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[जीवाजीवाभिगमसूत्र मत्स्य और कपिहसित आदि हैं , वहां तक मनुष्यलोक है। जहां तक चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और ताराओं का अभिगमन, निर्गमन, चन्द्र की वृद्धि-हानि तथा चन्द्रादि की सतत गतिशीलता रूप स्थिति कही जाती है, वहां तक मनुष्यलोक है।
विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में कहा गया है कि जहां तक भरतादि वर्ष (क्षेत्र), वर्षधर पर्वत, घर दुकान-मकान, ग्राम, नगर, राजधानी, अरिहंतादि, श्लाध्य पुरूष, प्रकृतिभद्रिक विनीत मनुष्यादि, समय आदि का व्यवहार, विद्युत मेघगर्जन, मेघोत्पत्ति, बादर, अग्नि, खान, नदियां, निधियां, कुए-तालाब तथा आकाश में चन्द्र-सूर्यादि का गमनादि है, वहां तक मनुष्यलोक हैं । इसका फलितार्थ यह है कि उक्त सब का अस्तित्व मनुष्यलोक में ही है। मनुष्यलोक से बाहर उक्त सबका अस्तित्व नहीं है। मनुष्यलोक की सीमा करने वाला होने से मानुषोत्तरपर्वत, मानुषोत्तरपर्वत कहलाता है । मानुषोत्तरपर्वत से परे- बाहर की ओर उक्त सब पदार्थों और व्यवहारों का सदभाव नहीं है।
प्रस्तुत सूत्र में आये हुए कालचक्र के सम्बन्ध में स्पष्टीकरण आवश्यक है अत: उसका संक्षेप में निरूपण किया जाता है
काल का सबसे सूक्ष्म अंश, जिसका फिर विभाग न हो सके, वह समय कहा जाता है । इसकी सूक्ष्मता को समझाने के लिए शास्त्रकारों ने एक स्थूल उदाहरण दिया है। जैसे कोई तरूण, बलवान्, हृष्टपुष्ट , स्वस्थ और निपुण कलाकुशल दर्जी का पुत्र किसी जीण-शीर्ण शाटिका (साड़ी) को हाथ में लेते ही एकदम बिना हाथ फैलाये शीघ्र ही फाड़ देता है । देखने वालों कों ऐसा प्रतीत होता है कि इसने पलभर में साड़ी को फाड़ दिया है, परन्तु तत्त्वदृष्टि से उस साड़ी को फाड़ने में असंख्यात समय लगे हैं। साड़ी में अगणित तन्तु हैं। ऊपर का तन्तु फटे बिना नीचे का तन्तु नहीं फट सकता है। अतएव यह मानना पड़ता है कि प्रत्येक तन्तु के फटने का काल अलग-अलग है । वह तन्तु भी कई रेशों से बना होता है । वे रेशे भी क्रम से ही फटते हैं । अतएव साड़ी के उपरितन तन्तु के उपरितन रेशे के फटने में जितना समय लगा उससे भी बहुत सूक्ष्मत्तर समय कहा गया है।
जघन्ययुक्तासंख्यात समयों की एक आवलिका होती है। संख्येय आवलिकाओं का एक उच्छ्वास होता है और संख्येय आवलिकाओं का एक नि:श्वास होता है। एक उच्छ्वास और एक नि:श्वास मिलकर एक आन-प्राण होता है । तात्पर्य यह है कि एक हृष्ट और नीरोग व्यक्ति श्रम और बुभुक्षा आदि से रहित अवस्था में स्वाभाविक रूप से जो श्वासोच्छ्वास लेता है, वह एक श्वासोच्छ्वास का काल आन-प्राण कहलाता है। सात आन-प्राणों का एक स्तोक और सात स्तोकों का एक लव होता हैं। ७७ १. हट्ठस्स अणवगल्लस निरूवकिट्ठस्स जन्तुणो।
एगे उसासनीसासे एस पाणुत्ति वुच्चइ ॥१॥ सत्त पाणूणि से थोवे सत्त थोवाणि से लवे। लवाणं सत्तहत्तरिए एस मुहूत्ते वियाहिए ॥२॥ एगा कोडी सत्तट्ठी लक्खा सत्तत्तरी सहस्सा य। दो य सया सोलहिया आवलियाणं मुहूत्तम्मि॥३॥ तिन्नि सहस्सा सत्त य सयाई तेवत्तरिं च ऊसासा। एस मुहत्तो भणिओ सव्वेहिं अणंतणाणीहिं ॥४॥