________________ व्यक्तिधर्म कहाँ तो जैनधर्मकी यह मान्यता कि आर्य और म्लेच्छ सभी मनुष्य मुनिधर्मके अधिकारी हैं और कहाँ महापुराणकी यह व्यवस्था कि द्विजवर्णके मनुष्य ही श्रावक और मुनिदीक्षाके अधिकारी हैं। कहाँ तो जैनधर्मका यह उपदेश कि जो नीचगोत्री मनुष्य मुनिधर्म स्वीकार करते हैं उनका उसे स्वीकार करते समय ही नीचगोत्र बदलकर उच्च गोत्र हो जाता है और कहाँ महापुराणकी यह व्यवस्था कि प्रत्येक वर्ण जन्मसे होता है और शुद्ध 'न तो अपना कर्म ही बदल सकते हैं और न धर्ममें उच्चपदके अधिकारी ही हो सकते हैं / कहाँ तो जैनधर्मका यह उपदेश कि दान और पूजा यह प्रत्येक गृहस्थका दैनिक कर्तव्य है और कहाँ महापुराणकी यह व्यवस्था कि पूजा और दान आदि कर्मोंका अधिकारी एकमात्र द्विज है। कहाँ तो जैनधर्मकी यह सारगर्भित देशना कि चाण्डाल भी व्रतोंको स्वीकार कर ब्राह्मण हो जाता है और कहाँ महापुराणकी यह व्यवस्था कि उपनयन संस्कार करनेसे ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य ही द्विज संज्ञाको प्राप्त होते हैं / विचार करनेसे विदित होता है कि महापुणकी पूर्वोक्त व्यवस्थाओं के कारण ही जैनधर्ममें शूद्रोंको उनके दैनन्दिनके पूजा आदि वैयक्तिक धार्मिक कर्तव्योंसे वञ्चित किया जाने लगा है। किन्तु जैसा कि हम पूर्वमें बतला श्राये हैं कि जिनबिम्बदर्शन भी सम्यक्त्वकी उत्पत्तिका एक निमित्त है और सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्रकी प्राप्ति चाण्डाल आदि शूद्रोंको भी होती है, क्योंकि वे गर्भज है, संज्ञी हैं और पर्याप्त हैं। उन्होंने सम्यग्दर्शनकी प्राप्तिके लिए जो जन्मसे आठ वर्ष काल होना चाहिए वह भी पूरा कर लिया है तथा अन्य वर्णवालोंके समान उनकी भी काललब्धि आ गई हो सकती है, इसलिए वे गृहस्थोंके पूजा आदि सब कर्तव्यों के अधिकारी तो हैं हो / साथ ही यदि उन्हें संसार, देह और भोगोंसे वैराग्य / हो जाय तो वे मुनिपदके भी अधिकारी हैं। लौकिक कर्म जो उनकी . 1. सागारधर्मामृत अ० 2 श्लो० 22 /