधिक हैं और दोनों स्वस्थान में तुल्य हैं। उनसे केवलज्ञानी अनन्तगुण हैं और उनसे अज्ञानी अनन्तगुण हैं । * अथवा सर्व जीव छह प्रकार के हैं- एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय और अनिन्द्रिय। इनकी कायस्थिति और अन्तर पूर्वकथनानुसार कहना चाहिए । अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े पंचेन्द्रिय विशेषाधिक, उनसे चतुरिन्द्रिय विशेषाधिक, उनसे त्रीन्द्रिय विशेषाधिक, उनसे द्वीन्द्रिय विशेषाधिक, उनसे अनिन्द्रिय अनन्तगुण और उनसे एकेन्द्रिय अनन्तगुण हैं। विवेचन - ज्ञानी और अज्ञानी की अपेक्षा से सर्व जीव के छह भेद इस प्रकार बताये हैं - १. आभिनिबोधिकज्ञानी ( मतिज्ञानी), २. श्रुतज्ञानी, ३. अवधिज्ञानी, ४. मन: पर्यायज्ञानी, ५. केवलज्ञानी, ६ . अज्ञानी । इनकी संचिट्ठणा, अन्तर और अल्पबहुत्व इस सूत्र में वर्णित है। वह इस प्रकार है संचिट्ठणा (कायस्थिति ) - आभिनिबोधिकज्ञानी जघन्य से अन्तर्मुहूर्त तक लगातार उस रूप में रह सकता हैं। क्योंकि जघन्य से सम्यक्त्वकाल इतना ही है । उत्कर्ष से साधिक छियासठ सागरोपम तक रह सकता है । यह विजयादि में दो बार जाने की अपेक्षा समझना चाहिए। श्रुतज्ञानी की कायस्थिति भी इतनी ही है, क्योंकि आभिनिबोधिकज्ञान और श्रुतज्ञान दोनों अविनाभूत हैं। कहा गया है कि जहां आभिनिबोधिकज्ञान है वहां श्रुतज्ञान है और जहां श्रुतज्ञान है वहां आभिनिबोधिकज्ञान है । ये दोनों अन्योन्य-अनुगत है।' अवधिज्ञानी की कायस्थिति जघन्य से एक समय है । यह एकसमयता या तो अवधिज्ञान होने के अनन्तर समय में मरण हो जाने से अथवा प्रतिपात से मिथ्यात्व में जाने से (विभंगपरिणत होने से ) जाननी चाहिए। उत्कर्ष से साधिक छियासठ सागरोपम की हैं, जो मतिज्ञानी की तरह जाननी चाहिए । मनःपर्यायज्ञानी की कायस्थिति जघनय एक समय है, क्योंकि द्वितीय समय में मरण होने से प्रतिपात हो सकता है। उत्कर्ष से देशोन पूर्वकोटि है। क्योंकि चारित्रकाल उत्कर्ष से भी इतना है । केवलज्ञानी सादि-अपर्यवसित है । अतः उस भाव का कभी त्याग नहीं होता । अज्ञानी तीन प्रकार के हैं - अनादि- अपर्यवसित, अनादि सपर्यवसित और सादि सपर्यवसित । इनमें जो सादि-सपर्यवसित है, उसकी कायस्थिति जघन्य से अन्तर्मुहूर्त हैं, क्योंकि उसके बाद कोई सम्यकत्व पाकर पुनः ज्ञानी हो सकता है। उत्कर्ष से अनन्तकाल है जो देशोन अपार्धपुद्गलपरावर्त रूप है, क्योंकि ज्ञानित्व से परिभ्रष्ट होने के बाद इतने काल के अन्तर से अवश्य पुनः ज्ञानी बनता ही है । १.‘जत्थ आभिणिबोहियनाणं तत्थ सुयणाणं, जत्थ सुयणाणं तथ्य आभिणिबहियनाणं, दोवि एयाई अण्णोण्ण - मणुगयाई ' इति वचनात् । Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वजीवाभिगम] [२०७ अन्तरद्वार-आभिनिबोधिकज्ञानी का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। परिभ्रष्ट होने के इतने काल के बाद पुनः वह आभिनिबोधिकज्ञानी हो सकता है। उत्कर्ष से अन्तर देशोन अपार्धपुद्गलपरावर्तकाल है। इसी प्रकार श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी और मन:पर्यायज्ञानी का अन्तर भी जानना चाहिए। केवलज्ञानी का अन्तर नहीं हैं, क्योंकि वह सादि-अपर्यवसित है। __ अनादि-अपर्यवसित अज्ञानी का तथा अनादि-सपर्यवसित अज्ञानी का अन्तर नहीं हैं, क्योंकि अपर्यवसित और अनादि होने से। सादि-सपर्यवसित का जघन्य अन्तर अंतर्मुहूर्त है। क्योंकि इतने काल में वह पुनः ज्ञानी से अज्ञानी हो सकता है। उत्कर्ष से अन्तर साधिक छियासठ सागरोपम है। ___ अल्पबहुत्वद्वार-सबसे थोड़े मनःपर्यायज्ञानी हैं, क्योंकि मन:पर्यायज्ञान केवल विशिष्ट चारित्रवालों को ही होता है। उनसे अवधिज्ञानी असंख्यातगुण हैं, क्योंकि देवों और नारकों को भी अवधिज्ञान होता है। उनसे आभिनिबोधिकज्ञानी और श्रुतज्ञानी दोनों विशेषाधिक हैं तथा ये स्वस्थान में परस्पर तुल्य हैं। उनसे केवलज्ञानी अनन्तगुण हैं, क्योंकि केवलज्ञानी सिद्ध अनन्त हैं। उनसे अज्ञानी अनन्त हैं, क्योंकि अज्ञानी वनस्पतिकायिक जीव सिद्धों से भी अनन्तगुण हैं। ___ अथवा इन्द्रिय और अनिन्द्रिय की विवक्षा से सर्व जीव छह प्रकार के कहे गये हैं-एकेन्द्रिय यावत् पंचेन्द्रिय और अनिन्द्रिय। अनिन्द्रिय सिद्ध हैं। इनकी कायस्थिति, अंतर और अल्पबहुत्व पूर्व में कहा जा चुका है। ___ २५१. अहवा छव्विहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तं जहा-ओरालियसरीरी वेउव्वियसरीरी आहारगसरीरी तेयगसरीरी कम्मगसरीरी असरोरी। ओरालियसरीरी णं भंते! कालओ केवचिरं होइ? जहन्नेणंखुड्डागं भवग्गहणं दुसमयऊणं उक्कोसेणं असंखिजं कालं जाव अंगुलस्स असंखेजइभागं। वेउव्वियसरीरी जहन्त्रेणं एक्वं समयं उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं अंतोमुहुत्तमब्भहियाइं। आहारगसरीरी जहन्नेणं अंतो० उक्को० अंतोमुहुत्तं । तेयगसरीरी दुविहे पण्णते-अणाइए वा सपजवसिए, अणाइए वा अपजवसिए। एवं कम्मगसरीरीवि। असरीरी साइए-अपज्जवसिए। ____ अंतरं ओरालियसरीरस्स जहन्नेणं एवं समयं उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं अंतोमुहुत्तमब्भहियाइ। वेउव्वियसरीरस्स जह० अंतो० उक्को० अणंतकालं वणस्सइकालो। आहारगस्स सरीस्स जह० अंतो० उक्को० अणंतकालं जाव अवटुं पोग्गलपरियटें देसूणं। तेयगसरीरस्स कम्मसरीरस्स य दोण्हवि णत्थि अंतरं। अप्पाबहुयं-सव्वत्थोवा आहारगसरीरी, वेउब्वियसरीरी असंखेजगुणा, ओरालियसरीरी असंखेजगुणा, असरीरी अणंतगुणा, तेयाकम्मसरीरी दोवि तुल्ला अणंतगुणा। सेत्तं छव्विहा सव्वजीवा पण्णत्ता। १. 'तं संजयस्स सव्वप्पमायरहियस्स विविधरिद्धिमतो' इति वचनात् ! Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ जीवाजीवाभिगमसूत्र २५१. अथवा सर्व जीव छह प्रकार के हैं- औदारिकशरीरी, वैक्रियशरीरी, आहारकशरीरी, तेजसशरीरी, कार्मणशरीरी और अशरीरी । २०८] भगवन्! औदारिकशरीरी लगातार कितने समय तक रह सकता है ? 1 गौतम ! जघन्य से दो समय कम क्षुल्लकभवग्रहण और उत्कर्ष से असंख्येयकाल तक। यह असंख्येयकाल अंगुल के असंख्यातवें भाग के आकाशप्रदेशों के अपहारकाल के तुल्य है । वैक्रियशरीरी जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से भी अन्तर्मुहूर्त तक ही रह सकता है। तेजसशरीरी दो प्रकार के हैंअनादि-अपर्यवसित और अनादि सपर्यवसित। इसी तरह कार्मणशरीरी भी दो प्रकार के हैं। अशरीरी सादि - अपर्यवसित हैं । दारिकशरीर का अन्तर जघन्य एक समय और उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त अधिक तेतीस सागरोपम है। वैक्रियशरीर का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल है, जो वनस्पतिकालतुल्य है। आहारकशरीर का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल है, जो देशोन अपार्धपुद्गलपरावर्त रूप है। तेजस-कार्मण - शरीरी का अन्तर नहीं है । अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े आहारकशरीरी, वैक्रियशरीरी उनसे असंख्यातगुण, उनसे औदारिकशरीरी असंख्यातगुण हैं, उनसे अशरीरी अनन्तगुण हैं और उनसे तेजस - कार्मणशरीरी अनन्तगुण हैं और ये स्वस्थान में दोनों तुल्य हैं। इस प्रकार षड्विध सर्वजीवप्रतिपत्ति पूर्ण हुई । विवेचन - शरीर - अशरीर को लेकर सर्व जीव छह प्रकार के हैं- औदारिकशरीरी, वैक्रियशरीरी, आहारकशरीरी, तेजसशरीरी, कार्मणशरीरी और अशरीरी । इनकी कायस्थिति, अन्तर और अल्पबहुत्व इस प्रकार है कायस्थिति- औदारिकशरीर उस रूप में लगातार जघन्य से दो समय कम क्षुल्लकभव तक रह सकता है । विग्रहगति में आदि के दो समय में कार्मणशरीरी होने से दो समय कम कहा है । उत्कर्ष से असंख्येयकाल तक रह सकता है। इतने काल तक अविग्रह से उत्पाद सम्भव है । यह असंख्येयकाल अंगुल के असंख्यातवें भागवर्ती आकाश-प्रदेशों को प्रतिसमय एक-एक के मान से अपहार करने पर जितने समय में वे निर्लेप हो जायें, उतने काल के बराबर हैं । वैक्रियशरीरी जघन्य से एक समय तक उसी रूप में रहता है। विकुर्वणा के अनन्तर समय में ही किसी का मरण सम्भव है । उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त अधिक तैतीस सागरोपम तक रहता है । कोई चारित्रसम्पन्न संयति वैक्रियशरीर करके अन्तर्मुहूर्त जीकर स्थितिक्षय से अविग्रह द्वारा अनुत्तरविमानों में उत्पन्न हो सकता है, इस अपेक्षा से जानना चाहिए। आहारकशरीरी जघन्य से और उत्कर्ष से भी अन्तर्मुहूर्त तक ही उस रूप में रह सकता है। तेजसशरीरी और कार्मणशरीरी दो-दो प्रकार के हैं - अनादि - अपर्यवसित ( ये कभी मुक्त नहीं होगा) और अनादि-सपर्यवसित ( मुक्तिगामी)। ये दोनों अनादि और अपर्यवसित होने से कालमर्यादा Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वजीवाभिगम] [२०९ रहित हैं । अशरीरी सादि-अपर्यवसित हैं, अतः सदा उस रूप में रहते हैं। ___ अन्तरद्वार-औदारिकशरीरी का अन्तर जघन्य से एक समय है। वह दो समयवाली अपान्तराल गति में होता है, प्रथम समय में कार्मणशरीरी होने से। उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त अधिक तेतीस सागरोपम है। यह उत्कृष्ट वैक्रियकाल है। वैक्रियशरीरी का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त है। एक बार वैक्रिय करने के बाद