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________________ सर्वजीवाभिगम ] [१९५ अन्तरद्वार-मनोयोगी का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त है। इसके बाद पुनः विशिष्ट मनोयोग पुद्गलों का ग्रहण संभव है। उत्कर्ष से वनस्पतिकाल है । इतने काल तक वनस्पति में रहकर पुनः मनोयोगियों में आगमन संभव है 1 इसी तरह वाग्योगी का जघन्य और उत्कर्ष अन्तर भी जान लेना चाहिए । काययोगी का जघनय अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अंतर अन्तर्मुहूर्त कहा है । यह कथन औदारिककाययोग की अपेक्षा से कहा गया है। क्योंकि दो समय वाली अपान्तरालगति में एक समय का अन्तर है। उत्कर्ष से अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है । यह कथन परिपूर्ण औदारिकशरीरपर्याप्ति की परिसमाप्ति की अपेक्षा से है। वहां विग्रह समय लेकर औदारिकशरीरपर्याप्ति की समाप्ति तक अन्तर्मुहूर्त का अन्तर है। अतः उत्कर्ष से अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा गया है । वृत्तिकार ने इस कथन के समर्थन में चूर्णिकार के कथन को उद्धृत किया है। साथ ही वृत्तिकार ने कहा है कि ये सूत्र विचित्र अभिप्राय से कहे गये होने से दुर्लक्ष्य हैं, अतएव सम्यक् सम्प्रदाय से इन्हें समझा जाना चाहिए। वह सम्यक् सम्प्रदाय इसी रूप में है, अतएवं वह युक्तिसंगत है । सूत्राभिप्राय को समझे बिना अनुपपत्ति की उद्भावना नहीं करनी चाहिए। केवल सूत्रों की संगति करने में यत्न करना चाहिए ।" अल्पबहुत्वद्वार - सबसे थोड़े मनोयोगी हैं, क्योंकि देव, नारक, गर्भज तिर्यक् पंचेन्द्रिय और मनुष्य ही मनोयोगी हैं। उनसे वचनयोगी असंख्येयगुण हैं, क्योंकि द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय वाग्योगी हैं। उनसे अयोगी अनन्तगुण हैं, क्योंकि सिद्ध अनन्त हैं। उनसे काययोगी अनन्तगुण हैं, क्योंकि सिद्धों से वनस्पति जीव अनन्तगुण हैं । २४५. अहवा चडव्विहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तं जहा - इत्थिवेयगा पुरिसवेयगा नपुंसकवेयगा अवेयगा । इत्थवेयगाणं भंते! इत्थवेयएत्ति कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! (एगेण आएसेणं० ) पलियसयं दसुत्तरं अट्ठारस चोद्दस पलियपुहुत्तं समओ जहण्णेणं । पुरिसवेयस्स जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेण सागरोवमसयपुहुत्तं साइरेगं । नपुंसगवेयस्स जहन्नेणं एक्वं समयं उक्कोसेणं अणंतं कालं वणस्सइकालो । अवेयए दुविहे पण्णत्ते, साइए वा अपज्जवसिए, साइए वा सपज्जवसिए । से जहन्त्रेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं । इत्थिवेयस्स अंतरं जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेण वणस्सइकालो । पुरिसवेयस्स जहन्नेणं " १. न चैतत् स्वमनीषिका विजृम्भितं यत आह चूर्णिकृत् - " कायजोगिस्स जह एकं समयं, कहं ? एकसामयिकविग्रहगतस्य " उक्कोसं अंतोमुहुत्तं, विग्रहसमयादारभ्य औदारिकशरीरपर्याप्तकस्य यावदेवं अन्तर्मुहूर्तम् दृष्टव्यम् । सूत्राणि ह्यमूनि विचित्राभिप्रायतया दुर्लक्ष्याणीति सम्यक्सम्प्रदायादवसातव्यानि । सम्प्रदायश्च यथोक्तस्वरूपमिति न काचिदनुपपत्तिः । न च सूत्राभिप्रायमज्ञात्वा अनुपपत्तिरूपाभावनीया ।
SR No.003455
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_jivajivabhigam
File Size5 MB
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