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________________ १८०] __ [जीवाजीवाभिगमसूत्र सयोगिभवस्थकेवली-अनाहारक जघन्य और उत्कर्ष के भेद बिना तीन समय तक रह सकता है। यह अष्ट-सामयिक केवलीसमुद्घात की अवस्था में तीसरे, चौथे और पांचवे समय में केवल कार्मणकाययोग ही होता है। अतः उन तीन समयों में वह नियम से अनाहारक होता है।' अन्तरद्वार-छद्मस्थ-आहारक का अन्तर जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से दो समय है। जितना काल जघन्य और उत्कर्ष से छद्मस्थ-अनाहारक का है, उतना ही काल छद्मस्थ-आहारक का अन्तरकाल है। वह काल जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से दो समय अनाहारकत्व का है। अतः छद्म-आहारकत्व का अन्तर जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से दो समय कहा है। केवली-आहारक का अन्तर अजधन्योत्कर्ष से तीन समय का है। केवली-आहारक सयोगीभवस्थकेवली होता है। उसका अनाहारकत्व तीन समय का ही है जो पहले बताया जा चुका है। केवली-आहारक का अन्तर यही तीन समय का है। छद्मस्थ-अनाहारक का अन्तर जघन्य से दो समय कम क्षुल्लकभव है और उत्कर्ष से असंख्येकाल यावत् अंगुल का असंख्येय भाग है । इसकी स्पष्टता पहले की जा चुकी है। जितना छद्म का आहारकाल है, उतना ही छद्मस्थ-अनाहारक का अन्तर है। सिद्धकेवली-अनाहारक सादि-अपर्यवसित होने से अंतर नहीं है। सयोगिभवस्थकेवलि-अनाहारक का अन्तर जघन्य से भी अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट से भी अन्तर्मुहूर्त है। क्योंकि केवलि-समुद्घात करने के अनन्तर अन्तर्मुहूर्त में ही शैलेशी-अवस्था हो जाती है। यहां भी जघन्यपद से उत्कृष्टपद विशेषाधिक समझना चाहिए। अयोगिभवस्थकेवली-अनाहारक का अन्तर नहीं है। क्योंकि अयोगी-अवस्था में सब अनाहारक ही होते हैं । सिद्धों में भी सादि-अपर्यवसित होने से अनाहारक का अन्तर नहीं है। ___ अल्पबहुत्वद्वार-सबसे थोड़े अनाहारक हैं, क्योंकि सिद्ध, विग्रहगतिसमापन्नक, समुद्घातगतकेवली और अयोगीकेवली और अयोगीकेवली ही अनाहारक हैं। उनसे आहारक असंख्येयगुण हैं। __यहाँ शंका हो सकती है कि सिद्धों से वनस्पतिजीव अनन्तगुण हैं और वे प्रायः आहारक हैं तो अनन्तगुण क्यों नहीं कहा गया है? समाधन यह है कि प्रतिनिगोद का असंख्येयभाग प्रतिसमय सदा विग्रहगतिमें होता है और विग्रहगति में जीव अनाहारक होते हैं। इसलिए आहारक असंख्येयगुण ही घटित होते हैं, अनन्तगुण नहीं। ___ यहां वृत्ति में क्षुल्लक भव के विषय में जानकारी दी गई है। वह उपयोगी होने से यहां भी दी जा रही है। क्षुलकभव-क्षुल्लक का अर्थ लघु या स्तोक है। सबसे छोटे भव (लघु आयु का संवेदनकाल) का ग्रहण क्षुल्लकभवग्रहण है। आवलिकाओं के मान से वह दो सौ छप्पन आवलिका का होता है। एक १. कार्मणशरीरयोगी चतुर्थके पंचमे तृतीये च। समयत्रयेऽपि तस्माद् भवत्यनाहारको नियम त्॥
SR No.003455
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_jivajivabhigam
File Size5 MB
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