SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 198
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सर्वजीवाभिगम ] में उत्पन्न होने की अपेक्षा से है । लोकनिष्कुट आदि में उत्पन्न होने की स्थिति में चार समय की या पांच समय की भी विग्रहगति होती है, परन्तु बाहुल्य से तीन समय की विग्रहगति होती है । उसी को लेकर यह सूत्र कहा गया है। अन्य पूर्वाचार्यों ने भी यही कहा । जैसा कि तत्त्वार्थसूत्र में " एकं द्वौ वा अनाहारकाः" कहा है।' तीन समय की विग्रहगति में से दो समय अनाहारकत्व के हैं। उन दो समयों को छोड़कर शेष क्षुल्लकभव तक जघन्य रूप से आहारक रह सकता है। उत्कर्ष से असंख्यातकाल तक आहारक रह सकता है । यह असंख्येकाल कालमार्गणा से असंख्येय उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी प्रमाण है और क्षेत्रमार्गणा की अपेक्षा अंगुलासंख्येय भाग है। अर्थात् अंगुलमात्र के असंख्येयभाग में जितने आकाश-प्रदेश हैं, उनका प्रतिसमय एक-एक अपहार करने पर जितने काल में वे निर्लेप होते हैं, उतनी उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी रूप हैं । इतने काल तक जीव अविग्रह रूप से उत्पन्न हो सकता है और अविग्रह से उत्पत्ति में सतत आहारकत्व होता है। [ १७९ केवली - आहारक की जघन्य कायस्थिति अन्तर्मुहूर्त है । यह अन्तकृतकेवली की अपेक्षा से है । उत्कर्ष से देशोनपूर्वकोटि है। यह पूर्वकोटि आयु वाले को नौ वर्ष की वय में केवलज्ञान उत्पन्न होने की अपेक्षा से है । अनाहारक दो प्रकार के हैं- छद्मस्थ - अनाहारक और केवली - अनाहारक। छद्मस्थ-अनाहारक जघन्य से एक समय तक अनाहारक रह सकता है । यह दो समय की विग्रहगति की अपेक्षा से है । उत्कर्ष से दो समय अनाहारक रह सकता है। यह तीन समय की विग्रहगति की अपेक्षा से है। चूर्णिकार ने कहा है कि यद्यपि भगवति में चार समय तक अनाहारकत्व कहा है, तथापि वह कादाचित्क होने से यहां उसे स्वीकार न कर बाहुल्य को प्रधानता दी गई है । बाहुल्य से दो समय तक अनाहारक रह सकता है । केवली - अनाहारक दो प्रकार के हैं- भवस्थकेवली - अनाहारक और सिद्धकेवली - अनाहारक । सिद्धकेवली - अनाहारक सादि-अपर्यवसित । सिद्धों के सादि- अपर्यवसित होने से उनका अनाहारकत्व भी सादि - अपर्यवसित है । भवस्थकेवली-अनाहारक दो प्रकार के हैं-संयोगिभवस्थकेवली - अनाहारक और अयोगिभवस्थकेवली-अनाहारक । अयोगिभवस्थकेवली - अनाहारक जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से भी अन्तर्मुहूर्त तक अनाहारक रह सकता है। अयोगित्व शैलेशी - अवस्था में होता हैं । उसमें नियम से वह अनाहारक ही होता है, क्योंकि औदारिककाययोग उस समय नहीं रहता । शैलेशी - अवस्था का कालमान जघन्य से भी अन्तर्मुहूर्त है और उत्कर्ष से भी अन्तर्मुहूर्त ही है । परन्तु जघन्यपद से उत्कृष्टपद अधिक जानना चाहिए, अन्यथा उभयपद देने की आवश्यकता नहीं थी । १. " एकै द्वौ वा अनाहारका :- " तत्त्वार्थ. अ. २, सू. ३१ २. यद्यपि भगवत्यां चतु:सामयिकोऽनाहारकः उक्तस्तथापि नांगीक्रियते, कदाचित्कोऽसो भावो येन, बाहुल्यमेवाङ्गीक्रियते; बाहुल्याच्च समयद्वयमेवेति । -वृत्तिः
SR No.003455
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_jivajivabhigam
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy