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________________ २१०] [जीवाजीवाभिगमसूत्र पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, त्रसकायिक और अकायिक। इनकी संचिट्ठणा और अंतर पहले कहे जा चुके हैं। अल्पबहुत्व इस प्रकार है-सबसे थोड़े त्रसकायिक, उनसे तेजस्कायिक असंख्यातगुण, उनसे पृथ्वीकायिक विशेषाधिक, उनसे अप्कायिक विशेषाधिक, उनसे वायुकायिक विशेषाधिक, उनसे अकायिक अनन्तगुण और उनसे वनस्पतिकायिक अनन्तगुण हैं। इनका स्पष्टीकरण पहले किया जा चुका है। २५३. अहवा सत्तविहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तं जहा-कण्हलेस्सा नीललेस्सा काउलेस्सा तेउलेस्सा पम्हलेस्सा सुक्कलेस्सा अलेस्सा। कण्हलेस्से णं भंते! कण्हलेस्सेत्ति कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं अंतोमुहुत्तमब्भहियाई। णीललेस्से णं जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं दससागरोवमाइं पलिओवमस्स असंखेजइभागमब्भहियाइं। काउलेस्से णं जह० अंतो० उक्को० तिणि सागरोवमाइं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागमब्भहियाइं। तेउलेस्से णं जह० अंतो० उक्को० दोणि सागरोवमाइं पलिओवमस्स असंखेजइभागमभहियाइं। पम्हलेस्से णं जह० अंतो० उक्को० दस सागरोवमाइं अंतोमुहुत्तमब्भहियाइ। सुक्कलेस्से णं भंते! ०? जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं अंतोमुहुत्तमब्भहियाई। अलेस्से णं भंते! ०? साइए अपज्जवसिए। कण्हलेसस्स णं भंते! अंतरं कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! जहन्नेणं अंतो० उक्को०. तेत्तीसं सागरोवमाइं अंतोमुहुत्तमब्भहियाई। एवं नीललेसस्सवि, काउलेसस्सवि। तेउलेसस्स णं भंते! अंतरं कालओ०? जहन्नेणं अंतो० उक्को० वणस्सइकालो। एवं पम्हलेसस्सवि, दोण्हवि एवमंतरं। अलेसस्स णं भंते! अंतरं कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! साइयस्स अपजवसियस्स णत्थि अंतरं। __एएसिणं भंते! जीवाणं कण्हलेसाणं नीललेसाणं काउलेसाणं तेउलेसाणं पम्हलेसाणं सुक्कलेसाणं अलेसाण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा० ? गोयमा! सव्वत्थोवा सुक्कलेस्सा, पम्हलेस्सा संखेजगुणा, तेउलेस्सा संखेजगुण, अलेस्सा अणंतगुणा, काउलेस्सा अणंतगुणा, नीललेस्सा विसेसाहिया, कण्हलेस्सा विसेसाहिया। सेत्तं सत्तविहा सव्वजीवा पण्णत्ता। २५३. अथवा सर्व जीव सात प्रकार के कहे गये हैं-कृष्णलेश्या वाले, नीललेश्या वाले, कापोतलेश्या वाले, तेजोलेश्या वाले, पद्मलेश्या वाले, शुक्ललेश्या वाले और अलेश्य। भगवन् ! कृष्णलेश्या वाला, कृष्णलेश्या वाले के रूप में काल से कितने समय तक रह सकता है? गौतम! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त अधिक तेतीस सागरोपम तक रह सकता है।
SR No.003455
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_jivajivabhigam
File Size5 MB
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