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________________ १७६] [जीवाजीवाभिगमसूत्र होकर क्षपक श्रेणी को प्राप्त करेगा। सादि-सपर्यवसित अज्ञानी वह है जो सम्यग्दृष्टि बनकर मिथ्यादृष्टि बन गया हो। ऐसा अज्ञानी जघन्य से अन्तर्मुहूर्तकाल उसमें रहकर फिर सम्यग्दृष्टि बन सकता है, इस अपेक्षा से उसकी संचिट्ठणा जघन्य अन्तर्मुहूर्त कही है और उत्कर्ष से अनन्तकाल है, जो अनन्त उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी रूप है तथा क्षेत्र से देशोन अपार्धपुद्गलपरावर्त है। ___अन्तरद्वार-सादि-अपर्यवसित ज्ञानीका अन्तर नहीं होता, क्योंकि अपर्यवसित होने से वह कभी उस रूप का त्याग नहीं करता। सादि-सपर्यवसित ज्ञानी का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त है। इतने काल तक मिथ्यादर्शन में रहकर फिर ज्ञानी हो सकता है। उत्कर्ष से अनन्तकाल (अनन्त उत्सर्पिणीअवसर्पिणी रूप) है, जो क्षेत्र से देशोन अपार्धपुद्गलपरावर्त रूप है। क्योंकि सम्यग्दृष्टि, सम्यक्त्व से गिरकर इतने काल तक मिथ्यात्व का अनुभव करके अवश्य ही फिर सम्यक्त्व पाता है। अज्ञानी का अन्तर बताते हुए कहा है कि अनादि-अपर्यवसित अज्ञानीका अन्तर नहीं है, क्योंकि वह अपर्यवसित होने से उस भाव का त्याग नहीं करता। अनादि-सपर्यवसित अज्ञानी का भी अन्तर नहीं हैं, क्योंकि केवलज्ञान प्राप्त करने पर वह जाता नहीं है। सादि-सपर्यवसित अज्ञानी का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि जघन्य सम्यग्दर्शन का काल इतना ही है। उत्कर्ष से साधिक छियासठ सागरोपम का अन्तर है, क्योंकि सम्यग्दर्शन से गिरने के बाद इतने काल तक अज्ञानी रह सकता है। अल्पबहुत्व सूत्र स्पष्ट ही है । ज्ञानियों से अज्ञानी अनन्तगुण हैं । अज्ञानी वनस्पतिजीव अनन्त हैं। अथवा सब जीवों के दो भेद उपयोग को लेकर किये गये हैं। दो प्रकार के उपयोग हैं-साकारउपयोग और अनाकार-उपयोग। उपयोग की द्विरूपता के कारण सब जीव भी दो प्रकार के हैं-साकारउपयोग वाले और अनाकार-उपयोग वाले। ___ इन दोनों की संचिट्ठणा और अन्तर जघन्य और उत्कृष्ट दोनों अपेक्षा से अन्तर्मुहूर्त है। यहां टीकाकार लिखते हैं कि सूत्रगति विचित्र होने से यहां सब जीवों से तात्पर्य छद्मस्थ ही लेने चाहिए, केवली नहीं। क्योंकि केवलियों का साकार-अनाकार उपयोग एक सामयिक होने से कायस्थिति और अन्तरद्वार में एक सामयिक भी कहा जाना चाहिए, जो नहीं कहा गया है। वह "अन्तर्मुहूर्त" ही कहा गया है, जो छद्मस्थों में होता है। अल्पबहुत्वद्वार में सबसे थोड़े अनाकार-उपयोग वाले हैं, क्योंकि अनाकार-उपयोग का काल अल्प होने से पृच्छा के समय वे अल्प ही प्राप्त होते हैं। साकार-उपयोग वाले उनसे संख्येयगुण हैं, क्योंकि अनाकार-उपयोग के काल से साकार-उपयोग का काल संख्येयगुण है। २३४. अहवा दुविहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तं जहा-आहारगा चेव अणाहारगा चेव। आहारए णं भंते! जाव केवचिरं होइ ? गोयमा! आहारए दुविहे पण्णत्ते, तं जहाछउमत्थआहारए य केवलिआहारए य। छउमत्थआहारए णं जाव केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहण्णेणं खुड्डागं भवग्गहणं दुसमयऊणं उक्कोसेणं असंखेज्जकालं जाव कालओ० खेत्तओ अंगुलस्स असंखेज्जइभागं। केवलिआहारए णं जाव केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं
SR No.003455
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_jivajivabhigam
File Size5 MB
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