SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 22
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तृतीय प्रतिपत्ति : लवणशिखा की वक्तव्यता] [३ के ऊपर लवणसमुद्र का विजय नामक द्वार है । वह आठ योजन ऊंचा और चार योजन चौड़ा है, आदि वह सब कथन करना चाहिए जो जम्बूद्वीप के विजयद्वार के लिए कहा गया है। इस विजय देव की राजधानी पूर्व में असंख्य द्वीप, समुद्र लांघने के बाद अन्य लवणसमुद्र में है। . हे भगवन् ! लवणसमुद्र में वैजयन्त नामकद्वार कहां है? गौतम! लवणसमुद्र के दाक्षिणात्य पर्यन्त में धातकीखण्ड द्वीप के दक्षिणार्ध भाग के उत्तर में वैजयन्त नामक द्वार है। शेष वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए। इसी प्रकार जयन्तद्वार के विषय में जानना चाहिए। विशेषता यह है कि यह शीता महानदी के ऊपर है। इसी प्रकार अपराजित द्वार के विषय में जानना चाहिए। विशेषता यह है कि यह लवणसमुद्र के उतरी पर्यन्त में और उत्तरार्ध धातकीखण्ड के दक्षिण में स्थित है। इसकी राजधानी अपराजितद्वार के उत्तर में असंख्य द्वीप समुद्र जाने के बाद अन्य लवणसमुद्र में है। हे भगवन् ! लवणसमुद्र के इन द्वारों का एक द्वार से दूसरे के अपान्तराल का अन्तर कितना कहा गया है? गौतम! तीन लाख पंचानवै हजार दो सौ अस्सी (३९५२८०) योजन और एक कोस का एक द्वार से दूसरे द्वार का अन्तर है। ___ हे भगवन् ! लवणसमुद्र के प्रदेश धातकीखण्डद्वीप से छुए हुए हैं क्या? हां गौतम! छुए हुए हैं, आदि सब वर्णन वैसा ही कहना चाहिए जैसा जम्बूद्वीप के विषय में कहा गया है। धातकीखण्ड के प्रदेश लवणसमुद्र से स्पृष्ट हैं, आदि कथन भी पूर्ववत् जानना चाहिए। लवणसमुद्र से मर कर जीव धातकीखण्ड में पैदा होते हैं क्या? आदि कथन भी पूर्ववत् जानना चाहिए। धातकीखण्ड से मरकर लवणसमुद्र में पैदा होने के विषय में भी पूर्ववत् कहना चाहिए। हे भगवन् ! लवणसमुद्र, लवणसमुद्र क्यों कहलाता है? गौतम! लवणसमुद्र का पानी अस्वच्छ है, रजवाला है, नमकीन है, लिन्द्र (गोबर जैसे स्वाद वाला) है, खारा है, कडुआ है, द्विपद-चतुष्पद-मृग-पशु-पक्षी-सरीसृपों के लिए वह अपेय है, केवल लवणसमुद्रयोनिक जीवों के लिए ही वह पेय है, (तद्योनिक होने से वे जीव ही उसका आहार करते हैं।) लवणसमुद्र का अधिपति सुस्थित नामक देव है जो महर्द्धिक है, पल्योपम की स्थिति वाला है । वह अपने सामानिक देवों आदि अपने परिवार का और लवणसमुद्र की सस्थिता राजधानी और अन्य बहत से वहां के निवासी देव-देवियों का आधिपत्य करता हुआ विचरता है । इस कारण हे गौतम! लवणसमुद्र, लवणसमुद्र कहलाता है। दूसरी बात गौतम! यह है कि "लवणसमुद्र'' यह नाम शाश्वत है यावत् नित्य है। (इसलिए यह नाम अनिमित्तिक है।) १.एक-एक द्वार ही पृथुता चार-चार योजना की है। एक-एक द्वार में एक-एक कोस मोटी दो शाखाएं है। एक द्वार की पूरी पृथुता साढ़े चार योजन की है। चारों द्वारों की पृथुता १८ योजन की है। लवणसमुद्र की परिधि में १८ योजन कम करके चार का भाग देने से उक्त प्रमाण आता है।
SR No.003455
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_jivajivabhigam
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy