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[ जीवाजीवाभिगमसूत्र
वज्ररत्न की हैं, आकाश और स्फटिक के समान स्वच्छ हैं, यावत् प्रतिरूप हैं। इन कुड्यों (भित्तियों) में बहुत से जीव उत्पन्न होते है और निकलते हैं, बहुत से पुदगल एकत्रित होते रहते हैं। और बिखरते रहते हैं, वहां पुद्गलों का चय - अपचय होता रहता है । वे कुड्य (भित्तियां) द्रव्यार्थिक नय की अपक्षा से शाश्वत हैं और वर्ण-गंध-रस स्पर्शादि पर्यायों से अशाश्वत हैं। उन पातालकलशों में पल्योपम की स्थिति वाले चार महर्द्धिक देव रहते हैं, उनके नाम हैं- काल, महाकाल, वेलंब और प्रभंजन ।
न महापातालकलशों के तीन त्रिभाग कहे गये हैं - १. निचला त्रिभाग २. मध्य का त्रिभाग और ३. ऊपर का त्रिभाग। ये प्रत्येक त्रिभाग तेतीस हजार तीन सौ तेतीस योजन और एक योजन का त्रिभाग (३३३३३ १/३) जितने मोटे हैं। इनके निचले त्रिभाग में वायुकाय है, मध्यम त्रिभाग में वायुकाय और अपकाय है और ऊपर के त्रिभाग में केवल अप्काय है। इसके अतिरिक्त हे गौतम! लवणसमुद्र में इन महापातालकलशों के बीच में छोटे कुम्भ की आकृति के छोटे-छोटे बहुत से छोटे पातालकलश हैं। वे छोटे पातालकलश एक-एक हजार योजन पानी में गहरे प्रविष्ट हैं, एक-एक सौ योजन की चौड़ाई वाले हैं और एक-एक प्रदेश की श्रेणी से वृद्धिगत होते हुए मध्य में एक हजार योजन के चौड़े हो गये हैं और फिर एक-एक प्रदेश की श्रेणी से हीन होते हुए मुखमूल में ऊपर एक-एक सौ योजन के चौड़े रह गये हैं ।
उन छोटे पातालकलशों की भित्तियां सर्वत्र समान हैं और दस योजन की मोटी हैं, सर्वात्मना वज्रमय है स्वच्छ हैं यावत् प्रतिरूप हैं । उनमें बहुत से जीव उत्पन्न होते हैं, निकलते हैं, बहुत से पुदगल एकत्रित होते हैं, बिखरते हैं, उन पुदगलों का चय- अपचय होता रहता है । वे भित्तियां द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा शाश्वत हैं और वर्णादि पर्यायों की अपेक्षा अशाश्वत हैं। उन छोटे पातालकलशों में प्रत्येक में अर्धपल्योपम की स्थिति वाले देव रहते हैं ।
उन छोटे पातालकलशों के तीन त्रिभाग कहे गये हैं - १. निचला त्रिभाग २. मध्य का त्रिभाग और ३. ऊपर का त्रिभाग। ये त्रिभाग तीन सौ तेतीस योजन और योजन का त्रिभाग ( ३३३ 1/3 ) प्रमाण मोटे हैं। इनमें से निचले त्रिभाग में वायुकाय है, मझले त्रिभाग में वायु काय और अपकाय है और ऊपर के त्रिभाग में अपकाय है । इस प्रकार पूर्वापर सब मिलाकर लवणसमुद्र में सात हजार आठ सौ चौरासी (७८८४) पातालकलश कहे गये हैं ।
बहुत
उन महापाताल ओर क्षुद्रपाताल कलशों के निचले और बिचले त्रिभागों में से उर्ध्वगमन स्वभाव वाले अथवा प्रबल शक्ति वाले वायुकाय उत्पन्न होने के अभिमुख होते हैं, संमूर्च्छन जन्म से आत्मलाभ करते हैं, कंपित होते हैं, विशेषरूप से कंपित होते हैं, जोर से चलते हैं, परस्पर में घर्षित होते हैं, शक्तिशाली होकर इधर-उधर और ऊपर फैलते हैं, इस प्रकार वे भिन्न-भिन्न भाव में परिणत होते हैं तब वह समुद्र का पानी उनसे क्षुभित होकर ऊपर उछाला जाता । जब उन महापाताल और क्षुद्रपाताल कलशों के निचले और बिचले त्रिभागों में बहुत से प्रबल शक्तिवाले वायुकाय उत्पन्न नहीं
१. उक्तं च- जोयणसयवित्थिण्णा मूले उवरिं दससयाणि मज्झमि ।
ओगाढा य सहस्सं दसजोयणिया य से कुड्डा ॥
- संग्रहणीगाथा