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________________ १८२] [जीवाजीवाभिगमसूत्र ___ अहवा दुविहा सव्वजीवा ससरीरी य असरीरी य। असरीरी जहा सिद्धा। ससरीरी जहा असिद्धा। थोवा असरीरी, ससरीरी अणंतगुणा। २३५. अथवा सर्व जीव दो प्रकार के हैं-सभाषक और अभाषक। भगवन् ! सभाषक, सभाषक के रूप में कितने काल तक रहता है? गौतम! जघन्य से एक समय, उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्त । भंते ! अभाषक, अभाषक रूप में कितने समय रहता है? गौतम! अभाषक दो प्रकार के है-सादिअपर्यवसित और सादि-सपर्यवसित । इनमें जो सादि-सपर्यवसित अभाषक हैं, वह जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट में अनन्त काल तक अर्थात् अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणीकाल तक अर्थात् वनस्पतिकाल तक। भगवन् ! भाषक का अन्तर कितना है? गौतम! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से अनन्तकाल अर्थात् वनस्पतिकाल। सादि-अपर्यवसित अभाषक का अन्तर नहीं हैं। सादि-सपर्यवसित का अन्तर जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है। अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े भाषक हैं, अभाषक उनसे अनन्तगुण हैं। अथवा सब जीव दो प्रकार के हैं-सशरीरी और अशरीरी। अशरीरी की संचिट्ठणा आदि सिद्धों की तरह तथा सशरीरी की असिद्धों की तरह कहना चाहिए यावत् अशरीरी थोड़े हैं और सशरीरी अनन्तगुण हैं। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में भाषक और अभाषक की अपेक्षा से सब जीवों के दो भेद कहे गये हैं। जो बोल रहा है वह भाषक है और अन्य अभाषक है।' भाषक, भाषक के रूप में जघन्य एक समय रहता है। भाषा द्रव्य के ग्रहण समय में ही मरण हो जाने से या अन्य किसी कारण से भाषा-व्यापार से उपरत हो जाने से एक समय कहा गया है। उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त तक रहता है। इतने काल तक ही भाषा द्रव्य का निरन्तर ग्रहण और निसर्ग होता है। इसके बाद तथाविध जीवस्वभाव से वह अवश्य अभाषक हो जाता है। अभाषक दो प्रकार के हैं-सादि-अपर्यवसित और सादि-सपर्यवसित। सादि-अपर्यवसित सिद्ध हैं और सादि-सपर्यवसित पृथ्वीकाय आदि हैं। जो सादि-सपर्यवसित हैं, वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक अभाषक रहता है, इसके बाद पुनः भाषक हो जाता है। अथवा पृथ्वी आदि भव की जघन्य स्थिति इतने ही काल की है। उत्कर्ष से अभाषक, अभाषक रूप में वनस्पतिकाल पर्यन्त रहता है । वह वनस्पतिकाल अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी रूप है तथा क्षेत्रमार्गणा से अनन्त लोकाकाश के प्रदेशों का प्रतिसमय एक-एक के मान से अपहार करने पर उनके निर्लेप होने में जितना काल लगता है, उतना काल है; यह काल असंख्येय पुद्गलपरार्वत रूप है। इन पुद्गलपरावर्तों का प्रमाण आवलिका के असंख्येयभागवर्ती समयों के बराबर है। वनस्पति में इतने काल तक अभाषक रूप में रह सकता है। १.भाषमाणा भाषका इतरेऽभाषकाः। -वृत्ति
SR No.003455
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_jivajivabhigam
File Size5 MB
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