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.. [जीवाजीवाभिगमसूत्र
पगइपयणु-कोह-माण-माया-लोभा मिउमद्दवसंपन्ना अल्लीणा भद्दगा विणीया, तेसिं णं पणिहाए लवणसमुद्दे जंबुद्दीवं दीवं नो उवीलेइ नो उप्पीलेइ नो चेव णं एगोदगं करेइ।
गंगासिंधुरत्तारत्तवईसु सलिलासु देवयाओ महिड्ढीयाओ जाव पलिओवमट्टिईया परिवसंति, तेसिं णं पणिहाय लवणसमुद्दे जाव नो चेव णं एगोदगं करेइ।
चुल्लहिमवंतसिहरेसु वासहरपव्वएसु देवा महिड्ढिया तेसि णं पणिहाय हेमवतेरण्णवएस वासेसु मणुया पगइभद्दगा०, रोहितंस-सुवण्णकूल-रूप्पकूलासु सलिलासु देवयाओ महिड्डियाओ तासिं पणिहाए० सदावइवियडावइवट्टवेयड्ढपव्वएसु देवा महिड्डिया जाव पलिओवमट्टिईया परिवसंति, महाहिमवंतरूप्पिसु वासहरपव्वएसु देवा महिड्डि या जाव पलिओवमट्ठिइया, हरिवासरम्मयवासेसु मणुया पगईभद्दगा, गंधावइमालवंतपरियाएसु वट्टवेयड्ढपव्वएसु देवा महिड्डिया० निसहनीलवंतेसु वासधरपव्वएसु देवा महिड्डिया० सव्वाओ दहदेवयाओ भाणियव्वाओ, पउमदहतिगिच्छके सरिदहावसाणेसु देवा महिड्डियाओ तासिं पणिहाए० पुव्वविदेहावरविदेहेसु वासेसु अरहंतचक्कवट्टिबलदेववासुदेवा चारणा विजाहरा समणा समणीओ सावगा सावियाओ मणुया पगइभद्दया तेसिं पणिहाए लवण०, सीयासीतोदगासु सलिलासु देवया महिड्डिया० देवकुरूउत्तरकुरूसु मणुया पगइभद्दगा० मंदरे पव्वए देवया महिड्डिया०जंबुए णं सुदंसणाए जंबूदीवाहिवई अणाढिए नामं देवे महिड्डिए जाव पलिओवमठिईए परिवसति, तस्स पणिहाए लवणसमुद्दे नो उवीलेइ नो उप्पीललेइ नो चेव णं एकोदगं करेइ, अदुत्तरं च णं गोयमा ! लोगट्ठिई लोगाणुभावे जण्णं लवणसमुद्दे जंबुद्दीवं दीवं नो उवीलेइ नो उप्पीलेइ नो चेव णं एगोदगं करेइ।
१७३. हे भगवन् ! यदि लवणसमुद्र चक्रवाल-विष्कंभ से दो लाख योजन का है, पन्द्रह लाख इक्यासी हजार एक सौ उनचालीस योजन से कुछ कम उसकी परिधि है, एक हजार योजन उसकी गहराई है और सोलह हजार योजन उसकी ऊँचाई है कुल मिलाकर सत्तरह हजार योजन उसका प्रमाण
पन्नाससयसहस्सा जोयणाणं भवे अणूणाई।
लवणसमुद्दास्सेयं जोयणसंखाए घणगणियं ॥३॥ यहां यह शंका होती है कि लवणसमुद्र सब जगह सत्रह हजार योजन प्रमाण नहीं है, मध्यभाग में तो उसका विस्तार दस हजार योजन है। फिर यह घनगणित कैसे संगत होता है। यह शंका सत्य है, किन्तु जब लवणशिखा के ऊपर दोनों वेदिकान्तों के ऊपर सीधी डोरी डाली जाती है तो जो अपान्तराल में जलशून्य क्षेत्र बनता है वह भी करणगति अनुसार सजल मान लिया जाता है इस विषय में मेरूपर्वत का उदाहरण है। वह सर्वत्र एकादशभाग परिहानिरूप कहा जाता है परन्तु सर्वत्र इतनी हानी नहीं है। कहीं कितनी है, कहीं कितनी है। केवल मूल से लेकर शिखर तक डोरी डालने पर अपान्तराल में जो आकाश है वह सब मेरू का गिना जाता है। ऐसा मानकर गणितज्ञों ने सर्वत्र एकादश-परिभागहानि का कथन किया है। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने भी विशेषणवती ग्रन्थ में यही बात कही है-"एवं उभयवेइयंताओ सोलससहस्सुस्सेहस्सकन्नगईए जं लवणसमुद्दाभव्वं जलसुन्नपि खेत्तं तस्स गणियं । जहा मंदरपव्वयस्स एक्कारसभागपरिहाणी कन्नगईए आगासस्स वि तदाभव्वंतिकाउं भणिया तहा लवणसमुद्दस्स वि।" इसका अर्थ पूर्व विवरण से स्पष्ट ही है।
-वृत्तिकार