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________________ १७० ] [ जीवाजीवाभिगमसूत्र (८) कोई कहते है कि सब जीव नौ प्रकार के हैं, यथा- एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रय, नैरयिक, तिर्यंच, मनुष्य, देव और सिद्ध । (९) कोई कहते है कि सब जीव दस प्रकार के हैं, यथा- पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय और अतीन्द्रिय । उक्त नौ प्रतिपत्तियों में से प्रत्येक में और भी विवक्षा से अन्य भेद भी किये गये हैं, जो यथास्थान कहे जायेंगे । जो ऐसा प्रतिपादन करते हैं कि सब जीव दो प्रकार के हैं, उनका मन्तव्य हैं कि सब जीवों का समावेश सिद्ध और असिद्ध इन दो भेदों में हो जाता है । जिन्होंने आठ प्रकार के बंधे हुए कर्मों को भस्मीकृत कर दिया है, वे सिद्ध हैं।' अर्थात् जो कर्मबंधनों से सर्वथा मुक्त हो चुके हैं, वे सिद्ध हैं । जो संसार के एवं कर्म के बन्धनों से मुक्त नहीं हुए हैं, वे असिद्ध हैं । सिद्ध सदा काल निजस्वरूप में रमण करते रहते हैं, अतः उनकी कालमर्यादारूप भवस्थिति नहीं कही गई है। उनकी कायस्थिति अर्थात् सिद्धत्व के रूप में उनकी स्थिति सदा काल रहती है। सिद्ध सादि - अपर्यवसित हैं । अर्थात् संसार से मुक्ति के समय सिद्धत्व की आदि है और सिद्धत्व की कभी च्युति न होने से अपर्यवसित हैं । असिद्ध दो प्रकार के हैं- अनादि- अपर्यवसित और अनादि सपर्यवसित। जो अभव्य होने से या तथाविध सामग्री के अभाव से कभी सिद्ध नहीं होगा, वह अनादि- अपर्यवसित असिद्ध है। जो सिद्धि को प्राप्त करेगा वह अनादि - सपर्यवसित है, अर्थात् अनादि संसार का अन्त करने वाला है। जब तक वह मुक्ति नहीं प्राप्त कर लेता, तब तक असिद्ध, असिद्ध के रूप में रहता है । 1 सिद्ध सिद्धत्व से च्युत होकर फिर सिद्ध नहीं बनते, अतएव उनमें अन्तर नहीं है । वे सादि और अपर्यवसित हैं, अतः अन्तर नहीं है। असिद्धों में जो अनादि- अपर्यवसित हैं, उनका असिद्धत्व कभी छूटेगा ही नहीं, अतः अन्तर नहीं है। जो अनादि सपर्यवसित हैं, उनका भी अन्तर नहीं हैं, क्योंकि मुक्ति से पुनः आना नहीं होता । अल्पबहुत्वद्वार में सिद्ध थोड़े है और असिद्ध अनन्तगुण हैं, क्योंकि निगोदजीव अतिप्रभूत हैं । २३२. अहवा दुविहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तं जहा सइंदिया चेव अणिंदिया चेव । सइंदिए णं भंते! सइंदिएत्ति कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! सइंदिए दुविहे पण्णत्ते, -अणाइए वा अपज्जवसिए, अणाइए वा सपज्जवसिए । अणिंदिए साइए वा अपज्जवसिए, दोहवि अंतरं णत्थि । सव्वत्थोवा अणिंदिया, सइंदिया अणंतगुणा । अहवा दुविहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तं जहा - सकाइया चेव अकाइया चेव । एवं चेव । एवं सजोगी चेव अजोगी चेव तहेव, १. सितं बद्धमष्टप्रकारं कर्म ध्मातं- भस्मीकृतं यैस्ते सिद्धाः । - वृतिः
SR No.003455
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_jivajivabhigam
File Size5 MB
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