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________________ १८६] [जीवाजीवाभिगमसूत्र ___ अनादि-अपर्यवसित मिथ्यादृष्टि का अन्तर नहीं हैं, क्योंकि उसका मिथ्यात्व छूटता ही नही है। अनादि-सपर्यवसित मिथ्यात्व का भी अन्तर नहीं है, क्योंकि छूटकर पुनः होने पर अनादित्व नहीं रहता है। सादि-सपर्यवसित मिथ्यादृष्टि का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट साधिक छियासठ सागरोपम है, क्योंकि सम्यग्दर्शन का काल ही मिथ्यादर्शन का प्रायः अन्तर है। सम्यग्दर्शन का जघन्य और उत्कर्ष काल इतना ही है। सम्यग्मिथ्यादृष्टि का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि सम्यग्मिथ्यादर्शन से गिरकर कोई, अन्तर्मुहूर्त में फिर सम्यग्मिथ्यादर्शन पा लेता है। उत्कर्ष से देशोन अपार्धपुद्गलपरावर्त का अन्तर है। यदि सम्यग्मिथ्यादर्शन से गिरकर फिर सम्यग्मिथ्यादर्शन का लाभ हो तो नियम से इतने काल के बाद होता ही हैं, अन्यथा मुक्ति होती है। अल्पबहुत्वद्वार-सबसे थोड़े सम्यग्मिथ्यादृष्टि हैं, क्योंकि तद्योग्य परिणाम थोड़े काल तक रहते हैं और पृच्छा के समय वे अल्प ही प्राप्त होते हैं। उनसे सम्यग्दृष्टि अनन्तगुण हैं, क्योंकि सिद्ध जीव भी सम्यग्दृष्टि हैं और वे अनन्त हैं। उनसे मिथ्यादृष्टि अनन्तगुण हैं, क्योंकि वनस्पतिजीव सिद्धों से भी अनन्तगुण हैं और वे मिथ्यादष्टि हैं। २३८. अहवा तिविहा सव्वजीवा पण्णत्ता-परित्ता अपरित्ता नोपरित्ता-नोअपरित्ता। परित्ते णं भंते! कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! परित्ते दुविहे पण्णत्ते-कायपरित्ते य संसारपरित्ते य। कायपरित्ते णं भंते! कालओ केवचिरं होई? गोयमा! जहन्नेणं अन्तोमुहुत्तं उक्कोसेण असंखेनं कालं जाव असंखेजा लोगा। संसारपरित्ते णं भंते! संसारपरित्तेत्ति कालओ केवचिरं होई? जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं अणंतं कालं जाव अवढे पोग्गलपरियटें देसूणं। अपरित्ते णं भंते? अपरित्ते दुविहे पण्णत्ते-कायअपरित्ते य संसारअपरित्ते य। कायअपरित्ते णं जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं अणंतं कालं-वणस्सइकालो। संसारापरित्ते दुविहे पण्णत्ते-अणाइए वा अपज्जवसिए, अणाइए वा सपजवसिए। णोपरित्ते-णोअपरित्ते साइए अपज्जवसिए। कायपरित्तस्स जहन्नेणं अंतरं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं वणस्सइकालो। संसारपरित्तस्स णत्थि अंतरं। कायपरित्तस्स जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं असंखिजं कालं पुढविकालो। संसारापरित्तस्स अणाइयस्स अपजवसियस्स णत्थि अंतरं।अणाइयस्स सपज्जवसियस्स नत्थि अंतरं। णोपरित्त-नो-अपरित्तस्सवि णत्थि अंतरं। अप्पाबहुयं-सव्वत्थोवा परित्ता, णोपरित्ता-नोअपरित्ता अणंतगुणा, अपरित्ता अणंतगुणा।
SR No.003455
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_jivajivabhigam
File Size5 MB
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