इतने व्यवधान पर दुबारा वैक्रिय किया जा सकता है। मानव और देवों में ऐसा होता है। उत्कर्ष से वनस्पतिकाल का अन्तर स्पष्ट ही है। आहारकशरीरी का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। एक बार करने के बाद इतने व्यवधान से पुनः किया जा सकता है। उत्कर्ष से अनन्तकाल, जो देशोन अपार्धपुद्गलपरावर्त रूप है। तेजसकार्मणशरीर का अन्तर नहीं है। अल्पबहुत्वद्वार-सबसे थोड़े आहारकशरीरी हैं, क्योंकि ये अधिक से अधिक दो हजार से नौ हजार तक ही होते हैं। उनसे वैक्रियशरीरी असंख्येयगुण हैं, क्योंकि देव, नारक, गर्भज तिर्यंच पंचेन्द्रिय, मनुष्य और वायुकाय वैक्रियशरीरी है। उनसे औदारिकशरीरी असंख्येयगुण हैं । निगोदों में अनन्तजीवों का एक ही औदारिकशरीर होने से असंख्यगुणत्व ही घटित होता है, अनन्तगुण नहीं। जैसा कि मूल टीकाकार ने कहा-औदारिकशरीरियों से अशरीरी अनन्तगुण हैं, सिद्धों के अनन्त होने से, औदारिकशरीरी शरीर की अपेक्षा असंख्येय है। औदारिकशरीरियों से अशरीरी अनन्तगुण हैं, क्योंकि सिद्ध अनन्त हैं। उनसे तेजस-कार्मणशरीरी अनन्तगुण हैं, क्योंकि निगोदों में तेजस-कार्मणशरीर प्रत्येक जीव के अलग-अलग हैं, और वे अनन्तगुण हैं। तेजस और कार्मणशरीर परस्पर अविनाभावी हैं और परस्पर तुल्य हैं। इस प्रकार षड्विध सर्वजीवप्रतिपत्ति पूर्ण हुई। सर्वजीव-सप्तविध-वक्तव्यता २५२. तत्थ णं जेते एवमाहंसु सत्तविहा सव्वजीवा पण्णत्ता ते एवमाहंसु, तं जहापुढविकाइया आउकाइया तेउकाइया वाउकाइया वणस्सइकाइया तसकाइया अकाइया। संचिट्ठणंतरा जहा हेट्ठा। अप्पाबहुयं-सव्वत्थोवा तसकाइया, तेउकाइया असंखेजगुणा, पुढविकाइया विसेसाहिया, आउकाइया विसेसाहिया, वाउकाइया विसेसाहिया, सिद्धा (अकाइया) अणंतगुणा, वणस्सइकाइया अणंतगुणा। २५२. जो ऐसा कहते हैं कि सब जीव सात प्रकार के हैं, वे ऐसा प्रतिपादन करते हैं, यथा१. आह च मूलटीकाकार:-औदारिकशरीरिभ्योऽशरीरा अनन्तगुणाः सिद्धानामनन्तत्वात्, औदारिकशरीरिणां च शरीरापेक्षयाऽसंख्येयत्वादिति। Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१०] [जीवाजीवाभिगमसूत्र पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, त्रसकायिक और अकायिक। इनकी संचिट्ठणा और अंतर पहले कहे जा चुके हैं। अल्पबहुत्व इस प्रकार है-सबसे थोड़े त्रसकायिक, उनसे तेजस्कायिक असंख्यातगुण, उनसे पृथ्वीकायिक विशेषाधिक, उनसे अप्कायिक विशेषाधिक, उनसे वायुकायिक विशेषाधिक, उनसे अकायिक अनन्तगुण और उनसे वनस्पतिकायिक अनन्तगुण हैं। इनका स्पष्टीकरण पहले किया जा चुका है। २५३. अहवा सत्तविहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तं जहा-कण्हलेस्सा नीललेस्सा काउलेस्सा तेउलेस्सा पम्हलेस्सा सुक्कलेस्सा अलेस्सा। कण्हलेस्से णं भंते! कण्हलेस्सेत्ति कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं अंतोमुहुत्तमब्भहियाई। णीललेस्से णं जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं दससागरोवमाइं पलिओवमस्स असंखेजइभागमब्भहियाइं। काउलेस्से णं जह० अंतो० उक्को० तिणि सागरोवमाइं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागमब्भहियाइं। तेउलेस्से णं जह० अंतो० उक्को० दोणि सागरोवमाइं पलिओवमस्स असंखेजइभागमभहियाइं। पम्हलेस्से णं जह० अंतो० उक्को० दस सागरोवमाइं अंतोमुहुत्तमब्भहियाइ। सुक्कलेस्से णं भंते! ०? जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं अंतोमुहुत्तमब्भहियाई। अलेस्से णं भंते! ०? साइए अपज्जवसिए। कण्हलेसस्स णं भंते! अंतरं कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! जहन्नेणं अंतो० उक्को०. तेत्तीसं सागरोवमाइं अंतोमुहुत्तमब्भहियाई। एवं नीललेसस्सवि, काउलेसस्सवि। तेउलेसस्स णं भंते! अंतरं कालओ०? जहन्नेणं अंतो० उक्को० वणस्सइकालो। एवं पम्हलेसस्सवि, दोण्हवि एवमंतरं। अलेसस्स णं भंते! अंतरं कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! साइयस्स अपजवसियस्स णत्थि अंतरं। __एएसिणं भंते! जीवाणं कण्हलेसाणं नीललेसाणं काउलेसाणं तेउलेसाणं पम्हलेसाणं सुक्कलेसाणं अलेसाण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा० ? गोयमा! सव्वत्थोवा सुक्कलेस्सा, पम्हलेस्सा संखेजगुणा, तेउलेस्सा संखेजगुण, अलेस्सा अणंतगुणा, काउलेस्सा अणंतगुणा, नीललेस्सा विसेसाहिया, कण्हलेस्सा विसेसाहिया। सेत्तं सत्तविहा सव्वजीवा पण्णत्ता। २५३. अथवा सर्व जीव सात प्रकार के कहे गये हैं-कृष्णलेश्या वाले, नीललेश्या वाले, कापोतलेश्या वाले, तेजोलेश्या वाले, पद्मलेश्या वाले, शुक्ललेश्या वाले और अलेश्य। भगवन् ! कृष्णलेश्या वाला, कृष्णलेश्या वाले के रूप में काल से कितने समय तक रह सकता है? गौतम! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त अधिक तेतीस सागरोपम तक रह सकता है। Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वजीवाभिगम ] [ २११ भगवन्! नीललेश्या वाला उस रूप में कितने समय तक रह सकता है, गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से पल्योपम का असंख्येभाग अधिक दस सागरोपम तक रह सकता है। कापोतलेश्या वाला जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से पल्योपमासंख्येयभाग अधिक तीन सागरोपम रहता है। तेजोलेश्या वाला जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से पल्योपमासंख्येभाग अधिक तीन सागरोपम तक रह सकता है। पद्मलेश्या वाला जघन्य अन्तर्मुहर्त और उत्कृष्ट से पल्योपमासंख्येयभाग अधिक दस सागरोपम तक रहता है। शुक्ललेश्या वाला जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त अधिक तेतीस सागरोपम तक रह सकता है। अलेश्य जीव सादि- अपर्यवसित है, अतः सदा उसी रूप में रहते हैं । भगवन् ! कृष्णलेश्या का अन्तर कितना है ? गौतम! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त अधिक तेतीस सागरोपम का है। इसी तरह नीललेश्या, कापोतलेश्या का भी जानना चाहिए। तेजोलेश्या का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है । इसीप्रकार पद्मलेश्या और शुक्ललेश्यादोनों का यही अन्तर है । भगवन्! अलेश्य का अन्तर कितना है ? गौतम! अलेश्य जीव सादि - अपर्यवसित होने से अन्तर नहीं है। . भगवन् ! इन कृष्णलेश्या वाले, नीललेश्या वाले यावत् शुक्ललेश्या वाले और अलेश्यों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक है? गौतम! सबसे थोड़े शुक्ललेश्या वाले, उनसे पद्मलेश्या वाले संख्यातगुण, उनसे तेजोलेश्या वाले संख्यातगुण, उनसे अलेश्य अनंतगुण, उनसे कापोतलेश्या वाले अनंतगुण, उनसे नीललेश्या वाले विशेषाधिक, उनसे कृष्णलेश्या वाले विशेषाधिक हैं । विवेचन प्रस्तुत सूत्र में छह लेश्या वाले और एक अलेश्य यों सर्व जीव के सात प्रकार बताये हैं। उनकी कायस्थिति, अन्तर और अल्पबहुत्व का स्पष्टीकरण इस प्रकार है कायस्थिति - कृष्णलेश्या लगातार जघन्य से अन्तर्मुहूर्त रहती है, क्योंकि तिर्यंच- मनुष्यों में कृष्णलेश्या अन्तर्मुहूर्त तक रहती है । उत्कर्ष से अन्तर्मुहर्त अधिक तेतीस सागरोपम तक रहती है। देव और नारक पाश्चात्यभगवत चरम अन्तर्मुहूर्त और अग्रेतनभवगत अवस्थित प्रथम अन्तर्मुहूर्त तक अवस्थित लेश्या वाले होते हैं । अधः सप्तमपृथ्वी के नारक कृष्णलेश्या वाले हैं और तेतीस सांगरोपम की स्थिति वाले हैं। उनके पाश्चात्यभव का अन्तर्मुहूर्त और अग्रेतनभव का एक अन्तर्मुहूर्त यों दो अन्तर्मुहूर्त होते . हैं। लेकिन अन्तर्मुहूर्त के असंख्येय भेद होने से उनका एक ही अन्तर्मुहूर्त में समावेश हो जाता है। इस अपेक्षा से अन्तर्मुहूर्त अधिक तेतीस सागरोपम की उत्कृष्ट कायस्थिति कृष्णलेश्या की घटित होती है । नीललेश्या की जघन्य कायस्थिति एक अन्तर्मुहूर्त है, युक्ति पूर्ववत् है । उत्कर्ष से पल्योपम का असंख्येयभाग अधिक दस सागरोपम की है। यह धूमप्रभापृथ्वी के प्रथम प्रस्तर के नैरयिक, जो नीललेश्या वाले हैं, और इतनी स्थिति वाले हैं, उनकी अपेक्षा से है। पाश्चात्य और अग्रेतन भव के क्रमशः चरम और आदिम अन्तर्मुहूर्त पल्योपम के असंख्येयभाग में समाविष्ट हो जाते हैं, अतएव अलग से नहीं कहे हैं । Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२] [जीवाजीवाभिगमसूत्र कापोतलेश्या की कायस्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त है। युक्ति पूर्ववत् है। उत्कर्ष से पल्योपमासंख्येयभाग अधिक तीन सागरोपम की है। यह बालुकप्रभा के प्रथम प्रस्तर के नारकों की अपेक्षा से है। वे कपोतलेश्या वाले और इतनी स्थिति वाले हैं। तेजोलेश्या की कायस्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त है। युक्ति पूर्ववत् है । उत्कर्ष से पल्योपमासंख्येयभाग अधिक दो सागरोपम है। यह ईशानदेवों की अपेक्षा से है। ___ पद्मलेश्या की कायस्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त है। युक्ति पूर्ववत् है। उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त अधिक दस सागरोपम है। यह ब्रह्मलोकदेवों की अपेक्षा से है। शुक्ललेश्या की कायस्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त । युक्ति पूर्ववत् है। उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त अधिक तेतीस सागरोपम है। यह अनुत्तरदेवों की अपेक्षा से है। वे शुक्ललेश्या वाले और इतनी स्थिति वाले हैं। __ अन्तरद्वार-कृष्णलेश्या का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त हैं, क्योंकि तिर्यंच मनुष्यों की लेश्या का परिवर्तन अन्तर्मुहूर्त में हो जाता है। उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त अधिक तेतीस सागरोपम है, क्योंकि शुक्ललेश्या का उत्कृष्टकाल कृष्णलेश्या के अन्तर का उत्कृष्टकाल है। इसी प्रकार नीललेश्या और कापोतलेश्या का भी जघन्य और उत्कर्ष अन्तर जानना चाहिए। तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कर्ष अन्तर वनस्पतिकाल है। अलेश्यों का अन्तर नहीं है, क्योंकि वे अपर्यवसित हैं। अल्पबहुत्वद्वार-सबसे थोड़े शुक्ललेश्या वाले हैं, क्योंकि लान्तक आदि देव, पर्याप्त गर्भज कतिपय पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्यों में ही शुक्ललेश्या होती है। उनसे पद्मलेश्या वाले संख्येयगुण हैं, क्योंकि सनत्कुमार, माहेन्द्र और ब्रह्मलोक में सब देव और प्रभूत पर्याप्त गर्भज तिर्यंच और मनुष्यों में पद्मलेश्या होती है। यहां शंका हो सकती है कि लान्तक आदि देवों से सनत्कुमारादि कल्पत्रय के देव असंख्यातगुण हैं, तो शुक्ललेश्या से पद्मलेश्या वाले असंख्यातगुण होने चाहिए, संख्येयगुण क्यों कहा? समाधान दिया गया है जघन्यपद में भी असंख्यात सनत्कुमारादि कल्पत्रय के देवों की अपेक्षा से असंख्येयगुण पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में शुक्ललेश्या होती है। अतः पद्मलेश्या वाले शुक्ललेश्या वालों से संख्यातगुण ही प्राप्त होते हैं। उनसे तेजोलेश्या वाले संख्येयगुण हैं, क्योंकि उनसे संख्येयगुण तिर्यक् पंचेन्द्रियों, मनुष्यों और भवनपति व्यन्तर ज्योतिष्क तथा सौधर्म-ईशान देवलोक के देवों में तेजोलेश्या पायी जाती है। उनसे अलेश्य अनन्तगुण हैं, कयोंकि सिद्ध अनन्त हैं। उनसे कापोतलेश्या वाले अनन्तगुण हैं, क्योंकि सिद्धों से अनन्तगुण वनस्पतिकायिकों में कापोतलेश्या का सद्भाव है। उनसे नीललेश्या वाले विशेषाधिक हैं। उनसे कृष्णलेश्या वाले विशेषाधिक हैं, क्योंकि क्लिष्टतर अध्यवसाय वाले प्रभूत होतेहैं । यह सप्तविध सर्वजीवप्रतिपत्ति पूर्ण हुई। सर्वजीव-अष्टविध-वक्तव्यता २५४. तत्थ णं जेते एवमाहंसु अट्ठविहा सव्वजीवा पण्णत्ता ते एवमाहंसु, तं जहाआभिनिबोहियणाणी सुयणाणी ओहिणाणी मणपजवणाणी केवलणाणी मइअण्णाणी Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वजीवाभिगम] [२१३ सुयअण्णाणी विभंगणाणी। आभिणिबोहियणाणी णं भंते! आभिणिबोहियणाणित्ति कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! जह० अंतो० उक्को० छावट्ठिसागरोवमाइं साइरेगाई। एवं सुयणाणीवि।ओहिणाणी णं भंते! ०? जह० एक्कं समयं उक्को० छावट्ठिसागरोवमाइं साइरेगाई। मणपजवणाणी णं भंते! ०? जह० एवं समयं उक्को० देसूणा पुव्वकोडी। केवलणाणी णं भंते! ०? साइए अपज्जवसिए। __ मइअण्णाणी णं भंते! • ? मइअण्णाणी तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-अणाइए वा अपज्जवसिए, अणाइए वा सपज्जवसिए, साइए वा सपज्जवसिए। तत्थ णं जेसे साइए सपज्जवसिए से जह० अंतो० उक्को० अणंतं कालं जाव अवटुं पोग्गलपरियटें देसूणं। सुयअण्णाणी एवं चेव। विभंगणाणी णं भंते! ०? जहण्णेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं देसूणाए पुव्वकोडिए अब्भहियाई। __ आभिणिबोहियणाणिस्स णं भंते! अंतरं कालओ केवचिरं होइ? जह० अंतो०, उक्को० अणंतं कालं जाव अवटुं पोग्गलपरियटें देसूणं। एवं सुयणाणिस्सवि। ओहिणाणिस्सवि, मणपज्जवणाणिस्सवि। केवलणाणिस्स णं भंते! अंतरं०? साइयस्स अपज्जवसियस्स णत्थि अंतरं। मइ-अण्णाणिस्स णं भंते! अंतरं० ? अणाइयस्स अपज्जवसियस्स णत्थि अंतरं। अणाइयस्स सपज्जवसियस्स णत्थि अंतरं। साइयस्स सपज्जवसियस्स जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं छावठिं सागरोवमाइं साइरेगाई। एवं सुय-अण्णाणिस्सवि। विभंगणाणिस्स णं भंते! अंतरं० ? जह० अंतो०, उक्कोसेणं वणस्सइकालो। एएसि णं भंते! आभिणिबोहियणाणीणं सुयणाणीणं ओहि० मण० केवल. मइअण्णाणीणं सुयअण्णाणीणं विभंगणाणीणं कयरे० ? गोयमा! सव्वत्थोवा जीवा मणपज्जवणाणी, ओहिणाणी असंखेजगुणा, आभिणिबोहियणाणी सुयणाणी असंखेजगुणा, आभिणिबोहियणाणी सुयणाणी एए दोवि तुल्ला विसेसाहिया, विभंगणाणी असंखेजगुणा, केवलणाणिणो अणंतगुणा, मइअण्णाणी सुयअण्णाणी य दोवि तुल्ला अणंतगुणा। ___ २५४. जो ऐसा कहते हैं कि आठ प्रकार के सर्व जीव हैं, उनका मन्तव्य है कि सब जीव । आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्यायज्ञानी, केवलज्ञानी, मति-अज्ञानी, श्रुत-अज्ञानी और विभंगज्ञानी के भेद आठ प्रकार के हैं। भगवन् ! आभिनिबोधिकज्ञानी आभिनिबोधिकज्ञानी के रूप में कितने समय तक रहता है? गौतम! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से साधिक छियासठ सागरोपम तक रहता है। श्रुतज्ञानी भी इतना ही रहता है। अवधिज्ञानी जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट साधिक छियासठ सागरोपम तक Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४] [ जीवाजीवाभिगमसूत्र रहता है । मनःपर्यायज्ञानी जघन्य एक समय, उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि तक रहता है । केवलज्ञानी सादिअपर्यवसित होने से सदा उस रूप में रहता है । मति - अज्ञानी तीन प्रकार के हैं - १. अनादि- अपर्यवसित, २. अनादि सपर्यवसित और ३. सादिसपर्यवसित। इनमें जो सादि सपर्यवसित है वह जघन्य अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल, जो देशोन अपार्धपुद्गलपरावर्त रूप तक रहता है। श्रुत- अज्ञानी भी इतने ही समय तक रहता है । विभंगज्ञानी जघन्य एक समय और उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागरोपम तक रहता है । आभिनिबोधिकज्ञानी का अन्तर जघन्य अंतर्मुहूर्त और उत्कर्ष से अनन्तकाल, जो देशोन पुद्गलपरावर्त रूप है । इसी प्रकार श्रुतज्ञानी अवधिज्ञानी और मनःपर्यायज्ञानी का अन्तर भी जानना चाहिए । केवलज्ञानी का अन्तर नहीं है, क्योंकि वह सादि - अपर्यवसित है । मति - अज्ञानियों में जो अनादि- अपर्यवसित हैं, उनका अन्तर नहीं है। जो अनादि सपर्यवसित हैं, उनका अन्तर नहीं है। जो सादि - सपर्यवसित हैं, उनका अन्तर जघन्य अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट साधिक छियासठ सागरोपम है। इसी प्रकार श्रुत- अज्ञानी का अन्तर भी जानना चाहिए। विभंगज्ञानी का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है । भगवन्! इन आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्यायज्ञानी, केवलज्ञानी, मतिअज्ञानी, श्रुत- अज्ञानी और विभंगज्ञानी में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हे ? गौतम ! सबसे थोड़े मन: पर्यायज्ञानी । उनसे अवधिज्ञानी असंख्येयगुण हैं, उनसे मतिज्ञानी श्रुतज्ञानी विशेषाधिक हैं और स्वस्थान में तुल्य हैं, उनसे विभंगज्ञानी असंख्येयगुण हैं, उनसे केवलज्ञानी अनन्तगुण हैं और उनसे मति- अज्ञानी श्रुत - अज्ञानी अनन्तगुण हैं और स्वस्थान में तुल्य हैं। विवेचन- इसका विवेचन सर्व जीव की छठी प्रतिपत्ति में किया जा चुका है। अतएव जिज्ञासु वहां देख सकते हैं। २५५. अहवा अट्ठविहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तं जहा णेरड्या तिरिक्खजोणिया तिरिक्खजोणिणीओ मणुस्सा मणुस्सीओ देवा देवीओ सिद्धा । 1 रइए णं भंते! णेरइएत्ति कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहण्णेणं दसवाससहस्साईं, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई । तिरिक्खजोणिए णं भंते! ०? जह० अंतो० उक्कोसेणं वणस्सइकालो । तिरिक्खजोणिणी णं भंते! ०? जह० अंतो० उक्को० तिण्णि पलिओवमाइं पुव्वकोडिपुहुत्तमब्भहियाइं । एवं मणूसे मणसी। देवे जहा नेरइए। देवी णं भंते! ०? जहण्णेणं दस वाससहस्साइं उक्को० पणपन्नं पलिओवमाइं । सिद्धे णं भंते! सिद्धेत्ति० ? गोयमा साइए अपज्जवसि । रइयस्स णं भंते! अंतरं कालओ केवचिरं होइ ? जह० अंतो०, उक्को० वणस्सइकालो । तिरिक्खजोणियस्स णं भंते! अंतरं कालओ० ? जह० अंतोमुहुत्तं, उक्को० सागरोवमसयपुहुत्तं Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वजीवाभिगम] [२१५ साइरेगं। तिरिक्खजोणिणी णं भंते० ? गोयमा! जह० अंतो०, उक्को० वणस्सइकालो। एवं मणुस्सवि मणुस्सीएवि। देवस्सवि देवीएवि। सिद्धस्स णं भंते! ०? साइयस्स अपजवसिए णत्थि अंतरं। ___ एएसिणं भंते! णेरइयाणं तिरिखजोणियाणं तिरिक्खजोणिणीणं मणूसाणं मणूसीणं देवाणं सिद्धाणं य कयरे० ? गोयमा सव्वत्थोवा मणुस्सीओ, मणूसा असंखेजगुणा, नेरइया असंखेजगुणा, तिरिक्खजोणिणीओ असंखेजगुणाओ, देवा संखेजगुणा, देवीओ संखेजगुणाओ, सिद्धा अणंतगुणा, तिरिक्खजोणिया अणंतगुणा। सेत्तं अट्ठविहा सव्वजीवा पण्णत्ता। २५५. अथवा सब जीव आठ प्रकार के कहे गये हैं, जैसे कि-नैरियक, तिर्यग्योनिक, तिर्यग्योनिकी, मनुष्य, मनुष्यनी, देव, देवी और सिद्ध। __ भगवन् ! नैरयिक, नैरयिक रूप में कितने काल तक रहता है? गौतम! जघन्य से दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम तक