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अर्थात् मनोयोग, वचनयोग के पुद्गल चतुःस्पर्शी है तथा द्रव्य काययोग अष्टस्पर्थी है ।
नहीं है ।
प्रमत्त संयत शुभयोग की अपेक्षा अनारंभी है, आत्मारंभी, परारंभी, तदुभयारंभी
पुलाक निर्यथ सयोगी है, अयोगी नहीं है । वे सयोगी - मनोयोगी, वचनयोगी, काययोगी होते हैं । इसी प्रकार वुक्कस, प्रतिसेवना, कषायकुशील व निग्रंथ के विषय में जानना चाहिए। स्नातक-सयोगी - अयोगी दोनों होते हैं ।
यद्यपि लेश्या, योग, अध्यवसाय के स्थान असंख्यात स्थान होते हैं । पर्याय अनंत होती है । संयम के भी स्थान असंख्यात होते हैं परन्तु पर्याय अनंत होती है । जाति - स्मरण ज्ञान, विभंग ज्ञान, अवधि ज्ञान, मनः पर्यवज्ञान, केवलज्ञान तथा गुणस्थान ऊर्ध्वारोहण के समय प्रशस्त अध्यवसाय, विशुद्धमान लेश्या के साथ शुभयोग होते हैं । इन सबकी प्राप्ति के समय शुभयोग होना ही चाहिये। सम्यक्त्व की प्राप्ति के समय भी शुभयोग होता ही है । आगमों में असंज्ञी तिर्यंच पंचेन्द्रिय में तीन अशुभ लेश्याओं का उल्लेख है लेकिन अध्यवसाथ प्रशस्त अप्रशस्त दोनों हैं । लेश्या सेव, योग से अध्यवसाय सूक्ष्मतर है। फिर भी विशुद्धमान लेश्या के साथ प्रशस्त अध्यवसाय का उल्लेख मिलता है । अध्यवसाय हमारी सूक्ष्मतर चेतना है। अग्निकाय, वायुकाय के जीवों में तीन अशुभ लेश्या का विवेचन है परन्तु उनमें अध्यवसाय प्रशस्त भी हो सकते हैं, अप्रशस्त भी हो सकते हैं ।
1 मन
एक ऐसी स्थिति भी बनती है लेश्या के द्वारा कर्म का बंध नहीं होता परन्तु योग रहते हुए कर्म का बंध अनिवार्य रूप से होगा । द्रव्यलेश्या के पुद्गल अष्टस्पर्शी है परन्तु द्रव्ययोग के पुद्गल चतुःस्पर्शी भी होते हैं । लेश्या भाव चेतना का सूक्ष्म-स्तर है। वचन काय की प्रवृत्ति को योग कहते हैं । फिर भी लेश्या और योग का क्या - क्या होना चाहिए— इस पर अभी तक सम्यग् प्रकार शोध नहीं हुआ है । लेश्या और योग चौदहवें गुणस्थान में नहीं है परन्तु शुद्ध ध्यान है। चौदहवें गुणस्थान में भी कर्मों से छुटकारा नहीं मिलता । यह निश्चित है कि जिसके कर्म नहीं है उसके न ध्यान है, न योग है, न लेश्या है, न अध्यवसाय है । अतः सिद्धावस्था में न ध्यान है, न योग है, न लेश्या है, न अध्यवसाय है । पृथ्वी काय की अपर्याप्त अवस्था में लेश्या तीन अशुभ होती है परन्तु अध्यवसाय प्रशस्त भी होते हैं, अप्रशस्त भी होते हैं ।
जब तक योग है तब तक लेश्या रहती है। योग के अभाव - चौदहवें गुणस्थान में लेश्या नहीं होती है । लेश्या योगान्तर्गत द्रव्य रूप है। योगान्तर्गत पुद्गल आत्मा में रही हुई कषाय को बढ़ाते हैं । जैसे पित्त के प्रकोप से क्रोध की वृद्धि होती है ।
व्यसुर कुमारों में उत्पन्न होने वाले पर्याप्त असंशी पंचेन्द्रिय तिर्यच योनिक के चौथे, पांचवे तथा गमक में अध्यवसाय प्रशस्त होते हैं ।
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