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________________ तृतीय प्रतिपत्ति : समयक्षेत्र (मनुष्यक्षेत्र) का वर्णन] [४९ शुभ तिथि नक्षत्रादि में आरम्भ करते हैं, चाहे जब नहीं। तीर्थकरों की भी आज्ञा है कि प्रवाजन (दीक्षा) आदि कार्य शुभक्षेत्र में शुभ दिशा में मुख रखकर, शुभ तिथि नक्षत्र आदि मुहूर्त में करना चाहिए, जैसा कि पंचवस्तुक ग्रन्थ में कहा है एसा जिणाण आणा खेत्ताइया य कम्मणो भणिया। उदयाइकारणं जं तम्हा सव्वत्थ जइयव्वं ॥१॥ अतएव छद्मस्थों को शुभ क्षेत्र और शुभ मुहूर्त का ध्यान रखना चाहिए। जो अतिशय ज्ञानी भगवन्त हैं वे तो अतिशय के बल से ही सविध्नता या निर्विघ्नता को जान लेते हैं अतएव वे शुभ तिथिमुहुर्तादि की अपेक्षा नहीं रखते । छद्मस्थों के लिए वैसा करना ठीक नहीं हैं । जो लोग यह कहते हैं कि भगवान् ने अपने पास प्रव्रज्या के लिए आये हुए व्यक्तियों के लिए शुभ तिथि आदि नहीं देखी; उनका यह कथन ठीक नहीं है। भगवान् तो अतिशय ज्ञानी हैं। उनका अनुकरण छद्मस्थों के लिए उचित नहीं हैं । अतएव शुभ तिथि आदि शुभ मुहुर्त में कार्यारम्भ करना उचित है। उक्त रीति से ग्रहादि की गति मनुष्यों के सुख-दुःख में निमित्तभूत होती है। १७८.(अ) माणुसुत्तरे णं भंते ! पव्वए केवइयं उड्ढं उच्चत्तेणं? केवइयं उव्वेहेणं? केवइयं मूले विक्खंभेणं ? केवइयं सिहरे विक्खंभेणं ? केवइयं अंतो गिरिपरिरएणं ? केवइयं बाहिं गिरिपरिरएणं? केवइयं मझे गिरिपरिरएणं? केवइयं उवरि गिरिपरिरएणं? गोयमां! माणुसुत्तरे णं पव्वए सत्तरस एक्कवीसाइं जोयणसयाई उड्ढं उच्चत्तेणं, चत्तारि तीसे जोयणसए कोसं च उव्वेहेणं, मूले दसबाबीसे जोयणसए विक्खंभेणं मझे सत्ततेवीसे जोयणसए विक्खंभेणं, उवरि चत्तारिचउवीसे जोयणसए विक्खंभेणं, अंतो गिरिपरिरएणं एगा जोयणकोडी, बायालीसं च सयसहस्साइं तीसं च सहस्साइं, दोण्णि य अउणापण्णे जोयणसए किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं । बाहिरगिरिपरिरएणं-एगा जोयणकोडी, बायालीसं च सयसहस्साइं छत्तीसं च सहस्साई सत्तचोद्दसोत्तरे जोयणसए परिक्खेवेणं। मझे गिरिपरिरएणं-एगा जोयणकोडी बायालीसं च सहसहस्साई चोत्तीसं च सहस्सा अट्ठतेवीसे जोयणसए परिक्खेवेणं। उवरि गिरिपरिरएणं एगा जोयणकोडी बायालीसं च सयसहस्साइं बत्तीसं च सहस्साइं नव य बत्तीसे जोयणसए परिक्खेवेणं। मूले विच्छिण्णे मज्झे संखित्ते उप्पिं तणुए अंतो सण्हे मज्झे बाहिं दरिसणिज्जे ईसिं सण्णिसण्णे सीहणिसाइ, अवद्धजवरासिसंठाणसंठिए सव्वजंबूणयामए अच्छे , सण्हे जाव पडिरूवे। उभओ पासिं दोहिं पउमवरवेइयाहिं दोहि य वणसंडेहिं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते, वण्णओ दोण्हवि॥ १७८. (अ) हे भगवन् ! मानुषोत्तरपर्वत की ऊँचाई कितनी है? उसकी जमीन में गहराई कितनी है? वह मूल में कितना चौड़ा है? मध्य में कितना चौड़ा है और शिखर पर कितना चौड़ा है? उसकी अन्दर की परिधि कितनी है? उसकी बाहरी परिधि कितनी है, मध्य में उसकी परिधि कितनी है और ऊपर की परिधि कितनी है?
SR No.003455
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_jivajivabhigam
File Size5 MB
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