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________________ १२२] [जीवाजीवाभिगमसूत्र जीव नरक से निकलकर गर्भज मनुष्य के रूप में उत्पन्न हुआ, सह पर्याप्तियों से पूर्ण हुआ और विशिष्ट संज्ञान से युक्त होकर वैक्रियलब्धिमान होता हुआ राज्यादि का अभिलाषी, परचक्री का उपद्रव जानकर अपनी शक्ति के प्रभाव से चतुरंगिणी सेना विकुर्वित कर संग्राम करता हुआ महारौद्रध्यान ध्याता हुआ गर्भ में ही मरकर नरक में उत्पन्न होता है-इस अपेक्षा से मनुष्यभव में पैदा होकर जघन्य अन्तर्मुहूर्त में वह नारक जीव नरक में उत्पन्न होता है। नरक से निकलकर तन्दुलमत्स्य के रूप में उत्पन्न होकर महारौद्रध्यान वाला बनकर अन्तर्मुहूर्त जीकर फिर नरक में पैदा होता है-इस अपेक्षा से तिर्यक्भव करके पुनः नारक उत्पन्न होने का जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त समझना चाहिए। उत्कृष्ट अन्तर वनस्पति में अनन्तकाल जन्म-मरण के पश्चात् नरक में उत्पन्न होने पर घटित होता है। तिर्यग्योनिकों का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। कोई तिर्यच मरकर मनुष्यभव में अन्तर्मुहूर्त रहकर फिर तिर्यंच रूप में उत्पन्न हुआ, इस अपेक्षा से है । उत्कृष्ट अन्तर सागरोपमशतपृथक्त्व से कुछ अधिक है। दो सौ सागरोपम से नौ सौ सागरोपम तक निरन्तर देव, नारक और मनुष्य भव में भ्रमण करते रहने पर घटित होता है। मनुष्य का जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर वनस्पतिकाल है। मनुष्यभव से निकलकर अन्तर्मुहूर्त काल तक तिर्यग्भव में रहकर फिर मनुष्य बनने पर जघन्य अन्तर घटित होता है। उत्कृष्ट अन्तर वनस्पतिकाल स्पष्ट ही है। देवों का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । कोई जीव देवभव से च्यवकर गर्भज मनुष्य के रूप में पैदा हुआ, सब पर्याप्तियों से पूर्ण हुआ। विशिष्ट संज्ञान वाला हुआ। तथाविध श्रवण या श्रमणोपासक के पास धार्मिक आर्यवचनों को सुनकर धर्मध्यान ध्याता हुआ गर्भ में ही मरकर देवों में उत्पन्न हुआ, इस अपेक्षा से जघन्य अन्तर्मुहूर्त काल घटित होता है । उत्कृष्ट अन्तर वनस्पतिकाल का है, जो वनस्पतिकाल में अनन्तकाल तक जन्म-मरण करते रहने के बाद देव बनने पर घटित होता है। अल्पबहुत्वद्वार-अल्पबहुत्व विवक्षा में सबसे थोड़े मनुष्य हैं। क्योंकि वे श्रेणी के असंख्येयभागवर्ती आकाशप्रदेशों की राशिप्रमाण हैं। उनसे नैरयिक असंख्येयगुण हैं, क्योंकि वे अंगुलमात्र क्षेत्र की प्रदेशराशि के प्रथम वर्गमूल को द्वितीय वर्गमूल से गुणित करने पर जितनी प्रदेश राशि होती है उतने प्रमाण वाली श्रेणियों में जितने आकाशप्रदेश होते हैं, उतने प्रमाण में नैरयिक है। नैरयिको से देव असंख्येयगुण हैं, क्योंकि महादण्डक में व्यन्तर और ज्योतिष्क देव नारकियों से असंख्यातगुण कहे गये हैं । देवों से तिर्यंच अनन्तगुण है, क्योंकि वनस्पति के जीव अनन्तानन्त कहे गये हैं। इस प्रकार चार प्रकार के संसारसमापन्नक जीवों की प्रतिपत्ति का कथन सम्पूर्ण हुआ। ॥ तृतीय प्रतिपत्ति समाप्त ॥ ★★★★★★
SR No.003455
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_jivajivabhigam
File Size5 MB
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