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________________ अर्थ रूप से प्रवचन का प्ररूपण करते हैं और उनके चतुर्दशपूर्वधर, विपुलबुद्धिनिधान गणधर उन्हें सूत्ररूप में निबद्ध करते हैं। इस तरह प्रवचन की परम्परा चलती रहती है। अतएव अर्थरूप आगम के प्रणेता श्री तीर्थंकर परमात्मा हैं और शब्द रूप आगम के प्रणेता गणधर हैं । अनन्त काल से अरिहन्त और उनके गणधरों की परम्परा चलती आ रही है। अतएव उनके उपदेश रूप आगम की परम्परा भी अनादि काल से चली आ रही है। इसीलिए ऐसा कहा जाता है कि यह द्वादशांगी ध्रुव है, नित्य है, शाश्वत है, सदाकाल से है, यह कभी नहीं है, ऐसा नहीं है । यह सदा थी, है और रहेगी। भावों की अपेक्षा यह ध्रुव, नित्य, शाश्वत है।' द्वादशांगी में बारह अंगों का समावेश है। आचारांग, सूयगडांग, ठाणांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति, ज्ञाताधर्मकथा, उपासकदशा, अन्तकृद्दशा, अनुत्तरोपपातिक, प्रश्नव्याकरण, विपाकसूत्र और दृष्टिवाद, ये बारह अंग हैं। यही द्वादशांगी गणिपिटक हैं, जो साक्षात् तीर्थंकरों द्वारा उपदिष्ट है। यह अंगप्रविष्ट आगम कहे जाते हैं, इनके अतिरिक्त अनंगप्रविष्ट-अंगबाह्य आगम वे हैं जो तीर्थंकरों के वचनों से अविरुद्ध रूप में प्रज्ञातिशय-सम्पन्न स्थविर भगवंतों द्वारा रचे गये हैं । इस प्रकार जैनागम दो भागों में विभक्त हैं-अंगप्रविष्ट और अनंगप्रविष्ट (अंगबाह्य)। प्रस्तुत जीवाजीवाभिगम शास्त्र अनंग प्रविष्ट आगम है। दूसरी विवक्षा से बारह अंगों के बारह उपांग भी कहे गए हैं । तद्नुसार औपपातिक आदि को उपांग संज्ञा दी जाती है। आचार्य मलयगिरि ने जिन्होंने जीवाजीवाभिगम पर विस्तृत वृत्ति लिखी है, इसे तृतीय अंग-स्थानांग का उपांग कहा है। __ प्रस्तुत जीवाजीवाभिगमसूत्र की आदि में स्थविर भगवंतों को इस अध्ययन के प्ररूपक के रूप में प्रतिपादित किया गया है - इह खल जिणमयं जिणाणमयं, जिणाणुलोमं, जिणप्पणीयं,जिणपरूवियं, जिणक्खायं, जिणाणचिण्णं, जिणपण्णत्तं, जिणदेसियं, जिणपसत्थं, अणुव्वीइय, तं सद्दहमाणा, तं पत्तियमाणा, तं रोयमाणा थेरा भगवंतो जीवाजीवाभिगमणाममज्झयणं पण्णवइंस। समस्त जिनेश्वरों द्वारा अनुमत, जिनानुलोम जिनप्रणीत, जिनप्ररूपित, जिनाख्यात, जिनानुचीर्ण, जिनप्रज्ञप्त और जिनदेशित इस प्रशस्त जिनमत का चिन्तन करके, इस पर श्रद्धा, विश्वास एवं रुचि करके स्थविर भगवन्तों ने जीवाजीवाभिगम नामक अध्ययन की प्ररूपणा की। उक्त कथन द्वारा यह स्पष्ट किया गया है कि प्रस्तुत सूत्र की रचना स्थविर भगवन्तों ने की है। वे स्थविर भगवन्त तीर्थंकरों के प्रवचन के सम्यग्ज्ञाता थे। उनके वचनों पर श्रद्धा, विश्वास व रुचि रखने वाले थे। इससे यह ध्वनित किया गया है कि ऐसे स्थविरों द्वारा प्ररूपित आगम भी उसी प्रकार प्रमाणरूप है, जिस प्रकार सर्वज्ञ सर्वदर्शी तीर्थंकर परमात्मा द्वारा प्ररूपित आगम प्रमाणरूप हैं । क्योंकि स्थविरों की यह रचना तीर्थंकरों के वचनों से अविरुद्ध है। प्रस्तुत पाठ में आए हुए जिनमत के विशेषणों का स्पष्टीकरण उक्त मूलपाठ के विवेचन में किया गया है। प्रस्तुत सूत्र का नाम जीवाजीवाभिगम है, परन्तु मुख्य रूप से जीव का प्रतिपादन होने से अथवा संक्षेप दृष्टि से यह सूत्र जीवाभिगम के नाम से जाना जाता है। जैन तत्त्वज्ञान प्रधानतया आत्मवादी है । जीव या आत्मा इसका केन्द्रबिन्दु है । वैसे तो जैनसिंद्धात ने नौ १. एयं दुवालसंगं गणिपिटगं ण क यावि णासि, ण कयावि ण भवइ, ण कयावि ण भविस्सइ, धुवं णिच्चं. सासयं। - नन्दीसूत्र १०]
SR No.003455
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_jivajivabhigam
File Size5 MB
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