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________________ [ जीवाजीवाभिगमसूत्र ५८ ] इन द्वारों का परस्पर अन्तर संख्यात लाख योजन का है। प्रदेशस्पर्श संबंधी तथा जीवों की उत्पत्ति का कथन भी पूर्ववत् कह लेना चाहिए । भगवन् ! पुष्करोदसमुद्र, पुष्करोदसमुद्र क्यों कहा जाता है ? गौतम ! पुष्करोदसमुद्र का पानी स्वच्छ, पथ्यकारी, जातिवंत (विजातीय नहीं,) हल्का, स्फटिकरल की आभा वाला तथा स्वभाव से ही उदकरस वाला (मधुर) है; श्रीधर और श्रीप्रभ नाम के दो महर्द्धिक यावत् पल्योपम की स्थिति वाले देव वहां रहते हैं। इससे उसका जल वैसे ही सुशोभित होता है जैसे चन्द्र-सूर्य और ग्रह-नक्षत्रों से आकाश सुशोभित होता है इसलिए पुष्करोद, पुष्करोद, कहलाता है यावत् वह नित्य होने से अनिमित्तिक नाम वाला भी है। भगवन् ! पुष्करोदसमुद्र में कितने चन्द्र प्रभासित होते थे, होते हैं और होंगे आदि प्रश्न पूर्ववत् करना चाहिए ? गौतम ! संख्यात चन्द्र प्रभासित होते थे, होते हैं और होंगे आदि पूर्ववत् कथन करना चाहिए यावत् संख्यात कोटी-कोटी तारागण वहां शोभित होते थे, होते हैं और शोभित होंगे। १८०. (आ) पुक्खरोदे णं समुद्दे वरूणवरेणं दीवेणं संपरिक्खित्ते वट्टे वलयागारे जाव चिट्ठइ, तहेव समचक्कवालसंठिए । केवइयं चक्कवालविक्खंभेणं ? केवइयं परिक्खेवेणं पण्णत्ते ? गोयमा ! संखे जाईं जोयणसयसहस्साइं चक्क वालविक्खं भेणं संखेज्जाई जोयणसयसहस्साइं परिक्खेवेणं पण्णत्ते, पउमवरवेइयावणसंडवण्णओ । दारंतरं, परसा, जीवा तहेव सव्वं । सेकेणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ - वरूणवरे दीवे वरूणवरे दीवे ? गोयमा ! वरूणवरे णं दीवे तत्थ - तत्थ देसे - देसे तर्हि तहिं बहुओ खुड्डा - खुडियाओ जाव बिलपंतियाओ अच्छाओ पत्तेयं - पत्तेयं पउमवर वेइयावनसंड परिक्खित्ताओ वारूणिवरोदगपडिहत्थाओ पासाईयाओ ४ । तासु खुड्डा खुड्डियासु जाव बिलपंतिया सु बहवे उप्पायपव्वया जाव णं हडहडगा सव्वफलियामया अच्छा तहेव वरूणवरूणप्पभा य एत्थ दो देवा महिड्डिया परिवसंति, से तेणट्ठेणं जाव णिच्चे । जोतिसं सव्वं संखेज्जगेणं जाव तारागणकोडीओ । १८०. (आ) गोल और वलयाकार पुष्करोद नाम का समुद्र वरूणवरद्वीप से चारों ओर से घिरा हुआ स्थित है । पूर्ववत् कथन करना चाहिए यावत् वह समचक्रवालसंस्थान से संस्थित हैं । भगवन् ! उसका चक्रवालविष्कंभ और परिधि कितनी है ? गौतम ! वरूणवरद्वीप का विष्कंभ संख्यात लाख योजन का है और संख्यात लाख योजन की
SR No.003455
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_jivajivabhigam
File Size5 MB
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