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तृतीय प्रतिपत्ति: घृतवर, घृतोद, क्षोदवर, क्षोदोद की वक्तव्यता ]
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भरी हुई हैं। वहां उत्पात पर्वत यावत् खडहड आदि पर्वत हैं, वे सर्वकंचनमय स्वच्छ यावत् प्रतिरूप हैं। वहां कनक और कनकप्रभ नाम के दो महर्द्धिक देव रहते हैं। उसके ज्योतिष्कों की संख्या संख्यात संख्यात है ।
उक्त घृतवरद्वीप को घृतोद नामक समुद्र चारों ओर से घेरकर स्थित है । वह गोल और वलय की आकृति से संस्थित है । वह समचक्रवालसंस्थान वाला है। पूर्ववत् द्वार, प्रदेशस्पर्शना, जीवोत्पत्ति और नाम का प्रयोजन सम्बन्धी प्रश्न कहने चाहिए ।
गौतम ! घृतोदसमुद्र का पानी गोघृत के मंड (सार) के जैसा श्रेष्ठ है ।' (घी के ऊपर जमे हुए थर को मंड कहते हैं) यह गोघृतमंड फूले हुए सल्लकी, कनेर के फूल, सरसों के फूल, कोरण्ट की माला की तरह पीले वर्ण का होता है, स्निग्धता के गुण से युक्त होता है, अग्निसंयोग से चमकवाला होता है, यह निरूपहत और विशिष्ट सुन्दरता से युक्त होता है, अच्छी तरह जमाये हुए दही को अच्छी तरह मथित करने पर प्राप्त मक्खन को उसी समय तपाये जाने पर, अच्छी तरह उकाले जाने पर उसे अन्यत्र न ले जाते हुए उसी स्थान पर तत्काल छानकर कचरे आदि के उपशान्त होने पर उस पर जो थर जम जाती, वह जैसे अधिक सुगन्ध से सुगन्धित, मनोहर, मधुर परिणाम वाली और दर्शनीय होती है, वह पथ्यरूप, निर्मल और सुखोपभोग्य होती है, ऐसे शरत्कालीन गोघृतवरमंड के समान वह घृतोद का पानी होता है क्या, यह पूछने पर भगवान् कहते हैं - गौतम! वह घृतोद का पानी इससे भी अधिक इष्टतर यावत् मन को तृप्त करने वाला है। वहां कान्त और सुकान्त नाम के दो महर्द्धिक देव रहते हैं। शेष सब कथन पूर्ववत् करना चाहिए यावत् वहां संख्यात तारागण कोटिकोटि शोभित होती थी, शोभित होती है और शोभित होगी।
१८२. (आ) घयोदं णं समुद्दं खोदवरे णामं दीवे वट्टे वलयागारसंठाणसंठिए जाव चिट्ठइ तहेव जाव अट्ठो ।
खोयवरे णं दीवे तत्थ - तत्थ देसे तहिं तहिं खुड्डा वावीओ जाव खोदोदगपडिहत्थाओ, उप्पायपव्वया, सव्ववेरूलियामया जाव पडिरूवा । सुप्पभमहप्पभा य दो देवा महिड्डिया जाव परिवति । से एणद्वेणं सव्वं जोतिसं तं चेव जाव तारागणकोडिकोडीओ ।
खोयवरं णं दीवं खोदोदे णामं समुद्दे वट्टे वलयागारसंठाणसंठिए जाव संखेज्जाई जोयणसयसहस्साइं परिक्खेवेणं जाव अट्ठो ।
गोयमा ! खोदोदस्स णं समुद्दस्स उदए से जहाणामए - आलस-मासल-पसत्थ-वीसंतनिद्धसुकमाल - भूमिभागे सुच्छिन्ने सुकट्ठ लट्ठ विसिट्ठ निरू वह याजीयवाविते - सुकासगपयत्तनिउणपरिकम्म- अणुपालिय- सुवुड्ढिवुड्डाणं सुजाताणं लवणतणदोसवज्जियाणं णयाय-परिवढियाणं निम्मातसुंदराणं रसेणं परिणय-मउपीणपोरभंगुरसुजायमहुररसपुप्फ
१. "घृतमण्डो घृतसार:'
"
-- इति मूल टीकाकार