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[ जीवाजीवाभिगमसूत्र
१७९. भदन्त ! मनुष्यक्षेत्र के अन्दर जो चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारागण हैं, वे ज्योतिष्क देव क्या ऊर्ध्वविमानों में (बारह देवलोक से ऊपर के विमानों में) उत्पन्न हुए हैं या सौधर्म आदि कल्पों में उत्पन्न हुए हैं या (ज्योतिष्क) विमानों में उत्पन्न हुए हैं ? वे गतिशील हैं या गतिरहित हैं ? गति में ि करने वाले हैं और गति को प्राप्त हुए हैं ?
गौतम ! वे देव ऊर्ध्वविमानों में उत्पन्न नहीं हुए हैं, बारह देवकल्पों में उत्पन्न नहीं हुए हैं, किन्तु ज्योतिष्क विमानों में उत्पन्न हुए हैं । वे गतिशील हैं, स्थितिशील नहीं हैं, गति में उनकी रति हैं और वे गतिप्राप्त हैं । वे ऊर्ध्वमुख कदम्ब के फूल की तरह गोल आकृति से संस्थित है हजारों योजन प्रमाण 'उनका तापक्षेत्र है, विक्रिया द्वारा नाना रूपधारी बाह्य पर्षदा के देवों से ये युक्त हैं । जोर से बजने वाले वाद्यों, नृत्यों, गीतों, वादित्रों, तंत्री, ताल, त्रुटित, मृदंग आदि की मधुर ध्वनि के साथ दिव्य भोगों का उपभोग करते हुए, हर्ष से सिंहनाद, बोल ( मुख से सीटी बजाते हुए) और कलकल ध्वनी करते हुए, स्वच्छ पर्वतराज मेरू की प्रदक्षिणावर्त मंडलगति से परिक्रमा करते रहते हैं ।
भगवन् ! जब उन ज्योतिष्क देवों का इन्द्र च्यवता है तब वे देव इन्द्र के विरह में क्या करते हैं ? गौतम ! चार-पांच सामानिक देव सम्मिलित रूप से उस इन्द्र के स्थान पर तब तक कार्यरत रहते हैं तब तक कि दूसरा इन्द्र वहां उत्पन्न हो।
भगवन् ! इन्द्र का स्थान कितने समय तक इन्द्र की उत्पत्ति से रहित रहता है ?
गौतम ! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छह मास तक इन्द्र का स्थान खाली रहता है ।
भदन्त ! मनुष्यक्षेत्र से बाहर के चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारा रूप ये ज्योतिष्क देव क्या. ऊर्ध्वोपपन्न हैं, कल्योपपन्न हैं, विमानोपपन्न हैं, गतिशील हैं या स्थिर हैं, गति में रति करने वाले हैं और क्या गति प्राप्त हैं ?
गौतम ! वे देव ऊर्ध्वोपपन्नक नहीं हैं, कल्पोपपन्नक नहीं हैं, किन्तु विमानोपपन्नक हैं । वे गतिशील नहीं हैं, वे स्थिर हैं, वे गति में रति करने वाले नहीं हैं, वे गति प्राप्त नहीं हैं। वे पकी हुई ईंट के आकार के हैं, लाखों योजन का उनका तापक्षेत्र है । वे विकुर्वित हजारों बाह्य परिषद् के देवों के साथ जोर से बजने वाले वाद्यों, नृत्यों, गीतों और वादित्रों की मधुर ध्वनि के साथ दिव्य भोगोपभोगों का अनुभव करते हैं। वे शुभ प्रकाश वाले हैं, उनकी किरणें शीतल और मंद (मृदु) हैं, उनका आतप और प्रकाश उग्र नहीं हैं, विचित्र प्रकार का उनका प्रकाश है। कूट (शिखर) की तरह ये एक स्थान पर स्थित हैं ! इन चन्द्रों और सूर्यों आदि का प्रकाश एक दूसरे से मिश्रित हैं। वे अपनी मिली-जुली प्रकाश M किरणों से उस प्रदेश को सब ओर से अवभासित, उद्योतित, तपित और प्रभासित करते हैं ।
भदंत ! जब इन देवों का इन्द्र च्चवित होता हैं तो वे देव क्या करते हैं ?
गौतम ! यावत् चार-पांच सामानिक देव उसके स्थान पर सम्मिलित रूप से तब तक कार्यरत रहते हैं जब तक कि दूसरा इन्द्र वहां उत्पन्न हो ।
भगवन् ! उस इन्द्र-स्थान का विरह कितने काल तक होता है ?