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________________ ६८] [जीवाजीवाभिगमसूत्र ही गोमानुषी (शय्यारूप स्थानविशेष) हैं । उसी तरह उल्लोक (छत, चन्देवा) और भूमिभाग का वर्णन जानना चाहिए। यावत् मध्यभाग में मणिपीठिका है जो सोलह योजन लम्बी-चौड़ी, कुछ अधिक सोलह योजन ऊँचे हैं, सर्वरत्नमय हैं । इन देवच्छंदकों में १०८ जिन प्रतिमाएं हैं । जिनका सब वर्णन वैमानिक की विजया राजधानी के सिद्धायतनों के समान जानना चाहिए। __ १८३. (ग) तत्थ णं जे से पुरथिमिल्ले अंजणपव्वए, तस्स णं चउद्दिसिं चत्तारि णंदाओ पुक्खरिणीओ पण्णत्ताओ, तं जहा णंदुत्तरा, य णंदा, आणंदा णंदिवद्वणा। नंदिसेणा अमोघा य गोथूभा य सुदंसणा॥ ताओ णं णंदापुक्खरिणीओ एगमेगंजोयणसयसहस्सं आयामविक्खंभेणं, दस जोयणाई उव्वेहेणं अच्छाओ सण्हाओ पत्तेयं पत्तेयं पउमवरवेइयापरिक्खित्ताओ पत्तेयं पत्तेयं वणसंडपरिक्खित्ताओ, तत्थ तत्थ जाव सोवाणपडिरूवगा, तोरणा। तासिं णं पुक्खरिणीणं वहु मज्झदेसभाए पत्तेयं पत्तेयं दहिमुहपव्वया चउसट्ठि जोयणसहस्साई उड्ढं उच्चत्तेणं एगंजोयणसहस्सं उव्वेहेणं सव्वत्थ समा पल्लगसंठाणसंठिया दस जोयणसहस्साई विक्खंभेणं इक्कतीसं जोयणसहस्साइं छच्च तेवीसे जोयणसए परिक्खेवेणं पण्णत्ता,सव्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा। तहा पत्तेयं पत्तेयं पउमवरवेइया० वणसंडवण्णओ। बहुसम० जाव आसयंति सयंति । सिद्धाययणं चेव पमाणं अंजणपव्वएसु. सच्चेव वत्तव्वया णिरवसेसं भाणियव्वं जाव अट्ठट्ठमंगलगा। १८३. (ग) उनमें जो पूर्वदिशा का अंजनपर्वत हैं , उसकी चारों दिशाओं में चार नंदा पुष्करिणियां हैं । उनके नाम हैं -नंदुत्तरा, नंदा, आनंदा और नंदिवर्धना । (नंदिसेना, अमोघा, गोस्तूपा और सुदर्शनाये नाम भी कहीं-कहीं कहे गये हैं।) ये नंदा पुष्करिणियां एक लाख योजन की लम्बी-चौड़ी है, इनकी गहराई दस योजन की है। ये स्वच्छ हैं , श्लक्ष्ण हैं । प्रत्येक के आसपास चारों ओर पद्मवरवेदिका और वनखंड हैं। इनमें त्रिसोपान-पंक्तियां और तोरण हैं । उन प्रत्येक पुष्करिणियों के मध्यभाग में दधिमुखपर्वत हैं जो चौसठ हजार योजन ऊँचे, एक हजार योजन जमीन में गहरे और सब जगह समान हैं । ये पल्यंक के आकार के हैं। दस हजार योजन की इनकी चौड़ाई है। इकतीस हजार छ सौ तेवीस इनकी परिधि है। ये सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं यावत् प्रतिरूप हैं। इनके प्रत्येक के चारों ओर पद्मरवेदिका और वनखण्ड हैं। यहां इनका वर्णनक कहना चाहिए। उनमें बहुसमरमणीय भूमिभाग हैं यावत् वहां बहुत वान-व्यन्तर देव-देवियां बैठते हैं और लेटते हैं और पुण्यफल का अनुभव करते हैं । सिद्धायतनों का प्रमाण अंजनपर्वत के सिद्धायतनों के समान जानना चाहिए, सब वक्तव्यता वैसी ही कहनी चाहिए यावत् आठ-आठ मंगलों का कथन करना चाहिए। १८३. (घ) तत्थ णं जे से दक्खिणिल्ले अंजणपव्वए तस्स णं चउद्दिसिं चत्तारि
SR No.003455
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_jivajivabhigam
File Size5 MB
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