Book Title: Varn Jati aur Dharm
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 404
________________ 402 वर्ण, जाति और धर्म होकर भी दुर्भग होता है और कोई अकुलीन होकर भी सुभग होता है। स्वयंवरमें कुलका और सौभाग्यका किसी प्रकारका प्रतिबन्ध नहीं है // 55 // -हरिवंशपुराण सर्ग 31 सद्वेद्यचारित्रमोहोदयाद्विवहनं विवाहः / परस्य विवाहः परविवाहः / तस्य करणं परविवाहकरणम् / अयनशीला इत्वरी / सैव कुत्सिता इत्वरिका। तस्यां परिगृहीतायामपरिगृहीतायां च गमनमित्वरिकापरिगृहीतापरिगृहीतागमनम्। / सातावेदनीय और चारित्रमोहनीयके उदयसे विवहन अर्थात् स्वीकार करना विवाह है, परका विवाह परविवाह है तथा उसका करना परविवाह. करण है। इत्वरी शब्दका व्युत्पत्ति लम्य अर्थ है-अयनशीला अर्थात् गमन करनेरूप स्वभाववाली। वह यदि अत्यन्त गलत मार्गसे गमन करे तो इत्वरिका कहलाती है। वह दो प्रकारकी होती है-परिगृहीता और अपरिगृहीता। इन दोनों प्रकारकी स्त्रियोंमें गमन करना इत्वरिकापरिगृहीतागमन और इत्वरिकाअपरिगृहीतागमन है। (ये अतीचार स्वदारसन्तोष या परस्त्रीत्याग व्रतके जानने चाहिए ) / -त० सू०, अ० 7 सू० 28 श्लोकवार्तिक विवाहपूर्वो व्यवहारश्चातुर्वण्यं कुलीनयति // 2 // विवाहपूर्वक व्यवहार चार वर्णके मनुष्योंको कुलीन रखता है // 2 // एतदुक्तं भवति-अनुवयं ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यशूद्राणां वर्णतया योऽसौ विवाहस्तत्र तत्सन्तानं भवति तत्स्वकुलधर्मेण वर्तत इति न कदाचिद्वयभिचरति / ___ तात्पर्य यह है अनुवर्ण्य अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रोंका जो अपने-अपने वर्णके अनुसार विवाह होकर सन्तान होती है वह अपने अपने कुलधर्मके अनुसार चलती है, उसका कदापि उल्लंघन नहीं करती। -टीका सूत्र 2

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