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________________ १३४] [ जीवाजीवाभिगमसूत्र और वृहत्प्रमाण होने से "गोलक" कहे जाते हैं । निगोद का अर्थ है अनन्तजीवों का एक शरीर । ऐसे असंख्येय गोलक हैं और एक-एक गोलक में असंख्येय निगोद हैं और एक-एक निगोद में अनन्त जीव हैं ।" एक निगोद में जो अनन्त जीव हैं उनका असंख्यातवां भाग प्रतिसमय उसमें से निकलता है और दूसरा असंख्यातवां भाग वहां उत्पन्न होता है। प्रत्येक समय यह उद्वर्तन और उत्पत्ति चलती रहती है। जैसे एक निगोद में यह उद्वर्तन और उपपात का क्रम चलता रहता है, वैसे ही सवलोकव्यापी निगोदों में यह उद्वर्तन और उपपात क्रिया प्रतिसमय चलती रहती है । अतएव सब निगोदों और निगोद जीवों की स्थिति अन्तर्मुहूर्त मात्र कही है। अत: सब निगोद प्रतिसमय उद्वर्तन एवं उपपात द्वारा अन्तर्मुहूर्त मात्र समय में परिवर्तित हो जाते हैं, लेकिन वे शून्य नहीं होते। केवल पुराने निकलते हैं और नये उत्पन्न होते हैं । इसी प्रकार सात सूत्र अपर्याप्त सूक्ष्मों के और सात सूत्र पर्याप्त सूक्ष्मों के कहने चाहिए। सर्वत्र जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त मात्र ही है । २१५. सुहुमे णं भंते! सुहुमेत्ति कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं असंखेज्जकालं जाव असंखेज्जा लोया । सव्वेसिं पुढविकालो जाव सुहुमणिओयस्स पुढविकालो | अपज्जत्तगाणं सव्वेसिं जहण्णेणवि उक्कोसेणवि अंतोमुहुत्तं; एवं पज्जत्तगाणवि सव्वेसिं जहणणेणवि उक्कोसेणवि अंतोमुहुत्तं । २१५. भगवन्! सूक्ष्म, सूक्ष्मरूप में कितने काल तक रहता है? गौतम ! जघन्य अन्तमुहूर्त तक और उत्कृष्ट असंख्यातकाल तक रहता है । यह असंख्यातकाल असंख्येय उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी रूप है तथा असंख्येय लोकाकाश के प्रदेशों के अपहारकाल के तुल्य है । इसी तरह सूक्ष्म पृथ्वीकाय अप्काय तेजस्काय वायुकाय वनस्पतिकाय की संचिट्ठणा का काल पृथ्वीकाल अर्थात् असंख्येयकाल है यावत् सूक्ष्म- निगोद की कायस्थिति भी पृथ्वीकाल है । सब अपर्याप्त सूक्ष्मों की कायस्थिति जघन्य और उत्कृष्ट अन्तमुहूर्त प्रमाण ही है । २१६. सुहुमस्स णं भंते! केवइयं कालं अंतरं होइ ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं; कालओ असंखेज्जाओ उस्सप्पिणी-ओसप्पिणीओ, खेत्तओ अंगुलस्स असंखेज्जइभागो । सुहुमवणस्सइकाइयस्स सुहुमणिगोदस्सवि जाव असंखेज्जइ १. गोला य असंखेज्जा, असंखनिगोदो गोलओ भणिओ । एक्किक्कंमि निगोए अनंत जीवा मुणेयव्वा ॥१॥ एगो असंखभागो वट्ट उव्वट्टणोववायम्मि । एग णिगोदे णिच्चं एवं सेसेसु वि स एव ॥२॥ अंतमुत्तमेत्तं ठिई निगोयाण जंति णिद्दिट्ठा । पल्लटंति निगोया तम्हा अंतोमुहुत्तेणं ॥३॥ -वृति
SR No.003455
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_jivajivabhigam
File Size5 MB
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