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________________ तृतीय प्रतिपत्ति : अवधिक्षेत्रादि प्ररूपण ] [ ११७ गेवेज्जगदेवा केरिया विभूसाए पण्णत्ता ? गोयमा ! आभरणवसणरहिया एवं देवी णत्थि भणियव्वं । पगइत्था विभूसाए पण्णत्ता एवं अणुत्तरावि । सोहम्मीसाणेसु देवा केरिसए कामभोगे पच्चणुब्भवमाणा विहरंति ? गोयमा ! इट्ठा सद्दा इट्ठा रूवा जाव फासा । एवं जाव गेवेज्जा । अणुत्तरोववाइयाणं अणुत्तरा सद्दा जाव अणुत्तरा फासा । ठिई सव्वेसिं भाणियव्वा । अणंतरं चयंति, चइत्ता जे जहिं गच्छंति तं भाणियव्वं । २०४. भगवन् ! सौधर्म-ईशान कल्प के देव विभूषा की दृष्टि से कैसे हैं ? गौतम वे देव दो प्रकार के हैं - वैक्रियशरीर वाले और अवैक्रियशरीर वाले । उनमें जो वैक्रियशरीर (उत्तरवैक्रिय) वाले हैं वे हारों से सुशोभित वक्षस्थल वाले यावत् दसों दिशाओं को उद्योतित करने वाले, प्रभासित करने वाले यावत् प्रतिरूप हैं। जो अवैक्रियशरीर ( भवधारणीय शरीर) वाले हैं वे आभरण और वस्त्रों से रहित हैं और स्वाभाविक विभूषण से सम्पन्न हैं । 1 भगवन् ! सौधर्म - ईशान कल्पों में देवियां विभूषा की दृष्टि से कैसी हैं ? गौतम ! वे दो प्रकार की है - उत्तरवैक्रियशरीर वाली और अवैक्रियशरीर ( भवधारणीयशरीर) वाली। इनमें जो उत्तरवैक्रियशरीर वाली वे स्वर्ण के नूपुरादि आभूषणों की ध्वनि से युक्त हैं तथा स्वर्ण की बजती किंकिणियों वाले वस्त्रों को तथा उद्भट वेश को पहनी हुई है, चन्द्र के समान उनका मुखमण्डल है, चन्द्र के समान विलास वाली है, अर्धचन्द्र के समान भाल वाली है, वे श्रृंगार की साक्षात् मूर्ति हैं और सुन्दर परिधान वाली हैं, वे सुन्दर यावत् दर्शनीय, प्रसन्नता पैदा करने वाली और सौन्दर्य की प्रतीक हैं । उनमें जो अविकुर्वित शरीर वाली हैं वे आभूषणों और वस्त्रों से रहित स्वाभाविक सहज सौन्दर्य वाली हैं । सौधर्म - ईशान को छोड़कर शेष कल्पों में देव ही हैं, वहां देवियां नहीं हैं । अतः अच्युतकल्प पर्यन्त देवों की विभूषा का वर्णन उक्त रीति के अनुसार ही करना चाहिए। ग्रैवेयकदेवों की विभूषा कैसी है? इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया है कि गौतम! वे देव आभरण और वस्त्रों की विभूषा से रहित हैं, स्वाभाविक विभूषा से सम्पन्न हैं । वहां देवियां नहीं हैं। इसी प्रकार अनुत्तरविमान के देवों की विभूषा का कथन भी कर लेना चाहिए । T भगवन्! सौधर्म - ईशान कल्प में देव कैसे कामभोगों का अनुभव करते हुए विचरते हैं ? गौतम ! इष्ट शब्द, इष्ट रूप यावत् इष्ट स्पर्श जन्य सुखों का अनुभव करते हैं। ग्रैवेयकदेवों तक उक्त रीति से कहना चाहिए। अनुत्तरविमान के देव अनुत्तर शब्द यावत् अनुत्तर स्पर्श जन्य सुख का अनुभव करते हैं । सब वैमानिक देवों की स्थिति कहनी चाहिए तथा देवभव से च्यवकर कहां उत्पन्न होते हैं - यह उद्वर्तनाद्वार कहना चाहिए । विवेचन - उक्त सूत्र में स्थिति और उद्वर्तना का निर्देशमात्र किया गया है। अतएव संक्षेप में उसकी स्पष्टता करना यहां आवश्यक है । स्थिति इस प्रकार है
SR No.003455
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_jivajivabhigam
File Size5 MB
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