SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 79
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ जीवाजीवाभिगमसूत्र वारूणिवरे णं दीवे कइ चंदा पभासिंसु ३ ? सव्वं जोइससंखिज्जगेण णायव्वं । ' १८०. (इ) वरूणोद नामक समुद्र, जो गोल और वलयाकार रूप से संस्थित है, वरूणवरद्वीप को चारों ओर से घेरकर स्थित है । वह वरूणोदसमुद्र समचक्रवालसंस्थान से संस्थित है, विषमचक्रवालसंस्थान से संस्थित नहीं है इत्यादि सब कथन पूर्ववत् कहना चाहिए । विष्कंभ और परिधि संख्यात लाख योजन की कहनी चाहिए। पद्मवरवेदिका, वनखण्ड, द्वार, द्वारान्तर, प्रदेशों की स्पर्शना, जीवोत्पत्ति और अर्थ सम्बन्धी प्रश्न पूर्ववत् कहना चाहिए । भगवन् ! वरूणोदसमुद्र, वरूणोदसमुद्र क्यों कहलाता है? ६० ] गौतम ! वरूणोदसमुद्र का पानी लोकप्रसिद्ध चन्द्रप्रभा नामक सुरा, मणिशलाकासुरा, श्रेष्ट सीधुसुरा, श्रेष्ठ वारूणीसुरा, धातकीपत्रों का आसव, पुष्पासव, चोयासव, फलासव, मधु, मेरक, जातिपुष्प सें वासित प्रसन्नासुरा, खजूर का सार, मृद्धीका ( द्राक्षा) का सार, कापिशायनसुरा, भलीभांति पकाया हु इक्षु का रस, बहुत सी सामग्रियों से युक्त पौष मास में सैकड़ों वैद्यों द्वारा तैयार की गई, निरूपहत और विशिष्ट कालोपचार से निर्मित, पुनः पुनः धोकर उत्कृष्ट मादक शक्ति से युक्त, आठ बार पिष्ट (आटा) प्रदान से निष्पन्न, जम्बूफल कालिवर प्रसन्न नामक सुरा, आस्वाद वाली गाढ पेशल (मनोज्ञ), अति प्रकृष्ट रसास्वाद वाली होने से शीघ्र ही ओठ को छूकर आगे बढ़ जाने वाली, नेत्रों को कुछ-कुछ लाल करने वाली, इलायची आदि से मिश्रित होने के कारण पीने के बाद थोड़ी कटुक ( तीखी) लगने वाली, वर्णयुक्त, सुगन्धयुक्त, सुस्पर्शयुक्त, आस्वादनीय, विशेष आस्वादनीय, धातुओं को पुष्ट करने वाली, दीपनीय (जठराग्नि को दीप्त करने वाली), मदनीय (काम पैदा करने वाली) एवं सर्व इन्द्रियों और शरीर में आह्लाद उत्पन्न करने वाली सुरा आदि होती है, क्या वैसा वरूणोदसमद्र का पानी है ? गौतम ! नहीं ! वरूणोदसमुद्र का पानी इनसे भी अधिक इष्टतर, कान्ततर, प्रियतर, मनोज्ञतर और मनस्तुष्टी करने वाला है । इसलिए वह वरूणोदसमुद्र कहा जाता है। वहां वारूणि और वारूणकांत नाम के दो देव महर्द्धिक यावत् पल्योपम की स्थिति वाले रहते हैं । इसलिए भी वह वरूणोदसमुद्र कहा जाता है । अथवा हे गौतम! वरूणोदसमुद्र (द्रव्यापेक्षया) नित्य है, वह सदा था, है और रहेगा इसलिए उसका यह नाम भी शाश्वत होने से अनिमित्तिक है । भगवन् ! वरूणोदसमुद्र में कितने चन्द्र प्रभासित होते थे, होते हैं और होंगे - इत्यादि प्रश्न करना चाहिए। अणिहुयसंलावकरणहरिसपीइजणणी संतोसतक विवोक्क हाव-विव्भम-विलास - वेल्ल-हल-गमणकरणी विरणमधियसत्तजणणी य होइ संगाम देसकालेकयरणसमरपसरकरणी कढियाणविज्जुपयतिहिययाण मउयकरणीय होइ उववेसिया समाणा गतिं खलावेति य सयलंमिवि सुभासवुप्पालिया समरभग्गवणोसहयारसुरभिरसदीविया सुगंधा आसायणिज्जा विस्सायणिज्जा पीणणिज्जा दप्पणिज्जा मयणिज्जा सव्विंदियगायपल्हायणिज्जा ।) १.‘सव्वं जोइससंखिज्जकेण णायव्वं वारूणवरे णं दीवे कइ चंदा पभासिंसु वा ३' ऐसा प्रतियों में पाठ है। संगति की दृष्टि से उक्त पाठदिया गया है। -सम्पादक
SR No.003455
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_jivajivabhigam
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy