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तृतीय प्रतिपत्ति : मानुषोत्तरपर्वत की वक्तव्यता]
[४१ से केणढेणं भंते ! एवं वुच्चइ अन्भिंतरपुक्खरद्धे य अभिंतरपुक्खरद्धे य?
गोयमा ! अभिंतरपुक्खरद्धेणं माणुसुत्तरेणं पव्वएणं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते। से एएणटेणं गोयमा ! अभिंतरपुक्खरद्धे य अब्भितरपुक्खरद्धे य। अदुत्तरं च णं जाव णिच्चे।
अभिंतरपुक्खरद्धे णं भंते ! के वइया चंद्गा पभासिंसु ३, सा चेव पुच्छा जाव तारागणकोडिकोडीओ? गोयमा !
बावतरं च चंदा बावत्तरिमेव दिणकरा दित्ता। पुक्खर वरदीवड् ढे चरं ति एते पभासेंता ॥१॥ तिणि सया छत्तीसा छच्च सहस्सा महग्गहाणं तु। णक्खत्ताणं तु भवे सोलाई दुवे सहस्साइं ॥२॥ अडयाल सयसहस्सा बावीसं खलु भवे सहस्साइं।
दोण्णि सया पुक्खरद्धे तारागण कोडिकोडीणं ॥३॥ १७६. (आ) पुष्करवरद्वीप के बहुमध्यभाग में मानुषोत्तर नामक पर्वत है, जो गोल है और वंलयकार संस्थान से संस्थित है। वह पर्वत पुष्करवरद्वीप को दो भागों में विभाजित करता हैआभ्यन्तर पुष्करार्ध और बाह्य पुष्कराई।
भगवन् ! आभ्यन्तर पुष्करार्ध का चक्रवालविष्कंभ कितना है और उसकी परिधि कितनी है ?
गौतम ! आठ लाख योजन का उसका चक्रवालविष्कंभ है और उसकी परिधि एक करोड़, बयालीस लाख, तीस हजार, दो सौ उनपचास (१,४२,३०,२४९) योजन की है। मनुष्यक्षेत्र की परिधि भी यही है।
भगवन् ! आभ्यन्तर पुष्करार्ध आभ्यन्तर पुष्करा क्यों कहलाता है ?
गौतम ! आभ्यन्तर पुष्करार्ध सब ओर से मानुषोत्तरपर्वत से घिरा हुआ है । इसलिये वह आभ्यन्तर पुष्करार्ध कहलाता है। दूसरी बात यह है कि वह नित्य है (अत: यह अनिमित्तक नाम है।)
भगवन् ! आभ्यन्तर पुष्करार्ध में कितने चन्द्र प्रभासित होते थे, होते हैं और होंगे, आदि वही प्रश्न तारागण कोडाकोडी पर्यन्त करना चाहिए। ___ गौतम ! बहत्तर चन्द्रमा और बहत्तर सूर्य प्रभासित होते हुए पुष्करवरद्वीपार्ध में विचरण करते हैं ॥१॥ ___छह हजार तीन सौ छत्तीस महाग्रह और दो हजार सोलह नक्षत्र गति करते हैं और चन्द्रादि से योग करते हैं ॥२॥
अड़तालीस लाख बावीस हजार दो सौ ताराओं की कोडाकोडी वहां शोभित होती थी, शोभित होती हैं और शोभित होगी ॥३॥