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________________ तृतीय प्रतिपत्ति : गोतीर्थ प्रतिपादन ] [ २९ दोनों तरफ समतल भूभाग की अपेक्षा क्रम से जलवृद्धि होने के कारण नाव के आकार का कहा है। उद्वेध का जल और जलवृद्धि का जल एकत्र मिलने की अपेक्षा से सीप के पुट के आकार का कहा है। दोनों तरफ ९५ हजार योजन पर्यन्त उन्नत होने से सोलह हजार योजन प्रमाण ऊँची शिखा होने से अश्वस्कन्ध की आकृति वाला कहा गया है। दस हजार योजन प्रमाण विस्तार वाली शिखा वलभीगृहाकार प्रतीत होने से वलभी (भवन की अट्टालिका - चांदनी) के आकार का कहा गया है। लवणसमुद्र गोल तथा चूड़ी के आकार का है। लवणसमुद्र का चक्रवाल- विष्कंभ, परिधि, उद्वेध, उत्सेध और समग्र प्रमाण मूलार्थ से ही स्पष्ट है । १७३. जइ णं भंते ! लवणसमुद्दे दो जोयणसयसहस्साइं चक्कवालविक्खंभेणं पण्णरस जोयण-सयसहस्साइं एकासीइं च सहस्साइं सयं इगुयालं किंचिविसेसूणा परिक्खेवेणं एगं जोयणसहस्सं उव्वेहेणं सोलस जोयणसहस्साइं उस्सेहेणं सत्तरस जोयणसहस्साइं सव्वग्गेणं पण्णत्ते, कम्हा णं भंते ! लवणसमुद्दे जंबूद्दीवं दीवं नो उवीलेति नो उप्पीलीलेइ नो चेव णं एक्कोदगं करे ? • गोयमा ! जंबुद्दीवे णं दीवे भरहेरवएसु वासेसु अरहंत चक्कवट्टि बलदेवा वासुदेवा चारणा 'विज्जाधरा समणा समणीओ सावया सावियाओ मणुया पगइभद्दया पगइविणीया पगइउवसंता १. यहां पूर्वाचार्यों ने लवणसमुद्र के घन और प्रतर का गणित भी निकाला है जो जिज्ञासुओं के लिए यहां दिया जा रहा है। प्रतरभावना इस प्रकार है- लवणसमुद्र के दो लाख योजन विस्तार में से दस हजार योजन निकाल कर शेष राशि का आधा किया जाता है - ऐसा करने से ९५००० की राशि होती है। इस राशि में पहले के निकाले हुए दस हजार की राशि मिला दी जाती है तो १०५००० होते हैं। इस राशि को कोटी कहा जाता है। इस कोटी से लवणसमुद्र का मध्यभागवर्ती परिरय (परिधि ) ९४८६८३ का गुणा किया जाता है तो प्रतर का परिमाण निकल आता है। वह परिणाम है- ९९६११७१५००० । कहा है वित्थाराओ सोहिय दस सहस्साइं सेस अद्धम्मि । तं चैव पक्खिवित्ता लवणसमुद्दस्स सा कोडी ॥१ ॥ लक्खं पंचसहस्सा कोडीए तीए संगुणेऊणं । लवणस्स मज्झपरिहि ताहे पयरं इमं होइ ॥ २ ॥ नवनउई कोडिया एगट्ठी कोडिलक्खसत्तरसा । पन्नरस सहस्साणि य पयरं लवणस्स णिद्दिद्धं ॥ ३ ॥ घनगणित इस प्रकार है-लवणसमुद्र की १६००० योजन की शिखा और एक हजार योजन उद्वेध कुल सत्तरह हजार योजन की संख्या से प्राक्तन प्रतर के परिमाण को गुणित करने से लवणसमुद्र का घन निकल आता है। वह है१६९३३९९१५५०००००० योजन। कहा है जोयणसहस्स सोलह लवणसिहा अहोगया सहस्सेगं । पयरं सत्तरसहस्सगुणं लवणघणगणियं ॥१॥ सोलस कोडाकोडी ते णउइ कोडिसयसहस्साओ । उणयालीसहस्सा नवकोडिसया य पन्नरसा ॥२॥ (आगे के पृष्ठ में)
SR No.003455
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_jivajivabhigam
File Size5 MB
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