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सर्वजीवाभिगम ]
२५८.
जो ऐसा कहते हैं कि सर्व जीव दस प्रकार के हैं, वे इस प्रकार प्रतिपादन करते हैं, यथापृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय और अनिन्द्रिय ।
भगवन्! पृथ्वीकायिक, पृथ्वीकायिक के रूप में कितने समय तक रहता हैं? गौतम! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से असंख्यातकाल तक, जो असंख्यात उत्सर्पिणी- अवसर्पिणी रूप (कालमार्गणा) से है और क्षेत्रमार्गणा से असंख्येय लोकाकाशप्रदेशों के निर्लेपकाल के तुल्य है। इसी प्रकार अप्कायिक, तेजस्कायिक और वायुकायिक की संचिट्ठणा जाननी चाहिए ।
भगवन्! वनस्पतिकायिक की संचिट्ठणा कितनी है ?
गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है ।
भगवन् ! द्वीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय रूप में कितने समय तक रह सकता है ?
गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट संख्यातकाल तक रह सकता है। इसी प्रकार त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय की भी संचिट्ठणा जाननी चाहिए ।
भगवन् ! पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय रूप में कितने समय तक रहता है ?
गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष साधिक एक हजार सागरोपम तक रह सकता है।
भगवन्! अनिन्द्रिय, अनिन्द्रिय रूप में कितने समय तक रहता है ?
गौतम! वह सादि-अपर्यवसित होने ने सदा उसी रूप में रहता है।
भगवन् ! पृथ्वीकायिक का अन्तर कितना है ?
गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है । इसी प्रकार अप्कायिक, तेजस्कायिक और वायुकायिक का भी अन्तर जानना चाहिए। वनस्पतिकायिकों का अन्तर वही है जो पृथ्वीकायिक की संचिणा है, अर्थात् जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से असंख्येयकाल है । इसी प्रकार द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय इन चारों का अन्तर जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है । अनिन्द्रिय सादि- अपर्यवसित होने से उसका अन्तर नहीं है ।
भगवन् ! इन पृथ्वीकायिक! अप्कायिक! तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय और अनिन्द्रियों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक है ?
गौतम! सबसे थोड़े पंचेन्द्रिय हैं, उनसे चतुरिन्द्रिय विशेषाधिक हैं, उनसे त्रीन्द्रिय विशेषाधिक हैं, उनसे द्वीन्द्रिय विशेषाधिक हैं, उनसे तेजस्कायिक असंख्यातगुण हैं, उनसे पृथ्वीकायिक विशेषाधिक हैं, उनसे अप्कायिक विशेषाधिक हैं, उनसे वायुकायिक विशेषाधिक हैं, उनसे अनिन्द्रिय अनन्तगुण हैं और उनसे वनस्पतिकायिक अनन्तगुण हैं ।
विवेचन- इन सबकी युक्ति और भावना पूर्व में स्थान-स्थान पर कही गई है । अत: पुनरावृत्ति नहीं की जा रही है । जिज्ञासुजन यथास्थान पर देखें ।