रहता है। तिर्यग्योनिक जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से अनन्तकाल तक रहता है। तिर्यग्योनिकी जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम तक रहती है। इसी तरह मनुष्य और मानुषी स्त्री के सम्बन्ध में भी जानना चाहिए। देवों का कथन नैरयिक के समान है। देवी जघन्य से दस हजार वर्ष और उत्कर्ष से पचपन पल्योपम तक रहती है। सिद्ध सादि-अपर्यवसित होने से सदा उस रूप में रहते हैं। __भगवन् ! इन नैरयिकों, तिर्यग्योनिकों, तिर्यग्योनिनियों, मनुष्यों, मानुषीस्त्रियों, देवों, देवियों और सिद्धों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं? गौतम! सबसे थोड़ी मानुषीस्त्रियां, उनसे मनुष्य असंख्येयगुण, उनसे नैरयिक असंख्येयगुण, उनसे तिर्यग्योनिक स्त्रियां असंख्यातगुणी, उनसे देव संख्येयगुण, उनसे देवियां संख्येयगुण, उनसे सिद्ध अनन्तगुण, उनसे तिर्यग्योनिक अनन्तगुण हैं। विवेचन-इनका विवेचन संसारसमापन्नक जीवों की सप्तविध प्रतिपत्ति नामक छठी प्रतिपत्ति में देखना चाहिए। यह अष्टविध सर्वजीवप्रतिपत्ति पूर्ण हुई। सर्वजीव-नवविध-वक्तव्यता २५६. तत्थ णं जेते एवमाहंसु णवविधा सव्वजीवा पण्णत्ता ते एवमाहंसु तं जहा एगिदिया बेंदिया तेंदिया तउरिदिया णेरइया पंचेंदियतिरिक्खजोणिया मणूसा देवा सिद्धा। एगिदिए णं भंते! एगिदिएत्ति कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं वणस्सइकालो। बेंदिए णं भंते! ०? जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं संखेजं कालं। एवं तेइंदिएवि, चउरिदिएवि। णेरइए णं भंते! ०? जहण्णेणं दस वाससहस्साइं, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं। पंचेंदियतिरिक्खजोणिए णं भंते! ०? जह० अंतो०, उक्कोसेणं Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६] [जीवाजीवाभिगमसूत्र तिण्णि पलिओवमाई पुव्वकोडिपुहुत्तमब्भहियाई। एवं मणूसेवि। देवा जहा णेरइया। सिद्धे णं भंते! ०? साइए अपजवसिए। ___एगिंदियस्स णं भंते! अंतरं कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! जह० अंतो०, उक्को० दो सागरोवमसहस्साइं संखेजवासमब्भहियाई।बेंदियस्सणं भंते! अंतरं कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! जह० अंतो०, उक्को० वणस्सइकालो। एवं तेंदियस्सवि चउरिदियस्सविणेरइयस्सवि पंचेदियतिरिक्खजोणियस्सवि मणूसस्सवि सव्वेसिं एवं अंतरं भाणियव्वं । सिद्धस्स णं भंते! अंतरं कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! साइयस्स अपज्जवसियस्स णत्थि अंतरं। ___एएसि णं भंते! एगेंदियाण बेंदियाणं तेंदियाणं चउरिंदियाणं णेरइयाणं पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं मणुसाणं देवाणं सिद्धाण य कयरे कयरेहिंतो! ०? गोयमा! सव्वत्थोवा मणुस्सा, णेरइया असंखेज्जगुणा, देवा असंखेजगुणा, पंचेंदियातिरिक्खजोणिया असंखेजगुणा, चउरिंदिया विसेसाहिया, तेंदिया विसेसाहिया, बेंदिया विसेसाहिया, सिद्धा अणंतगुणा, एगिंदिया अणंतगुणा। २५६. जो ऐसा कहते हैं कि सर्व जीव नौ प्रकार के हैं, वे नौ प्रकार इस तरह बताते हैं-एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, नैरयिक, पंचेन्द्रियतिर्यग्योनिक, मनुष्य, देव और सिद्ध। ___भगवन् ! एकेन्द्रिय, एकेन्द्रिय रूप में कितने काल तक रहता है? गौतम! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल तक रहता है। द्वीन्द्रिय जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट संख्येयकाल तक रहता है। त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय भी इसी प्रकार कहने चाहिए। ___भगवन् ! नैरयिक, नैरयिक के रूप में कितने काल तक रहता है? गौतम! जघन्य दस हजार वर्ष और उत्कर्ष से तेतीस सागरोपम तक रहता है। पंचेन्द्रियतिर्यंच जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम तक रहता है। इसी प्रकार मनुष्य के लिए भी कहना चाहिए। देवों का कथन नैरयिक के समान है। सिद्ध सादि-अपर्यवसित होने के सदा उसी रूप में रहते हैं। भगवन्! एकन्द्रिय का अन्तर कितना है? गौतम! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से संख्येय वर्ष अधिक दो हजार सागरोपम है। द्वीन्द्रिय का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल है। इसी प्रकार त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, नैरयिक, पंचेन्द्रियतिर्यंच, मनुष्य और देव-सबका इतना ही अन्तर है। सिद्ध सादि-अपर्यवसित होने से उनका अन्तर नहीं होता है। __ भगवन! इन एकेन्द्रियों, द्वीन्द्रियों, त्रीन्द्रियों, चतुरिन्द्रियों, नैरयिकों, तिर्यंचों, मनुष्यों, देवों और सिद्धों में कौन किससे कम, अधिक, तुल्य या विशेषाधिक है? गौतम! सबसे थोड़े मनुष्य हैं, उनसे नैरयिक असंख्येयगुण हैं, उनसे देव असंख्येयगुण हैं, उनसे पंचेन्द्रिय तिर्यंच असंख्येयगुण हैं, उनसे देव असंख्येयगुण हैं, उनसे पंचेन्द्रिय तिर्यंच असंख्येयगुण हैं, उनसे चतुरिन्द्रिय विशेषाधिक हैं, उनसे त्रीन्द्रिय विशेषाधिक हैं, उनसे द्वीन्द्रिय विशेषाधिक हैं और उनसे सिद्ध अनन्तगुण हैं और उनसे एकेन्द्रिय अनन्तगुण हैं। Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वजीवाभिगम] [२१७ विवेचन-सूत्रार्थ स्पष्ट ही है। इनकी भावना और युक्ति पूर्व में स्थान-स्थान पर स्पष्ट की जा चुकी है। २५७. अह वा णवविहा सव्वजीवा पण्णत्ता तं जहा-पढमसमयणेरइया अपढ मसमयणेरइया पढमसमयतिरिक्खजोणिया अपढमसमयतिरिक्खजोणिया पढमसमयमणुस्सा अपढमसमयमणुस्सा पढमसमयदेवा अपढमसमयदेवा सिद्धा य। ____ पढमसमयणेरइया णं भंते! कालओ०? गोयमा! एक्कं समयं। अपढमसमयणेरइए णं भंते! ०? जहण्णेणं दस वाससहस्साइं समय-उणाई, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं समयउणाई। पढमसमयतिरिक्खजोणियस्स णं भंते! ०? एक्कं समयं । अपढमसमयतिरिक्खजोणियस्स णं भते! ०? जहण्णेणं खुड्डागं भवग्गहणं समयऊणं, उक्कोसेणं वणस्सइकालो। पढमसमयमणूसे णं भंते! ०? एक्कं समयं। अपढमसमयमणूसे णं भंते! ०? जहण्णेणं खुड्डागं भवग्गहणं समयऊणं, उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाइं पुव्वकोडिपुहुत्तमब्भहियाई। देवे जहा णेरइए। सिद्धे णं भंते! सिद्धेत्ति कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! साइए अपज्जवसिए। पढमसमयणेरइयस्स णं भंते! अंतरं कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! जहण्णेणं दस वाससहस्साइं अंतोमुहुत्तमन्भहियाई, उक्कोसेणं वणस्सइकालो। अपढमसमयणेरइयस्स णं भंते! अंतरं ०? जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं , उक्कोसेणं वणस्सइकालो। पढमसमयतिरिक्खजोणियस्स णं भंते! अंतरं कालओ० ? जहण्णेणं दो खुड्डागाई भवग्गहणाइं समय-ऊणाइं, उक्कोसेणं वणस्सइकालो। अपढमसमयतिरिक्खजोणियस्सणं भंते! अंतरं कालओ०? जहण्णेणं खुड्डागं भवग्गहणं समयाहियं, उक्कोसेणं सागरोवमसयपुहुत्तं साइरेगं। पढमसमयमणूसस्स जहा पढमसमयतिरिक्खजोणियस्स।अपढमसमयमणूसस्स णं भंते! ०? जहण्णेणं खुड्डागं भवग्गहणं, समयाहियं, उक्कोसेणं वणस्सइकालो। पढ मसमयदेवस्स जहा पढमसमयणेरइयस्स। अपढमसमयदेवस्स जहा अपढमसमयणेरइयस्स। सिद्धस्स णं भंते! ०? साइयस्स अपजवसियस्स णत्थि अंतरं। एएसिणं भंते! पढमसमयणेरइयाणं पढमसमयतिरिक्खजोणियाणं पढमसमयमणूसाणं पढमसमयदेवाण य कयरे ! ०? Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८] [जीवाजीवाभिगमसूत्र गोयमा! सव्वत्थोवा पढमसमयमणुस्सा, पढमसमयणेरइया असंखे जगुणा, पढमसमयदेवा असंखेजगुणा, पढमसमयतिरिक्खजोणिया असंखेजगुणा। ऐएसि णं भंते! अपढ मसमयनेर इयाणं अपढ मसमयतिरिक्खजोणियाणं अपढमसमयमणूसाणं अपढमसमयदेवाण य कयरे ०? गोयमा! सव्वत्थोवा अपढमसमयमणूसा, अपढमसमयनेरइया असंखेजगुणा, अपढमसमयदेवा असंखेज्जगणा. अपढमसमयतिरिक्खजोणिया अणंतगणा। ____एएसिणं भंते! पढमसमयतिरिक्खजोणियाणं अपढमसमयतिरिक्खजोणियाणं कयरे०? गोयमा! सव्वत्थोवा पढमसमयनेरइया, अपढमसमयनेरइया असंखेज्जगुणा। एएसिणं भंते! पढमसमयतिरिक्खजोणियाणं अपढमसमयतिरिक्खजोणियाणं कयरे०? गोयमा! सव्वत्थोवा पढमसमयतिरिक्खजोणिया, अपढमसमयतिरिक्खजोणिया अणंतगुणा। मणुयदेव-अप्पाबहुयं जहा नेरइयाणं। एएसि णं भंते! पढमसमयनेरइयाणं पढमसमयतिरिक्खजोणियाणं पढमसमयमणूसाणं पढ मसमयदेवाणं अपढ मसमयने रइयाणं अपढ मसमयतिरिक्खजोणियाणं अपढमसमयमणूसाणं अपढमसमयदेवाणं सिद्धाण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा०? गोयमा! सव्वत्थोवा पढमसमयमणूसा, अपढमसमयमणूसा असंखेजगुणा, पढमसमयनेरइया असंखेजगुणा, पढमसमयदेवा असंखेजगुणा, पढमसमयतिरिक्खजोणिया असंखेज्जगुणा, अपढमसमयनेरइया असंखेजगुणा, अपढमसमयदेवा असंखेजगुणा, सिद्धा अणंतगुणा, अपढमसमयतिरिक्खजोणिया अणंतगुणा। सेत्तं नवविहा सव्वजीवा पण्णत्ता। २५७. अथवा सर्व जीव नौ प्रकार के हैं १. प्रथमसमयनै र यिक, २. अप्रथमसमयनै रयिक , ३. प्रथमसमयतिर्यग्यो निक, ४. अप्रथमसमयतिर्यग्योनिक, ५. प्रथमसमयमनुष्य, ६. अप्रथमसमयमनुष्य, ७. प्रथमसमयदेव, ८. अप्रथमसमयदेव और ९. सिद्ध। भगवन्! प्रथमसमयनैरियक, प्रथमसमयनैरयिक के रूप में कितने समय रहता है? गौतम! एक समय। अप्रथमसमयनैरयिक जघन्य एक समय कम दस हजार वर्ष और उत्कर्ष से एक समय कम तेतीस सागरोपम तक रहता है। प्रथमसमयतिर्यग्योनिक एक समय तक और अप्रथमसमयतिर्यग्योनिक जघन्य एक समय कम क्षुल्लक भवग्रहण तक और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल तक। प्रथमसमयमनुष्य एक समय और अप्रथमसमयमनुष्य जघन्य समय कम क्षुल्लकभवग्रहण और उत्कर्ष से पूर्वकोटिपृथकत्व अधिक तीन पल्योपम तक रहता है । देव का कथन नैरयिक के समान है। Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वजीवाभिगम] [२१९ भगवन् ! सिद्ध, सिद्ध रूप में कितने समय रहता है? गौतम! सिद्ध सादि-अपर्यवसित है। सदा उसी रूप में रहता है। भगवन् ! प्रथमसमयनैरयिक का अन्तर कितना है? गौतम! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त अधिक दस हजार वर्ष और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल है। अप्रथमसमयनैरयिक का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल है। प्रथमसमयतिर्यग्योनिक का अन्तर जघन्य समय कम दो क्षुल्लकभवग्रहण और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल है। अप्रथमसमयमनुष्य का अन्तर जघन्य समयाधिक क्षुल्लकभवग्रहण है और उत्कर्ष से साधिक सागरोपमशतपृथक्त्व है। प्रथमसमयमनुष्य का अन्तर प्रथमसमयतिर्यंच के समान है। अप्रथमसमयमनुष्य का अन्तर समयाधिक क्षुल्लकभवग्रहण है और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल है। प्रथमसमयदेव का अन्तर प्रथमसमयनैरयिक के समान है। अप्रथमसमयदेव का अन्तर अप्रथमसमयनैरयिक के समान है। . सिद्ध सादि-अपर्यवसित होने से अन्तर नहीं है। भगवन् ! इन प्रथमसमयनैरयिक, प्रथमसमयतिर्यग्योनिक, प्रथमसमयमनुष्य और प्रथमसमयदेवों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं? ___ गौतम! सबसे थोड़े प्रथमसमयमनुष्य, उनसे प्रथमसमयनैरयिक असंख्यगुण, उनसे प्रथमसमयदेव असंख्यातगुण, उनसे प्रथमसमयतिर्यग्योनिक असंख्यातगुण हैं। भगवन् ! इन अप्रथमसमयनैरयिक, अप्रथमसमयतिर्यग्योनिक, अप्रथमसमयमनुष्य और अप्रथमसमयदेवों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक है? गौतम! सबसे थोड़े अप्रथमसमयमनुष्य हैं, उनसे अप्रथमसमयनैरयिक असंख्येगुण हैं, उनसे अप्रथमसमयदेव असंख्येयगुण हैं और उनसे अप्रथमसमयतिर्यंच अनन्तगुण हैं। ___भगवन् ! इन प्रथमसमयनैरयिकों और अप्रथमसमयनैरयिकों में कौन किससे अल्प यावत् विशेषाधिक हैं? गौतम! सबसे थोड़े प्रथमसमयनैरयिक हैं और उनसे अप्रथमसमयनैरयिक असंख्यातगुण हैं। ___भगवन् ! इन प्रथमसमयतिर्यंचों और अप्रथमसमयतिर्यंचों में कौन किनसे अल्प यावत् विशेषाधिक हैं? गौतम! प्रथमसमयतिर्यंच सबसे थोड़े और अप्रथमसमयतिर्यंच अनन्तगुण हैं। ___ मनुष्य और देवों का अल्पबहुत्व नैरयिकों, की तरह कहना चाहिए। भगवन् इन प्रथमसमयनैर यिक, प्रथमसमयतिर्यंच, प्रथमसमयमनुष्य, प्रथमसमयदेव, अप्रथमसमयनैरयिक, अप्रथमसमयतिर्यंच, अप्रथमसमयमनुष्य, अप्रथमसमयदेव और सिद्धों में कौन किससे अल्प यावत् विशेषाधिक हैं? गौतम! सबसे थोड़े प्रथमसमयमनुष्य, उनसे अप्रथमसमयमनुष्य असंख्यातगुण, उनसे Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२०] [जीवाजीवाभिगमसूत्र प्रथमसमयनैरयिक असंख्यातगुण , उनसे प्रथमसमयदेव असंख्यातगुण, उनसे प्रथमसमयतिर्यंच असंख्यातगुण, उनसे अप्रथमसमयनैरयिक असंख्यातगुण, उनसे अप्रथमसमयदेव असंख्यातगुण, उनसे सिद्ध अनन्तगुण और उनसे अप्रथमसमयतिर्यंग्योनिक अनन्तगुण हैं। ___ इस प्रकार सर्वजीवों की नवविधप्रतिपत्ति पूर्ण हुई। विवेचन-इनकी युक्ति और भावना पूर्व में प्रतिपादित की जा चुकी है। सर्वजीव नवविधप्रतिपत्ति पूर्ण। सर्वजीव-दसविध-वक्तव्यता २५८. तत्थ णं जेते एवमाहंसु दसविहा सव्वजीवा पण्णत्ता ते एवमाहंसु, तं जहापुढविकाइया आउकाइया तेउकाइया वाउकाइया वणस्सइकाइया बेंदिया तेंदिया चउरिंदिया पंचेंदिया अणिंदिया। पुढविकाइया णं भंते! पुढविकाइएत्ति कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! जह० अंतो०, उक्को० असंखेनं कालं-असंखेजाओ उस्सप्पिणीओ ओसप्पिणीओ कालओ, खेत्तओ असंखेजा लोया। एवं आउ-तेउ-वाउकाइए। वणस्सइकाइए णं भंते! ०? गोयमा! जह० अंतो०, उक्को०, वणस्सइकालो। बेंदिए णं भंते! ०? जह० अंतो०, उक्कोसेणं संखेनं कालं। एवं तेइंदिएवि, चउरिदिएवि। पंचिंदिए णं भंते! ०? गोयमा। जह० अंतो०, उक्कोसेणं सागरोवमसहस्सं साइरेगं। अणिदिए णं भंते! ०? साइए अपज्जवसिए। पुढविकाइयस्स णं भंते! अंतरं कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! जह०अंतो०, उक्को० वणस्सइकालो। एवं आउकाइयस्स तेउकाइयस्स वाउकाइयस्स। वणस्सइकाइयस्स णं भंते! अंतरं कालओ०? जा चेव पुढविकाइयस्स संचिट्ठणा, बय-तिय-चउरिंदिया-पंचेंदियाणं एएसि चउण्हपि अंतरं जह० अंतो०, उक्को. वणस्सइकालो। अणिंदियस्स णं भंते! अंतरं कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! साइयस्स अपजवसियस्स णत्थि अंतरं। एएसिणं भंते! पुढविकाइयाणं आउ-तेउ-वाउ-वण-वेंदियाणं तेंदियाणं चउरिदियाणं पंचेंदियाणं अणिंदियाण य कयरे कयरेहिंतो०? गोयमा! सव्वत्थोवा पंचेंदिया, चउरिदिया विसेसाहिया, तेंदिया विसेसाहिया, बेंदिया विसेसाहिया, तेउकाइया असंखेजगुणा, पुढविकाइया विसेसाहिया, आउकाइया विसेसाहिया, वाउकाइया विसेसाहिया, अणिंदिया अणंतगुणा, वणस्सइकाइया अणंतगुणा। Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २२१ सर्वजीवाभिगम ] २५८. जो ऐसा कहते हैं कि सर्व जीव दस प्रकार के हैं, वे इस प्रकार प्रतिपादन करते हैं, यथापृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय और अनिन्द्रिय । भगवन्! पृथ्वीकायिक, पृथ्वीकायिक के रूप में कितने समय तक रहता हैं? गौतम! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से असंख्यातकाल तक, जो असंख्यात उत्सर्पिणी- अवसर्पिणी रूप (कालमार्गणा) से है और क्षेत्रमार्गणा से असंख्येय लोकाकाशप्रदेशों के निर्लेपकाल के तुल्य है। इसी प्रकार अप्कायिक, तेजस्कायिक और वायुकायिक की संचिट्ठणा जाननी चाहिए । भगवन्! वनस्पतिकायिक की संचिट्ठणा कितनी है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है । भगवन् ! द्वीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय रूप में कितने समय तक रह सकता है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट संख्यातकाल तक रह सकता है। इसी प्रकार त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय की भी संचिट्ठणा जाननी चाहिए । भगवन् ! पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय रूप में कितने समय तक रहता है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष साधिक एक हजार सागरोपम तक रह सकता है। भगवन्! अनिन्द्रिय, अनिन्द्रिय रूप में कितने समय तक रहता है ? गौतम! वह सादि-अपर्यवसित होने ने सदा उसी रूप में रहता है। भगवन् ! पृथ्वीकायिक का अन्तर कितना है ? गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है । इसी प्रकार अप्कायिक, तेजस्कायिक और वायुकायिक का भी अन्तर जानना चाहिए। वनस्पतिकायिकों का अन्तर वही है जो पृथ्वीकायिक की संचिणा है, अर्थात् जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से असंख्येयकाल है । इसी प्रकार द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय इन चारों का अन्तर जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है । अनिन्द्रिय सादि- अपर्यवसित होने से उसका अन्तर नहीं है । भगवन् ! इन पृथ्वीकायिक! अप्कायिक! तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय और अनिन्द्रियों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक है ? गौतम! सबसे थोड़े पंचेन्द्रिय हैं, उनसे चतुरिन्द्रिय विशेषाधिक हैं, उनसे त्रीन्द्रिय विशेषाधिक हैं, उनसे द्वीन्द्रिय विशेषाधिक हैं, उनसे तेजस्कायिक असंख्यातगुण हैं, उनसे पृथ्वीकायिक विशेषाधिक हैं, उनसे अप्कायिक विशेषाधिक हैं, उनसे वायुकायिक विशेषाधिक हैं, उनसे अनिन्द्रिय अनन्तगुण हैं और उनसे वनस्पतिकायिक अनन्तगुण हैं । विवेचन- इन सबकी युक्ति और भावना पूर्व में स्थान-स्थान पर कही गई है । अत: पुनरावृत्ति नहीं की जा रही है । जिज्ञासुजन यथास्थान पर देखें । Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२] [जीवाजीवाभिगमसूत्र २५९. अहवा दसविहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तं जहा-१. पढमसमयनेरइया, २. अपढमर यनेरइया, ३. पढमसमयतिरिक्खजोणिया, ४. अपढमसमयतिरिक्खजोणिया, ५. पढमसमयमणूसा, ६. अपढमसमयमणूसा, ७. पढमसमयदेवा, ८. अपढमसमयदेवा, ९. पढमसमयसिद्धा, १०. अपढमसमयसिद्धा। पढमसमयनेरइए णं भंते! पढमसमयनेरइएत्ति कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! एक्वं समयं। अपढमसमयनेरइए णं भंते! ०? जहण्णेणं दस वाससहस्साई समय-उणाई, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं समय-ऊणांइ। पढ मसमयतिरिक्खजोणिए णं भंते! ०? गोयमा! एक्कं समयं । अपढमसमयतिरिक्खजोणिए णं भंते! ०? गोयमा! जहण्णेणं खुड्डागं भवग्गहणं समयऊणं, उक्कोसेणं वणस्सइकालो। पढमसमयमणुस्से णं भंते! ०? एकं समयं। अपढमसमयमणुस्से? जहण्णेणं खुडुगं भवग्गहणं समयऊणं, उक्कोसेणं तिण्णिपलिओवमांइं पुव्वकोडिपुहुत्तमब्भहियाई। देवे जहा णेरइए। पढमसमयसिद्धे णं भंते! ०? एक्कं समयं । अपढमसमयसिद्धे णं भंते! ०? साइए अपजवसिए। पढमसमयनेरइयस्स णं भंते! अंतरं कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! जहण्णेणं दस . वाससहस्साइं अंतोमुहुत्तमब्भहियाई, उक्कोसेणं वणस्सइकालो। अपढमसमयनेरइयस्स णं भंते!०? जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं वणस्सइकालो। पढमसमयतिरिक्खजोणियस्स अंतरं के वचिरं होइ? गोयमा! जहण्णेणं दो खुड्डागभवग्गहणाई समयऊणाई, उक्कोसेणं वणस्सइकालो। अपढमसमयतिरिक्खजोणियस्स णं भंते! ०? जहण्णेणं खुड्डागभवग्गहणं समयाहियं, उक्कोसेणं सागरोवमसयपुहुत्तं साइरेगं। पढमसमयमणूसस्स णं भंते! ०? जहण्णेणं दो खुड्डागभवग्गहणाई, समयऊणाई, उक्कोसेणं वणस्सइकालो। अपढमसमयमणूसस्स णं भंते! ०? जहणेणं खुड्डागभवग्गहणं समयाहियं, उक्कोसेणं वणस्सइकालो। देवस्स णं अंतरं जहा णेरइयस्स। पढमसमयसिद्धस्स णं भंते! ०? अंतरं णत्थि। Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २२३ सर्वजीवाभिगम ] अपढमसमयसिद्धस्स णं भंते! अंतरं कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! साइयस्स अपज्जवसियस्स णत्थि अंतरं । एएसि णं भंते! पढमसमयणेरड्याणं पढमसमयतिरिक्खजोणियाणं पढमसमयमणूसाणं पढमसमयदेवाणं पढमसमयसिद्धाण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा ०? गोयमा ! सव्वत्थो वा पढमसमयसिद्धा, पढमसमयमणूसा असंखेज्जगुणा, पढमसमयनेरड्या असंखेज्जगुणा, पढमसमयदेवा असंखेज्जगुणा, पढमसमयतिरिक्खजोणिया असंखेज्जगुणा । एएसि णं भंते! अपढमसमयनेरइयाणं जाव अपढमसमयसिद्धाण य कयरे० ? गोयमा! सव्वत्थोवा अपढमसमयमणूसा, अपढमसमयनेरड्या असंखेज्जगुणा, अपढमसमयदेवा असंखेज्जगुणा, अपढमसमयसिद्धा अणंतगुणा, अपढमसमयतिरिक्खजोणिया असंखेज्जगुणा । एएस भंते! पढमसमयनेरइयाणं अपढमसमयनेरइयाण य कयरे० ? गोयमा ! सव्वथोवा पढमसमयनेरइया, अपढमसमयनेरइया असंखेज्जगुणा । एएसि णं भंते! पढमसमयतिरिक्खजोणियाणं अपढमसमयतिरिक्खजोणियाण य कयरे ०? गोयमा ! सव्वत्थोवा पढमसमयतिरिक्खजोणिया, अपढमसमयतिरिक्खजोणिया अनंतगुणा । एएसि णं भंते! पढमसमयमणूसाणं अपढमसमयमणूसाणं य कयरे० ? गोयमा ! सव्वत्थोवा पढमसमयमणूसा, अपढमसमयमणूसा असंखेज्जगुणा । जहा मणूसा तहा देवावि । एएसि णं भंते! पढमसमयसिद्धाणं अपढमसमयसिद्धाण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा ! सव्वत्थोवा पढमसमयसिद्धा, अपढमसमयसिद्धा अनंतगुणा । एएसि णं भंते! पढमसमयनेरइयाणं अपढमसमयनेरइयाणं पढमसमयतिरिक्खजोणियाणं अपढमसमयतिरिक्खजोणियाणं पढमसमयमणूसाणं अपढमसमयमणूसाणं पढमसमयदेवाणं अपढमसमयदेवाणं पढमसमयसिद्धाणं अपढमसमयसिद्धाणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वातुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा ! सव्वत्थोवा पढमसमयसिद्धा, पढमसमयमणूसा असंखेज्जगुणा, अपढमसमयमणूसा असंखेज्जगुणा, पढमसमयनेरड्या असंखेज्जगुणा, पढमसमयदेवा असंखेज्जगुणा, पढमसमयतिरिक्खजोणिया असंखेज्जगुणा, अपढमसमयनेरइया असंखेज्जगुणा, अपढमसमयदेवा असंखेज्जगुणा, अपढमसमयसिद्धा अनंतगुणा, अपढमसमयतिरिक्खजोणिया अनंतगुणा । Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४] [जीवाजीवाभिगमसूत्र सेत्तं दसविहा सव्वजीवा पण्णत्त। सेत्तं सव्वजीवाभिगमे। इति जीवाजीवाभिगमसुत्तं सम्मत्तं। (सूत्रे गन्थानम् ४७५० ॥) २५९. अथवा सर्व जीव दस प्रकार के हैं, यथा १. प्रथमसमयनै रयिक, २. अप्रथमसमयनै रयिक, ३. प्रथमसमयतिर्यग्यो निक, ४. अप्रथमसमयतिर्यग्योनिक, ५. प्रथमसमयमनुष्य, ६. अप्रथमसमयमनुष्य, ७. प्रथमसमयदेव, ८. अप्रथमसमयदेव, ९. प्रथमसमयसिद्ध, १० अप्रथमसमयसिद्ध । भगवन् ! प्रथमसमयनैरयिक, प्रथमसमयनैरयिक के रूप में कितने समय तक रहता हे? गौतम! एक समय तक। भगवन् ! अप्रथमसमयनैरयिक उसी रूप में कितने समय तक रहता है? गौतम! एक समय कम दस हजार वर्ष तक और उत्कृष्ट एक समय कम तेतीस सागरोपम तक रहता है। भगवन् ! प्रथमसमयतिर्यग्योनिक उसी रूप में कितने समय तक रहता है? गौतम! एक समय तक। अप्रथमसमयतिर्यग्योनिक जघन्य से एक समय कम क्षुल्लकभवग्रहण और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल तक रहता है। भगवन् ! प्रथमसमयमनुष्य उस रूप में कितने काल तक रहता है? गौतम! एक समय तक। अप्रथमसमयमनुष्य जघन्य से एक समय कम क्षुल्लकभवग्रहण और उत्कर्ष से पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम तक रहता है। देव का कथन नैरयिक की तरह हैं। भगवन ! प्रथमसमयसिद्ध उस रूप में कितने समय रहता है? गौतम! एक समय तक। अप्रथमसमयसिद्ध सादि-अपर्यवसित होने से सदाकाल रहता है। भगवन् ! प्रथमसमयतिर्यग्योनिक का अन्तर कितना है? गौतम! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त अधिक दस हजार वर्ष और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल है। अप्रथमसमयनैरयिक का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है। भगवन् ! प्रथमसमयतिर्यग्योनिक का अन्तर कितना है? गौतम! जघन्य एक समय कम दो क्षुल्लकभवग्रहण है, उत्कर्ष से वनस्पतिकाल है। अप्रथमसमयतिर्यग्योनिक का अन्तर जघन्य समयाधिक क्षुल्लकभवग्रहण है और उत्कर्ष से साधिक Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वजीवाभिगम] [२२५ सागरोपमशतपृथक्त्व है। भगवन् ! प्रथमसमयमनुष्य का अन्तर कितना है? गौतम! जघन्य एक समय कम दो क्षुल्लकभवग्रहण है और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल है। अप्रथमसमयमनुष्य का अन्तर जघन्य समयाधिक क्षुल्लकभव और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल है। देव का अन्तर नैरयिक की तरह कहना चाहिए। भगवन् ! प्रथमसमयसिद्ध का अन्तर कितना है? प्रथमसमयसिद्ध का अन्तर नहीं है। भगवन् ! अप्रथमसमयसिद्ध का अन्तर कितना है? अप्रथमसमयसिद्ध सादि-अपर्यवसित होने से अन्तर नहीं है। भगवन् ! प्रथमसमयनैरयिक, प्रथमसमयतिर्यग्योनिक, प्रथमसमयमनुष्य, प्रथमसमयदेव और प्रथमसमयसिद्धों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक है? ___ गौतम! सबसे थोड़े प्रथमसमयसिद्ध, उनसे प्रथमसमयमनुष्य असंख्येयगुण, उनसे प्रथमसमयनैरयिक असंख्येयगुण, उनसे प्रथमसमयदेव असंख्यातगुण और उनसे प्रथमसयमतिर्यग्योनिक असंख्येयगुण हैं। • भगवन् ! इन अप्रथमसमयनैरयिक यावत् अप्रथमसमयसिद्धों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक है? गौतम! सबसे थोड़े अप्रथमसमयमनुष्य, उनसे अप्रथमसमयनैरयिक असंख्येयगुण, उनसे अप्रथमसमयदेव असंख्येयगुण, उनसे अप्रथमसमयसिद्ध अनन्तगुण और उनसे अप्रथमसमयतिर्यग्योनिक अनन्तगुण हैं। भगवन्! इन प्रथमसमयनैरयिकों और अप्रथमसमयनैरयिकों में कौन किससे अल्प यावत् विशेषाधिक हैं। गौतम! सबसे थोड़े प्रथमसमयनैरयिक हैं, उनसे असंख्यातगुण अप्रथमसमयनैरयिक हैं। भगवन् ! इन प्रथमसमयतिर्यग्योनिकों और अप्रथमसमयतिर्यग्योनिकों में कौन किससे अल्पादि हैं? गौतम! सबसे थोड़े प्रथमसमयतिर्यग्योनिक हैं और उनसे अप्रथमसमयतिर्यग्योनिक अनन्तगुण हैं। भगवन् ! इन प्रथमसमयमनुष्यों और अप्रथमसमयमनुष्र्यों में कौन किससे अल्पादि है? गौतम! सबसे थोड़े प्रथमसमयमनुष्य हैं, उनसे अप्रथमसमयमनुष्य असंख्यातगुण हैं। जैसा मनुष्यों के लिए कहा है, वैसा देवों के लिए भी कहना चाहिए। भगवन् ! इन प्रथमसमयसिद्धों और अप्रथमसमयसिद्धों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं? गौतम! सबसे थोड़े प्रथसमयसिद्ध हैं, उनसे अप्रथमसमयसिद्ध अनन्तगुण हैं। भगवन् ! इन प्रथमसमयनै र यिक , अप्रथमसमयनै रयिक , प्रथमसमयतिर्यग्यो निक, अप्रथमसमयतिर्यग्योनिक, प्रथमसमयमनुष्य, अप्रथमसमयमनुष्य, प्रथमसमयदेव, अप्रथमसमयदेव, प्रथमसमयसिद्ध और अप्रथमसमयसिद्ध, इनमें कौन किससे अल्प, बहुत्त, तुल्य या विशेषाधिक है? Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६] [जीवाजीवाभिगमसूत्र ___ गौतम! सबसे थोड़े प्रथमसमयसिद्ध हैं, उनसे प्रथमसमयमनुष्य असंख्यातगुण हैं, उनसे अप्रथमसमयमनुष्य असंख्यातगुण हैं, उनसे प्रथमसमयनैरयिक असंख्यातगुण हैं, उनसे प्रथमसमयदेव असंख्यातगुण हैं, उनसे प्रथमसमयतिर्यंच असंख्यातगुण हैं, उनसे अप्रथमसमयनैरयिक असंख्यातगुण हैं, उनसे अप्रथमसमयदेव असंख्यातगुण हैं, उनसे अप्रथमसमयसिद्ध अनन्तगुण हैं, उनसे अप्रथमसमय तिर्यंच अनन्तगुण हैं। इस तरह दसविध सर्वजीव-प्रतिपत्ति का और सर्वजीवाभिगम का वर्णन समाप्त हुआ। ॥ जीवाजीवाभिगमसूत्र समाप्त ॥ (सूत्र ग्रन्थानम् ४७५०)॥ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनध्यायकाल [स्व० आर्चायप्रवर श्री आत्मारामजी म० द्वारा सम्पादित नन्दीसूत्र से उद्धृत] स्वाध्याय के लिए आगमों में जो समय बताया गया हैं, उसी समय शास्त्रों का स्वाध्याय करना चाहिए। अनध्यायकाल में स्वाध्याय वर्जित है। मनुस्मृति आदि स्मृतियों में भी अनध्यायकाल का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। वैदिक लोग भी वेद के अनध्यायों का उल्लेख करते हैं। इसी प्रकार अन्य आर्ष ग्रन्थों का भी अनध्याय माना जाता है। जैनागम भी सर्वज्ञोक्त, देवाधिष्ठित तथा स्वरविद्या संयुक्त होने के कारण, इनका भी आगमों में अनध्यायकाल वर्णित किया गया है, जैसे कि दसविधे अंतलिक्खिते असज्झाए पण्णत्ते, तं जहा-उक्कावते, दिसिदाघे, गजिते, निग्घाते, जुवते, जक्खालित्ते, धूमिता, महिता, स्यउग्घाते। दसविहे ओरालिते असज्झातिते, तं जहा-अट्ठी, मंसं, सोणित्ते, असुतिसामंते, सुसाणसामंते, चंदोवराते, सूरोवराते, पडने, रायवुग्गहे, उवस्सयस्स अंतो ओरालिए सरीरगे। -स्थानाङ्गसूत्र, स्थान १० नो कप्पति निग्गंथाण वा, निग्गंथीण वा चउहिं महापाडिवएहिं सज्झायं करित्तए, तं जहा-आसाढपाडिवए, इंदमहापाडिवए, कत्तिअपाडिवए, सुगिम्हपाडिवए। नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा, चउहिं संझाहिं सज्झायं करेत्तए, तं जहा-पडिमाते, पच्छिमाते, मज्झण्हे, अड्ढरत्ते। कप्पइ निग्गंथाणं वा निग्गंथीण वा, चाउक्कालं सज्झायं करेत्तए, तं जहा-पुव्वण्हे, अवरण्हे, पओसे, पच्चूसे। -स्थानाङ्ग सूत्र, स्थान ४ उद्देश २ उपरोक्त सूत्रपाठ के अनुसार, दस आकाश से सम्बन्धित, दस औदारिक शरीर से सम्बन्धित, चार महाप्रतिपदा, चार महाप्रतिपदा की पूर्णिमा और चार सन्ध्या इस प्रकार बत्तीस अनध्याय माने गये हैं। जिनका संक्षेप में निम्न प्रकार से वर्णन है, जैसेआकाश सम्बन्धी दस अनध्याय १. उल्कापात-तारापतन-यदि महत् तारापतन हुआ है तो एक प्रहर पर्यन्त शास्त्रस्वाध्याय नहीं करना चाहिए। २.दिग्दाह-जब तक दिशा रक्तवर्ण की हो अर्थात् ऐसा मालूम पड़े कि दिशा में आग-सी लगीहै, तब भी स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनध्यायकाल] ३-४.-गर्जित-विद्युत्-गर्जन और विद्युत प्रायः ऋतु स्वभाव से ही होता है। अतः आर्द्रा से स्वाति नक्षत्र पर्यन्त अनध्याय नहीं माना जाता। ५.निर्धात-बिना बादल के आकाश में व्यन्तरादिकृत घोर गर्जन होने पर या बादलों सहित आकाश में कड़कने पर दो प्रहर तक अस्वाध्यायकाल है। ६. यूपक-शुक्ल पक्ष में प्रतिपदा, द्वितीया, तृतीया को सन्ध्या की प्रभा और चन्द्रप्रभा के मिलने को यूपक कहा जाता है। इन दिनों प्रहर रात्रि पर्यन्त स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। ७. यक्षादीप्त- कभी किसी दिशा में बिजली चमकने जैसा, थोड़े थोड़े समय पीछे जो प्रकाश होता है वह यक्षादीप्त कहलाता है। अतः आकाश में जब तक यक्षाकार दीखता रहे तब तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। ८.धूमिका कृष्ण-कार्तिक से लेकर माघ तक का समय मेघों का गर्भमास होता है। इसमें धूम्र वर्ण की सुक्ष्म जलरूप धुंध पड़ती है। वह धूमिका-कृष्ण कहलाती है। जब तक यह धुंध पड़ती रहे, तब तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। ९. मिहिकाश्वेत-शीतकाल में श्वेत वर्ण की सूक्ष्म जलरूप धुन्ध मिहिका कहलाती है। जब तक यह गिरती रहे, तब तक अस्वाध्याय काल है। १०. रज उद्घात-वायु के कारण आकाश में चारों ओर धूलि छा जाती है। जब तक यह धूलि फैली रहती है, स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। ___उपरोक्त दस कारण आकाश सम्बन्धी अस्वाध्याय के हैं। औदारिक सम्बन्धी दस अनध्याय ११-१२-१३. हड्डी मांस और रूधिर-पंचेद्रिय तिर्यंच की हड्डी, मांस और रूधि यदि सामने दिखाई दें, तो जब तक वहाँ से यह वस्तुएं उठाई न जाएँ जब तक अस्वाध्याय है। वृत्तिकार आस पास के ६० हाथ तक इन वस्तुओं के होने पर अस्वाध्याय मानते हैं। इसी प्रकार मनुष्य सम्बन्धी अस्थि मांस और रूधिर का भी अनाध्याय माना जाता है। विशेषता इतनी है कि इनका अस्वाध्याय सौ हाथ तक तथा एक दिन रात का होता है। स्त्री के मासिक धर्म का अस्वाध्याय तीन दिन तक। बालक एवं बालिका के जन्म का अस्वाध्याय क्रमशः सात एवं आठ दिन पर्यन्त का माना जाता है। १४. अशुचि-मल-मूत्र सामने दिखाई देने तक अस्वाध्याय है। १५. श्मशान-श्मशानभूमि के चारों ओर सौ-सौ हाथ पर्यन्त अस्वाध्याय माना जाता है। १६. चन्द्रगहण-चन्द्रग्रहण होने पर जघन्य आठ, मध्यम बारह और उत्कृष्ट सोलह प्रहर पर्यन्त स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। १७. सूर्यग्रहण-सूर्यग्रहण होने पर भी क्रमशः आठ, बारह और सोलह प्रहर पर्यन्त अस्वाध्यायकाल Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [अनध्यायकाल माना गया है। १८. पतन-किसी बड़े मान्य राजा अथवा राष्ट्र पुरूष का निधन होने पर जब तक उसका दाहसंस्कार न हो तब तक स्वाध्याय न करना चाहिए। अथवा जब तक दूसरा अधिकारी सत्तारूढ न हो तब तक शनैः शनैः स्वाध्याय करना चाहिए। १९. राजव्युद्ग्रह-समीपस्थ राजाओं में परस्पर युद्ध होने पर जब तक शान्ति न हो जाए, तब तक उसके पश्चात् भी एक दिन-रात्रि स्वाध्याय नहीं करें। २०. औदारिक शरीर-उपाश्रय के भीतर पंचेन्द्रिय जीव का वध हो जाने पर जब तक कलेवर पड़ा रहे, तब तक तथा १०० हाथ तक यदि निर्जीव कलेवर पड़ा हो तो स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। अस्वाध्याय के उपरोक्त १० कारण औदारिक शरीर सम्बन्धी कहे गये हैं। २१-२८. चार महोत्सव और चार महाप्रतिपदा-आषाढपूर्णिमा, आश्विन-पूर्णिमा, कार्तिक पूर्णिमा ये चार महोत्सव हैं। इन पूर्णिमाओं के पश्चात् आने वाली प्रतिपदा को महाप्रतिपदा कहते हैं। इसमें स्वाध्याय करने का निषेध है। २९-३२. प्रातः सायं मध्याह्न और अर्धरात्रि-प्रातःसूर्य उगने से एक घड़ी पहिले तथा एक घड़ी पीछे। मध्याह्न अर्थात् दोपहर में एक घड़ी आगे और एक घड़ी पीछे एवं अर्धरात्रि में भी एक घड़ी आगे तथा एक घड़ी पीछे स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। XXXXXX Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आगमप्रकाशन-समिति, ब्यावर अर्थसहयोगी सदस्यों की शुभ नामावली ५. श्री हीरालालजी पन्नालालजी चौपड़ा, ब्यावर १. श्री सेठ मोहनमलजी चोरडिया, चेन्नई ६. श्री मोहनलालजी नेमीचन्दजी ललवाणी, चांगाटोला २. श्री गुलाबचन्दजी मांगीलालजी सुराणा, ७. श्री दीपचंदजी चन्दनमलजी चोरड़िया, चेन्नई सिकन्दराबाद ८. श्री पन्नालालजी भागचन्दजी बोथरा, चांगाटोला ३. श्री पुखराजजी शिशोदिया, ब्यावर ९. श्रीमती सिरेकुँवरबाई धर्मपत्नी स्व. श्री सुगनचन्दजी ४. श्री सायरमलजी जेठमलजी चोरड़िया, बैंगलोर . झामड़, मदुरान्तकम् ५. श्री प्रेमराजजी भंवरलालजी श्रीश्रीमाल, दुर्ग १०. श्री बस्तीमलजी मोहनलालजी बोहरा (KGF) श्री एस. किशनचन्दजी चोरड़िया, चेन्नई जाड़न ७. श्री कंवरलालजी बैताला, गोहाटी ११. श्री थानचन्दजी मेहता, जोधपुर ८. श्री सेठ खींवराजजी चोरड़िया चेन्नई १२. श्री भैरूदानजी लाभचन्दजी सुराणा, नागौर ९. श्री गुमानमलजी चोरडिया, चेन्नई १३. श्री खूबचन्दजी गदिया, ब्यावर १०. श्री एस. बादलचन्दजी चोरड़िया, चेन्नई श्री मिश्रीलालजी धनराजजी विनायकिया, ब्यावर । ११. श्री जे. दुलीचन्दजी चोरड़िया, चेन्नई १५. श्री इन्द्रचन्दजी बैद, राजनांदगांव १२. श्री एस. रतनचन्दजी चोरड़िया, चेन्नई १६. श्री रावतमलजी भीकमचन्दजी पगारिया, बालाघाट १३. श्री जे. अन्नराजजी चोरड़िया, चेन्नई १७. श्री गणेशमलजी धर्मीचन्दजी कांकरिया, टंगला १४. श्री एस. सायरचन्दजी चोरड़िया, चेन्नई १८. श्री सुगनचन्दजी बोकड़िया, इन्दौर १५. श्री आर. शान्तिलालजी उत्तमचन्दजी चोरडिया. १९. श्री हरकचन्दजी सागरमलजी बेताला, इन्दौर चेन्नई २०. श्री रघुनाथमलजी लिखमीचन्दजी लोढ़ा, चांगाटोला १६. श्री सिरेमलजी हीराचन्दजी चोरडिया, चेन्नई २१. श्री सिद्धकरणजी शिखरचन्दजी बैद, चांगाटोला १७. श्री जे. हुक्मीचन्दजी चोरडिया, चेन्नई २२. श्री सागरमलजी नोरतमलजी पींचा, चेन्नई (स्तम्भ सदस्य) २३. श्री मोहनराजजी मुकनचन्दजी बालिया, १. श्री अगरचन्दजी फतेचन्दजी पारख, जोधपुर अहमदाबाद २. श्री जसराजजी गणेशमलजी संचेती, जोधपुर २४. श्री केशरीमलजी जंवरीलालजी तलेसरा, पाली ३. श्री तिलोकचंदजी, सागरमलजी संचेती, चेन्नई २५. श्री रतनचन्दजी उत्तमचन्दजी मोदी, ब्यावर श्री पूसालालजी किस्तूरचंदजी सुराणा, कटंगी २६. श्री धर्मीचन्दजी भागचन्दजी बोहरा, झूठा श्री आर. प्रसन्नचन्दजी चोरड़िया, चेन्नई २७. श्री छोगामलजी हेमराजजी लोढ़ा, डोंडीलोहारा ६. श्री दीपचन्दजी चोरड़िया, चेन्नई २८. श्री गुणचंदजी दलीचंदजी कटारिया, बेल्लारी ७. श्री मूलचन्दजी चोरड़िया, कटंगी २९. श्री मूलचन्दजी सुजानमलजी संचेती, जोधपुर ८. श्री वर्द्धमान इण्डस्ट्रीज, कानपुर ३०. श्री सी. अमरचन्दजी बोथरा, चेन्नई ९. श्री मांगीलालजी मिश्रीलालजी संचेती, दुर्ग ३१. श्री भंवरलालजी मूलचन्दजी सुराणा, चेन्नई [संरक्षक) ३२. श्री बादलचंदजी जुगराजजी मेहता, इन्दौर १. श्री बिरदीचंदजी प्रकाशचंदजी तलेसरा, पाली ३३. श्री बादलचंदजी मोहनलालजी कोठारी, गोठन २. श्री ज्ञानराजजी केवलचन्दजी मूथा, पाली ३४. श्री हीरालालजी पन्नालालजी चौपड़ा, अजमेर ३. श्री प्रेमराजजी जतनराजजी मेहता. मेडता सिटी ३५. श्री मोहनलालजी पारसमलजी पगारिया, बैंगलोर ४. श्री श. जड़ावमलजी माणकचन्दजी बेताला, ३६. श्री भंवरीमलजी चोरड़िया, चेन्नई ३७. श्री भंवरलालजी गोठी, चेन्नई बागलकोट Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदस्य नामावली] ३८. श्री जालमचंदजी रिखबचंदजी बाफना, आगरा ३९. श्री घेवरचंदजी पुखराजजी भुरट, गोहाटी ४०. श्री जबरचन्दजी गेलड़ा, चेन्नई ४१. श्री जड़ावमलजी