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________________ पञ्चविधाख्या चतुर्थ प्रतिपत्ति ] [ १२५ भगवन् ! त्रीन्द्रिय की पृच्छा ? संख्यात रात-दिन तक रहता है । चतुरिन्द्रय संख्यात मास तक रहता है पर्याप्त पंचेन्द्रिय साधिकसागरोपमशतपृथक्त्व तक रहता है । भगवन् ! एकेन्द्रिय का अन्तर कितना कहा गया है? गौतम! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट दो हजार सागरोपम और संख्यात वर्ष अधिक का अन्तर है । भगवन! द्वीन्द्रिय का अन्तर कितना है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है। इसी प्रकार त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय का तथा अपर्याप्तक और पर्याप्तक का भी अन्तर इसी प्रकार कहना चाहिए । विवेचन-भवस्थिति संबंधी सूत्र तो स्पष्ट ही है । कायस्थिति तथा अन्तरद्वार की स्पष्टता इस प्रकार है केन्द्रिय की कायस्थिति जघन्य अन्तर्मुहुर्त है, तदनन्तर मरकर द्वीन्द्रियादि में उत्पन्न हो सकते हैं । उत्कृष्ट अनन्तकाल अर्थात् वनस्पतिकाल है । वनस्पति एकेन्द्रिय होने से एकेन्द्रियपद में उसका भी ग्रहण है । द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय सूत्रों में उत्कृष्ट कार्यस्थिति संख्येयकाल अर्थात् संख्येय हजार वर्ष है, क्योंकि ‘“विगलिंदियाणं वाससहस्सासंखेज्जा" ऐसा कहा गया है. पंचेन्द्रिय सूत्र में उत्कृष्ट कायस्थिति हजार सागरोपम से कुछ अधिक है - इतने काल तक नैरयिक, तिर्यक्, मनुष्य और देव भव में पंचेन्द्रिय रूप से बना रह सकता है। 1 एकेन्द्रियादि अपर्याप्तक सूत्रों में जघन्य और उत्कृष्ट कायस्थिति अन्तर्मुहूर्त प्रमाण ही है, क्योंकि अपर्याप्तलब्धि का कालप्रमाण इतना ही है । एकेन्द्रिय-पर्याप्त सूत्र उत्कृष्ट कार्यस्थिति संख्येय हजार वर्ष है। एकेन्द्रियों में पृथ्वीकाय की उत्कृष्ट भवस्थिति बावीस हजार वर्ष है, अप्काय की सात हजार वर्ष, तेजस्काय की तीन अहोरात्र, वायुकाय की तीन हजार वर्ष, वनस्पतिकाय की दस हजार वर्ष की भवस्थिति है, अतः निरन्तर कतिपय पर्याप्त भवों को जोड़ने पर संख्येय हजार वर्ष ही घटित होते हैं । द्वीन्द्रिय पर्याप्त में उत्कृष्ट संख्येय वर्ष की कायस्थिति है। क्योंकि द्वीन्द्रिय की उत्कृष्ट भवस्थिति बारह वर्ष की है । सब भवों में उत्कृष्ट स्थिति तो होती नहीं, अतः कतिपय निरन्तर पर्याप्त भवों के जोड़ने से संख्येय वर्ष ही प्राप्त होते हैं, सौ वर्ष या हजार वर्ष नहीं । त्रीन्द्रिय-पर्याप्त सूत्र में संख्येय अहोरात्र की कायस्थिति है, क्योंकि उनकी भवस्थिति उत्कृष्ट उनपचास दिन की है । कतिपय निरन्तर पर्याप्त भवों की संकलना करने से संख्येय अहोरात्र ही प्राप्त होते हैं । चतुरिन्द्रिय- पर्याप्त सूत्र में संख्येय मास की उत्कृष्ट कार्यस्थिति है, क्योंकि उनकी भवस्थिति उत्कर्ष से छह मास है । अतः कतिपय निरन्तर पर्याप्त भवों की संकलना से संख्येय मास ही प्राप्त होते हैं। पंचेन्द्रिय-पर्याप्त सूत्र में सातिरेक सागरोपम शतपृथक्त्व की कायस्थिति है । नैरयिक-तिर्यंच-मनुष्य-देवभवों में पंचेन्द्रिय-पर्याप्त के रूप में इतने कालतक रह सकता है। अन्तरद्वार - एकेन्द्रियों का अन्तरकाल जघन्य अन्तर्मुहूर्त है; एकेन्द्रिय से निकलकर द्वीन्द्रियादि में अन्तर्मुहूर्त काल रहकर पुनः एकेन्द्रिय में उत्पन्न होने की अपेक्षा से है । उत्कृष्ट अन्तर संख्येयवर्ष अधिक दो हजार सागरोपम है । जितनी त्रसकाय की कायस्थिति है, उतना ही एकेन्द्रिय का अन्तर है ।
SR No.003455
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_jivajivabhigam
File Size5 MB
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