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तृतीय प्रतिपत्ति : स्वयंभूरमणद्वीपगत चन्द्र-सूर्यद्वीप]
[२३ पुरस्थिमेणं असखेज्जाइं जोयणसहस्साइं ओगाहित्ता तं चेव। एवं सूराणवि। सयंभूरमणस्स पच्चत्थिमिल्लाओ वेदियंताओ रायहाणीओ सगाणं सगाणं दीवाणं पच्चत्थिमिल्लाणं सयंभूरमणोदं समुदं असंखेजाइं जोयणसहस्साइं ओगाहित्ता सेसं तं चेव।
कहि णं भंते ! सयंभूरमणसमुद्दगाणं चंदाणं चंददीवा णामं दीवा पण्णत्ता ? सयंभूरमणस्स समुद्दस्स पुरथिमिल्लाओ वेइंयताओ सयंभूरमणसमुदं पच्चत्थिमेणं बारस जोयणसहस्साइं ओगाहित्ता, सेसं तं चेव। एवं सूराणवि। सयंभूरमणस्स पच्चत्थिमिल्लाओ वेइयंताओ सयंभूरमणोदं समुदं पुरस्थिमेणं बारस जोयणसहस्साइं ओगाहित्ता, रायहाणीओ सगाणं दीवाणं पुरत्थिमेणं सयंभूरमणं समुदं असंखेज्जाइं जोयणसहस्साइं ओगाहित्ता, एत्थ णं सयंभूरमणसमुद्दगाणं सूराणं जाव सूरा देवा।
१६७. (आ) हे भगवन् ! स्वयंभूरमणद्वीपगत चन्द्रों के चन्दद्वीप नाम द्वीप कहां हैं? गौतम! स्वयंभूरमणद्वीप के पूर्वीय वेदिकान्त से स्वयंभूरमणसमुद्र में बारह हजार योजन आगे जाने पर वहां स्वयंभूरमणद्वीपगत चन्द्रों के चन्द्रद्वीप हैं। उनकी राजधानियां अपने-अपने द्वीपों के पूर्व में स्वयंभूरमणसमुद्र के पूर्व दिशा की असंख्यात हजार योजन जाने पर आती हैं, आदि पूर्ववत् कथन करना चाहिए। इसी तरह सूर्यद्वीपों के विषय में भी कहना चाहिए। विशेषता यह है कि स्वयंभूरमणद्वीप के पश्चिमी वेदिकान्त से स्वयंभरमणसमद्र में बारह हजार योजन आगे जाने पर ये द्वीप स्थित हैं। इनकी राजधानियां अपने-अपने द्वीपों के पश्चिमी में स्वयभूरमणसमुद्र में पश्चिम की ओर असंख्यात हजार योजन जाने पर आती हैं, आदि सब कथन पूर्ववत् जानना चाहिए। __ हे भगवन् ! स्वयंभूरमणसमुद्र के चन्द्रों के चन्द्रद्वीप कहां हैं ? गौतम ! स्वयंभूरमणसमुद्र के पूर्वी वेदिकान्त से स्वयंभूरमणसमुद्र में पश्चिमी की ओर बारह हजार योजन जाने पर ये द्वीप आते हैं, आदि पूर्ववत् कहना चाहिए।
इसी तरह स्वयंभूरमणसमुद्र के सूर्यों के विषय में समझना चाहिए। विशेषता यह है कि स्वयंभूरणसमुद्र के पश्चिमी वेदिकान्त से स्वयंभूरमणसमुद्र में पूर्व की ओर बारह हजार योजन आगे जाने पर सूर्यों के सूर्योद्वीप आते हैं । इनकी राजधानियां अपने-अपने द्वीपों के पूर्व में स्वयंभूरमणसमुद्र में असंख्यात हजार योजन आगे जाने पर आती हैं यावत् वहां सूर्यदेव हैं ।
१६८. अत्थि णं भंते ! लवणसमुद्दे वेलंधराइ वा णागराया खन्नाइ वा अग्धाइ वा सीहाइ वा विजाई वा हासवुड्डीइ वा ? हंता अस्थि !
1.आह च मूलटीकाकारो अपि-"एवं शेषद्वीपगत चन्द्रादित्यानामपि द्वीपा अनन्तरसमुद्रेष्वेवगन्तव्या, राजधान्यश्च तेषां पूर्वापरतो
असंख्येयान् द्वीपसमुद्रान् गत्वा ततोऽस्मिन् सदृशनाम्नि द्वीपे भवन्ति; अन्त्यानिमान् पंचद्वीपान् मुक्त्वा देव-नाग-यक्षभूतस्वयंभूरमणाख्यान्। न तेषु चन्द्रादित्यानां राजधान्यो अन्यस्मिन् द्वीपे, अपितु स्वस्मिन्नेव पूर्वापरतो वेदिकान्तादसंख्येयानि योजनसहस्त्राण्यवगाह्य भवन्तीति।" इह सूत्रेषु बहुधा पाठभेदा, परमेतावानेव सर्वत्राप्यर्थोऽनर्थभेदान्तरमित्येतद्व्याख्यानुसारेण
सर्वेऽपि अनुगंतव्या न मोग्धव्यमिति। २. आह य चूर्णिकृत्--"अग्धा खन्ना सीहा विजाइं इति मच्छकच्छभा।"