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तृतीय प्रतिपत्ति: समयक्षेत्र ( मनुष्यक्षेत्र) का वर्णन ]
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जावं च णं बादरे विज्जुकारे बायरे थणियसद्दे तावं च णं अस्सि लोए पवुच्चइ, जावं च णं बहवे ओराला बलाहका संसेयंति संमुच्छंति वासं वासंति तावं च णं अस्सि लोए पवुच्चइ, जावं च णं बायरे तेउकाए तावं च णं अस्सि लोए पवुच्चइ, जावं च णं आगराई वा नदीउइ वा निहीइ वा तावं च णं अस्सि लोएत्ति पवुच्चइ; जावं च णं अगडाइ वा णईत्ति वा तावं च
अस्सं लोए. जावं च णं चंदोवरागाइ वा सूरोवरागाइ वा चंदपरिएसाइ वा सूरपरिएसाइ वा पडिचंदाइ वा पडिसूराइ वा इंदधणुइ वा उदगमच्छेइ वा कपिहसियाइ वा तावं च णं अस्सि लोएत्ति पवच्च । जावं च णं चंदिमसूरियगहणक्खत्ततारारूवाणं अभिगमण- णिग्गमणवुड्ढ - णिव्वुड्ढि - अणवट्ठियसंठाणसंठिई आधविज्ज इ तावं च णं अस्सि लोए पवुच्चइ ॥
१७८. (आ) हे भगवन् ! यह मानुषोत्तरपर्वत क्यों कहलाता है ?
गौतम ! मानुषोत्तर पर्वत के अन्दर - अन्दर मनुष्य रहते हैं, इसके ऊपर सुपर्णकुमार देव रहते हैं और इससे बाहर देव रहते हैं । गौतम ! दूसरा कारण यह है कि इस पर्वत के बाहर मनुष्य (अपनी शक्ति से) न तो कभी गये हैं, न कभी जाते हैं और न कभी जाएंगे, केवल जंघाचारण और विघाचारण मुनि तथा देवों द्वारा संहरण किये मनुष्य इस पर्वत से बाहर जा सकते हैं। इसलिए यह पर्वत मानुषोत्तरपर्वत कहलाता है ।' अथवा हे गौतम ! यह नाम शाश्वत होने से अनिमित्तिक हैं।
जहां तक यह मानुषोत्तरपर्वत है वहीं तक यह मनुष्य-लोक है ( अर्थात् मनुष्यलोक में ही वर्ष, वर्षधर, गृह आदि हैं इससे बाहर नहीं। आगे सर्वत्र ऐसा ही समझना चाहिए।) जहां तक भरतादि क्षेत्र और वर्षधर पर्वत हैं वहां तक मनुष्यलोक है। जहां तक घर या दुकान आदि हैं वहा तक मनुष्यलोक है। जहां तक ग्राम यावत् राजधानी है, वहां तक मनुष्यलोक है। जहां तक अरिहन्त, चक्रवर्ती, बलदेव, प्रतिवासुदेव, जंघाचारण मुनि, विद्याचारण मुनि, श्रमण, श्रमणियां, श्रावक, श्राविकाएं और प्रकृति से भद्र विनीत मनुष्य हैं, वहां तक मनुष्यलोक है ।
अवव,
जहां तक समय, आवलिका, आन-प्राण ( श्वासोच्छ्वास), स्तोक (सात श्वासोच्छ्वास), लव (सात स्तोक), मुहूर्त, दिन, अहोरात्र, पक्ष, मास, ऋतु (दो मास), अयन (छ: मास), संवत्सर (वर्ष) युग (पांच वर्ष), सौ वर्ष, हजार वर्ष, लाख वर्ष, पूर्वांग, पूर्व, त्रुटितांग, त्रुटित, इसी क्रम से अड्ड, हूहुक, उत्पल, पद्म, नलिन, अर्थनिकुर (अच्छिणेउर), अयुत, प्रयुत, नयुत, चूलिका, शीर्ष - प्रहेलिका, पल्योपम, सागरोपम, अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल है, वहां तक मनुष्यलोक है ।
जहां तक बादर विद्युत और बादर स्तनित (मेघगर्जन) है, जहां तक बहुत से उदार - बड़े मेघ उत्पन्न होते हैं, सम्मूर्छित होते हैं (बनते-बिखरते हैं), वर्षा बरसाते हैं, वहां तक मनुष्यलोक है। जहां तक बादर तेजस्काय (अग्नि) है, वहां तक मनुष्यलोक है। जहां तक खान, नदियां और निधियां है, कुए, तालाब आदि हैं, वहां तक मनुष्यलोक है।
जहां तक चन्द्रग्रहण, सूर्यग्रहण, चन्द्रपरिवेष, सूर्यपरिवेष, प्रतिचन्द्र, प्रतिसूर्य, इन्ध्रधनुष, उदक१. मनुष्याणामुत्तरः- परः इति मानुषोत्तरः । - वृत्ति