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सर्वजीवाभिगम ]
२४६. अथवा सर्व जीव चार प्रकार के हैं - चक्षुर्दर्शनी, अचक्षुर्दर्शनी, अवधिदर्शनी और केवलदर्शनी । भगवन् ! चक्षुर्दर्शनी काल से लगातार कितने समय तक चक्षुर्दर्शनी रह सकता है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट साधिक एक हजार सागरोपम तक रह सकता है । अचक्षुर्दर्शनी दो प्रकार के हैं - अनादि - अपर्यवसित और अनादि सपर्यवसित ।
अवधिदर्शनी लगातार जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से साधिक दो छियासठ सागरोपम तक रह सकता है।
केवलर्दर्शनी सादि - अपर्यवसित है ।
चक्षुर्दर्शनी का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है। दोनों प्रकार के अचक्षुर्दर्शनी का अन्तर नहीं है । अवधिदर्शनी का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष वनस्पतिकाल है । केवलदर्शनी का अन्तर नहीं है ।
अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े अवधिदर्शनी, उनसे चक्षुर्दर्शनी असंख्येयगुण हैं, उनसे केवलदर्शनी अनन्तगुण हैं और उनसे अचक्षुर्दर्शनी भी अनन्तगुण हैं ।
'विवेचन - दर्शन को लेकर सब जीवों का चातुर्विध्य इस सूत्र में बताकर उनकी कायस्थिति, अन्तर और अल्पबहुत्व प्रतिपादित किया गया है।
कायस्थिति - चक्षुर्दर्शनी, चक्षुर्दर्शनीरूप में जघन्य से अन्तर्मुहूर्त तक रह सकता है। अचक्षुर्दर्शनी से निकलकर चक्षुर्दर्शनी में अन्तर्मुहूर्त काल तक रहकर पुनः अचक्षुर्दर्शनी में जा सकता है । उत्कर्ष से साधिक एक हजार सागरोपम तक रह सकता है ।
अचक्षुर्दर्शनी दो प्रकार के हैं - अनादि- अपर्यवसित जो कभी सिद्धि प्राप्त नहीं करेगा और अनादिअपर्यवसित भव्य जीव जो सिद्धि प्राप्त करेगा । अनादि और अपर्यवसित की कालमर्यादा नहीं है ।
अवधिदर्शनी उसी रूप में जघन्य से एक समय तक रहता है । अवधिदर्शन प्राप्त करने के पश्चात् कोई एक समय में ही मरण को प्राप्त हो जाय अथवा मिथ्यात्व में जाने से या दुष्ट अध्यवसाय के कारण अवधि से प्रतिपात हो सकता है । उत्कर्ष से साधिक दो छियासठ (६६+६६) सागरोपम तक रह सकता है। इसकी युक्ति इस प्रकार है
कोई विभंगज्ञानी तिर्यंच या मनुष्य नीचे सप्तम पृथ्वी में उत्पन्न हुआ। वहां तेतीस सागरोपम तक रहा । उद्वर्तनाकाल नजदीक आने पर सम्यक्त्व को पाकर पुनः उसे छोड़ देता है और विभंगज्ञान सहित पूर्वकोटि आयु वाले तिर्यंच में उत्पन्न हुआ और वहां से पुनः विभंगसहित ही अधः सप्तमी पृथ्वी में उत्पन्न हुआ और तेतीस सागरोपम तक स्थित रहा। उद्वर्तनाकाल में थोड़ी देर सम्यक्त्व पाकर दो बार सप्तम पृथ्वी में उत्पन्न होने तथा दो बार तिर्यंच में उत्पन्न होने से साधिक ६६ सागरोपम काल होता है । विग्रह में विभंग का प्रतिषेध होने से अविग्रह रूप से उत्पन्न होना कहना चाहिए ।"
१. विभंगणाणी पंचेंदिय तिरिक्खजोणिया मणुया य आहारगा, नो अनाहारगा ।