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________________ तृतीय प्रतिपत्ति : स्वयंभूरमणद्वीपगत चन्द्र-सूर्यद्वीप] [२५ हे भगवन् ! जैसे लवणसमुद्र का जल उछलने वाला है, स्थिर नहीं है, क्षुभित होने वाला हैं, अक्षुभित रहने वाला नहीं, वैसे क्या बाहर के समुद्र भी जल उछलते जल वाले हैं या स्थिर जल वाले, क्षुभित जल वाले हैं या अक्षुभित जल वाले ? गौतम ! बाहर के समुद्र उछलते जल वाले नहीं हैं, स्थिर जल वाले हैं, क्षुभित जल वाले नहीं, अक्षुभित जल वाले हैं । वे पूर्ण हैं , पूरे-पूरे भरे हुए हैं , पूर्ण भरे होने से मानों बाहर छलकना चाहते हैं, विशेष रूप से बाहर छलकना चाहते हैं , लबालब भरे हुए घट की तरह जल से परिपूर्ण हैं। हे भगवन् ! क्या लवणसमुद्र में बहुत से बड़े मेघ सम्मूर्छिम जन्म के अभिमुख होते हैं , पैदा होते हैं अथवा वर्षा बरसाते हैं? हां, गौतम ! वहां मेघ होते हैं और वर्षा बरसाते हैं। हे भगवन् ! जैसे लवणसमुद्र में बहुत से बड़े मेघ पैदा होते हैं और वर्षा बरसाते हैं, वैसे बाहर के . समुद्रों में भी क्या बहुत से मेघ पैदा होते हैं और वर्षा बरसाते हैं ? हे गौतम ! ऐसा नहीं है। हे भगवन् ! ऐसा क्यों कहा जाता है कि बाहर के समुद्र पूर्ण हैं , पूरे-पूरे भरे हुए हैं, मानो बाहर छलकना चाहते हैं , विशेष छलकना चाहते हैं और लबालब भरे हुए घट के सामन जल से परिपूर्ण हैं ? हे गौतम ! बाहर के समुद्रों में बहुत से उदकयोनि के जीव आते-जाते हैं और बहुत से पुद्गल उदक के रूप में एकत्रित होते हैं विशेष रूप से एकत्रित होते हैं, इसलिए ऐसा कहा जाता है कि बाहर के समुद्र पूर्ण हैं, पूरे-पूरे भरे हुए हैं यावत् लबालब भरे हुए घट के समान जल से परिपूर्ण हैं। १७०. लवणे णं भंते ! समुद्दे केवइयं उव्वेह-परिवुड्डीए पण्णत्ते ? . गोयमा ! लवणस्स णं समुदस्स उभओ पासिं पंचाणउई-पंचाणउई बालग्गाइं पदेसे गंता पदेसउव्वेहपरिवुड्डीए पण्णत्ते। पंचाणउइं-पंचाणउई बालग्गं गंता बालग्गं उव्वेहपरिवुड्डीए पण्णत्ते। पंचाणउइं-पंचाणउइं लिक्खाओ गंता लिक्खाउव्वेहपरिवुड्डीए पण्णत्ते। पंचाणउई जवाओ जवमझे अंगुलविहत्थि-रयणो-कुच्छी-धणु ( उव्वेहपरिवुड्डीए) गाउय-जोयण-जोयणसय-जोयणसहस्साई गंता जोयण-सहस्सं उव्वेहपरिवुड्डीए । लवणे णं भंते ! समुद्दे केवइयं उस्सेह-परिवुड्डीए पण्णत्ते ? गोयमा ! लवणस्स णं समुदस्स उभओ पासिं पंचाणउइ पदे से गंता सोलसपएसे उस्सेहपरिवुड्डीए पत्ते। ____ गोयमा! लवणस्स णं समुद्दस्स एएणेव कमेणं जाव पंचाणउई-पंचाणउइं जोयणसहस्साइं गंता सोलसजोयण उत्सेह-परिवुड्डीए पण्णत्ते।। ___१७०. हे भगवन् ! लवणसमुद्र की गहराई की वृद्धि किस क्रम से है अर्थात् कितनी दूर जाने पर कितनी गहराई की वृद्धि होती है?
SR No.003455
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_jivajivabhigam
File Size5 MB
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