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________________ २०२] [जीवाजीवाभिगमसूत्र रहता है। इसके बाद पुनः कोई संयत हो सकता है। उत्कर्ष से अनन्तकाल तक जो अनन्त उत्सर्पिणीअवसर्पिणी रूप (कालमार्गणा से) है और क्षेत्रमार्गणा से देशोन अपार्धपुद्गलपरावर्त रूप है। संयतासंयत की कायस्थिति जघन्य से अन्तर्मुहूर्त है। संयतासंयतत्व की प्राप्ति बहुत सारे भंगों से होती है, फिर भी उसका जघन्य से अन्तर्मुहूर्त तो है ही। उत्कर्ष से देशोन पूर्वकोटि है। बालकाल में उसका अभाव होने से देशोनता जाननी चाहिए। नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत सिद्ध हैं। वे सादि-अपर्यवसित हैं । सदा उस रूप में रहते हैं। अन्तरद्वार-संयत का अन्तर जघन्य से अन्तर्मुहूर्त है। इतने काल के असंयतत्व से पुनः कोई संयतत्व में आ सकता है। उत्कर्ष से अन्तर अनन्तकाल है, जो क्षेत्र से देशोन पुद्गलपरावर्त रूप है। जिसने पहले संयम पाया है, वह इतने काल के व्यवधान के बाद नियम से संयम लाभ करता है। अनादि-अपर्यवसित असंयत का अन्तर नहीं है। अनादि-सपर्यवसित असंयत का भी अन्तर नहीं है। सादि-सपर्यवसित असंयत का अन्तर जघन्य एक समय और उत्कर्ष से देशोन पूर्वकोटि है। असंयतत्व का व्यवधान रूप संयतकाल और संयतासंयतकाल उत्कर्ष से इतना ही है। संयतासंयत का अन्तर जघन्य से अन्तर्मुहूर्त है। क्योंकि उससे गिरकर कोई पुनः इतने काल में संयतासंयत हो सकता है। उत्कर्ष से संयत की तरह कहना चाहिए। नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत सिद्ध हैं । वे सादि-अपर्यवसित होने से अन्तर नहीं है। अपर्यवसित होने से सदा उस रूप में रहते हैं। अल्पबहुत्वद्वार-सबसे थोड़े संयत हैं, क्योंकि वे संख्येय कोटि-कोटि प्रमाण हैं । उनसे संयतासंयत असंख्येयगुण हैं, क्योंकि असंख्येय तिर्यंच देशविरति वाले हैं। उनसे त्रितयप्रतिषेध रूप सिद्ध अनन्तगुण हैं और उनसे असंयत अनन्तगुण हैं, क्योंकि सिद्धों से वनस्पतिजीव अनन्तगुण हैं। सर्वजीव-पञ्चविध-वक्तव्यता २४८. तत्थ जेते एवमाहंसु पंचविहा सव्वजीवा पण्णत्ता, ते एवमाहंसु, तं जहाकोहकसाई माणकसाई मायाकसाई लोभकसाई अकसाई। कोहकसाई माणकसाई मायाकसाई णं जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं। लोभकसाई जहन्नेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं अंतोमुहृत्तं । अकसाई दुविहे जहा हेट्ठा। कोहकसाई-माणकसाई-मायाकसाई णं अंतरं जहन्नेणं एवं समय उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं लोहकसाइस्स अंतरं जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं। अकसाई तहा जहा हेट्ठा। ____अप्पाबहुयं-अकसाइणो सव्वत्थोवा, माणकसाई तहा अणंतगुणा। कोहे माया लोभे विसेसहिया मुणेयव्वा।
SR No.003455
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_jivajivabhigam
File Size5 MB
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