सुगनचन्दजी, चेन्नई ४२. श्री पुखराजजी विजयराजजी, चेन्नई ४३. श्री चेनमलजी सुराणा ट्रस्ट, चेन्नई ४४. श्री लूणकरणजी रिखबचंदजी लोढ़ा, चेन्नई ४५. श्री सूरजमलजी सज्जनराजजी मेहता, कोप्पल (सहयोगी सदस्य १. श्री देवकरणजी श्रीचन्दजी डोसी, मेड़तासिटी २. श्रीमती छगनीबाई विनायकिया, ब्यावर ३. श्री पूनमचन्दजी नाहटा, जोधपुर ४. श्री भंवरलालजी विजयराजजी कांकरिया, विल्लीपुरम् ५. श्री भंवरलालजी चौपड़ा, ब्यावर ६. श्री विजयराजजी रतनलालजी चतर, ब्यावर ७. श्री बी. गजराजजी बोकडिया, सेलम ८. श्री फूलचन्दजी गौतमचन्दजी कांठेड, पाली ९. श्री के. पुखराजजी बाफणा, चेन्नई १०. श्री रूपराजजी जोधराजजी मूथा, दिल्ली ११. श्री मोहनलालजी मंगलचंदजी पगारिया, रायपुर १२. श्री नथमलजी मोहनलालजी लूणिया, चण्डावल १३. श्री भंवरलालजी गौतमचन्दजी पगारिया, कुशालपुरा १४. श्री उत्तमचंदजी मांगीलालजी, जोधपुर १५, श्री मूलचन्दजी पारख, जोधपुर १६. श्री सुमेरमलजी मेड़तिया, जोधपुर १७. श्री गणेशमलजी नेमीचन्दजी टांटिया, जोधपुर १८. श्री उदयराजजी पुखराजजी संचेती, जोधपुर १९. श्री बादरमलजी पुखराजजी बंट, कानपुर २०. श्रीमती सुन्दरबाई गोठी धर्मपत्नी श्री ताराचंदजी गोठी, जोधपुर २१. श्री रायचन्दजी मोहनलालजी, जोधपुर २२. श्री घेवरचन्दजी रूपराजजी, जोधपुर २३. श्री भंवरलालजी अमरचन्दजी सुराणा, चेन्नई २४. श्री जंवरीलालजी अमरचन्दजी कोठारी, ब्यावर २५. श्री माणकचंदजी किशनलालजी, मेड़तासिटी २६. श्री मोहनलालजी गुलाबचन्दजी चतर, ब्यावर २७. श्री जसराजजी जंवरीलालजी धारीवाल, जोधपुर २८. श्री मोहनलालजी चम्पालालजी गोठी, जोधपुर २९. श्री नेमीचंदजी डाकलिया मेहता, जोधपुर ३०. श्री ताराचंदजी केवलचंदजी कर्णावट, जोधपुर ३१. श्री आसूमल एण्ड कं., जोधपुर ३२. श्री पुखराजजी लोढा, जोधपुर ३३. श्री सुगनीबाई धर्मपत्नी श्री मिश्रीलालजी सांड, जोधपुर ३४. श्री बच्छराजजी सुराणा, जोधपुर ३५. श्री हरकचन्दजी मेहता, जोधपुर ३६. श्री देवराजजी लाभचंदजी मेड़तिया, जोधपुर ३७. श्री कनकराजजी मदनराजजी गोलिया, जोधपुर ३८. श्री घेवरचन्दजी पारसमलजी टांटिया, जोधपुर ३९. श्री मांगीलालजी चोरड़िया, कुचेरा ४०. श्री सरदारमलजी सुराणा, भिलाई ४१. श्री ओकचंदजी हेमराजजी सोनी, दुर्ग ४२. श्री सूरजकरणजी सुराणा, चेन्नई ४३. श्री घीसूलालजी लालचंदजी पारख, दुर्ग ४४. श्री पुखराजजी बोहरा, (जैन ट्रान्सपार्ट कं.) जोधपुर ४५. श्री चम्पालालजी सकलेचा, जालना ४६. श्री प्रेमराजजी मीठालालजी कामदार, बैंगलोर ४७. श्री भंवरलालजी मूथा एण्ड सन्स, जयपुर ४८. श्री लालचंदजी मोतीलालजी गादिया, बैंगलोर ४९. श्री भंवरलालजी नवरत्नमलजी सांखला, मेटूपालियम ५०. श्री पुखराजजी छल्लाणी, करणगुल्ली ५१. श्री आसकरणजी जसराजजी पारख, दुर्ग ५२. श्री गणेशमलजी हेमराजजी सोनी, भिलाई ५३. श्री अमृतराजजी जसवन्तराजजी मेहता, मेड़तासिटी ५४. श्री घेवरचंदजी किशोरमलजी पारख, जोधपुर ५५. श्री मांगीलालजी रेखचंदजी पारख, जोधपुर ५६. श्री मुन्नीलालजी मूलचंदजी गुलेच्छा, जोधपुर ५७. श्री रतनलालजी लखपतराजजी, जोधपुर ५८. श्री जीवराजजी पारसमलजी कोठारी, मेड़तासिटी ५९. श्री भंवरलालजी रिखबचंदजी नाहटा, नागौर ६०. श्री मांगीलालजी प्रकाशचन्दजी रूणवाल, मैसूर ६१. श्री पुखराजजी बोहरा, पीपलिया कलां ६२. श्री हरकचंदजी जुगराजजी बाफना, बैंगलोर ६३. श्री चन्दनमलजी प्रेमचंदजी मोदी, भिलाई ६४. श्री भीवराजजी बाघमार, कुचेरा Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सदस्य नामावली ६५. श्री तिलोकचंदजी प्रेमप्रकाशजी, अजमेर १०१. श्री गूदड़मलजी चम्पालालजी, गोठन ६६. श्री विजयलालजी प्रेमचंदजी गुलेच्छा राजनांदगाँव १०२. श्री तेजराजजी कोठारी, मांगलियावास ६७. श्री रावतमलजी छाजेड़, भिलाई। १०३. श्री सम्पतराजजी चोरड़िया, चेन्नई ६८. श्री भंवरलालजी डूंगरमलजी कांकरिया, भिलाई १०४. श्री अमरचंदजी छाजेड, पादु बड़ी ६९. श्री हीरालालजी हस्तीमलजी देशलहरा, भिलाई १०५. श्री जुगराजजी धनराजजी बरमेचा, चेन्नई ७०. श्री वर्द्धमान स्थानकवासी जैन श्रावकसंघ, १०६. श्री पुखराजजी नाहरमलजी ललवाणी, चेन्नई दल्ली-राजहरा १०७. श्रीमती कंचनदेवी व निर्मला देवी, चेन्नई ७१. श्री चम्पालालजी बुद्धराजजी बाफणा, ब्यावर १०८. श्री दुलेराजजी भंवरलालजी कोठारी, कुशालपुरा ७२. श्री गंगारामजी इन्द्रचंदजी बोहरा, कुचेरा १०९. श्री भंवरलालजी मांगीलालजी बेताला, डेह ७३. श्री फतेहराजजी नेमीचंदजी कर्णावट, कोलकाता ११०. श्री जीवराजजी भंवरलालजी चोरड़िया, भैरूंदा ७४. श्री बालचंदजी थानचन्दजी भुरट, कोलकाता १११. श्री माँगीलालजी शांतिलालजी रूणवाल, हरसोलाव ७५. श्री सम्पतराजजी कटारिया, जोधपुर ११२. श्री चांदमलजी धनराजजी मोदी, अजमेर ७६. श्री जवरीलालजी शांतिलाल सुराणा, बोलारम ११३. श्री रामप्रसन्न ज्ञानप्रसार केन्द्र, चन्द्रपुर ७७. श्री कानमलजी कोठारी, दादिया ११४. श्री भूरमलजी दुलीचंदजी बोकड़िया, मेड़तासिटी ७८. श्री पन्नालालजी मोतीलालजी सुराणा, पाली ११५. श्री मोहनलालजी धारीवाल, पाली ७९. श्री माणकचंदजी रतनलालजी मुणोत, टंगला ११६. श्रीमती रामकुंवरबाई धर्मपत्नी श्री चांदमलजी लोढा. ८०. श्री चिम्मनसिंहजी मोहनसिंहजी लोढा, ब्यावर बम्बई ८१. श्री रिद्धकरणजी रावतमलजी भुरट, गोहाटी ११७. श्री माँगीलालजी उत्तमचंदजी बाफणा, बैंगलोर ८२. श्री पारसमलजी महावीरचंदजी बाफना, गोठन ११८. श्री सांचालालजी बाफणा, औरंगाबाद ८३. श्री फकीरचंदजी कमलचंदजी श्रीश्रीमाल, कुचेरा ११९. श्री भीखमचन्दजी माणकचन्दजी खाबिया, ८४. श्री माँगीलालजी मदनलालजी चोरड़िया, भैरूंदा (कुडालोर) चेन्नई ८५. श्री सोहनलालजी लूणकरणजी सुराणा, कुचेरा १२०. श्रीमती अनोपकुंवर धर्मपत्नी श्री चम्पालालजी ८६. श्री घीसूलालजी, पारसमलजी, जंवरीलालजी संघवी, कुचेरा कोठारी, गोठन १२१. श्री सोहनलालजी सोजतिया, थांवला श्री सरदारमलजी एण्ड कम्पनी, जोधपुर १२२. श्री चम्पालालजी भण्डारी, कोलकाता १. श्री चम्पालाल हीरालालजी बागरेचा, जोधपुर १२३. श्री भीखमचन्दजी गणेशमलजी चौधरी, धूलिया ८९. श्री पुखराजजी कटारिया, जोधपुर १२४. श्री पुखराजी किशनलालजी तातेड़, सिकन्दराबाद ९०. श्री इन्द्रचन्दजी मुकनचन्दजी, इन्दौर १२५. श्री मिश्रीलालजी सजनलालजी कटारिया, ९१. श्री भंवरलालजी बाफना, इन्दौर सिकन्दराबाद ९२. श्री जेठमलजी मोदी, इन्दौर १२६. श्री वर्द्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ, ९३. श्री अमरचन्दजी बालचन्दजी मोदी, ब्यावर बगड़ीनगर ९४. श्री कुन्दनमलजी पारसमलजी भंडारी, बैंगलोर १२७. श्री पुखराजजी पारसमलजी ललवाणी, बिलाड़ा ९५. श्रीमती कमलाकंवर ललवाणी धर्मपत्नी स्व. श्री १२८. श्री टी. पारसमलजी चोरडिया, चेन्नई पारसमलजी ललवाणी, गोठन १२९. श्री मोतीलालजी आसूलालजी बोहरा एण्ड कं., ९६. श्री अखेचन्दजी लूणकरणजी भण्डारी, कोलकाता बैंगलोर ९७. श्री सुगनचन्दजी संचेती, राजनांदगाँव १३०. श्री सम्पतराजजी सुराणा, मनमाड़ ९८. श्री प्रकाशचंदजी जैन, नागौर ९९. श्री कुशालचंदजी रिखबचन्दजी सुराणा, बोलारम १००. श्री लक्ष्मीचंदजी अशोककुमारजी श्रीश्रीमाल, कुचेरा 00 Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर द्वारा प्रकाशित आगम-सूत्र नाम अनुवादक-सम्पादक आचारांगसूत्र [दो भाग] श्रीचन्द सुराना 'सरस' उपासकदशांगसूत्र डॉ. छगनलाल शास्त्री (एम. ए. पी-एच. डी.) ज्ञाताधर्मकथांगसूत्र पं. शोभाचन्द्र भारिल्ल अन्तकृद्दशांगसूत्र साध्वी दिव्यप्रभा (एम. ए., पी-एच.डी) अनुत्तरौपपातिकसूत्र साध्वी मुक्तिप्रभा (एम. ए., पी-एच.डी) स्थानांगसूत्र पं. हीरालाल शास्त्री समवायांगसूत्र पं. हीरालाल शास्त्री सूत्रकृतांगसूत्र श्रीचन्द सुराना 'सरस' विपाकसूत्र अनु. पं. रोशनलाल शास्त्री सम्पा. पं. शोभाचन्द्र भारिल्ल नन्दीसूत्र अनु. साध्वी उमरावकुंवर 'अर्चना' सम्पा. कमला जैन 'जीजी' एम. ए. औपपातिकसूत्र डॉ. छगनलाल शास्त्री व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [चार भाग] श्री अमरमुनि राजप्रश्नीयसूत्र वाणीभूषण रतनमुनि, सं. देवकुमार जैन प्रज्ञापनासूत्र [तीन भाग] जैनभूषण ज्ञानमुनि प्रश्नव्याकरणसूत्र अनु. मुनि प्रवीणऋषि सम्पा. पं. शोभाचन्द्र भारिल्ल उत्तराध्ययनसूत्र श्री राजेन्द्रमुनि शास्त्री निरयावलिकासूत्र श्री देवकुमार जैन दशवैकालिकसूत्र महासती पुष्पवती आवश्यकसूत्र महासती सुप्रभा (एम. ए. पीएच. डी.) जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र डॉ. छगनलाल शास्त्री अनुयोगद्वारसूत्र उपाध्याय श्री केवलमुनि, सं. देवकुमार जैन सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्र सम्पा. मुनि श्री कन्हैयालालजी 'कमल' जीवाजीवाभिगमसूत्र [दो भाग] श्री राजेन्द्र मुनि निशीथसूत्र मुनिश्री कन्हैयालाल जी 'कमल', श्री तिलोकमुनि त्रीणिछेदसूत्राणि मुनिश्री कन्हैयालाल जी 'कमल', श्री तिलोकमुनि श्री कल्पसूत्र (पत्राकार) उपाध्याय मुनि श्री प्यारचंद जी महाराज श्री अन्तकृद्दशांगसूत्र (पत्राकार) उपाध्याय मुनि श्री प्यारचंदजी महाराज विशेष जानकारी के लिये सम्पर्कसूत्र आगम प्रकाशन समिति श्री ब्रज-मधुकर स्मृति भवन, पीपलिया बाजार, ब्यावर-३०५९०१ मेहता आफॅसेट, ब्यावर 201462 - 253990, 9829251990