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________________ [ जीवाजीवाभिगमसूत्र ९६] सूर्य सिंहासन पर कहना चाहिए। उसी तरह ग्रहादि की भी चार अग्रमहिषियां हैं- विजया, वेजयंती, जयंति और अपराजिता । इनके सम्बन्ध में भी पूर्ववत् कथन करना चाहिए । १९७. चंदविमाणे णं भंते ! देवाणं केवइयं कालं ठिइ पण्णत्ता? एवं जहा ठिईपए तहा भाणियव्वा जाव ताराणं । एएसि णं भंते ! चंदिमसूरियगहणक्खत्ततारारूवाणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा, वहुया वा, तुल्ला वा, विसेसाहिया वा? गोयमा ! चंदिमसूरिया एए णं दोण्णिवि तुल्ला सव्वत्थोवा । संखेज्जगुणा णक्खत्ता, संखेज्जगुणा गहा, संखेज्जगुणाओ ताराओ । जोइसुद्देसओ समत्तो । १९७. भगवन् ! चन्द्रविमान में देवों की कितनी स्थिति कही गई है ? इस प्रकार प्रज्ञापना में स्थितिपद के अनुसार तारारूप पर्यन्त स्थिति का कथन करना चाहिए । भगवन् ! इन चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और ताराओं में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक है ? गौतम ! चन्द्र और सूर्य दोनों तुल्य हैं और सबसे थोड़े हैं। उनसे संख्यातगुण नक्षत्र हैं। उनसे संख्यातगुण ग्रह हैं, उनसे संख्यातगुण तारागण हैं । ज्योतिष्क उद्देशक पूरा हुआ। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में स्थिति के सम्बन्ध में प्रज्ञापना के स्थितिपद की सूचना की गई है। वह इस प्रकार है - चन्द्र विमान में चन्द्र, सामानिक देव तथा आत्मरक्षक देवों की जघन्य स्थिति पल्योपम के चतुर्थ भाग प्रमाण और उत्कृष्ट स्थिति एक हजार वर्ष अधिक एक पल्योपम की है।. यहाँ देवियों की स्थिति जघन्य पल्योपम के चतुर्थ भाग प्रमाण और उत्कृष्ट पांच सौ वर्ष अधिक आधे पल्योपम की है। सूर्य विमान में देवों की जघन्य स्थिति १ / ४ पल्योपम और उत्कृष्ट एक हजार वर्ष अधिक एक पल्योपम की है। यहां देवियों की स्थिति जघन्य १/४ पल्योपम और उत्कृष्ट पांच सौ वर्ष अधिक आधा पल्योपम की है । ग्रहविमानगत देवों की जघन्य स्थिति १/४ पल्योपम और उत्कृष्ट एक पल्योपम की है । यहां देवियों की स्थिति जघन्य पल्योपम का चतुर्थभाग और उत्कृष्ट आधा पल्योपम है । नक्षत्रविमान में देवों की जघन्य स्थिति १/४ पल्योपम और उत्कृष्ट एक पल्योपम की है। यहां देवियों की जघन्य स्थिति १/४ पल्योपम और उत्कृष्ट कुछ अधिक १/४ पल्योपम की है । ताराविमान में देवों की जघन्य स्थिति १/८ पल्योपम की और उत्कृष्ट १/२ पल्योपम है। देवियों की स्थिति जघन्य १/८ पल्योपम और उत्कृष्ट कुछ अधिक पल्योपम का १/८ भाग प्रमाण है । ॥ ज्योतिष्क उद्देश्क समाप्त ॥
SR No.003455
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_jivajivabhigam
File Size5 MB
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