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________________ तृतीय प्रतिपत्ति: लवणशिखा की वक्तव्यता ] [ ७ होते यावत् उस-उस भाव में परिणत नहीं होते तब वह पानी नहीं उछलता है। अहोरात्र में दो बार (प्रतिनियत काल में ) और पक्ष में चतुर्दशी आदि तिथियों में (तथाविध जगत् स्वभाव से) लवणसमुद्र का पानी उन वायुकाल से प्रेरित होकर विशेष रूप से उछलता है । प्रतिनियत काल को छोड़कर अन्य समय में नहीं उछलता है । इसलिए हे गौतम! लवणसमुद्र का जल चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णिमा तिथियों में विशेष रूप से बढ़ता है और घटता है ( अर्थात लवणसमुद्र में ज्वार और भाटा का क्रम चलता है । जब उन्नामक वायुकाय का सद्भाव होता है तब जलवृद्धि और जब उन्नामक वायु अभाव होता है तब जलवृद्धि का अभाव होता है ।) १५७. लवणे णं भंते! समुद्दे तीसाए मुहुत्ताणं कतिखुत्तो अतिरेगं अतिरेगं वड्डइ वा हायइ वा? गोयमा! लवणे णं समुद्दे तीसाए मुहुत्ताणं दुक्खुत्तो अतिरेगं अतिरेगं वड्ढइ वा हायइ वा । से केणट्ठे भंते! एवं बुच्चई, लवणे णं समुद्दे तीसाए मुहुत्ताणं दुक्खुत्तो अतिरेगं अतिरेगं वड्ढइ वा हायइ वा ? गोयमा! उड्ढमंतेसु पायालेसु वड्ढइ आपूरिएसु पायालेसु हायइ, से तेणट्ठेणं, गोयमा ! लवणे णं समुद्दे तीसाए मुहुत्ताणं दुक्खुत्तो अतिरेगं अतिरेगं वड्ढइ वा हायइ वा । १५७. . हे भगवन् ! लवणसमुद्र ( का जल ) तीस मुहूर्तो में ( एक अहोरात्र में ) कितनी बार विशेषरूप से बढ़ता है या घटता है ? हे गौतम! लवणसमुद्र का जल तीस मुहूर्तों में (एक अहोरात्र में ) दो बार विशेष रूप से उछलता है और घटता है। हे भगवन् ! ऐसा क्यों कहा जाता कि उछलता है और फिर घटता है ? लवणसमुद्र का जल तीस मुहूर्तों में दो बार विशेष रूप से हे गौतम! निचले और मध्य के त्रिभागों में जब वायु के संक्षोभ से पातालकलशों में से पानी ऊँचा उछलता है तब समुद्र में पानी बढ़ता है और जब वे पातालकलश वायु के स्थिर होने पर जल से आपूरित बने रहते है, तब पानी घटता है । इसलिए हे गौतम! ऐसा कहा जाता है कि लवणसमुद्र तीस मुहूर्तों में दो बार विशेष रूप से उछलता है और घटता है । ( तथाविध जगत्-स्वभाव होने से ऐसी स्थिति एक अहोरात्र में दो बार होती है ।) लवणशिखा की वक्तव्यता १५८. लवणसिहा णं भंते ! केवइयं चक्कवालविक्खंभेणं केवइयं अइरेगं वड्ढइ वा हायइ २. उक्तं च-अन्ने वि य पायाला खुड्डालंजरगसंठिया लवणे । अट्ठसया चुलसीया सत्त सहस्सा य सव्वे वि ॥ १ ॥ पायालाण विभागा सव्वाण वि तिन्नि तिन्नि विन्नेया । मिभागे वाऊ, मज्झे वाऊ य उदगं य ॥२॥ उवरिं उदगं भणियं पढमगबीएसु वाउ संखुभिओ । उड्ढं वामेइ उदगं परिवड्ढइ जलनिही खुभिओ ॥ ३ ॥ - संग्रहणीगाथाएं
SR No.003455
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_jivajivabhigam
File Size5 MB
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