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________________ तृतीय प्रतिपत्ति :नंदीश्वरद्वीपकी वक्तव्यता] [६५ नंदीश्वरद्वीप की वक्तव्यता १८३. (क) खोदोद णं समुदं गंदीसरवरे णामं दीवे वट्टे वलयागारसंठाणसंठिए तहेव जाव परिक्खेवो। पउमवरवेदिआवणसंडपरिक्खित्ते। दारा दारंतरपएसे जीवा तहेव। से केणढेणं भंते? गोयमा ! तत्थ-तत्थ देसे तहिं-तहिं बहूओ खुड्डाओ वावीओ जाव बिलपंतियाओ खोदोदगपडिहत्थाओ उप्पायपव्वया सव्ववइरामया अच्छा जाव पडिरूवा। ___ अदुत्तरं च णं गोयमा ! णंदीसरदीवस्स चक्कवालविक्खंभस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं चउदिसि चत्तारि अंजणपव्वया पण्णत्ता। ते णं अंजणपव्वया चउरसीइजोयणसहस्साई उड्ढं उच्चत्तेणं एगमेगं जोयणसहस्सं उव्वेहेणं मूले साइरेगाइं धरणियले दसजोयणसहस्साई आयामविक्खंभेणं, तओ अणंतरं च णं मायाए-मायाए पएसपरिहाणीए परिहायमाणा परिहायमाणा उवरि एगमेगं जोयणसहस्सं आयामविक्खंभेणं, मूले एक्कतीसं जोयणसहस्साई छच्च तेवीसे जोयणसए किंचिविसेसाहिया परिक्खेवेणं धरणियले एक्कतीसं जोयणसहस्साई छच्च तेवीसे जोयणसए देसूणे परिक्खेवेणं, सिहरतले तिण्णि जोयणसहस्साई एगं च वावजें जोयणसयं किंचिविसेसाहिया परिक्खेवेणं पण्णत्ता, मूले वित्थिण्णा मझे संखित्ता उप्पिं तणुआ, गोपुच्छ संठाणसंठि या सव्वंजणमया अच्छा जाव पत्तेयं पत्ते यं पउमवरवेइयापरिक्खित्ता, पत्तेयं पत्तेयं वणसंडपरिक्खित्ता, वण्णओ। तेसि णं अंजणपव्वयाणं उवरि पत्तेयं-पत्तेयं बहुसमरमणिजो भूमिभागो पण्णत्तो, से जहाणामएआलिंगपुक्खरेइ वा जाव सयंति। तेसि णं बहुसमरमणिजाणं भूमिभागाणं बहुमझंदेसभाए पत्तेयं पत्तेयं सिद्धायतणा एगमेगं जोयणसयं आयामेण पण्णासं जोयणाई विक्खंभेणं वावत्तरि जोयणाई उड्ढे उच्चत्तेणं अणेगखंभसयसंनिविट्ठा, वण्णओ। १८३. (क) क्षोदोदकसमुद्र को नंदीश्वर नाम का द्वीप चारों ओर से घेर कर स्थित है। यह गोल और वलयाकार है। यह नन्दीश्वरद्वीप समचक्रवालविष्कंभ से युक्त है। परिधि आदि के कथन से लेकर जीवोपपाद सूत्र तक सब कथन पूर्ववत् कहना चाहिए। . भगवन् ! नंदीश्वरद्वीप के नाम का क्या कारण है ? गौतम ! नंदीश्वरद्वीप में स्थान-स्थान पर बहुत-सी छोटी-छोटी बावड़ियां यावत् विलपंक्तियां हैं, जिनमें इक्षुरस जैसा जल भरा हुआ है। उसमें अनेक उत्पातपर्वत हैं जो सर्व वज्रमय है, स्वच्छ हैं यावत् प्रतिरूप हैं । __ गौतम ! दूसरी बात यह है कि नंदीश्वरद्वीप के चक्रवालविष्कंभ के मध्यभाग में चारों दिशाओं में चार अंजनपर्वत कहे गये हैं। वे अंजनपर्वत चौरासी हजार योजन ऊंचे, एक हजार योजन गहरे, मूल में
SR No.003455
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_jivajivabhigam
File Size5 MB
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